"नहीं…" पहले भवानी डरा. फिर जगदीश के मां-बाप डर गए. उसके बाद जगदीश की नई बहू भी डर गई कि जगदीश को पता नहीं क्या हो गया था. वह न किसी के साथ बोलता था और न किसी को पहचानता दिखता था.

तांगे के घोड़े हिनहिनाकर रुक गए. किरण दौड़कर अंदर से बाहर आई. उसने घोड़े की आवाज़ पहचान ली थी. वह घोड़े उसके मायके के थे. उसने घोड़े की गर्दन पर अपना सिर टेक दिया, जैसे वह घोड़े की गर्दन न होकर उसके मायके का द्वार हो.
किरण का मायका सिकरारा में था. ससुराल का गांव बोधीपुर से कुछ दूरी पर एक ऊंची समतल जगह पर था. बोधीपुर से आधा मील चलकर पहाड़ी का एक ऐसा मोड़ आता है, जहां पर खड़े होकर सिकरारा बहुत दूर और बहुत नीचा दिखाई देता था. कभी-कभी किरण उदास हो जाती, तो अपने जगदीश को साथ लेकर उस मोड़ पर आकर खड़ी हो जाती. सिकरारा के मकान उसको एक जगमगाते बिंदु के समान दिखाई देते, फिर वो बिंदु उसके मन में एक चमक पैदा कर देता.
वह मायके वर्ष भर में एक बार नवंबर के महीने में जाती थी. हर साल इन दिनों उसके मायके में डिहे का मेला लगता था. माता-पिता उसको लिवाने के लिए आदमी भेज देते थे. सिर्फ़ किरण के ही नहीं, किरण की सभी सहेलियों के मायके वाले अपनी लड़कियों को बुलावा भेज देते थे. सभी सहेलियां जब एक-दूसरे के गले मिलतीं, तो वर्ष भर की सभी ऋतुओं के सुख-दुख की बातें एक-दूसरे से कह-सुन लेतीं और अपने मायके की गलियों में स्वच्छंद घूमती.
दो-दो, तीन-तीन बच्चों की माताएं बड़े बच्चों को उनके दादा-दादी के पास छोड़ आतीं और गोद वाले को मायके पहुंचते ही ननिहाल वालों के हवाले कर देतीं. मेले के लिए नए कपड़े सिलवातीं और अभ्रक लगवातीं. मेले में से कांच की चूड़ियां, चांदी की बालियां वगैरह सामान ख़रीदतीं.
किरण कितने ही दिनों से आज के दिन का इंतज़ार कर रही थी. नवंबर का आसमान जब सावन-भादो की बरसात के साथ हाथ-पांव धोकर निखर उठता था. किरण और किरण जैसी ससुराल में बैठी लड़कियां पशुओं को दाना-पानी डालतीं, सास-ससुर के लिए चावल रांधतीं और हर रोज़ हाथ-पैर धोकर बन-संवर कर बैठतीं, तो मन में सोचने लगतीं- आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों कोई न कोई उनके मायके से उनको लेने के लिए आता होगा.
यह भी पढ़ें: क्यों टूट रही है हर रिश्ते की मर्यादा? (Why is the dignity of every relationship being broken?)
आज किरण के घर के दरवाज़े के सामने उसके मायके के घोड़े हिनहिनाए, तो किरण चंचल हो उठी. तांगा को लेकर आए सत्तार को किरण ने बैठने के लिए चौकी दी.
किरण को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी. उसके मुंह का रंग स्वंय सब कुछ बता रहा था. जगदीश ने तंबाकू का एक लंबा कश खींचा और आंखें बंद कर लीं, जाने उससे तंबाकू का नशा न झेला गया या किरण के मुंह का रंग.
"इस बार तो मेला देखने आएगा न. चाहे दिन का दिन ही सही." किरण के जगदीश के पास बैठकर बड़े दुलार में कहा. जगदीश के हाथ कांपे. उसने हाथों में पकड़ी हई चिलम को एक ओर रख दिया.
"बोलता क्यों नहीं?" किरण ने रोष के साथ कहा. "किरण, एक बात कहूं?"
"मुझे मालूम है तुझे क्या कहना है. क्या तुझे यह बात कहनी चाहिए? सालभर में एक बार तो मैं मायके जाती हूं. फिर तू मुझे ऐसे क्यों रोकता है."
"आगे तो मैंने तुझे कभी भी कुछ नहीं कहा."
"फिर इस बार क्यों कहता है?"
"इस बार बस, इस बार..." जगदीश के मुंह से एक आह निकल गई.
