शुक्र है, इतने बदलावों के बीच भी कुछ चीज़ें नहीं बदल रहीं. हमारी वो परंपरा, जो हमारी पहचान है, उन पर अब भी इस भौतिकता का प्रभाव नहीं पड़ा है. ये छोटे-छोटे बच्चे भी बड़ों के आशीर्वाद का महत्व जानते हैं, फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मकान कच्चे हैं या पक्के, ये बच्चे बड़ों का सम्मान करते हैं, फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि खाना चूल्हे पर पका है या गैस पर...
न जाने वो ख़ुशबू कहां खो गई थी, वो कच्चे मकानों की ख़ुशबू... वो मिट्टी की ख़ूशबू... वो अपनेपन की ख़ुशबू... अब यहां घरों के बीच, छतों के बीच, दहलीज़ों के बाहर भी दीवारें खिंची हुई थीं... कहने को तो ये ईंट-पत्थर की दीवारें थीं, पर यूं लग रहा था जैसे ये दीवारें घरों के बीच नहीं, दिलों के बीच भी खिंच चुकी हैं.
न अब यहां पंछी चहकते हैं, न मोर नाचते हैं... न गाय की वो पहली रोटी बनती है, न वो कचोरी-समोसे बिकते हैं... इतना बदलाव भला कहां लेकर जा रहा है हमें?
हर गली-नुक्कड़ पर शहरीपन की छाप... अपनी आंखों से देख रही हूं मैं, मेरा ये प्यारा गांव सिकुड़ रहा है, सिमट रहा है... यहां एक शहर पसर रहा है...
मन ही मन कई सवाल उठ खड़े हुए कि वैसे शहरीकरण में बुराई ही क्या है? मुझे तो शहर पसंद है, वहां की वो बिज़ी लाइफस्टाइल, वर्क प्रेशर, बड़े-बड़े मॉल्स... और लेट नाइट पार्टीज़... लेकिन कभी-कभी इन सबसे भी तो ऊब होने लगती है, तब हम भागते हैं अपनी जड़ों की ओर. वो हमें लुभाती हैं, खींचती हैं अपनी तरफ़. अपने तनावों से निपटने के लिए, अपनों से मिलने के लिए, अपनी असली ज़िंदगी को जीने के लिए हम गांव का रुख़ करते हैं. वहां की ताज़गी, वहां का अपनापन हमें आकर्षित करता है और हम अपनी इस बनावटी-दिखावटी दुनिया के सारे नकाब फेंककर वहां खुलकर जीने के लिए चल पड़ते हैं.
भले ही वहां शहरों जैसी भौतिक सुख-सुविधा न हो, लेकिन एक चीज़ है वहां- समय. अपनों के बीच रहकर सुख-दुख बांटने का समय वहां सबके पास है, जो किसी भी सुख-सुविधा से कहीं ज़्यादा है.
लेकिन आज ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि मेरा गांव मुझसे छिन गया है. यह कोई अंजान-सी अजनबी जगह है. पहलेवाली कोई बात नहीं. लोग इसे तऱक्क़ी कहते हैं, पर क्या वाक़ई यह तऱक्क़ी है?
ज़मीनों पर खेत नहीं लहलहाते अब, वहां तो कोई मल्टीनेशनल कंपनी बननेवाली है... वो नुक्कड़ के चाचा की छोटी-सी दुकान पर पान के स्वादवाली खट्टी-मीठी गोलियां भी नहीं बिकतीं अब. चाचा के जाने के बाद उनके बेटे ने कपड़ों का शोरूम जो खोल लिया है... पास की गली की ब़र्फ फैक्टरी बंद हो चुकी है, वहां गिफ्ट शॉप आ गई है. पिछली गली में जो मार्केट थी, वहां बड़ा-सा मॉल बन चुका है... मैं तो यहां ख़ुद को खोजने आई थी. कहां है मेरा अस्तित्व? कहां हैं वो गलियां, जहां मेरा बचपन गुज़रा था...? कहां हैं वो मैदान, जहां मैं खेलने जाती थी...? वो कुआं कहां है, जो दादाजी ने बनवाया था? वो आंगन कहां है, जहां लोगों का
आना-जाना लगा रहता था? वो रसोई, वो चूल्हा कहां है, जहां सबके लिए चाय-नाश्ता-खाना-पीना बना करता था?
ये मेरा गांव नहीं है... इसकी सूरत ही नहीं, सीरत भी बदल गई है... अब न कोई छतों पर आकर आपस में बात करता है, न किसी के दुख-सुख के बारे में कोई पूछता है... सबने तऱक्क़ी जो कर ली है, सबके पास पहले से अधिक पैसा जो आ गया है... सुख-सुविधाएं जो बढ़ गई हैं... फिर भला समय कहां रह गया किसी के पास.
