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कहानी- धुंधलका (Short Story- Dhundhlka)

“अब तक तो खुले आसमान के नीचे रहकर भी उम्रकैद भुगत रही थी मैं. सारी ख़ुशियां, सारी इच्छाएं इतने सालों से पता नहीं देह के किस कोने में क़ैद थीं. तुम्हारा ही इंतज़ार था शायद.” और यही अपर्णा, जिसने मुझे सिखाया कि दोस्ती के बीजों की परवरिश कैसे की जाती है, वह जा रही थी. उसी ने कहा था, इस परवरिश से मज़बूत पेड़ भी बनते हैं और महकती नर्म नाज़ुक बेल भी.

अपर्णा आज रात की फ्लाइट से बोस्टन जा रही है. पता नहीं, अब कब मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं. मैं नहीं चाहता कि वह जाए. मुझे पक्का यक़ीन है कि वह भी नहीं चाहती, लेकिन अपनी बेटी की वजह से जाना ही है उसे. अपर्णा ने कहा था, “सौरभ, अकेले पैरेंट की यही समस्या होती है. फिर कोयल तो मेरी इकलौती बेटी है. एक-दूसरे के बिना हम नहीं रह सकते. एक वक़्त के बाद शायद वह अकेले रहना सीख जाए, पर मैं तो बिल्कुल नहीं एडजस्ट कर सकती. इधर वह कुछ ज़्यादा ही इन्सिक्योर फील करने लगी है. पिछले दो-तीन साल में उसमें बहुत बदलाव आया है. यह बदलाव उम्र का भी है. फिर भी मैं नहीं चाहती कि वह कुछ ऐसा सोचे या समझे, जो हम तीनों के लिए तकलीफ़देह हो.” मैं उसे देखता रहा.
पिछले दो साल से उसमें बदलाव आया है यानी कि जब से मैं अपर्णा से मिला हूं. हो सकता है कि उसकी बात का मतलब यह न हो, पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा-दुख हुआ. अपर्णा ने मेरा चेहरा पढ़ लिया था, “सौरभ, तुम्हें छोड़कर जाने का दुख मुझे भी है. दरअसल कोयल वहीं पढ़ना चाहती है. कुछ साल पहले जब उसकी कज़िन वहां से आई थी तभी से उसने मन बना लिया था. अब मेरे लिए अपना नहीं कोयल का करियर ज़्यादा ज़रूरी है.”
“कोयल हॉस्टल में भी रह सकती है... तुम्हारा जाना ज़रूरी है?” मैंने अपर्णा का हाथ पकड़ते हुए कहा था. उसकी पनीली आंखें देखकर मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आ गया. मैं कितना स्वार्थी हो गया हूं. वैसे भी मैं उसे किस हक़ से रोक सकता हूं? सब कुछ होते हुए भी वह मेरी क्या है, आज समझ में आ रहा है. हम दोनों की एक-दूसरे की ज़िन्दगी में क्या जगह है? दोनों के रिश्ते का दुनिया की नज़र में कोई नाम भी नहीं है. अगर मेरे सामने यही हालात होते तो? मेरी बीवी की कोई समस्या या मेरी ही बेटी को जाना होता पढ़ने तो? क्या मैं भेज देता झट से उसे बोस्टन या किसी भी हॉस्टल में? मैं आसपास के शहर में भी नहीं भेज पाता.
मुझे चुप देखकर अपर्णा ने भरे और नर्म स्वर में कहा था, “हमें अच्छे और प्यारे दोस्तों की तरह अलग होना चाहिए. इन दो सालों में तुमने बहुत कुछ किया है मेरे लिए... तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता. तुम समझ सकते हो मुझे कैसा लग रहा होगा... तुम भी ऐसे उदास हो जाओगे तो मैं कैसे जा पाऊंगी भला?” उसके चेहरे पर उदासी छा गई. कितनी जल्दी रंग बदलती है उसके चेहरे की धूप. रंग ही बदलती है, साथ नहीं छोड़ती. अन्धेरे को नहीं आने देती अपनी जगह.


