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कहानी- गेट सेट गो… (Short Story- Get Set Go…)

गेट सेट गो… और दौड़ शुरू हो गई. एक ऐसी रेस जिसकी शुरुआत तो होती है पर अंत… अंत नहीं होता या होता भी है तो बड़ा ही विभत्स, बड़ा ही भयावह. यह रेस, यह कहानी आज की पीढ़ी की है, जो समझदार है, मैच्योर्ड है, अपने भविष्य को लेकर गंभीर है, सजग है, प्रैक्टिकल है… तो आप सोच रहे होंगे कि यह कैसी कहानी है, इसमें तो कोई मुश्किल, कोई समस्या नहीं है, पर सच ये है कि उपरोक्त सभी गुण अपने आप में बड़ी समस्याएं हैं. कैसे..? तो आइए, पढ़िए.

शाम के लगभग सात साढ़े सात बजे हैं. आसपास सभी जगहों की बिजली कट जाने से पूरा शहर कोयले की खान सा लग रहा था, जिसे धुआंधार बारिश भिगो रही थी. सिर्फ़ एक ऊंची इमारत की आठवीं मंजिल पर गीता की स्टडी में जनरेटर का उजाला नज़र आ रहा था, मानो कोयले की खान में हीरे की चमक थी. गीता स्टडी की खिड़की में कॉफी का मग लिए बैठी थी और खिड़की के कांच से फिसल रही एक-एक पानी की बूंद को बड़े ध्यान से देख रही थी. मानो उसके दिमाग़ की दीवार पर से विचारों की बूंदें इसी तरह फिसल रही थीं. विचार, अतीत और यादें ये तीनों चीज़ें अगर किसी सुई सी चुभें, तो कितनी भयावह हो जाती हैं. और अगर यह चुभते विचार रात को आएं, तो यह किसी भूत-पिशाच से कम नहीं लगते. रोज़ गीता अपने लिए एक मग कॉफी बनाकर स्टडी की खिड़की में बैठती है और एक घंटे बाद उसी एक मग ठंडी कॉफी को किचन सिंक में उड़ेल देती है मानो अपने भीतर के किसी मवाद को बाहर निकालकर फेंकती हो.
“गीतू, कहां हो तुम, आज हम डिनर करने बाहर जाएंगे.”
“नहीं कमल, प्लीज़ आज मेरा मूड नहीं है. घर पर ही मैगी बनाकर खाते हैं.”
“चलो ना गीतू, मैं आज बहुत ख़ुश हूं. मेरे हाथों आज कंपनी को बहुत बड़ा फ़ायदा हुआ है सेलीब्रेट करते हैं.”
“तुम क्यों नहीं समझते कमल, मेरा मन नहीं है. मुझे आज बहुत फायरिंग हुई है.”
“चलो ना गीतू, बाहर जाओगी, तो तुम्हें फ्रेश लगेगा.”
“तुम सेलीब्रेट करना चाहते हो, तो तुम जाओ, मैं नहीं आऊंगी.” “ठीक है, तो मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर जा रहा हूं, तुम अपने ख़राब मूड के साथ बैठो घर पर.” कमलेश को रोकने के इरादे से ज्यों ही गीता ने अपना हाथ बढ़ाया उसके हाथ में स्टडी की खिड़की का परदा आया और वह झेंपकर अपने अतीत से बाहर आई.
गीता का अतीत, जिसमें सिर्फ़ काली दीवारें थीं, क्योंकि प्रेम का झरोखा कब का ईंट और सीमेंट से ढंक गया था. रिश्तों को नवजीवन दे सके ऐसी कोई बयार उसके आलीशान थ्री बीएचके फ्लैट में नहीं थी. अब इस बड़े से घर की वह एकलौती साम्राज्ञी थी और उसके जीवन की भी. अब सबकुछ उसका था या यूं कहें सिर्फ़ उसका. अब सारी चीज़ें उसके अनुरूप होंगी, जैसा वो हमेशा से चाहती थी. अगर वह ख़ुश है, तो सारा घर ख़ुश होगा, अगर वो दुखी है, तो सारी दीवारें भी उदास हो जाएंगी.
