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कहानी- एक छत का सुकून (Short Story- Ek Chhat Ka Sukun)

“फ़र्क़ पड़ता है ईशा बहुत फ़र्क़ पड़ता है. मेरे सिर पर छत है और तेरे सिर पर छाता. घर-परिवार छत के नीचे बनता है छाते के नीचे नहीं. तेज हवा में छाता उड़ जाता है, लेकिन छत नहीं उड़ती. अभी जीवन की कठोर वास्तविकता से तेरा सामना नहीं हुआ है.. अभी सब नीली रूमानियत की रिमझिम फुहारों के बीच तुझे छाते के नीचे ही रहना रोमांचकारी लग रहा है, लेकिन जिस दिन तूफ़ान आएगा और छाता उड़ जाएगा ना, उस दिन तुझे पैर टिकाने के लिए ज़मीन भी नहीं मिलेगी.”

मन भर कर शॉपिंग करने के बाद ढेर सारी शॉपिंग बैग्स से लदी नेहा अपने पांच वर्षीय बेटे के साथ जूस पीने के लिए एक रेस्टोरेंट की तरफ़ बढ़ी. बहुत देर से वह शॉपिंग कर रही थी, तो थक भी गई थी और उसे थोड़ी भूख भी लग गई थी. बेटा विवान भी पिछले तीन घंटों से उसके साथ घूम रहा था, तो वह भी अब थक गया था. आज नेहा ने अधिकतर शॉपिंग भी अपने लाडले बेटे के लिए ही की थी- कपड़े, खिलौने, नए शूज़ और भी न जाने क्या-क्या ख़रीदा था उसने विवान के लिए. फिर कुछ अपने काम की चीज़ें लीं. और विशाल यानी अपने पति के लिए कुछ ना ले, ऐसा तो हो ही नहीं सकता, तो उसके लिए भी एक स्मार्ट टी-शर्ट ले ली. एक परफ्यूम भी लगे हाथ ले लिया.


हालांकि उन दोनों के जीवन में प्रेम की मधुर सुगंध पहले से ही बिखरी हुई है, लेकिन ऐसे छोटे-छोटे उपहार उस सुगंध को और भी गहरा कर देते हैं. विशाल के बारे में सोचते ही नेहा के चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कुराहट आ गई. छह साल हो गए हैं उनकी शादी को, लेकिन आज भी विशाल उसे उतना ही प्यार करता है, जितना शादी के शुरुआती दिनों में करता था. इस मामले में नेहा ख़ुद को बेहद क़िस्मत वाली मानती है. विशाल ने ही विवान जैसा प्यारा बेटा देकर उसे परिपूर्ण कर दिया था.
प्यार से विवान का हाथ थामे वह आगे बढ़ रही थी कि अचानक एक जाने-पहचाने चेहरे पर नज़र पड़ते ही वह चौंकी. सामने से लगभग उसी की उम्र की एक युवती आ रही थी. नेहा को अधिक ज़ोर नहीं देना पड़ा अपनी याददाश्त पर और उसने पहचान लिया कि यह तो ईशा थी. और पहचानती भी कैसे नहीं. ज़रा भी फ़र्क़ नहीं पड़ा था उसके चेहरे में. ठीक वैसी ही तो दिख रही थी जैसी कॉलेज के दिनों में दिखती थी.
“अरे ईशा तू कैसी है? कितने सालों के बाद मिल रही है?” जैसे ही ईशा थोड़ा पास आई, नेहा उत्साह से उसकी ओर हाथ हिलाकर बोली.
“मैं ठीक हूं नेहा, तुम कैसी हो?” ईशा भी अचानक अपने सामने नेहा को देखकर ख़ुश हो गई. वह भी हाथ में ख़ूब सारे शॉपिंग बैग्स थामे हुए थी. शायद ख़रीददारी करने के बाद वह भी रेस्टोरेंट में ही जा रही थी.
“कहां जा रही है? शॉपिंग हो गई क्या तेरी?” नेहा ने पूछा.