"तेरी मां तो मुझे कुछ नहीं कहती, फिर तू क्यों रोकता है?" किरण की आवाज़ में बच्चों जैसी ज़िद थी.
"मेरी मां..." जगदीश ने अपना मुंह बंद कर लिया, जैसे आगे की बात को उसने दांतों तले दबा लिया हो.
दूसरे दिन किरण मुंह-अंधेरे बन-संवर कर तैयार हो गई. सत्तार ने घोड़े पर काठी कसी और किरण ने सास-ससुर का प्यार भरा आशीर्वाद लिया. तांगे पर बैठते ही ससुराल धीरे-धीरे पीछे छूटने लगी.

जगदीश की आंखों से आंसू टपकने लगे.
"औरतों की तरह रोता क्यों है? मर्द बन." मां ने रोष से कहा,
जगदीश के मन में आया कि वह मां से कहे, "पर तू तो औरत है. एक बार औरतों की तरह रोती क्यों नहीं?"
जगदीश को किरण के साथ के वे दिन याद आए, जब वे नीले फूलों वाले वन में गए थे. किरण ने बताया था कि यहां पर सभी के कान बहरे हो जाते
हैं. जगदीश को ऐसा महसूस हुआ कि आज किसी को उसकी बात सुनाई नहीं देती. सारा संसार नीले फूलों का वन है और सभी के कान बहरे हो गए हैं.
सात वर्ष हो गए थे. किरण की अभी तक कोख नहीं हरियाई थी. मां कहती थी, "अब मैं आठवां साल नहीं लगने देगी." मां ने पांच सौ रूपए देकर भीतर ही भीतर जगदीश के दूसरे ब्याह की बात पक्की कर ली थी. वह उस समय के इंतज़ार में थी कि जब किरण मायके जाएगी, तब वह नई बहू का डोला घर लाएगी.
इसके बाद जगदीश को ऐसा महसूस हुआ कि उसके दिल का मांस सो गया है. किरण का प्यार उसके दिल में चुटकी भर रहा था, पर उसके दिल को कुछ महसूस नहीं हो रहा था. नई बहू की कोख से उत्पन्न होने वाले बच्चे की हंसी उसके दिल को गुदगुदा रही थी, पर उसके दिल को कुछ नहीं हो रहा था.
सातवें दिन जगदीश के घर उसकी नई बहू बैठी थी. जगदीश के सभी अंग जाग रहे थे, एक उसके दिल का मांस सोया हुआ था. दिल के सोये हुए मांस को उसके जाग रहे अंग सभी स्थानों पर ले गए थे. नई ससुराल में भी और नई बहू के बिछौने पर भी.
जगदीश मुंह अंधेरे अपने खेत में बैठा तंबाकू पी रहा था, जब जगदीश का एक पुराना मित्र वहां से गुज़रा.
"इतने सबेरे कहां चला है भवानी?"
भवानी एक मिनट चौंककर ठहर गया, चाहे उसने अपने कंधे पर एक छोटी सी गठरी उठाई हुई थी, फिर भी धीरे से कहने लगा, "कहीं नहीं "
"कहीं तो... आ, तंबाकू पी ले." जगदीश ने कहा. भवानी बैठ गया और जगदीश के हाथ से चिलम लेकर पीता हुआ कहने लगा, "सिकरारा चला हूं. आज वहां मेला है."
मेले के शब्द ने जगदीश के दिल में जाने कैसी सुई चुभो दी. जगदीश को महसूस हुआ कि उसके भीतर कहीं पीड़ा हुई थी.
"आज मेला है?" जगदीश के मुंह से निकला.
"हर वर्ष आज के दिन ही तो होता है." भवानी ने कहा. फिर जगदीश की ओर ऐसे देखा, जैसे वह यह भी कह रहा हो, "तू भूल गया है इस मेले को? सात वर्ष हुए जब तू मेले में गया था. मैं भी तो तेरे साथ था. तूने इसी मेले में तो किरण को अपने मन में उतारा था. इसी मेले में तो तूने उसे पसंद किया था."
भवानी ने कहा कछ नहीं पर जगदीश को ऐसे महसूस हुआ कि जैसे उसने सब कछ सुन लिया था. उसको भवानी पर ग़ुस्सा आ रहा था कि वह यह सब क्यों सुन रहा है.
भवानी जगदीश की चिलम छोड़कर उठ खड़ा हुआ. भवानी की पीठ पर लटक रही गठरी में से उसकी बांसुरी का सिरा बाहर निकला हुआ था. भवानी चलता जा रहा था.