जी हां दीवारें, अपना कहने को अब उसके पास यही बचा था. हां, एक नौ साल की बेटी भी है स्वरा, जो होकर भी नहीं के बराबर है. जो हमेशा ख़ामोश, चुपचाप-सी अपने कमरे में रहती है, जो नौ साल की उम्र में किसी प्रौढ़ा सा गांभीर्य धारण किए हुए है. जो अक्सर अपनी मां का कहा मानती है और जिसे गीता अपने जैसा बनाना चाहती है, ज़िंदगी की हर रेस में सक्सेसफुल.
गीता ने अपनी एक मग कॉफी सिंक में फेंकी और अपनी बेटी के कमरे में झांका, उसकी खिड़की में चांद अब भी चमक रहा था, जैसे सिर्फ़ उसी के कमरे के बाहर बारिश न हुई हो. उसके कमरे की छत पर लगे छोटे-छोटे सितारे झिलमिला रहे थे. उसके डॉल हाउस में रखी सभी गुड़िया स्वरा के साथ खेल-खेलकर थकी सी लग रही थीं. स्वरा को विंड चाइम की आवाज़ बहुत पसंद थी, इसलिए उसकी खिड़की में उसने एक विंड चाइम लगाया था, जिसकी मासूम आवाज़ बिल्कुल स्वरा के चेहरे से मेल खाती थी.
सामान्यतः माता-पिता अपने सोए बच्चे को अक्सर प्यार दुलार करते हैं, उसके माथे को चूमते हैं, पर गीता ने ऐसा कुछ नहीं किया और वह वहां से चली गई. शायद स्वरा की नींद को भी अपनी मां से कोई अपेक्षाएं नहीं थीं.
‘अपेक्षा…’ इन्हीं अपेक्षाओं और इच्छाओं ने गीता का घर फूंका था. शादी के आठ साल बाद पति के अफेयर ने उसकी ज़िंदगी में किसी सूनामी सा तूफ़ान ला दिया था. पर अचरज की बात तो यह है कि जब गीता को इसका पता चला, तो उसे अपने परिवार के टूटने की चिंता या कमलेश के उससे दूर जाने की फ़िक्र नहीं थी, बल्कि उसके अहम् को चोट लगी थी. वह सोचती थी कि मुझ जैसी सेल्फ डिपेंडेंट, कमाऊ पत्नी को छोड़ किसी ऐरी-गैरी से इश्क़ फरमाना कमलेश की मूर्खता है और कुछ ही दिनों में उसे इसका एहसास होगा और वह वापस आ जाएगा, पर क्या वाक़ई ऐसा हो पाया?


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कमलेश सभी सामान्य पतियों की तरह ही था, लेकिन गीता के साथ ऐसा नहीं था. वो दिखने में चाहे सामान्य थी, पर उसकी इच्छाएं, अपेक्षाएं असामान्य थीं. दोनों की इन्हीं असामान्यताओं ने उनके जीवन में विडंबनाएं उत्पन्न कर दी थीं. दस साल का समय काफी लंबा होता है और इतनी लंबी शादी के बाद ऐसा होना वाक़ई आश्‍चर्यजनक है, पर ऐसा हुआ और आजकल ऐसा ही हो रहा है, पर क्यों..?
गीता और कमलेश की शादी किसी दबाव में नहीं हुई थी, दोनों ने पूरी समझदारी और उनके आपसी तालमेल को देखकर शादी की थी.
अक्सर हम अपने जीवन के बहीखाते तभी खोलते हैं जब ज़िंदगी हमें किसी बड़े नुकसान में डालती है. आज गीता के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था. नुकसान तो गीता का दो साल पहले ही हो चुका था, पर उसका एहसास शायद उसे आज हो रहा था. उसने अपनी आलमारी खोली, उसमें से एक गुलाबी साड़ी निकाली, जो उसकी बाकी साड़ियों से कम क़ीमत की लग रही थी. फिर उस साड़ी में मुंह छुपाकर वह फूट-फूटकर रोने लगी.