कच्ची सड़कें पक्की हो गईं. साइकल रिक्शा की जगह ई-रिक्शा ने ले ली. बैल गाड़ी, ऊंट गाड़ी तो जैसे क़िस्से-कहानियों में ही नज़र आएंगे अब, टैक्सी की सुविधाएं हो गई हैं, बसों और ट्रेनों का अच्छा-ख़ासा नेटवर्क हो गया है. और हां, सबसे बड़ी बात मोबाइल फोन्स ने तो सबकी ज़िंदगी ही बदलकर रख दी है. इंटरनेट अब घर-घर की ज़रूरत हो गया है... सोचती हूं कि लौट जाऊं अब. क्या रह गया है यहां...
“अरे, कहां खोई हुई है वर्षा? तुझे आए तीन दिन हो गए, लेकिन पता नहीं किन ख़्यालों में खोई रहती है? क्या बात है?” चाची की बात से मेरी तंद्रा भंग हुई.
“कुछ नहीं चाची, बस यही सोच रही हूं कि कितना कुछ बदल गया है 5-6 सालों में ही. पिछली बार जब गांव आई थी, तो सब कुछ अलग था.”
“देख, तेरे लिए ही हमने मकान भी ठीक करवा लिया है. अब तो कच्चे मकान भी नहीं हैं, पक्के हो गए. टाइल्स लगवा ली, एसी लग गया, फ्रिज, गैस सब कुछ है, तेरे चाचा ने सब तेरे लिए किया, ताकि तुझे असुविधा न हो. तुझे तो पता ही है, तेरे चाचा कितना प्यार करते हैं तुझसे.”
“हां चाची, लेकिन वो कच्चे मकान भी तो अच्छे ही थे. हम आंगन में या फिर छत पर खुली हवा में सोते थे. सुबह-सुबह मोर, तो शाम को बंदर भी आते थे. अब तो कुछ भी नहीं नज़र आता.”
“चल छोड़ तू यह सब, बता आज खाने में क्या बनाएं?” चाची ने पूछा.
मैं कुछ बोल पाती, इससे पहले ही घर के बच्चे बोल पड़े, “बुआजी, आज मम्मी को बोलो बे्रड पिज़्ज़ा बनाकर खिलाएंगी.”
“बेटा, ब्रेड पिज़्ज़ा तो कभी भी खा सकते हैं. गांव के चूल्हे की रोटी खाने में जो मज़ा है, वो ब्रेड में कहां?”
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“चूल्हा अब कहां है?” बच्चों ने कहा.
“क्यों, ऊपर छत पर था न पहले तो?” मैंने आश्चर्य से पूछा.
“पहले था, पर अब कोई भी चूल्हे पर रोटियां नहीं सेंकता. घर-घर में गैस आ चुकी है, तो कौन धुएं में अपनी आंखें फोड़ेगा.” चाची ने कहा.
“पर चाची, आप ही तो कहती थीं कि चूल्हे की रोटियां ही सेहत के लिए सबसे अच्छी होती हैं. गैस में पका खाना तो शरीर को नुक़सान ही पहुंचाता है.”
“हां बेटा, कहती तो अब भी हूं, लेकिन अब व़क्त के साथ बदलना पड़ता है. चूल्हा-चौका भी बदल गया है. तेरी भाभी भी चूल्हे पर खाना नहीं बनाती. पर मैं तेरे लिए आज बाटी बनाऊंगी, तुझे पसंद है न.” चाची ने लाड़ से कहा.
अगली सुबह मैं अपना सामान पैक कर रही थी कि चाची ने पूछा, “क्या बात है वर्षा, कहां जा रही है?”
“चाची, मैं वापस जा रही हूं, ऑफिस जल्दी जॉइन करना है.”
“ये क्या बात हुई, तू तो 15 दिन की छुट्टी लेकर आई थी. फोन पर तो कहा था तूने कि इस बार पूरे 15 दिन आप लोगों के साथ बिताऊंगी. इतने सालों बाद तो आती है और अब जाने की बात कह रही है.”
चाची नाराज़ हो रही थीं, लेकिन मैं भी क्या करती. मन ही नहीं लग रहा
था. “चाची, सच कहूं तो मेरा मन ही नहीं लग रहा इस बार. सब अपने-अपने घरों में कैद हैं, न समय है, न फुर्सत. टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल में ही सिमट गई हैं यहां भी लोगों की ज़िंदगियां. अब आंगन में आकर कोई नहीं बैठता, न छतों पर आकर आपस में बातचीत होती है. छतें भी अब कहां रह गईं, हर जगह स़िर्फ दीवारें ही दीवारें नज़र आती हैं. शहर में दम घुटने लगता था, तो हम अपने गांव आ जाते थे सुकून के कुछ पल गुज़ारने, लेकिन गांव में भी अगर दम घुटने लगेगा, तो कहां जाएंगे? ये सुख-सुविधा तो बाद की बात है, पहले कच्चे मकानों में चूल्हे की रोटियां खाकर जो सुकून मिलता था, वो अब एसी कमरों में बैठकर गैस पर बने ब्रेड पिज़्ज़ा में नहीं मिलता...”