“हां यार हो गई. थक गई थी, तो सोचा जूस पी लूं फिर जाती हूं.” ईशा ने बताया फिर पूछा, “और तू? तेरी शॉपिंग हो गई?’
“हां मैं भी जूस पीने ही जा रही थी. चल ना जूस पीते हैं. साथ ही बातें भी हो जाएंगी.” कहते हुए नेहा विवान का हाथ थामे रेस्टोरेंट में चली आई. ईशा भी उसके साथ ही अंदर आ गई.
अंदर का वातावरण बहुत भला था. अच्छी ठंडक थी. दोनों एक कॉर्नर टेबल पर बैठ गईं और अपने शॉपिंग बैग्स दीवार के सहारे टिका दिए. दो-चार टेबलों के ऊपर कुछ युवा जोड़े बैठे हुए अपनी दुनिया में खोए हुए थे.

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“तू वैसी की वैसी ही है यार जैसी आठ बरस पहले थी. उम्र तो तुझे ज़रा भी छू नहीं पाई है.” नेहा ने प्रशंसात्मक स्वर में कहा.
“थैंक्स!” ईशा के कपोलों पर लाली छा गई. “और बता, कब आई यहां, कहां रहती है?” नेहा ने उत्सुकता से पूछा.
“डेढ़ साल हो गया है. जिस कंपनी में जॉब करती थी, उसने एक ब्रांच यहां खोली है, तो मेरा ट्रांसफर यहां कर दिया गया. तब से यही हूं.” ईशा ने बताया.
“तू डेढ़ साल से यहां है और मुझे पता भी नहीं.” नेहा ने कहा.
“सॉरी यार, मेरे फोन में से सारे कॉन्टैक्ट डिलीट हो गए, तो किसी से संपर्क ही नहीं रहा. पर अच्छा हुआ आज तू मिल गई.” ईशा ख़ुश होते हुए बोली.
“हां यार, मन की बातें तो दोस्तों के साथ ही साझा करने में मज़ा आता है. अच्छा हुआ तू भी यहीं आ गई, तेरा साथ हो जाएगा.” नेहा भी ख़ुश थी कि चलो कोई तो पुरानी सहेली मिली, जिससे दिल की बातें कर सकें.
नेहा और ईशा पांच साल तक एक ही कॉलेज में साथ पढ़ी थीं. दोनों बहुत पक्की सहेलियां तो नहीं थीं, लेकिन अच्छी दोस्त थीं. नेहा थोड़ी गंभीर प्रकृति की पारिवारिक लड़की थी, वहीं ईशा तितली सी उड़ने वाली, खुले स्वभाव की बंधन मुक्त लड़की थी, जो बहुत आज़ाद ख़्यालों की थी, लेकिन दिल की अच्छी थी.
“और बता क्या-क्या शॉपिंग की आज? बैग्स तो ढेर सारे दिख रहे हैं. लगता है जमकर जीजाजी की जेब खाली की गई है.” ईशा नेहा के ढेर सारे सामान से भरे बैग्स को देखकर हंसते हुए बोली. “हां, आज तो ख़ूब ख़रीददारी की है. लेकिन अपने लिए नहीं, विवान और विशाल के लिए.” नेहा बता ही रही थी कि इतने में वेटर आ गया.
नेहा ने दो ग्लास मिक्स फ्रूट जूस और विवान के लिए आइसक्रीम ऑर्डर की. विवान को बैग से उसकी मनपसंद कार निकालकर खेलने के लिए दे दी. वह कार से खेलने में मगन हो गया.
“ओह तो क्या-क्या लिया जीजू के लिए?” ईशा शरारत से मुस्कुराई.
“ज़्यादा कुछ नहीं, बस एक टी-शर्ट पसंद आई, तो ले ली और विशाल की पसंद का एक परफ्यूम.” नेहा ने बताया और साथ ही पूछा, “तू अपने बारे में बता ना कुछ. जीजाजी क्या करते हैं? तेरी ही कंपनी में हैं क्या? बच्चे कहां हैं? कितने साल हुए शादी को?”