“ओह कमलेश! तुम कहां हो?” वह ख़ुद से ही बुदबुदाने लगी. गीता का मन कर रहा था कि वह दौड़कर दस साल पहले वाले कमलेश के पास पहुंच जाए. उसका मन तो शायद वहां पहुंच भी चुका था और वह ख़ुद को ही ख़ुद की कहानी बताने लगी. “गुड मॉर्निंग गीता, शादी की पहली सालगिरह मुबाकर हो.” गीता ने अलसाई सी आंखें खोलीं और देखा कि कमलेश हाथ में गुलदस्ता लिए खड़ा था.
गीता ने कहा, “तो आज क्या प्लान है. पार्टी कहां है?” कमलेश ने कहा, “माय डियर, कोई पार्टी नहीं, आज का दिन सिर्फ़ हम तुम साथ बिताएंगे. मुझे हम दोनों के बीच कोई और नहीं चाहिए. हां, और यह है तुम्हारा गिफ्ट.” कहकर कमलेश ने एक पैकेट गीता के हाथ में दिया. गीता ने पैकेट खोला और ख़ुशी से झूमकर कमलेश के गले लग गई. यह वही गुलाबी साड़ी थी. उस दिन हम दोनों ने साथ में कितना अच्छा समय बिताया था. पूरा दिन कमल का हाथ मेरे हाथों में था. उस रात छत पर खुले आसमान के नीचे तारों को देखते कब पौ फट गई पता ही नहीं चला. मुझे याद है, दूसरे दिन की सुबह जब मैं नाराज़ थी कि कल का दिन इतनी जल्दी क्यों बीत गया, तो कमल मेरे पास आए और मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहने लगे, “गीतू, मैं तुमसे वादा करता हूं कि हमारी आनेवाली सभी सालगिरह कल के दिन से कई गुना अच्छी होंगी, क्योंकि आने वाले दिनों में हमारा प्यार और बढ़ेगा. गीतू, मैं तुम्हारे साथ उम्र का हर पड़ाव, हर सुख-दुख देखना चाहता हूं, अपने जीवन की हर शाम तुम्हारे साथ गुज़ारना चाहता हूं. क्या तुम मेरा साथ दोगी?” इतना कहकर कमलेश ने अपना हाथ आगे बढ़ाया. गीता ने हामी भरने के लिए अपना हाथ कमलेश के हाथ में देना चाहा, पर वह भूल गई थी कि बीच में दस साल का फासला है जिसके एक ओर वह खड़ी थी और दूसरी ओर कमलेश.


गीता अभी भी उस साड़ी से बात कर रही थी. “कहां हो कमल तुम, आज हमारी शादी की दसवीं सालगिरह है. आज तुम्हारी हथेलियों के स्पर्श की कमी महसूस हो रही है. मुझे फिर से अपनी गीतू बना लो कमल, प्लीज़..!” और उस साड़ी में वह फिर कमलेश के हाथों का स्पर्श ढूंढ़ने लगी. तभी उसे उस साड़ी की आख़िरी तह में कमलेश का एक ग्रीटिंग मिला, जिस पर लिखा था ‘आय लव यू माय डियर गीतू’ उसकी भावनाओं के समंदर में अचानक कई सारे भंवर पड़ गए, जो उसे खींच कर यादों के धरातल पर ले जा रहे थे.
वह सोच-सोचकर मुस्कुरा रही थी, 'कितना निर्मल, स्वच्छ और शीतल प्रेम था वह किसी झरने की तरह. पता नहीं इसकी निर्मलता कैसे छिन गई? हमें एक-दूसरे का साथ कितना अच्छा लगता था, फिर हम अलग कैसे हो गए? कमल तुम्हें किसी और से प्यार कैसे हो गया?' शायद आज की रात गीता अपने सारे सवालों के जवाब चाहती थी. हमें अपनी ग़लतियों का एहसास शायद तभी होता है जब हमारा अपना मन उन्हें हमें बताता है. उसने इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए सारे पुराने फोटो एल्बम निकाले. शादी, हनीमून, दूसरे ही साल स्वरा का जन्म… कितने ख़ुश हैं हम सब, पर यह क्या… धीरे-धीरे रिश्तों में आता खिंचाव और तनाव तस्वीरों में भी नज़र आ रहा था. तस्वीरों में ख़ुशियां ढूंढ़ते- ढूंढ़ते गीता को नींद लग गई.
