"… आज मेरी बात कान खोलकर सुन लो. जब तक बिज़नेस में इंट्रेस्ट नहीं दिखाओगे या कोई नौकरी नहीं करोगे, मैं तुम्हारी शादी किसी हालत में नहीं करने वाला. तुम्हारी ख़ातिर मैं किसी पराए घर की लड़की की ज़िंदगी जहन्नुम नहीं बनाने वाला."
"पापा, मुझे अपनी एक कॉलेज फ्रेंड हिना से शादी करनी है."
"अरे बरखुरदार, पहले अपने पैरों पर तो खड़े हो जाओ. शादी करके क्या खिलाओगे उसे और क्या सुख दोगे? अट्ठाईस बरस के होने आए, तुम्हें दिन-रात दोस्तों की अड्डेबाज़ी से फुर्सत मिले, तब तो किसी काम-धंधे के बारे में सोचो तुम. हज़ार बार कहा है थोड़ा ऑफिस में बैठा करो. बिज़नेस में मेरा हाथ बंटाओ, लेकिन तुम्हें अपने फ्रेंड और पिकनिक पार्टी की चकल्लस से समय मिले, तब तो तुम इनके बारे में सोचोगे. आज मेरी बात कान खोलकर सुन लो. जब तक बिज़नेस में इंट्रेस्ट नहीं दिखाओगे या कोई नौकरी नहीं करोगे, मैं तुम्हारी शादी किसी हालत में नहीं करने वाला. तुम्हारी ख़ातिर मैं किसी पराए घर की लड़की की ज़िंदगी जहन्नुम नहीं बनाने वाला."
"पापा प्लीज़, शादी हो जाएगी, तो मैं ख़ुद-ब-खुद ज़िम्मेदार बन जाऊंगा. प्रॉमिज़, ऑफिस भी रोज़ जाया करूंगा आपकी क़सम."
"नहीं… नहीं बेटे… कोरी प्रॉमिज़ और क़समों से मैं नहीं पिघलने वाला. पहले बिज़नेस में लगो, फिर ज़रूर शादी कर दूंगा."
"पापा प्लीज़…"
"राहिल! बस अब इस मुद्दे पर और कोई बहस नहीं." दीक्षितजी ने आंखें तरेरते हुए कहा.
"पापा प्लीज़… हिना के पैरेंट्स उसकी शादी कहीं और कर देंगे. मैं उसके बिना ज़िंदगी जीने की सोच भी नहीं सकता. प्लीज़ पापा… मान जाइए ना.”
"मेरी बात मान लो. फिर मुझे इस शादी से कोई एतराज़ नहीं होगा."
"पापा…"
"बस… बस… मुझे तंग ना करो. मुझे अभी यह बहुत ज़रूरी रिपोर्ट तैयार करनी है."
दीक्षितजी ने रिपोर्ट बनानी शुरू कर दी, लेकिन वह उसमें कॉन्सन्ट्रेट नहीं कर पा रहे थे. मन में पुरानी स्मृतियों की पोटली बरबस धीमे-धीमे खुलती जा रही थी.
राहिल महज़ एक वर्ष का था, जब उनकी पत्नी एक दुर्लभ बीमारी का शिकार हो उनके विवाह के मात्र तीन वर्ष बाद भगवान को प्यारी हो गई थी. तब से उन्होंने राहिल को अपने सीने से लगाकर पाला. सौतेली मां उनकी आंख के तारे को साथ कोई दुर्व्यवहार करे मात्र इस डर से उन्होंने दोबारा विवाह करने का ख़्याल तक मन में नहीं लाया. हर विपदा की आंच से उसे बचाते हुए अपने वात्सल्य की शीतल छांव में उसे महफ़ूज़ रखा.
पर शायद यहीं उनसे भूल हो गई. राहिल एक बेहद भावुक और स्नेही स्वभाव का लड़का था. शायद मातृविहीन बेटे से अति लाड़-प्यार और पालन-पोषण में अनुशासन की कमी से वह बचपन से ही एक गैरज़िम्मेदार व्यक्तित्व के रूप में उभरा. स्कूल में, घर में हर जगह अपनी ज़िम्मेदारियों से दूर भागता. उम्र बढ़ने के साथ-साथ दीक्षितजी बेटे की इस कमी को देखकर क्षुब्ध हो जाते.
उसे लाख समझाते, बिना ज़िम्मेदार बने ज़िंदगी के कोई मायने नहीं होते, लेकिन राहिल को अपनी मनमौजी बिंदास ज़िंदगी बहुत प्रिय लगती.
उस दिन दीक्षितजी खाने की टेबल पर बेटे का इंतज़ार कर रहे थे कि अपने सामने बेटे को एक साधारण-सी जींस और एक कैजुअल सी कुर्ती पहने मांग भर सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहने एक सांवली-सलोनी सी लड़की को देखकर हतप्रभ रह गए.
"पापा, यह हिना है. हमने कोर्ट मैरिज कर ली है. वेरी सॉरी पापा, लेकिन मेरे सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था…" और यह कहते हुए दोनों उनके पैरों पर झुक गए.
बेटे के इस गैरज़िम्मेदार आचरण पर तिलमिलाते हुए उन्होंने अपना मुंह मोड़ लिया.