“अरे बाप रे… इतने सारे सवाल. तूने तो सवालों की राइफल ही तान दी मुझ पर. मैंने शादी नहीं की. यार तू तो जानती है मैं बंधन पसंद नहीं करती. स्वतंत्र रहना चाहती हूं. यह परिवार-वरिवार का झंझट मुझसे नहीं होता.” ईशा बोली.
“परिवार तो सबके लिए ज़रूरी है. यूं अकेले जीवन नहीं काटा जा सकता ईशा. शादी तो हमें एक मज़बूत नींव प्रदान करती है, जिस पर हम अपने सपनों का घर बनाते हैं. फिर बच्चे भी तो ज़रूरी हैं. उन्हीं से तो जीवन की रौनक़ होती है.” नेहा ने उसे समझाया.
“भाई, मुझसे तो यह सब होगा नहीं. मैं किसी के इशारों पर नाचने वाली ग़ुलाम बनकर नहीं रह सकती. मैं किसी की सेवा टहल नहीं कर सकती. मैं तो स्वतंत्र रहना ही पसंद करती हूं.” ईशा मस्ती से बोली.
“किसने कहा कि शादी का मतलब किसी के इशारों पर नाचना होता है या किसी की ग़ुलामी होता है. यह तो एक ख़ूबसूरत बंधन है, जिसमें हमें भी तो अपना सुख-दुख बांटने वाला, परवाह करने वाला साथी मिलता है. आज नहीं तो कल एक साथी की ज़रूरत तो तुझे भी पड़ेगी ना. सारा जीवन यूं अकेले तो कट नहीं सकता.” नेहा का मन उसकी बातें सुनकर थोड़ा उचट गया था.
“साथी की क्या ज़रूरत है यार. मेरा बॉस संजय मेरी हर ज़रूरत का ध्यान रखता है. ना पैसे की कमी है, ना किसी दूसरी बात की. पता है एक शानदार फ्लैट लेकर दिया है उसने मुझे और आज शॉपिंग करने के लिए पैसे भी उसने ही दिए हैं. डायमंड ईयर रिंग्स लिए हैं मैंने आज.” ईशा ने बेझिझक बताया.
तभी वेटर जूस के ग्लास और आइसक्रीम का कप टेबल पर रख गया. नेहा ने विवान को आइसक्रीम दी,
“तू बोल्ड है शुरू से वह तो ठीक है, लेकिन तुझे नहीं लगता कि ऐसा अनैतिक संबंध ठीक नहीं है. संजय क्या आगे तुझसे शादी करेगा?” नेहा का मन खिन्न हो गया था.
“वह तो पहले से ही शादीशुदा है और वैसे भी मुझे भी कहां शादी करनी है उससे.” ईशा लापरवाही से जूस के घूंट भरती हुई बोली.
“क्या? शादीशुदा है? तू जानती भी है यह क्या खिलवाड़ कर रही है तू अपने जीवन से.” नेहा चौंक कर बोली.
“छोड़ यार क्या फ़र्क़ पड़ता है.” ईशा लापरवाही से बोली.
“क्या फ़र्क़ है तेरे और मेरे जीवन में, रिश्ते में? प्यार तो प्यार है. मैं और संजय एक-दूसरे से प्यार करते हैं. अच्छी म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग है हमारे बीच. संजय के साथ ज़िंदगी बेहद सुकून से बीत रही है. बेहद ख़ुशहाल, मस्ती भरी. संजय हर प्रॉब्लम में छाता बनकर ढंक लेता है मुझे, बस और क्या चाहिए?” ईशा उसी लापरवाही से बोली.
“फ़र्क़ पड़ता है ईशा, बहुत फ़र्क़ पड़ता है. मेरे सिर पर छत है और तेरे सिर पर छाता. घर-परिवार छत के नीचे बनता है, छाते के नीचे नहीं. तेज़ हवा में छाता उड़ जाता है, लेकिन छत नहीं उड़ती. अभी जीवन की कठोर वास्तविकता से तेरा सामना नहीं हुआ है. अभी सब नीली रूमानियत की रिमझिम फुहारों के बीच तुझे छाते के नीचे ही रहना रोमांचकारी लग रहा है, लेकिन जिस दिन तूफ़ान आएगा और छाता उड़ जाएगा ना, उस दिन तुझे पैर टिकाने के लिए ज़मीन भी नहीं मिलेगी.” नेहा ने अफ़सोस भरे लहजे में कहा.