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मैं उसे उदास नहीं देख सकता. मुस्कुराते हुए कहा था, “दरअसल बहुत प्यार करता हूं न तुम्हें, इसीलिए पजेसिव हो गया हूं और कुछ नहीं. तुमने बिल्कुल ठीक फ़ैसला किया है. मैं तुम्हें जाने से रोक नहीं रहा, पर इस फ़ैसले से ख़ुश भी कैसे हो सकता हूं.” यह कहकर मैं एकदम उठकर अपने चैम्बर में आ गया. अपने इस बर्ताव पर मुझे ख़ुद पर बहुत ग़ुस्सा आया. मुझे उसे दुखी नहीं करना चाहिए.
यह वही अपर्णा तो है, जिसने पिछली बार अपना प्रमोशन स़िर्फ इसीलिए छोड़ दिया था, क्योंकि उसे दूसरे शहर जाना पड़ता और वह मुझे छोड़कर जाना नहीं चाहती थी. तब मैं उसे जाने के लिए कहता रहा था.
“तुम्हें कहां पाऊंगी वहां?” उसकी आंखें घने बादलों से ढंकी शाम हो गई थीं जैसे. जब मैं अपनी कम्पनी की इस ब्रांच में नया-नया आया था, अच्छा-भला था. अपने काम और परिवार में मस्त. घर में सारी सुख-सुविधाएं थीं. बीवी और दो बच्चों का वह परिवार जो अमूमन सुखी कहलाता है, सुखी ही था. हां, मेरी कस्बाई तौर-तरीक़ोंवाली बीवी मुझे कभी-कभी निराश कर देती थी. और वह शादी के बाद से ही ख़ुद को बदलने में लगी है. पता नहीं यह प्रक्रिया कब ख़त्म होगी. शायद कभी नहीं.
बच्चे हर लिहाज़ से एक उच्च अधिकारी के बच्चे दिखते हैं. मानसिकता तो मेरी भी न पूरी तरह महानगरीय है, न ही कस्बाई पूर्वाग्रहों से पीछा छूटता है मेरा. मेरा टूटा-फूटा घर और गांव-कस्बा हमेशा मुझ पर हावी रहा. कुछ मामलों में अभी तक यहीं आकर अटक जाता था. वह तो मेरे छोटे-से कस्बे की तारीफ़ें और वहां के माहौल की बातें सुनकर अपर्णा ने मुझे काफ़ी हद तक बदल दिया था.
उसने कहा था, “तुम्हारे जैसे लोग पढ़ने-लिखने बड़े शहरों के कॉलेज और हॉस्टल में आते हैं. नौकरी उससे भी बड़े शहर में ढूंढ़ते हैं. इन शहरों में पैसा कमाते हैं, ऐश करते हैं, लेकिन बातें टूटे-फूटे घरों, फटे कपड़ों और गिरवी पड़े खेतों की ही करते हैं. तुम भी वैसे ही हो. यहां रहकर यहां की कितनी बुराइयां करते हो. अरे, हम लोग तुम्हारे गांव-कस्बों की पैरवी नहीं करते, तो गालियां भी तो नहीं देते. यहां रहकर अमीरों को कोसने से अच्छा है कि उन ग़रीबों के लिए वाकई कुछ करो, जिनकी सिर्फ़ बातें ही करते हो.” मैं उसका मुंह देखता रह गया.
मैंने तो बड़े जोश से बोलना शुरू किया था, उसे इम्प्रेस करने के लिए. वह ठीक ही तो कह रही थी. आगे से मैंने ऐसी बातें करना बंद कर दिया था. अब उन लोगों से भी झगड़ा हो जाता था, जो ऐसी भाषणबाजी करते थे.
कितनी अलग लगी थी अपर्णा ऐसी बातें करते हुए? पहले मैं क्या-क्या सोचता था उसके बारे में. इस ऑफिस में पहले दिन अपर्णा राजदान को देखा तो आंखों में चमक आ गाई थी. चलो रौनक़ तो है. तन-मन दोनों की सेहत ठीक रहेगी. पहले दिन तो उसने देखा तक नहीं. बुझ-सा गया मैं. फिर ‘ऐसी भी क्या जल्दी है’ सोचकर तसल्ली दी ख़ुद को. पहले पता तो चल जाए कि चीज़ क्या है यह, फिर उसी हिसाब से पटाया जाए.