उनकी आशा के विपरीत हिना एक बेहद समझदार, ज़िम्मेदार और सुलझी हुई लड़की थी. उसने धीरे-धीरे घर की सारी ज़िम्मेदारियां संभाल लीं, ख़ासकर वृद्धावस्था की ओर कदम बढ़ाते ससुर की. वह बेहद ज़िम्मेदारी से उनके खान-पान, दवाइयां, कपड़े आदि का पूरे मन से ध्यान रखती. घर के नौकर-चाकर उसके मृदु सहृदय स्वभाव की तारीफ़ करते नहीं अघाते.
वक़्त के साथ वह हिना के नितांत स्नेही और केयरिंग स्वभाव से पिघलने लगे. उसमें उन्हें अपनी अजन्मी बेटी की प्रतिच्छाया नज़र आती. धीरे-धीरे उन्हें एहसास होने लगा था कि उनके घोर लापरवाह मनमौजी बेटे के लिए हिना से अच्छा मैच कोई हो ही नहीं सकता था.
हिना के संपर्क में आकर उनके बेटे की तो मानो कायापलट हो गई थी. विवाह से पहले वह अमूमन रात-बिरात बहुत देर से दोस्तों के साथ मौजमस्ती कर घर लौटता, सुबह ग्यारह-बारह बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़ता. विवाह के बाद धीरे-धीरे उसकी यारी-दोस्ती ख़त्म होती जा रही थी. वह अधिकतर घर में ही रहता. हिना के साथ-साथ दिनोंदिन वृद्ध होते पिता की ज़रूरतों का ध्यान रखता. आगे बढ़कर उनके खाने-पीने और आराम पर नज़र रखने लगा था.
राहिल-हिना के विवाह के पूरे दो वर्ष होने आए. बेटे की व्यापार में अरुचि देख पिछले कुछ महीनों से दीक्षितजी ने हिना को अपने साथ ऑफिस ले जाना शुरू कर दिया, यह सोच कर कि बेटा नहीं, तो बहू ही उनका व्यापार देखे-समझे और आगे बढ़ाए.
हिना उनके मार्गदर्शन में व्यापार की बारीकियां सीखने का प्रयास कर रही थी. पिछले कुछ दिनों से तो राहील भी हिना और उनके साथ ऑफिस जाने लगा था.
उस दिन रविवार था.
दीक्षितजी सुबह-सुबह अपने कमरे में अपनी आराम कुर्सी पर बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे कि तभी हिना ने उनसे कहा, "पापा! आपने कल की मीटिंग के लिए जो प्रेजेंटेशन बनाने के लिए बोला था, वह बिल्कुल तैयार है."
दीक्षितजी ने उसे पूरा देखा और उसे इतना बढ़िया प्रेज़ेंटेशन बनाने की बधाई दी.
"बेटा बहुत बढ़िया प्रेजेंटेशन बना है. कांग्रेच्युलेशन्स.”
“पापा, अब एक राज़ की बात. यह पूरा प्रेजेंटेशन राहिल ने बनाया है."
दीक्षितजी को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हुआ और उन्होंने उससे कहा, "हो ही नहीं सकता. उस नालायक को तो मेरे इस नए प्रोजेक्ट की एबीसी भी नहीं पता. तो फिर वह इतना बढ़िया प्रेजेंटेशन कैसे बना सकता है? ना… ना… तुम मेरा मन रखने के लिए मुझसे यह कह रही हो."
"पापा! पिछले दो-तीन महीनों से राहिल मेरे साथ ऑफिस आकर मेरे चेंबर में ही पूरे-पूरे दिन बैठ रहा है ना? तो पापा वह मेरे साथ बस टाइमपास नहीं करता, बल्कि बृजेशजी और मुझ से ऑफिस का कामकाज समझा करता था. आज फादर्स डे है पापा, राहिल द्वारा बनाया गया यह प्रेजेंटेशन आपके लिए उसका आज का तोहफ़ा है."
"हां पापा, हिना ठीक कह रही है. नए प्रोजेक्ट की सारी जानकारी ब्रजेशजी और हिना से लेकर मैंने ख़ुद ही यह प्रेजेंटेशन बनाया है. हैप्पी फादर्स डे पापा."
"हैप्पी फादर्स डे पापा. पापा आपकी छत्रछाया हम दोनों पर हमेशा यूं ही बनी रहे. लव यू."
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दीक्षितजी ने भावविह्वल हो अपने दोनों बच्चों को सीने से लगा लिया. उनके हृदय की ख़ुशी उनके मन में समाए ना समाई और आंखों की राह झर-झर बह निकली और वह हिना और बेटे को आशीर्वाद देते हुए बुदबुदा उठे, "जीते रहो मेरे बच्चों हिना-राहिल… मेरी बरसों की साध पूरी हुई. राहिल के इस कायाकल्प का पूरा-पूरा श्रेय तुम्हें जाता है मेरी बिटिया."
"नहीं, नहीं पापा! राहिल भी अपने बदलाव के लिए मेरे बराबर का ही जोड़ीदार है. चलिए इसी ख़ुशी में हम अभी शहर से बाहर एक रिजॉर्ट चल रहे हैं. वहां रात को एक रॉकिंग पार्टी करेंगे.”
"हां पापा जल्दी से तैयार हो जाइए."
दीक्षितजी को लगा, यह हक़ीक़त नहीं, बल्कि कोई मीठा ख़्वाब था.
वे भावुक मन के साथ मुस्कुरा दिए.
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Photo Courtesy: Freepik
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