सुबह जब वह उठी तो उन्हीं सवालों के साथ जिन्हें वह रातभर सिरहाने रखे हुए थी. कॉफी सिंक में फेंकने के अलावा पिछले दो सालों से गीता का और एक नियम था, वह ठीक शाम छह बजे कमलेश और उसकी नई धर्मपत्नी सुधा के घर के सामने एक कॉफी शॉप में बैठकर उन दोनों को आधा घंटा चोरी-छिपे देखती थी. कमलेश ऑफ़िस से आता, तो सुधा हंसकर उसके लिए दरवाज़ा खोलती, उसके फ्रेश होने तक चाय बनाकर लाती और चाय की चुस्कियों के साथ दोनों ख़ूब बातें करते. वह यह सब देखकर हमेशा ख़ुश होती और बड़े गर्व से अपने आप से कहती, “ओह कमल! कितने मूर्ख हो तुम. मुझ जैसी सुंदर, स्मार्ट, कमानेवाली, तुम्हें समझनेवाली पत्नी को छोड़कर तुम्हें यह पसंद आई..? जिसे न बात करने का कॉन्फिडेंस है और न ही कपड़े पहनने का सलीका. घर तो देखो, मानो कबूतरखाना है. खिड़कियां इतनी छोटी हैं कि हवा भी मुश्किल से अंदर आ सके. मुझे पता है, तुम ज़्यादा दिन यहां नहीं रह पाओगे. तुम इस घर में न अपने किसी दोस्त को बुला सकते हो और न ही तुम्हारी सो कॉल्ड पत्नी इस लायक है कि तुम उसे किसी से मिला सको.” यह सब सोचकर वह मन ही मन विक्षिप्त-सा ठहाका लगाती. मानो कमलेश की दुर्गति देखकर वह ख़ुद को विजेता मानती. जब वह कमलेश के साथ थी तब उसने कभी इतना समय कमलेश को नहीं दिया जितना आज वह उसकी जासूसी में बिताती है. दो सालों में वह रोज़ यह करती और आधे घंटे बाद यह सोचकर कि कमलेश तकलीफ़ में है उसका ईगो सैटिस्फाई हो जाता और वह वहां से चली जाती.


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पर आज दो सालों बाद उसकी बनाई काल्पनिक विचारों की दुनिया में जैसे सेंध लग गई थी. उसकी कांच की स्वप्निल दीवारें चटकने लगी थीं. शायद गीता यह पहले से जानती थी कि कमलेश अब ज़्यादा ख़ुश है, सुखी है, पर वह मानना नहीं चाहती थी इसलिए उसने ख़ुद को अपने ही बनाए विचारों में क़ैद कर लिया था. पर आज शायद उसके अभिमान की वह दीवारें ढहने लगी थीं और यथार्थ की धूप उसे झुलसाने लगी थी. वह बेचैन-सी हो उठी और एक बार फिर उसी राक्षसी आनंद को पाने की चाह में उसने कमलेश के घर के सामने वाले कॉफी शॉप की ओर रुख़ किया.