थोड़ी देर पहले ही पुरानी सहेली से मिलने का जो उत्साह उसके मन में था, वह बुझ चुका था. ईशा के मना करने के बाद भी नेहा ने वेटर को बुलाकर जूस और आइसक्रीम के पैसे चुका दिए और विवान का हाथ पकड़कर रेस्टोरेंट से बाहर आ गई.
ईशा हतप्रभ सी थोड़ी देर वहीं बैठी रही, फिर मुंह बिचका कर बाहर आकर एक टैक्सी पकड़कर अपने फ्लैट पर चली आई. यह शहर के एक पॉश इलाके का तीन बेडरूम वाला सर्व सुविधा युक्त आधुनिक तरी़के से सुसज्जित आरामदायक फ्लैट था, जो संजय ने उसे तोह़फे में दिया था. ईशा की अपनी तनख़्वाह तो इतनी नहीं थी कि वह ऐसी आरामदायक और चकाचौंध भरी ज़िंदगी जी सकती.
यहां नौकर-चाकर और सुविधा की हर वस्तु उपलब्ध थी और संजय के साथ हर रात रंगीन. उसकी वॉर्डरोब में एक से एक महंगी और आधुनिक ड्रेसेस टंगी थीं. ड्रेसिंग टेबल के ड्रॉवर में महंगी गोल्ड और डायमंड ज्वेलरी थी, जो उसके जन्मदिन पर या वैलेंटाइन डे पर संजय ने उसे गिफ्ट की थी. कुल मिलाकर वह ज़िंदगी के पूरे मज़े लूट रही थी और क्या चाहिए जीने के लिए? ना कोई ज़िम्मेदारी, न फ़ालतू झंझट. ईशा की यही सोच थी कि पूरी ज़िंदगी बस ऐसे ही चैन और आराम से गुज़र जाए. वह जीवन की रंगीनियों में ही खोई रहने वाली लड़की थी.
क्या हुआ अगर संजय शादीशुदा है और उसे अपने परिवार को भी समय देना पड़ता है, लेकिन ऑफिस में तो दिनभर दोनों आसपास रहते हैं. मौक़ा मिलते ही संजय उसे अपने केबिन में बुला लेता है और हफ़्ते में कम से कम तीन रातें तो उसके साथ ही गुज़ारता है. फिर टूर पर भी तो साथ ले जाता है उसे अक्सर ही. तीन साल से वह संजय से प्यार करती है और वह उससे… और भला क्या चाहिए?
ईशा को फिर से नेहा की बातें याद आ गईर्ं, लेकिन उसने उन्हें दिमाग़ से झटक दिया. नौकर उसके लिए चाय बना लाया और रात के खाने में उसकी पसंद पूछने लगा. ईशा अपने भाग्य पर इठलाती चाय का कप लेकर बालकनी में आ बैठी. वह आराम से कुर्सी पर पसर कर गरमा-गरम चाय का आनंद ले रही है और वहां नेहा बेचारी पति और बच्चे की फ़रमाइश पूरी करती रात के खाने की तैयारी में जुटी होगी. और ईशा व्यंग्य से मुस्कुरा दी. कहां ईशा की हाई प्रोफाइल लाइफ और कहां नेहा की वह मध्यमवर्गीय कोल्हू के बैल जैसी गृहस्थी की चक्की में पिसती ज़िंदगी.
इधर अपने घर लौटी नेहा, ईशा की बातों से व्यथित थी. लेकिन उसके लौटने तक विशाल के घर आने का समय हो चला था. सामान रखकर उसने फटाफट चाय चढ़ा दी गैस पर और विवान के कपड़े बदलवा कर हाथ-मुंह धो दिए. ख़ुद भी चेंज करके फ्रेश हो गई.