उससे अगले दिन फॉर्मल इन्ट्रोडक्शन हुआ था. हाथ मिलाते हुए बड़ी प्यारी मुस्कान आई थी उसके होंठों पर. देखता रह गया मैं. कुल मिलाकर मैं इस नतीज़े पर पहुंचा कि यह मस्ती करने के लिए बहुत बढ़िया चीज़ है. ऑफिस में भी उसके बारे में कोई बहुत अच्छी राय नहीं थी. ख़ासतौर से मर्दों में. उन्हें झटक जो देती थी वह, अपने माथे पर आए हुए बालों की तरह. खैर, कभी-कभी की हाय-हैलो, गुड मार्निंग में बदली. एक दिन उसने चाय के लिए कहा. उसी के चैम्बर में बैठे थे हम. मुझे बात बनती-सी नज़र आई थी, पर तभी चोपड़ा साहब आ पहुंचे थे. कई बातें हुईं, पर मेरे मतलब की कोई नहीं. मैंने मन ही मन हज़ारों गालियां दे डाली थीं उन्हें.
आगे चलकर चाय-कॉफी का दौर जब बढ़ गया, तो अतुल सिन्हा ने कहा था, “सिर्फ़ चाय तक ही हो या आगे भी बढ़े हो...” मैंने गर्दन अकड़ा ली और टेढ़ी-सी स्माइल दी. मैं ख़ुद को यक़ीन दिलाने में जुटा रहता कि मैं उसे कुछ ज़्यादा ही पसंद हूं. कभी कोई कह देता, सिगरेट-शराब पीती है. तो कोई कह देता ढेरों मर्द हैं इसकी मुट्ठी में. कोई कहता, “साड़ी देखो, कहां बांधती है? सेंसर बोर्ड इसे नहीं देखता क्या?” जवाब आता, “इसे जी.एम.देखता है न!” ऐसी बातें मुझे उत्तेजित कर जातीं.
कब वह आएगी मेरे हाथ? और तो और अब तो मुझे अपनी बीवी के सारे दोष जो मैं भूल चुका था या अपना चुका था, कांटों की तरह चुभने लगे. उसे देखता तो लगता कि कैक्टस पर पांव आ पड़ा है. कितनी अलग है वह अपर्णा से. कितना फ़र्क़ है दोनों में. पहला फ़र्क़ तो बीवी होने का ही था. बीवियां ऐसी क्यों होती हैं? वह कितनी सख़्त दिल और अपर्णा में कितनी नर्मी. वह किसी शिकारी परिन्दे-सी चौकस और चौकन्नी... और अपर्णा नर्म-नाज़ुक प्यारी मैना-सी. कुछ ख़बर रखने की कोशिश नहीं करती कि कहां क्या हो रहा है और कोई उसके बारे में क्या कह रहा है.
अपर्णा का फिगर कमाल का. ग्रेट! और इसे लाख कहता हूं एक्सरसाइज़ करने को, डाइटिंग करने को पर नहीं. कैसी लगेगी वह नीची साड़ी में? उसकी कमर तौबा? मोटी तो नहीं है, पर शरीर में कोई कर्व ही नहीं. यह सब दिखने के बाद भी घर में मेरा बिहेवियर ठीक रहा. मैंने उस पर कुछ भी ज़ाहिर नहीं होने दिया. एक दिन अपर्णा ने पूछ ही लिया परिवार के बारे में. मैंने बताया कि बीवी के अलावा एक बेटा और एक बेटी है. तो उसने भी बताया कि उसकी भी एक बिटिया है. कोयल नाम है उसका. पति के बारे में न उसने कुछ बताया, न ही मैंने पूछा. पूछकर मूड नहीं ख़राब करना चाहता था. हो सकता है कह देती, “मैं आज जो कुछ हूं न उन्हीं की वजह से हूं या बहुत प्यार करते हैं मुझे. उनके अलावा मैं कुछ सोच ही नहीं सकती.” अमूमन बीवियां यही कहती हैं. मेरे ख़्याल से पति भी. ऐसे ही कहने के लिए या सच में? हां, अगर वह ऐसा कह देती तो यह जो थोड़ी-बहुत नज़दीकी बढ़ रही है, वह भी ख़त्म हो जाती.