हमेशा की तरह वह काला चश्मा और स्कार्फ लगाकर उस कॉफी शॉप में जाकर बैठ गई. थोड़ी ही देर में वहां कमलेश और सुधा एक साथ स्कूटर पर बैठकर आए. सुधा ने हाथ में कई सारी थैलियां पकड़ी हुई थीं. दोनों एक साथ घर के अंदर गए. अरे! ये क्या हो रहा है? अचानक गीता को सुधा अप्सरा-सी सुंदर दिखने लगी, वह उसके सामने ख़ुद को बहुत ही कुरूप महसूस करने लगी. गीता मन ही मन सोचने लगी, “कितनी सुंदर लग रही है सुधा. नखशिखांत कमलेश के प्यार में नहाई हुई. किस तरह इसका रोम-रोम प्रेम में भीगा-सा लग रहा है. किसी के आजन्म साथ होने का एहसास, आत्मविश्‍वास बनकर उसके चेहरे पर चमक रहा है. आज कमलेश के घर से यह कैसी आभा आ रही है, जिससे मैं आंखें नहीं मिला पा रही हूं. आज मुझे अचानक कमल की छोटी-सी खिड़की इतनी बड़ी क्यों लग रही है?” उस खिड़की से अंदर देखा तो कमलेश और सुधा चाय की चुस्कियां ले रहे थे.
“कितना सुखी है कमलेश, चिंता की कोई शिकन नहीं. न किसी फ्यूचर की फिक्र, न किसी अतीत की पीड़ा. न तो पैसों की प्लानिंग और न ही कोई उपहार ना सरप्राइज़.” उन दोनों की प्यारभरी अठखेलियों को देख गीता के होंठों पर हंसी और आंखों में आंसू आ गए. गीता ने अपना काला चश्मा हटाया, आंखें पोंछी और वहां से उठने ही वाली थी कि सामने से कमलेश उसी कॉफी शॉप की ओर आता दिखाई दिया. उसे देखते ही गीता झेंप गई. उसने अपना स्कार्फ ठीक किया, चश्मा लगाया और वहां से निकलने लगी, तभी उस आवाज़ ने उसे ऊपर से नीचे तक हिलाकर रख दिया, “गीता… सुनो, ज़रा बैठो, मुझे तुमसे बात करनी है.” गीता ने आश्‍चर्य से देखा, वह कमलेश था. कमलेश के उस छोटे से घर से आ रही सारी चमक उसकी आंखों में भर गई. वह कमलेश को बस देख रही थी. वह सोचने लगी, 'कमल ज़रा भी नहीं बदला. आज भी वैसा ही है जैसा दो साल पहले था. वह कहना चाह रही थी कि कमल, मैं भी अपनी पूरी ज़िंदगी तुम्हारे साथ बिताना चाहती हूं.' फिर अचानक उसे याद आया कि अब कमलेश उसका नहीं है.


वह कुर्सी खींचकर बैठ गई. उसके सामने कमलेश भी बैठ गया. दोनों ने कॉफी ऑर्डर की. अब उस गरम कॉफी के साथ वहां उस टेबल पर एक ठंडी ख़ामोशी भी थी. उस बर्फीली ख़ामोशी की दीवार को कमलेश ने तोड़ा. “गीता, तुम सोच रही होगी कि आज तुम्हें देखकर मैं यहां आया हूं, पर ऐसा नहीं है, मैं पिछले दो सालों से रोज़ तुम्हें यहां आते हुए देखता हूं. तुम यहां रोज़ आधा घंटा बैठती हो मुझे और सुधा को देखती हो.” गीता के कान सुन्न हो गए, उसे लगा जैसे किसी ने उसे चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया हो. वह कमलेश से नज़रें नहीं मिला पा रही थी. फिर उसने किसी तरह ख़ुद को समेट कर उस कुर्सी पर रखा. बड़ी हिम्मत करके उसने कमलेश से पूछा, “फिर आज तुम यहां क्यों आए हो?” कमलेश के चेहरे पर एक मुस्कान आ गई, उसने गीता से कहा, “गीता, पिछले