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कहानी- दिल ढूंढ़ता है… (Short Story- Dil Dhoondta Hai…)

यह सच था कि कावेरी को कभी भौतिक सुख-सुविधा के साधन और अर्थ की ज़्यादा कमी नहीं हुई, पर प्यार और सुकून के दो पल भी कभी नसीब नहीं हुए. विवाह की पहली शर्त होती है कि पति अपनी पत्नी को सुखी रखेगा, लेकिन योगेशजी वही भूल गए. न ही मन के ज़ोर से और न ही रिश्तों की डोर से योगेशजी उसके साथ पति की तरह बंध पाए. हमेशा उन दोनों के बीच एक परायापन कायम रहा, जो शायद संयुक्त परिवार के रस्मों-रिवाज़ों और मर्यादा की सीमा के साथ-साथ हर समय रिश्तेदारों की बनी भीड़ की देन थी.

कभी-कभी जीवन में ऐसे पल भी आते हैं, जब अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए शब्द ही नहीं मिलते. पुरी के विशाल समुद्रतट पर खड़ी कावेरी को भी कुछ वैसा ही महसूस हो रहा था. पचास की उम्र को छूती कावेरी ख़ुशी से आह्लादित अपनी उम्र के आवरण से निकलकर आज फिर से एक बार मासूम षोडसी बनी आती-जाती लहरों के बीच बढ़ती ही जा रही थी. तभी पीछे से आकर योगेशजी ने उसकी बांह थाम ली थी.
“ये क्या बच्चों जैसी हरकतें कर रही हो? ज़रा उम्र का ख़्याल करो. इन लहरों की तेज़ गति कहीं तुम्हारे पांव न उखाड़ दे.” तभी एक ऊंची लहर उन दोनों को भिगोते हुए निकल गई. दोनों के क़दम वहीं ठिठककर रुक गए. फिर धीरे-धीरे चलते हुए बालू पर आ बैठे.
कावेरी की बरसों पुरानी अभिलाषा आज पूरी हुई थी. बचपन से लोगों से यहां के पौराणिक मंदिरों और समुद्रतट के विषय में इतना सुन चुकी थी कि उसे देखने की इच्छा दिनोंदिन और भी बढ़ती जा रही थी, जिसे अब जाकर पूरा करने का मौक़ा मिला था.
समुद्र में उठती-गिरती लहरों पर नज़र जमाए कावेरी के मन में विचारों की तरंग उठ रही थी, जिस पर उसका कोई बस नहीं था, वह उसे भीड़ भरे समुद्रतट पर भी अतीत से जोड़ती चली गई.
बीस वर्ष की उम्र में कावेरी संयुक्त परिवार में ब्याही गई थी, जिसमें योगेशजी के माता-पिता, भाई-बहन के अलावा उसके चाचा-चाची और दादा-दादी भी रहते थे. शादी के बाद उसने कितने जतन किए, पर संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियों और बच्चों में  ऐसी उलझी कि कहीं भी अपनी मर्ज़ी से घूमने नहीं जा सकी. कभी-कभी किसी शादी-ब्याह जैसे मौक़ों पर ही वह पटना से बाहर निकल पाती थी. पटना में तो सब दिन एक समान थे. सुबह से शाम तक काम का सिलसिला-सा लगा रहता.
उसकी समझ में नहीं आता था, यह कैसी कर्तव्यनिष्ठा उस पर थोपी गई थी, जिसे पूरा करते-करते उसकी सारी इच्छाएं, सारे सपने होम हो रहे थे, फिर भी घर के किसी सदस्य को उसकी इच्छा-अनिच्छा, सुख-दुख की कोई चिंता नहीं थी. उसके ससुराल में स्त्री स्वतंत्रता और उसके अधिकारों की बातें ज़रूर होती थीं, पर वह सब उस घर की आत्मनिर्भर स्त्रियों पर ही लागू होती थीं. स्त्रियों की आत्मनिर्भरता और उनके हक़ की बातें करनेवाली व अपने जीवन में इसे चरितार्थ करनेवाली ये स्त्रियां ही घर-गृहस्थी के काम में व्यस्त औरतों के मानसिक और शारीरिक शोषण का कारण बनती थीं.