भावनाओं में बहकर न जाने मैं क्या-क्या और कब तक बोलती रही... “बुआजी, राम-राम! आशीर्वाद दीजिए, आज से मेरी परीक्षाएं शुरू हो रही हैं. स्कूल जा रहा हूं.” मेरे 5 साल के भतीजे ने मेरे पांव छूकर जैसे ही यह कहा, तो एक अलग ही अनुभव हुआ. नकारात्मक भावनाओं का बहाव अचानक रुक गया... मैंने उसे आशीर्वाद दिया, तो थोड़ी देर बाद ही मेरी 8 साल की भतीजी भी तैयार होकर आ गई. उसने भी राम-राम कहा और सबसे आशीर्वाद लेने लगी.
मेरे मन में एक बात अचानक आई और रोज़ सुबह का वो मंज़र घूम गया, जब ये बच्चे 6 बजे उठकर स्कूल के लिए तैयार होकर सबको राम-राम कहते हैं और पांव छूकर आशीर्वाद लेते हैं. मैं सोई हुई होती हूं, तब भी मेरे पैरों को हाथ लगाकर स्कूल के लिए चल पड़ते हैं और दोपहर में भी स्कूल से लौटकर सभी के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेते हैं. मैंने अपनी पैकिंग वहीं रोक दी और बच्चों से कहा, “चलो, मैं तुम लोगों को स्कूल छोड़कर आती हूं आज.”
बच्चे तो ख़ुशी से उछल पड़े. वापस घर आई, तो मैं काफ़ी हल्का महसूस कर रही थी. दरसअल, मैं यह समझ ही नहीं पाई कि भले ही भौतिक चीज़ें बदल रही हैं, गांव में भी सुख-सुविधाएं बढ़ी हैं, लेकिन हमारे संस्कार अब भी ज़िंदा हैं. हमारे ये छोटे-छोटे बच्चे आज भी सुबह उठकर सबको राम-राम कहना और सबके पांव छूना नहीं भूले. बड़ों का आशीर्वाद इन्हें परीक्षाओं में हौसला देगा, यह बात इतनी-सी उम्र में भी ये जानते हैं... यही तो है हमारे गांव, हमारे संस्कार, हमारी पहचान. हम अपना अस्तित्व क्यों उन गली, मोहल्लों, नुक्कड़ों या छतों में छिपी यादों में ढूंढ़ते फिरते हैं, जबकि हमारा अस्तित्व तो हमारे संस्कारों में है. इन बच्चों में है, जो आनेवाली पीढ़ी हैं, जो हमारा भविष्य हैं. मैं भी कितनी मूर्ख हूं, जो इन मूल संस्कारों को छोड़कर बाहरी चीज़ों में सुकून ढूंढ़ती रही.
शुक्र है, इतने बदलावों के बीच भी कुछ चीज़ें नहीं बदल रहीं. हमारी वो परंपरा, जो हमारी पहचान है, उन पर अब भी इस भौतिकता का प्रभाव नहीं पड़ा है. ये छोटे-छोटे बच्चे भी बड़ों के आशीर्वाद का महत्व जानते हैं, फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मकान कच्चे हैं या पक्के, ये बच्चे बड़ों का सम्मान करते हैं, फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि खाना चूल्हे पर पका है या गैस पर... ये बच्चे अपने संस्कारों से बेहद प्यार करते हैं, फिर क्या फ़़र्क पड़ता है कि ये बाटी खा रहे हैं या पिज़्ज़ा...
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दरअसल, हम वेशभूषा, खान-पान और रहन-सहन को ही अपनी संस्कृति और अपनी पहचान मान लेते हैं, जबकि इन बाहरी आवरणों से भी कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि हम अपनी पहचान से, अपने अस्तित्व से और अपने संस्कारों से दिल से कितना प्यार करते हैं. उसका कितना सम्मान करते हैं.
अगर मुझे कोई देहाती कहे, तो मुझे चिढ़ होती है, लेकिन अपने देहात में तो मैं उसी देहातीपन को ढूंढ़ती हूं... अगर मुझे कोई गंवार कहे, तो ख़ुद को सॉफिस्टिकेटेड दिखाने की तमाम कोशिशों में जुट जाती हूं, लेकिन गांव में आकर तो दिल उस गंवारपन में ही घुलना-मिलना चाहता है... जिस दिन यह दोहरा मापदंड हम अपने भीतर से निकाल देंगे, तब हमें अपने गांव को गांव में आकर यूं खोजना नहीं पड़ेगा... क्योंकि वो हमारा अस्तित्व बनकर हमारे मन में, हमारे संस्कारों में हमेशा हमारे साथ बना रहेगा.
“चाची, आज खाने में क्या बना रही हो?”
“मैंने छाछ और आलू के परांठे बनाए हैं. देशी घी भी है घर का बना हुआ. तेरे लिए कल से चूल्हे पर रोटियां भी सेंक देंगे. कह दिया है तेरी भाभी को. लेकिन तू तो जाने को कह रही थी, अब क्या हुआ...?”
“चाची, मेरे वापस जाने में कई दिन हैं, अभी तो मुझे नई सब्ज़ी मंडी, नई मार्केट, सिनेमाघर और मॉल भी देखने हैं... और हां, चूल्हे में बना खाना भी तो खाना है... और भाभी के हाथों का ब्रेड पिज़्ज़ा भी...”
गीता शर्मा
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