दो सालों से तुम यहां सिर्फ़ मुझे दुखी देखने और अपने झूठे ईगो को सैटिस्फाई करने आती थी, यह सब तुम्हारे चेहरे से दिखता था, पर आज… आज तुम्हारे चेहरे पर मैंने सच्चा पछतावा देखा. तुम्हारी आंखों से बहते पानी में पहली बार आंसुओं का खारापन था. तुम दुखी थी, पर तुम्हारे होंठों पर आई हंसी में निश्‍छल ख़ुशी थी. आज तुममें ईगो, ग़ुस्सा, मतभेद, छल जैसी कोई भावना नहीं थी. इसलिए आज मेरा तुमसे बात करना ज़रूरी था.” गीता ने कहा, “कमल, हम यहां तक कैसे पहुंच गए? आठ साल साथ रहने के बाद हम आज साथ क्यों नहीं हैं?” कमलेश ने एक लंबी सांस लेकर कहा, “हां गीता, मैं आज इसीलिए आया हूं, मुझे लगा कि जो आज तक तुमने नहीं सुना वह आज ज़रूर सुनोगी. गीता, हम दोनों की शादी की नींव ही ग़लत थी. तुमने मेरी नौकरी, सैलेरी, घर, एजुकेशन आदि सब देखने के बाद शादी के लिए हां कही. तुम्हारी ही तरह मैंने भी हमेशा स्मार्ट, आत्मविश्‍वासी और कमानेवाली बीवी चाही थी. फिर हम दोनों मिले, हमें लगा कि हम एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह समझते हैं, एक-दूसरे की ऑफ़िस की समस्याओं और करियर की कठिनाइयों को समझ सकते हैं, पर हम दोनों ने यह नहीं देखा कि क्या हम एक-दूसरे की भावनाओं को समझ सकते हैं? यह भी नहीं सोचा कि क्या हम एक-दूसरे की मानसिक व शारीरिक ज़रूरतों का ध्यान रख सकते हैं? हमने सिर्फ़ एक-दूसरे की आर्थिक ज़रूरतों का ध्यान रखा. हमने ख़ुद को एक-दूसरे की ज़िम्मेदारी बना लिया और धीरे-धीरे इन ज़िम्मेदारियों का बोझ इतना बढ़ गया कि हमने अपने-अपने दिलों से प्यार को निकालकर फेंक दिया. फिर स्वरा का जन्म हुआ. हमने अपनी बेटी को भी एक ज़िम्मेदारी की तरह लिया, उसे प्यार नहीं, अच्छे से अच्छा एजुकेशन दिया. उसे समय नहीं, बल्कि वीडियो गेम्स, इंटरनेट दिया. हमारी शादी का धरातल प्यार नहीं, ज़िम्मेदारी था.
मुझे शायद यह बात कुछ जल्दी समझ में आ गई थी. मैं तुम्हें समझाना चाहता था, पर तुम अपने ऑफ़िस, कलीग्ज में गुम थी. तुम्हें तुम्हारा काम, करियर हर चीज़ से प्यारा था, मुझसे भी. मैं कई बार तुम्हारे पास आया अपने प्यार से तुम्हें तरबतर करने, पर तुमने हर बार मुझे दुत्कार दिया. मैंने कई बार तुम्हें भावनाओं की बारिश में ले जाना चाहा, पर गीता तुम सूखी की सूखी ही रह गई. तुम मुझे महंगे से महंगे उपहार देती, सरप्राइज़ेस देती, पर उन उपहारों और सरप्राइज़ेस में बड़े-बड़े प्राइज़ टैग लगे थे गीता, तुम्हारा प्यार नहीं. मेरे मुश्किल समय में हमेशा तुमने अपनी सैलेरी से मुझे आर्थिक मदद की, पर कभी तुमने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर या गले लगकर यह नहीं कहा कि कमल, चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. तुम अपनी दुनिया से बाहर निकलकर कभी कुछ महसूस नहीं करना चाहती थी.