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घर की दूसरी स्त्रियों पर बरसों से चले आ रहे वही बने-बनाए क़ानून ही लागू होते थे, सभी की चाकरी करना और घर-गृहस्थी संभालना. योगेशजी की नज़रों में भी औरतों का प्रथम कर्तव्य घर की देखभाल और उसमें रहनेवाले व्यक्तियों की सुविधाओं का ख़्याल रखना होता था. घर के दूसरे लोग भी उससे बस काम की उम्मीद ही रखते थे, जिसे वह अपनी इच्छाओं का दमन कर पूरा करती थी.
शादी के बाद कुछ बरसों तक तो पति ने उसकी इच्छाओं और सुखों का ख़्याल रखा, पर धीरे-धीरे वह उसकी तरफ़ से पूरी तरह बेपरवाह हो गए थे. उसकी समस्याओं को सुनने का उनके पास समय ही नहीं होता. कभी सुनते भी तो कुछ न कर पाने की विवशता जताकर बात समाप्त कर देते. उसकी सारी योग्यता, सारी प्रतिभा उस विवशता के नीचे दबकर रह गई थी.
पति की अवहेलना ने उसे और भी तोड़ दिया था. उसे लगता, यहां कुछ भी अपना नहीं है. सब स्वार्थ के एक धागे मात्र से बंधे हैं. भले ही उसे पत्नी, बहू, मां जैसे कई रिश्तों से बांध दिया गया था, लेकिन वह अच्छी तरह समझती थी कि उसके पैरों के नीचे उसकी अपनी कोई धरती नहीं थी.
यह सच था कि कावेरी को कभी भौतिक सुख-सुविधा के साधन और अर्थ की ज़्यादा कमी नहीं हुई, पर प्यार और सुकून के दो पल भी कभी नसीब नहीं हुए. विवाह की पहली शर्त होती है कि पति अपनी पत्नी को सुखी रखेगा, लेकिन   योगेजी वही भूल गए. न ही मन के ज़ोर से और न ही रिश्तों की डोर से
योगेशजी उसके साथ पति की तरह बंध पाए. हमेशा उन दोनों के बीच एक परायापन कायम रहा, जो शायद संयुक्त परिवार के रस्मों-रिवाज़ों और मर्यादा की सीमा के साथ-साथ हर समय रिश्तेदारों की बनी भीड़ की देन थी. विरले ही कभी कुछ समय उन दोनों को साथ बिताने के लिए मिल पाता था. कहीं भी जाओ, पति के अलावा घर के दो-तीन सदस्य साथ होते ही थे. हर समय की इस भीड़-भाड़ से उसका दम घुटने लगा था. आज जब छोटे-छोटे बच्चे भी पर्सनल स्पेस की बातें करते हैं, तब उसके जैसी प्रबुद्ध महिला अपनी उसी इच्छा का हर रोज़ गला घोंटती थी.
ऐसा नहीं था कि कावेरी अलग रहना चाहती थी. उसे भी  घर-परिवार में घुल-मिलकर लोगों के साथ रहना अच्छा लगता था, फिर भी ये तो मानव स्वभाव है कि हर व्यक्ति अपने जीवन में एक व्यक्तिगत एकांत चाहता है, चाहे वे हमेशा साथ रहनेवाले पति-पत्नी ही क्यों न हों. अक्सर पति-पत्नी दोनों की पसंद और रुचियां भी अलग होती हैं, तब यह भी स्वाभाविक है कि उन्हें थोड़ा-सा समय भी अपने शौक़ को पूरा करने के लिए चाहिए, जो कावेरी को कभी मिल नहीं पाता था. अपने उसी निजी फुर्सत के पल को पाने की चाहत में उसका मन कभी-कभी विद्रोह कर उठता. दिल चाहता सारी ज़िम्मेदारियों को झटककर दूर फेंक दे और कुछ फुर्सत के पल निकालकर अपने लिए जी ले, जहां न खाना बनाने का झंझट हो, न ही घर के दूसरे कामों की ज़िम्मेदारियां. बस, वो हो और उसके स्वतंत्र पल हों.
