"मैं आपकी तरह बंजर ज़मीन पर फसल के झूठे सपने नहीं उगाना चाहता. मुझे शहर में अच्छी नौकरी मिल रही है. मैं अब वापस नहीं आऊंगा. ऐसा किसान किस काम का जिसकी ख़ुद की थाली खाली हो…"
खेत से लौटते ही सुखीराम ने पूछा, "बुधली, आज लालटेन क्यों नहीं जलाई अगर टीराच नहीं होता, तो अंधेरे में झोपड़ा ढूंढ़ न पाते हम, लाओ जलाए देते हैं." बुधला ने हाथ से माचिस छीन ली और बोली, "बड़े राजा भोज बन रहे हो, मिट्टी का तेल अब थोड़ा ही बचा है, भोलू जब पढ़ने बैठेगा, तो जलाए देंगे लालटेन." खाना खाकर बुधली ने लालटेन जलाई और पढ़ते हुए भोलू के सामने रख दी, और ख़ुद आंगन में चांद की रोशनी में बैठे सुखीराम के पास जाकर बैठ गई.
दोनों चुपचाप कभी अपने बंजर खेत देखते, तो कभी आसमान में चांद को. बुधली बोली, "कल जब बिजली आवेगी, तो टीराच में बिजली भर लेना और फून में भी. पंप चालू कर के खेत में पानी भी तनिक ज़्यादा दे देना, देखना सालभर में ज़मीन लहलहा उठेगी." सुखीराम बोला, "बड़ी मूरख है तू, रात के अंधेरे में भी दिन के सपने देखना नहीं छोड़ती. इत्ता सा खेत बचा है, जो बंजर होने को है. ज़मीन के सीने में पानी ही नहीं है, तो बीज पनपेगा कैसे? 24 घंटा में 4 घंटा बिजली आवे है, अब इत्ते से बखत में आदमी क्या-क्या करे? बारिश की राह देखना, तो हमने बंद ही कर दिया है. बस, इस साल की फसल अच्छी हो जाए, भोलू कॉलेज ख़त्म कर लें, तो बैंक का कर्जा चुका देंगे. बड़े सपने हैं बुधली हमारे. अब यह टूटे घर से झांकती रोशनी और तुम्हारी फटी साड़ियां हमसे बर्दाश्त नहीं होती."
बुधला बोली, "फिजूल में चिंता करते हो, भोलू शहर से नई-नई चीज़ें लाकर फसल उगाएगा फिर सब वापस आ जाएगा."
भोलू परीक्षा देने शहर चला गया. कर्जा लेकर सुखीराम ने नई उम्मीदों की फिर से बुवाई की. इस बार उम्मीद धरती का सीना चीरकर ऊपर आई. पूरे खेत में हरी कोंपले फूटी थी. बुधला तो किसी नवयौवना की भांति उछल-कूद रही थी. पूरे 5 साल बाद भूरी धरती पर हरी छटा छाई थी. सपने जैसे आंखों से निकलकर ज़मीन पर बिखरते जा रहे थे.
एक दिन सुखीराम ने पूछा, "बुधली बिजली क्यों नहीं आई खेत में पानी छोड़ना था." सिर्फ़ उसी दिन नहीं अगले 15 दिनों तक बिजली नहीं आई. कुएं से खेतों को सींचकर अब सुखीराम के हाथों ने भी जवाब दे दिया. फसल की प्यास अब घड़ों और बाल्टियों से बूझनेवाली नहीं थी.
सुखीराम ने अपनी आख़िरी उम्मीद भोलू को फोन लगाया.
भोलू बोला, "बापू मैं तो पहले ही कहता था खेतों में कुछ नहीं रखा. मैं आपकी तरह बंजर ज़मीन पर फसल के झूठे सपने नहीं उगाना चाहता. मुझे शहर में अच्छी नौकरी मिल रही है. मैं अब वापस नहीं आऊंगा. ऐसा किसान किस काम का जिसकी ख़ुद की थाली खाली हो. चार-पांच साल में आपको भी यहां बुला लूंगा." सुखीराम ने फोन रख दिया.
आज भी कुटिया में लालटेन नहीं जली और शायद यह बंजर ज़मीनों का किसान अब कभी लालटेन जलाएगा भी नहीं.
- विजया कठाले
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