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लेकिन एक बात हुई थी, वह मुझे कहीं से भी वैसे नहीं लग रही थी, जैसा सब कहते थे. पहली बार मुझे लगा कि मैं अपर्णा के जिस्म के अलावा कुछ और भी सोच सकता हूं. क्या मेरी राय बदल रही थी? फिर ऑफिस की ओर से न्यू ईयर की पार्टी अरेंज की गई थी. अपर्णा गज़ब की ख़ूबसूरत लग रही थी. उसने गुलाबी रंग की पारदर्शी साड़ी पहनी हुई थी, लो कट ब्लाउज़ के साथ. कैसे बेतकल्लुफ़ी से वह सिगरेट पी रही थी. उसने जिन भी पी थी शायद. मेरी सोच फिर डगमगा सी गई.
अजीब-सी ख़ुशी भी हो रही थी, एक उत्तेजना भी थी. यह तो बहुत बाद में जान पाया कि सिगरेट-शराब पीने से औरत बदचलन नहीं हो जाती. अगली सुबह अपर्णा फिर वैसी की वैसी. पहले जैसी, थोड़ी सोबर, थोड़ी चंचल. चाय पीते हुए मैंने उससे कहा, “कल तुम बहुत ख़ूबसूरत और ग्रेसफुल लग रही थीं. मैंने पहली बार किसी औरत को इतनी सिगरेट-शराब पीते देखा है. कुछ ख़ास था कल तुममें.” अपर्णा ने आंखें फैलाते हुए कहा, “मैं तुम्हें शराब पीते हुए ग्रेसफुल लगी? वेरी स्ट्रेंज, बट दिस इज़ ए नाइस कॉम्पलीमेंट. मैं तो उम्मीद कर रही थी कि आज सुनने को मिलेगा, “जानेमन कल बहुत मस्त लग रही थी या क्या चीज़ है यार यह औरत भी.” उसकी हंसी रोके न रुक रही थी. अब मैं उससे कैसे कहूं कि मैं भी उन्हीं मर्दों में से एक था. मस्त तो लग ही रही थी. चीज़ तो मैं भी कहता था उसे. अगले दिन उसने अपनी बेटी कोयल के जन्मदिन पर बुलाया था.
“सुनो, मैंने सिर्फ़ तुम्हें ही बुलाया है. मेरा मतलब ऑफिस में से. और एक नवनीता को. नवनीता को तो खैर आना ही है. वह नहीं तो बर्थडे नहीं.” मेरी उत्सुकता चौकन्नी हो गई थी. उसकी चमकती आंखों में क्या था, मेरे प्रति भरोसा या कुछ और? क्यों सिर्फ़ मुझे ही बुलाया है? उसे लेकर अतुल सिन्हा से झगड़ा भी कर बैठा.
“क्यों, पटा लिया तितली को?” कितने गंदे तरीक़े से कहा था उसने.
“किसकी और क्या बात कर रहे हो?”
“उसकी, जिससे आजकल बड़ी घुट-घुटकर बातें हो रही हैं. वही जिसने सिर्फ़ तुम्हें दावत दी है. गज़ब की चीज़ है न?” बस बात तो बढ़नी ही थी और अच्छे-ख़ासे झगड़े में भी बदल गई थी. मैं यह सब न चाहता था, न ही कभी मेरे साथ यह सब हुआ था. ख़ुद पर ही शर्म आ रही थी मुझे. मैं सोचता रहा, हैरान होता रहा कि यह सब क्या हो गया. क्यों बुरा लगा मुझे? ख़ैर, इन सारी बातों के बावजूद मैं गया था. नवनीता की मदद से कोयल के लिए ड्रेस ख़रीदी थी. उसी ने बताया था कि इस जन्मदिन पर पंद्रह साल की हो जाएगी वह. मेरी आंखों के सामने मेरी बेटी का चेहरा आ गया. वह भी तो इसी उम्र की है. मैंने देखा था कि कोयल के दोस्तों के अलावा मैं और नवनीता ही आमंत्रित थे. नवनीता को तो होना ही था, बस मैं ही था. अच्छा भी लगा और अजीब भी.
थोड़ी देर बाद पूछा था मैंने, “कोयल के पापा कहां हैं?”
“हम अलग हो चुके हैं. उन्होंने दूसरी शादी भी कर ली है. मैं अपनी बिटिया के साथ रहती हूं.” कायदे से, अपनी मानसिकता के हिसाब से तो मुझे यह सोचना चाहिए था कि तलाक़शुदा औरत और ऐसे रंग-ढंग? कहीं कोई दुख-तकलीफ़ नज़र नहीं आती. ऐसे रहा जाता है भला? जैसे कि तलाक़शुदा या विधवा होना कोई कसूर हो जाता है और ऐसी औरतों को रोते-बिसूरते ही रहना चाहिए. लेकिन यह जानकर पहली बात मेरे मन में आई थी कि तभी इतना कॉन्फ़ीडेंस है. आज के वक़्त में अकेले रहते हुए अपनी बच्ची की इतनी सही परवरिश करना वाकई सराहनीय बात है. वह मुझे और ज़्यादा अच्छी लगने लगी, बल्कि इज़्ज़त करने लगा मैं उसकी. एक और बात भी आई थी मन में कि ऐसी ख़ूबसूरत और अक्लमंद बीवी को छोड़ने की क्या वजह हो सकती है. अब मैं उसके अंदर की अपर्णा तलाशने में लग गया. उसके जिस्म का आकर्षण ख़त्म तो नहीं हुआ था, पर मैं उसके मन से भी जुड़ने लगा था. मेरी आंखों की भूख, मेरे जिस्म की उत्तेजना पहले जैसी न रही. हम काफ़ी क़रीब आते गए थे.