यही कारण था कि जब भी योगेशजी 8-10 दिनों के लिए शहर से बाहर जाते, वह काफ़ी स्वतंत्रता महसूस करती. न नाश्ते में कोई ज़्यादा मीन-मेख निकालनेवाला होता, न ही खाने के समय मिर्च-मसाले पर प्रवचन देनेवाला. कमरे में भी पूरी स्वतंत्रता होती. जब तक चाहो, लाइट जलाकर अपनी पसंद की क़िताबें पढ़ो, म्यूज़िक सुनो या और कोई काम करो, कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं होता. कुछ दिनों के लिए मिली इस स्वतंत्रता को वह पूरी तरह आत्मसात् करती. फिर भी इस बेफ़िक्री के आलम का आभास भी किसी को नहीं होने देती, वरना घर के लोग ही उसे ग़लत ठहराने लगते.
ऐसा क्यों होता है कि जब भी कोई स्त्री अपने लिए जीना चाहती है, तो ग़लत ठहराई जाती है? दूसरों के लिए जीना ही उसे महान बनाता है. उस महानता के लिए उसे मिलता क्या है? जिन बच्चों के लिए अपना पूरा जीवन होम कर देती है, उन्हें भी उसका अपने लिए जीना अखरता है.
भले ही वह ससुराल द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को कभी पार नहीं कर पाई, पर उसके मन के लगाम को कभी कोई थाम नहीं पाता. जब-तब अतीत में गोते लगाता उसका मन कॉलेज में बिताए उन बिंदास लम्हों को ढूंढ़ लाता, जो उसके जीवन के सबसे सुनहरे दिन थे. कितनी अच्छी दोस्ती थी उसकी सुनंदा और सोनाली के साथ. जहां ये तीनों जातीं, उस स्थान को जीवंत बना देतीं. बेफ़िक्र चिड़ियों की तरह चहकतीं, कभी कैंटीन में बैठतीं, तो कभी कॉलेज के प्रांगण में. कभी सिनेमा देखने का प्रोग्राम बनता, तो कभी डोसा खाने का. उसके खुले विचारवाले मम्मी-पापा ने उसे अपने हिसाब से जीने की पूरी आज़ादी दे रखी थी. अब सोचती है, तो लगता है जाने कहां गए वो दिन और कहां गईं उसकी सखियां? सब दुनिया की भीड़ में ऐसे खो गईं कि फिर दुबारा मुलाक़ात ही नहीं हो पाई. काश! कोई लौटा दे उसे वे खोए हुए पल और उसकी ख़ुशियां, क्योंकि अब भी उसके अंदर ज़िंदा है वह सोलह साल की लड़की.
ऐसे ही छोटे-छोटे पल अपने लिए चुराती, वह कब ज़िंदगी के पचासवें दशक में पहुंच गई, पता ही नहीं चला. बदलते समय के साथ पहले बड़ा संयुक्त परिवार टूटकर छोटा संयुक्त परिवार बना, जिससे काम की ज़िम्मेदारियां और बोझ भी सिमटने लगा. ननद-देवर ने शादी कर अपनी-अपनी अलग गृहस्थी बसा ली. घर के बड़े-बुज़ुर्ग स्वर्गवासी हुए और देखते-देखते बच्चे भी अपने-अपने जीवन में व्यवस्थित हो गए. उसका जीवन भी योगेशजी के आसपास सिमटकर रह गया. घर में ज़्यादा लोग थे, तो अपना पौरुष सिद्ध करने के लिए योगेशजी कुछ ज़्यादा ही गरजते-बरसते थे. अब वो सावन की हल्की फुहार बन गए थे. जो मन का रिश्ता उम्र रहते कायम नहीं कर पाए, अब रिटायरमेंट के बाद बनाने की कोशिश कर रहे थे.