हां, तुमने मुझे हमेशा समझा, मुझे ऑफिस से आने में कितनी भी देर हो जाए, तुमने कभी मुझ पर ग़ुस्सा नहीं किया, वहीं औरों की बीवियां पांच मिनट लेट होने पर उन पर ग़ुस्सा हो जातीं. मैं भी चाहता था कि हमारे बीच भी इस तरह की खट्टी-मीठी नोंक-झोंक हो, थोड़ी बेफ़िक्री हो, कुछ ग़लतियां, कुछ कमियां हों, पर तुम तो रेस में भाग रही थी. भाग रही थी और बड़े घर, बड़ी गाड़ी और बड़ी पोजीशन के पीछे… मैं तुम्हें छूना चाहता था, चूमना चाहता था, अपनी बांहों में छुपाना चाहता था, पर तुम हमेशा इन सब से छूटना चाहती थी. उस वक़्त हमारी शादी शादी न रहकर बिज़नेस डील बन गई थी. हमारी बातें ऑफिस की मीटिंग्स की तरह होती थीं. हम सिर्फ़ शनिवार-रविवार को एक-दूसरे और बच्ची से मिलते थे.
गीता, शादी में प्यार ज़रूरी है, बिना शर्तों का प्यार, बिना अपेक्षाओं का प्यार, न कि फ्यूचर प्लानिंग. फ्यूचर की प्लानिंग करते-करते तुमने अपने वर्तमान को अतीत में बदल दिया.
ऐसे में मुझे सुधा मिली, जिसके सपने, अपेक्षाएं घर-परिवार से शुरू होकर वहीं ख़त्म होते थे. उसने मुझमें भरे प्रेम को दोगुना कर दिया. वह मेरे साथ से ख़ुश थी और उसे जीवन की कोई भी मुश्किल बड़ी नहीं लगती थी. उसकी एक मुस्कान मेरी सारी थकान धो देती थी और उसका एक आंसू मुझे बेचैन कर देता था.
फिर भी मुझे लगता था कि मैं कुछ ग़लत कर रहा हूं, इसलिए मैंने उस दिन तुमसे सुधा के बारे में बात की. मुझे लगा था कि तुम मुझे रोक लोगी, मुझसे कहोगी कि तुम मेरे बिना नहीं जी सकती और मैं रुक जाऊंगा. पर तुमने मुझे यह कहकर आश्‍चर्य का धक्का दिया कि तुम्हें जहां, जिसके साथ जाना है जाओ, पर घर और गाड़ी मेरी है, क्योंकि इनकी ईएमआई मैं भर रही हूं. तुम अपनी विलासिता में इतनी व्यस्त थी गीता कि तुम्हारे दिल में हमारे प्यार के लिए कोई जगह नहीं बची थी.
आज मैं तुमसे यही कहने आया हूं कि अतीत से सीखकर अपने जीवन में आगे बढ़ो. मुझे पता है, अब तुम कभी रास्ता नहीं भटकोगी. गीता, एक बात हमेशा याद रखना, ऑफिस, करियर आपको सैलेरी देंगे, सुख-सुविधाओं के साधन देंगे, पर शांति और सुकून घर आकर ही मिलेगा. मेरी मानो गीता, अब मत भागो. अब रुक जाओ, आराम करो. इस रेस में सबसे बड़ी हार हमारी बच्ची की हुई है. अब उसे संभालो.” इतना कहकर कमलेश ने गीता के सिर पर अपना हाथ रखा और वहां से चला गया. उसने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा. वह अपने घर के अंदर गया और उस झरोखे को बंद कर दिया.
गीता शांत थी. उसकी बेचैनी अब ख़त्म हो गई थी. कमलेश को नुक़सान पहुंचाने के चक्कर में उसने ख़ुद को जो पीड़ा पहुंचाई थी उसका दर्द भी अब कुछ कम हो गया था. कई सालों बाद गीता के चेहरे पर एक स्मित हास्य आया और उसने कॉफी शॉप से बाहर निकलते हुए अपने आप से कहा, “कमल, अब मैं यहां कभी नहीं आऊंगी. मैं स्वरा को अपने जैसा नहीं बनाऊंगी. उसे बेफ़िक्री दूंगी, प्यार करना सिखाऊंगी. उसे भविष्य नहीं, उसका वर्तमान दूंगी.” वह वहां से चली गई. उसका कॉफी का मग खाली था और दिल का बोझ भी हल्का हो गया था.

Madhavi Nibandhe
विजया कठाले निबंधे

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Photo Courtesy: Freepik

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