थोड़ी ही देर में विशाल भी आ गया. नेहा अपनी और विशाल की चाय लेकर ड्रॉइंगरूम में आ गई और चाय पीते हुए बड़े उत्साह से लाया हुआ सामान उसे दिखाने लगी. विवान भी अपने कपड़े और खिलौने दिखाने लगा. विशाल दोनों की ख़ुशी देखकर ख़ुश था.

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दिन तेजी से बीत रहे थे. अपने परिवार में मगन नेहा ईशा को कब का भूल चुकी थी. ईशा से मिले हुए भी उसको दो साल बीत चुके थे. एक दिन घर के लिए किराने का सामान लेने वह सुपर मार्केट गई. घर पर विशाल के माता-पिता अर्थात नेहा के सास-ससुर आए हुए थे, तो नेहा विवान को घर पर ही छोड़ आई थी. यूं भी वह अपने दादा-दादी के साथ बहुत ख़ुश रहता था. नेहा भी निश्‍चिंत होकर सामान लेने आ गई. परिवार का यही तो सुख और सुरक्षा है.
ट्रॉली भर सामान लेने के बाद नेहा बिलिंग के लिए काउंटर देखने लगी, तो एक काउंटर पर भीड़ कम देखकर वह उसी लाइन में लग गई. जब नेहा की बारी आई, तो बिलिंग करने वाली लड़की को देखकर वह बुरी तरह से चौंक गई. वह लड़की भी नेहा को देख कर सकापका गई थीे. नेहा ने उसे गौर से देखा. हां वह ईशा ही थी, लेकिन कितनी बदल गई थी. शरीर बेडौल हो गया था, चेहरे की रंगत फीकी पड़ गई थी और अपनी उम्र से दस साल बड़ी लग रही थी. आंखों के नीचे काले घेरे पड़े थे. बीमार भी लग रही थी. वह सिर झुकाकर चुपचाप बिलिंग करती रही. जब सारा सामान का बिल बन गया, तो नेहा ने पैसे चुकाए और ईशा से साथ आने को कहा. ईशा ने चुपचाप उसकी बात मान ली और काउंटर पर एक दूसरी लड़की को बिठाकर नेहा के साथ चली आई. दोनों पास की एक कॉफी शॉप में आ गईं. नेहा ने दो कप कॉफी का ऑर्डर दिया.
“तू यहां कैसे ईशा? वह भी इस हाल में? ऐसी मामूली नौकरी में? तेरे वह हाई प्रोफाइल महंगे आधुनिक कपड़े और वह डायमंड ईयर रिंग्स कहां गए?” नेहा ने चुभते स्वर में पूछा.
“बस कर नेहा, मैं पहले ही क़िस्मत की मार खा चुकी हूं.” ईशा की आंखें छलछला आईं.
“क्या हुआ, संजय कहां है? और तेरा यह हाल कैसे हुआ?” नेहा ने थोड़ा नरम होते हुए पूछा.
“संजय अब मेरे साथ नहीं रहता. उसने मुझे छोड़ दिया है. मुझे नौकरी से भी निकाल दिया. मेरे एक्सपीरिएंस सर्टिफिकेट में भी मेरे काम में इतनी खामियां लिख दीं कि मुझे कहीं अच्छी जगह नौकरी नहीं मिली. आख़िर बड़ी मुश्किल से मुझे यहां नौकरी मिली. पहली नौकरी मेरी सुंदरता की वजह से संजय ने मुझे दी थी. अब वह बात रही नहीं तो…” ईशा की आंखों से आंसू बह निकले.
“लेकिन ऐसा क्यों? तुम दोनों तो एक-दूसरे से प्यार करते थे. अच्छी म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग थी तुम दोनों के बीच.” नेहा ने कॉफ़ी का घूंट भरते हुए पूछा.