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हालांकि कावेरी को यूं कांटों की झाड़ का फूलों भरी डाल बनना रास नहीं आ रहा था.
अक्सर आस-पड़ोस की औरतें उसका अकेलापन देखकर हमदर्दी जतातीं और उसे बच्चों के पास जाने की सलाह देतीं, पर उसे लगता बहुत जी लिए दूसरों और बच्चों के लिए, अब अपने ढंग से अपने लिए जी रही है, तो इसमें अफ़सोस जैसी क्या बात है? अपना जो दिल चाहता है, बनाती है, मस्ती से खाती-पीती और घूमती है. बच्चों के घर जाकर फिर नई ज़िम्मेदारी संभाले, उससे अब इतिहास दुहराया नहीं जाएगा.
योगेशजी हमेशा कहते, “बहुत अकेले रह लिए, चलो, बच्चों के पास चलकर उनकी गृहस्थी देखें.”
कावेरी को पति की बातें ज़रा भी नहीं सुहातीं. कितना परिश्रम किया था कावेरी ने अपने दोनों बच्चों- निधि और वरुण को योग्य बनाने के लिए. अपने लिए कभी ढंग की एक अच्छी साड़ी भी नहीं ले पाती. उसी का परिणाम था, जो आज निधि और वरुण दोनों इंजीनियर थे, फिर भी अपनी मां के दर्द और चाहत का ख़्याल रखना तो दूर, उन्हें एहसास भी नहीं है कि उनकी मां क्या चाहती है?
गाहे-बगाहे फोन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं. बच्चे सुखी व सम्पन्न हैं, अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हैं, यही उसके लिए काफ़ी है.
क्यों जाए वो बेटे के यहां? बच्चों को उसे पकड़ाकर दोनों घूमते फिरेंगे. अब नहीं पड़ना उसे रिश्तों के छलावे में. भले ही वे उसके अस्तित्व के ही हिस्से हैं, पर अब उनकी अलग हस्ती है, जिसमें हस्तक्षेप करने के बदले अपने बचे हुए साल स़िर्फ अपने लिए जीएगी. उसे देश के दर्शनीय स्थलों पर घूमने का बहुत शौक़ था. अब अपनी बची हुई शक्ति और धन वह उसी में लगाएगी. अभी वह अपनी योजना को अंजाम देने की सोच ही रही थी कि एक दिन योगेशजी ने बताया कि निधि और वरुण के साथ-साथ उसकी ननद प्रियंका और देवर दिनेश सभी अपने-अपने परिवार के साथ जाड़े की छुट्टियां बिताने पटना आ रहे हैं.
सुनते ही असंतोष की लहर उसके तन-मन में उतरती चली गई. ये लोग कभी उसे उसके मन का नहीं करने देंगे. फिर भी ‘हां’ करने की विवशता थी, उसने मन ही मन ठान लिया था, इस बार वह सारे कामों की ज़िम्मेदारी अपने सिर नहीं लेगी. अब पहले की तरह उसमें ऊर्जा नहीं बची है. सभी से बांटकर काम करवाएगी.
एक ही दिन बारी-बारी से चारों अपने-अपने परिवार के साथ आ गए. आते ही उन सभी ने घर में अपने काम बांट लिए और हंसी-ख़ुशी से उसे पूरा करने में जुट गए. कावेरी के किचन में पहुंचते ही उन लोगों ने ज़बरदस्ती उसे किचन से बाहर कर दिया.