मैं उसके घर भी जाने लगा था कभी-कभार. उसने भी आना चाहा था, पर मैं टालता रहा. अब उसे लेकर मैं पहले की तरह नहीं सोचता था. मैं उसे समझना चाहता था. एक शाम को कोयल का फोन आया था, “अंकल, मां को बुखार है, नवनीता आंटी हैं नहीं शहर में. आप आ सकते हैं क्या?” चार-पांच दिन लग गए थे उसे ठीक होने में. मैं अच्छी तरह से उसकी देखभाल करता था और वह मना भी नहीं करती थी. हम दोनों को ही अच्छा लग रहा था. इस दौरान कितनी बार मैंने उसे छुआ. दवा पिलाई. सहारा देकर उठाया-बिठाया, लेकिन मन बिल्कुल शांत रहा. उस दिन वह काफ़ी ठीक लग रही थी. मेरे आने पर उसी ने चाय बनाई. चाय पीकर वह मेरे एकदम पास बैठ गई. उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरे कंधे से सिर टिकाकर बैठ गई. मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया. कभी उसका हाथ तो कभी बाल सहलाता रहा. तभी मैं उठने लगा तो वह लिपट गई मुझसे. पिंजरे से छूटे परिंदे की तरह. एक अजीब-सी बेचैनी दोनों महसूस कर रहे थे. मैंने उसे हल्के से चूम लिया और घर आ गया. मैं बदल गया था क्या? सारी रात सुबह के इंतज़ार में काट दी.
सुबह अपर्णा ऑफिस आई थी. बदली-बदली सी लगी वह. कुछ शर्माती-सी, कुछ ज़्यादा ही ख़ुश. उसके चेहरे की चमक मुझे बता रही थी कि उसके मन की ज़मीन को छू लिया है मैंने. मुझे समझ में आ रही थी यह बात, यह बदलाव. अपर्णा से मिलकर मैंने यह भी जाना था कि कोई भी रिश्ता मन की ज़मीन पर ही जन्म लेता है और पनपता है. सिर्फ़ देह का देह से रिश्ता रोज़ जन्म लेता है और रोज़ दफ़न भी हो जाता है. रोज़ दफ़नाने के बाद रोज़ कब्र से कोई कब तक निकालेगा उसे. इसलिए जल्दी ही ख़त्म हो जाता है यह... कितनी ठीक थी यह बात. मैं ख़ुद ही मुग्ध था अपनी इस खोज से. फिर मन से जुड़ा रिश्ता देह तक भी पहुंचा था. कब तक काबू रखता मैं ख़ुद पर. अब तो वह भी चाहती थी शायद. उसका बदन तो जैसे बिजलियों से भर गया था. अधखुली आंखें, तेज़ सांसें, कभी मुझसे लिपट जाती, तो कभी मुझे लिपटा लेती. यहां-वहां से कसकर पकड़ती अपर्णा जैसे आंधी हो कोई, या कि बादलों से बिजली लपकी हो और बादलों ने झरोखा बंद कर लिया अपना, आज़ाद कर दिया बिजली को. कैसे आज़ाद हुई थी देह उसकी. कोई सीपी खुल गई हो जैसे और उसका चमकता मोती पहली बार सूरज की रोशनी देख रहा हो.
सूरज उसकी आंखों में उतर आया और उसने आंखें बंद कर लीं. जैसे एक मोती को प्यार करना चाहिए वैसे ही किया था मैंने. धीरे-धीरे झील-सी शांत हो गई थी वह. बिजली फिर से लौट गई थी, पर मैं जानता था कि वह अब इधर-उधर इतराती रहेगी, क़ैद नहीं रह सकती. वह देखती रही मुझे और मैं उसे. इस व़क़्त तो मुझे ख़ुश होना चाहिए था कि अपर्णा राजदान की देह मेरी मुट्ठी में थी. उसके जिस्म की सीढ़ियां चढ़कर जीत हासिल की थी. ये मेरे ही शब्द थे शुरू-शुरू में. पर नहीं, कुछ नहीं था ऐसा. अपर्णा बिल्कुल भी वैसी नहीं थी, जैसा उसके बारे में कहा जाता था. यह रिश्ता तो मन से जुड़ गया था. अपर्णा ने धीरे से कहा, “अब तक तो खुले आसमान के नीचे रहकर भी उम्रक़ैद भुगत रही थी मैं. सारी ख़ुशियां, सारी इच्छाएं इतने सालों से पता नहीं देह के किस कोने में क़ैद थीं. तुम्हारा ही इंतज़ार था शायद.” और यही अपर्णा, जिसने मुझे सिखाया कि दोस्ती के बीजों की परवरिश कैसे की जाती है, वह जा रही थी. उसी ने कहा था, इस परवरिश से मज़बूत पेड़ भी बनते हैं और महकती नर्म नाज़ुक बेल भी.