जगदीश उसकी पीठ को देखता रहा. पीठ पर रखी हुई छोटी सी गठरी को देखता रहा. गठरी में से निकले हुए बांसुरी के सिरे को देखता रहा.
"भवानी और भवानी की बांसुरी मेले जा रहे हैं." जगदीश को अपनी बांसुरी स्मरण हो आई. जब उसने मायके जा रही किरण को अपनी बांसुरी देते हुए कहा था, "तू इसे साथ ले जा." फिर जगदीश को ख़्याल आया, "और मैं."
जगदीश का मन आया कि वह भी भवानी के पीछे-पीछे दौड़ पड़े. वह अपनी उस बांसुरी के पीछे दौड़ पड़े, जो उससे पहले मेले में चली गई थी.
जगदीश ने हाथ में से चिलम फेंक दी और भवानी के पीछे-पीछे दौड़ पड़ा. फिर जगदीश की टांगें कांपने लगीं. वह वहीं बैठ गया.
जगदीश को सारा दिन और सारी रात मेले जा रहे भवानी की पीठ दिखाई देती रही.
दूसरे दिन तीसरे पहर कर समय था. जगदीश अपने खेत में बैठा हुआ था. उसने मेले में से आते हुए भवानी को देखा.
जगदीश ने मुंह एक ओर कर दिया. उसने सोचा कि मुझको न तो भवानी का मुंह दिखाई दे और न भवानी की पीठ. इस भवानी को देखकर उसको मेले की याद आ जाती थी और यह मेला उसके सोए हुए दिल के मांस को जगा देता था. फिर जब वह मांस जाग पड़ता था, तो उसमें बहुत पीड़ा होती थी.
जगदीश ने मुंह फेर लिया, पर भवानी चक्कर काटकर भी जगदीश के सामने आ बैठा. भवानी का मुंह ऐसा था, जैसे किसी ने जल रहे कोयले पर अभी-अभी पानी डाला हो और उसके ताप का रंग अब लाल न होकर काला हो गया हो. जगदीश ने डरकर भवानी के मुंह की ओर देखा.
"किरण नहीं रही." भवानी ने आहिस्ता से कहा. "किरण नहीं रही?"
"उसने तुम्हारे विवाह की बात सुनी और मिट्टी का तेल अपने ऊपर डालकर जल गई."
"मिट्टी का तेल?" इसके बाद जगदीश बोला.
"नहीं..." पहले भवानी डरा. फिर जगदीश के मां-बाप डर गए. उसके बाद जगदीश की नई बहू भी डर गई कि जगदीश को पता नहीं क्या हो गया था. वह न किसी के साथ बोलता था और न किसी को पहचानता दिखता था.
यह भी पढ़ें: रिश्ते को कैसे बचाएं एक्पायरी डेट से (How To Save A Relationship From Expiry Date)
कई दिन बीत गए. जगदीश समय पर रोटी खाता, खेती का काम भी करता और सभी के मुंह की ओर ऐसे देखता, जैसे वह किसी को भी न पहचानता हो.
"मैं उसकी औरत काहे की हूं? मैं तो सिर्फ़ इसके फेरों की चोर हूं." नई बहू दिन-रात रोने लगी. यह फेरों की चोरी अगले महीने जगदीश की नई बहू की और जगदीश की मां की आशा बनकर आई. बहू के दिन चढ़ गए थे. मां ने जगदीश को यह बात अकेले में बैठकर सुनाई, पर जगदीश ने मां के मुंह की ओर ऐसे देखा, जैसे यह बात उसकी समझ में न आई हो.
जगदीश को चाहे कुछ समझ में नहीं आया, पर वह बात बहुत बड़ी थी. मां ने नई बहू को हौसला दिया कि तू हिम्मत से यह बेला काट ले. जिस दिन मैं तुम्हारा बच्चा जगदीश की झोली में रखूंगी, तो जगदीश की भी सुधियां पलट आएंगी. फिर वह बेला भी कट गई. जगदीश के घर बेटा पैदा हुआ. मां ने बालक को नहलामा-धुलाया, कोमल रेशमी कपड़े में लपेट कर जगदीश की झोली में डाल दिया.
जगदीश झोली में पड़े हुए बच्चे को देखता रहा, देखता रहा, फिर चीखते हुए चिल्लाने लगा, "इसको दूर करो, दूर करो, मुझे इसमें मिट्टी के तेल की बू आती है." फिर वह लगातार चीखता-चिल्लाता रहा, जब तक कि यह स्वयं बेहोश नहीं हो गया.
- मनोज कुमार सिंह