देवरानी बोली, “बहुत काम कर लिया आपने, अब हम लोगों के बनाए खाने का भी आनंद उठाएं.”
रात में सारे काम जल्दी समाप्त कर उसकी बहू नेहा एक बड़े बैग में उसका सामान व्यवस्थित करने लगी.
उसे ऐसा करते देख कावेरी बुरी तरह चौंकी, “नेहा, ये तुम क्या कर रही हो?”
“मैं इस बैग में आपके कपड़े और दूसरे बैग में खाने-पीने का कुछ सामान पैक कर रही हूं, क्योंकि कल सुबह आप और पापा दोनों ही पुरी घूमने जा रहे हैं. उसके आगे तिरुपति तक जाने की व्यवस्था हम लोगों ने करवा दी है. बस, आप बिना किसी हिल-हुज्जत के अपनी पसंद के कुछ कपड़े और दूसरी चीज़ें भी मुझे बता दीजिए, मैं बैग में डाल दूंगी, क्योंकि सुबह नौ बजे ही यहां से ट्रेन पुरी के लिए रवाना हो जाती है.”
“योगेशजी का सामान…?” कावेरी को अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था.
“पापाजी की चिंता मत कीजिए. उन्होंने पहले से ही अपना सामान व्यवस्थित कर रखा है. जितने दिनों तक आप लोग घर से बाहर रहेंगे, उतने दिनों तक हम सब इस घर की ज़िम्मेदारियां संभालेंगे और साथ-साथ समय बिताने का आनंद उठाएंगे.”

बहू की बातों ने उसे एक बार फिर चौंका दिया और ताज्जुब हुआ कि योगेशजी भी सभी के साथ इस सब में शामिल थे. कावेरी की समझ में एक बात नहीं आ रही थी कि लोग ये सब करके उसके लिए स्नेह की ज्योति जला रहे थे या फिर उसके जीवन के छीने गए सबसे अच्छे पलों की भरपाई कर रहे थे. जो कुछ भी हो, मन में अब तक पलता आक्रोश और ग़ुस्सा पिघलने लगा था. सभी का इतना स्नेह और प्रेम पा उसके दिल में बुझ रही प्रेम की चिंगारी फिर से भड़क उठी और दिल में प्यार का एक सैलाब-सा उमड़ा और ख़ुशी से उसकी आंखें नम हो गईं.
बालू पर बैठी कावेरी के मन में ऐसे ही अनेक विचार उमड़-घुमड़ रहे थे. तभी योगेशजी दो आइस्क्रीम लेकर आ गए. दोनों चुपचाप बैठे आइस्क्रीम खाते रहे. हालांकि योगेशजी चुप थे, फिर भी न जाने क्यूं कावेरी को लग रहा था कि योगेशजी कुछ कहना चाह रहे थे, पर अंतस में छिपी बातें उनके होंठों पर आकर जम-सी गई थीं. थोड़ी देर बाद योगेशजी ने ही इस चुप्पी को तोड़ा.
“सच कहूं तो कावेरी, मुझे भी ऐसी ही किसी यात्रा की चाह थी, जो बहुत कोशिशों के बाद भी कभी पूरी नहीं हो पाई, अब जाकर पूरी हुई है. कभी तुम्हारी तरह मैं भी तुम्हारे साथ के लिए तरसता था. पुरुष हूं न, प्रकट नहीं कर पाया. तुम तो अपने सारे असंतोष का कारण मुझे ठहराकर मन हल्का कर लेती थी, मैं किसे दोषी ठहराता?”
पहली बार कावेरी पति के दर्द को महसूस कर उनके और पास खिसक आई थी व उनके सीने पर सिर रखकर आंखें बंद करते हुए बोली, “देर से ही सही, पर फुर्सत के वे रात-दिन मिले तो सही, जिनको अब तक हम ढूंढ़ रहे थे.”

Rita kumari
रीता कुमारी

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