“तो तुम्हारी इस परवरिश ने पेड़ पैदा किया या फूलों की बेल?” पूछा था मैंने.


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यही अपर्णा जो मेरे व़क़्त के हर लम्हे में है, अब नहीं होगी मेरे पास. उसके पास आकर मैंने मन को तृप्त होते देखा है- मर्द के मन को. देह कैसे आज़ाद होती है जाना. पता चला कि मर्द कितना और कहां-कहां ग़लत होता है. मुझे चुप-चुप देखकर नवनीता ने ही एक दिन कहा था, “उससे क्यों कट रहे हो सौरभ? उसे क्यों दुख पहुंचा रहे हो. इतने सालों बाद उसे ख़ुश देखा तुम्हारी वजह से. उसे फिर दुखी न करो.” दोस्ती का बरगद बनकर मैं बाहर आ गया अपने खोल से.

मैंने उसका पासपोर्ट, वीज़ा बनवाने में मदद की. मकान-सामान बेचने में उसका हाथ बंटाया. ढेरों और काम थे, जो उसे समझ नहीं आ रहे थे कि कैसे होंगे. मुझे ख़ुद को अच्छा लगने लगा. वह भी ख़ुश थी शायद. उस शाम हम बाहर धूप में बैठे थे. कोयल इधर-उधर घूमती पैकिंग वगैरह में व्यस्त थी. अपर्णा चाय बनाने अंदर चली गई. बाहर आई, तो वह एक पल मेरी आंखों में बस गया. दोनों हाथों में चाय पकड़े, खुले बाल, नीली जीन्स, स्वेटर में वह बिल्कुल उदास मासूम बच्ची लग रही थी, पर साथ ही ख़ूबसूरत भी.
“बहुत याद आओगे तुम.” चाय थमाते हुए वह बोली थी. मैं मुस्कुरा दिया. वह भी. कई दिन से उसकी खिलखिलाहट नहीं सुनी थी. अच्छा नहीं लग रहा था. क्या करूं कि वह हंस दे? चाय पीते-पीते धूप की गर्माहट कुछ कम होने लगी थी शायद, इसलिए ज़मीन पर उतर रही थी...