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“मैं तो यही समझती थी, लेकिन दो साल पहले बाथरूम में पैर फिसल जाने से मेरे पैर की हड्डी टूट गई और साथ ही गिरने की वजह से मेरा गर्भपात भी हो गया. मुझे तो पता ही नहीं था कि मैं गर्भवती हो गई हूं. उसी समय इलाज के दौरान किसी दवाई के रिएक्शन से मेरी यह हालत हो गई. बस तभी संजय का रवैया मेरे प्रति अचानक से बदल गया. मुझे अस्पताल में ही एडमिट करवा कर आठ-दस दिन बाद से उसने मेरी खोज-ख़बर लेनी बंद कर दी. ऑफिस के कुछ सहकर्मियों ने ही मेरी देखभाल की. संजय के बारे में उन्होंने भी कुछ नहीं बताया. संजय ने फोन पर मुझे ब्लॉक कर दिया. दूसरे के फोन पर वह मेरी आवाज़ सुनकर फोन काट देता. दो महीने बाद जब मैं अस्पताल से डिस्चार्ज हुई, तो बिल भरने में ही मेरी ना स़िर्फ जमापूंजी ख़त्म हो गई, बल्कि मेरी चेन व अंगूठी भी बिक गई. जब मैं अपने फ्लैट पर पहुंची, तो मेरे ही नौकरों ने मुझे अंदर नहीं जाने दिया. एक नौकर जो थोड़ा भला आदमी था, उसने बताया कि संजय ने यह फ्लैट मेरे लिए नहीं, बल्कि मेरी जैसी लड़कियों के लिए ले रखा था. मुझसे पहले भी वहां दो लड़कियां रह चुकी थीं, जिनसे मन भर जाने के बाद संजय ने मुझे रखा. मेरे बाद उसने दूसरी लड़की को अपने जाल में फंसा कर वहां रखा हुआ था. वह नौकर भी उसी के आदमी थे, इसलिए किसी लड़की को कुछ नहीं बताते थे.” ईशा ने दो घूंट पानी पिया और आगे बोली, “मुझे ना उसने कपड़े लेने दिए, ना और कुछ सामान. मेरे पुराने कपड़े वह बैग में भरकर पहले ही अस्पताल पहुंचा चुका था. अब वही कपड़े और ईयररिंग्स उसने किसी दूसरी लड़की को दे रखे हैं.”
“तो अब तू रहती कहां है?” नेहा ने पूछा.
“एक परिवार के यहां ऊपर एक छोटा सा कमरा ले रखा है किराए पर, वहीं रहती हूं.” ईशा ने बताया.
“अपने घर क्यों नहीं चली जाती वापस.” नेहा बोली.
“किस मुंह से जाऊं. तीन साल पहले संजय के कारण उनसे रिश्ता तोड़ रखा था. उनकी उपेक्षा की. तू सच कहती थी नेहा छत और छाते में बहुत फ़़र्क़ होता है. ज़रा से तूफ़ान में संजय नाम का वह छाता तपाक से उड़ गया. यही अगर मेरे सिर पर छत होती, तो क्या मेरा पति, मेरा परिवार मुझे अस्पताल में अकेला छोड़कर चला जाता.” ईशा की आंखों से आंसू बहने लगे.
“काश तू यह बात पहले ही समझ गई होती कि घर छत के नीचे बसते हैं, छाते के नीचे नहीं. अब भी कुछ नहीं बिगड़ा. माता-पिता अपने बच्चों को माफ़ कर देते हैं. उनसे माफ़ी मांग ले और घर लौट जा. पिछला सब भूल जा. मुझे विश्‍वास है जल्दी ही एक छत के नीचे तेरा भी घर बस जाएगा. एक छत तो होगी ज़रूर तेरे नाम की भी.” नेहा ने उसकी हथेली थपथपाते हुए उसे दिलासा दिया.
नेहा की बातों ने ईशा के दर्द पर मरहम का काम किया. गर्म कॉफी पीते हुए अब वह ख़ुद को काफ़ी हल्का महसूस कर रही थी. छाते के उड़ जाने के दर्द से उबर कर अब उसकी आंखों में एक छत की उम्मीद झिलमिला रही थी.

Dr. Vinita Rahurikar
विनीता राहुरीकर

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