“चलो अपर्णा एक छोटी-सी ड्राइव पर चलते हैं.”

“चलो.” वह एकदम खिल गयी. अच्छा लगा मुझे.

“कोयल चलो, घूमने चलें,” मैंने बुलाया उसे.

“नहीं अंकल, आप दोनों जाएं, मुझे ढेरों काम हैं और रात को हम इकट्ठे डिनर पर जा रहे हैं. याद है न आपको?”

“अच्छी तरह याद है.” मैंने देखा था कि वह हम दोनों को कैसे देखती रही थी. एक बेबसी-सी थी उसके चेहरे पर. थोड़ा आगे जाने पर मैंने अपर्णा का हाथ अपने हाथ में लिया, तो वह लिपट कर रो ही पड़ी. मैंने गाड़ी रोक दी.

“क्या हो गया अपर्णा?” उसके आंसू रुक ही नहीं रहे थे.

“मुझे लगा कि तुम अब अच्छे से नहीं मिलोगे, ऐसे ही चले जाओगे. नाराज़ जो हो गए थे, ऐसा लगा मुझे.”

“तुमसे नाराज़ हो सकता हूं मैं कभी? मैं क्या, तुमसे तो कोई भी नाराज़ नहीं हो सकता. हां, उदास ज़रूर होंगे सभी. ज़रा जाकर तो देखो दफ़्तर में, बेचारे मारे-मारे फिर रहे हैं.” वह मुस्कुरा दी.

“अब अच्छा लग रहा है रोने के बाद?” मैंने मज़ाक में कहा, तो हंस दी. शाम की धूप खिली हो जैसे. अपर्णा मुझे आज धूप की तरह लग रही है.

“अपर्णा तुम ऐसे ही हंसती रहना, बिल्कुल सब कुछ भुलाकर, समझीं?” उसने एक बच्ची की तरह हां में सिर हिलाया.

“और तुम? तुम क्या करोगे?”

“मैं तुम्हें अपने पास तलाश करता रहूंगा. कभी मिल गईं, तो बातें करूंगा तुमसे. वैसे तुम कहीं भी चली जाओ, रहोगी मेरे पास ही.”

“और क्या करोगे?”

“और परवरिश करता रहूंगा उन रिश्तों की, जिनकी जड़ें हम दोनों के दिलों में हैं.” वह चुप रही. मैं भी. मेरा प्यार, जो पिछले कई दिन से रात की रौशनी में किसी छाया-सा लरज रहा था. अब स्थिर लग रहा था मुझे. मैंने अपर्णा से कहा भी, “जानती हो, तुम्हारे जाने के ख़्याल से ही डर गया था. रोकना चाहता था तुम्हें. इतने दिनों घुटता रहा, पर अब... अब सब ठीक लग रहा है...”

अपर्णा ने कार रोकने के लिए कहा. फिर बोली, “हर रिश्ते की अपनी जगह होती है. अपनी क़ीमत. जो तुम्हें पहले लगा वह भी ठीक था, जो अब लग रहा है वह भी ठीक है. पर एक बात याद रखना कि इस प्यार की बेचैनी कभी ख़त्म नहीं होनी चाहिए. मुझे पाने की चाह बनी रहनी चाहिए तुम्हारे दिल में... क्या पता अपर्णा कब आ टपके तुम्हारे चैम्बर में.... कभी भी आ सकती हूं मैं अपना हिसाब-किताब करने....” और वह खिलखिलाकर हंस दी.
- अनिता सभरवाल

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