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कहानी- हरसिंगार (Short Story- Harsingar)

Lucky Rajiv
लकी राजीव

अमर ने कोने में खड़ी शिउली को देखा, ठीक उसी वक़्त शिउली ने भी उसको देखा… आंखों ही आंखों में संबल, विश्‍वास और भरोसे के संदेश भेजे गए, शिउली के पैर आगे बढ़े.
“किस बात के लिए कार चाहिए आपको?” शिउली ने रज्जन की कुर्सी के पास जाते हुए पूछा.
रज्जन भड़क उठा, “अन्याय हुआ मेरे साथ. आधी-अधूरी लड़की हमारे गले धोखे से बांध दी गई इसलिए चाहिए.”
“कार मिलने से मेरा अधूरापन दूर हो जाएगा?”

घर में घुसते ही अमर ने हमेशा की तरह अम्मा और भाभी को बरामदे में बैठे इंतज़ार करते पाया. पैर छूते ही उन्होंने झोली भर आशीष थमा दिए थे.
“ख़ूब आगे बढ़ो, ख़ूब कमाओ.. ख़ूब सुखी रहो.. कभी दुख न आए कोई…”
दुख का नाम लेते ही साड़ी के पल्ले से अपनी आंख, नाक पोंछते हुए अम्मा ने उस दुख की भूमिका बनाई, जो वो बतानेवाली थीं.
“रज्जन घर छोड़कर चला गया… मातम फैल गया है शादीवाले घर में.”
पड़ोसी के घर की ओर देखते अम्मा की आंखों से सच में आंसू बह निकले थे. अमर ने बात को समझने की चेष्टा की, “मतलब? कहां चला गया रज्जन?”
“धोखे से शादी करा दी गई उसकी. लड़की का बायां हाथ एकदम बेकार है, समझ लो बस लगा है शरीर से. इतना, बस इतना ही उठता है!”
भाभी ने जिस तरह से नकल करके इस बारे में बताया, अमर को भाभी के शब्दों से घिन आ गई. कैसे किसी के बारे में इतना
असंवेदनशील होकर बोल सकती थीं वो? किसी जीते-जागते इंसान की अपंगता बता रही थीं या किसी खिलौने का डिफेक्ट?
“तो इस बात पर रज्जन चला गया? क्या मतलब अपनी वाइफ को यहीं छोड़कर चला गया?”
“और नहीं तो क्या? कोई भी हो यही करेगा. इतनी बड़ी बात छुपा के एक तो शादी हुई, ऊपर से रज्जन में तो कोई कमी है नहीं. काहे झेले वो ये सब?” अम्मा ने रज्जन का ़फैसला सही बताते हुए कहा.
रज्जन का परिवार और ये परिवार बस कहने को पड़ोसी थे. मेल-मिलाप दोनों घरों को एक ही कर जाता था. बचपन से आज तक क्या किसके यहां पका, कोई नहीं जानता. सारे व्यंजन मिलाकर दोनों घरों की थाली लगती थी. इस घर के दोनों लड़के और उधर से रज्जन… ये तिकड़ी मशहूर थी. तीनों साथ बड़े हुए, साथ पढ़े और साथ ही पिटे भी. रज्जन की उम्र 20 साल रही होगी कि उसकी मां चल बसी. तब से तो उसका खाना, पीना, ज़ुकाम-बुखार सब कुछ इसी घर में संभलता रहा. अक्सर लोगों को भ्रम हो जाता था कि तीनों भाई हैं.
“आपका छोटा लड़का बहुत सीधा है. बड़ा और मंझला तो महा उजड्ड हैं.”
अम्मा तक शिकायत आती, तो वो मगन हो जाती.
“मंझला हमारा नहीं, बगलवालों का रज्जन है, वैसे वो भी हमारा ही है.”
सभी बच्चों में ममता बराबर बंटी थी, तभी तो आज दुख भी सबको भिगो रहा था. शाम को भइया दुकान से लौटे, तो अमर को लेकर छत पर चले गए थे. दाएं-बाएं देखते हुए, दीवार के अंदर छुपा के रखी एक बोतल निकाल ली थी. अमर से भी पूछा, उसने मना कर दिया. भइया एक घूंट गटकते हुए बोले, “रज्जन से हुई थी हमारी बात अभी. दोस्त के यहां है आराम से. किसी से कहना नहीं.”
“तब फिर ये नाटक किसलिए?” अमर चिहुंक गया था.


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“अरे, एक लूली लड़की लाकर पटक गए सब. ठीक किया जो भाग गया. अब हालात ख़राब है सबकी. रज्जन के पिताजी की भी, लड़की के बाप की भी.”
वो शब्द, ‘लूली लड़की’… अमर को लगा जैसे एक फांस आकर गले में चुभने लगी हो! इतनी गंदी तरह से किसी को कैसे परिभाषित किया जा सकता है, इतनी आसानी से? ऊपर से भइया जिस आनंद से एक-एक घूंट भरते हुए इस घटना के बारे में बता रहे थे, अमर को लगा जैसे किसी नाटक का एक-एक भाग दिखाया जा रहा था. पहले भाग में दुख था, इस भाग में तसल्ली!
“पहले से पता होगा ना सबको?”
अमर के सामने अब भी सब कुछ स्पष्ट नहीं था. अमर के सामने भइया ने शराब की एक बड़ी घूंट लेकर असली बात बताई, “रज्जन के पिताजी को पता था. वही लड़की देखकर आए थे. रज्जन को दिखाई गई स़िर्फ फोटो. लड़की गज़ब की सुंदर है. रज्जन ने हां कर दी. शादी में भी हाथ ढका रहा. किसी को भनक ही नहीं लगी. यहां आकर असलियत खुली.” भइया ने लाल भभूका आंखें मटकाईं. अमर ने दीवार पर टिक कर बैठते हुए पूछा, “रज्जन के घर से जाने का क्या मक़सद है? क्या होगा इससे?”
भइया ने कुर्सी के हत्थे पर हाथ मारते हुए कहा, “ये बात! अब आया सही सवाल. देखो, रज्जन ने माहौल बना दिया है घर से भागकर. अब चाहे जो मांग ले, लड़की का बाप देने को तैयार हो जाएगा. वैसे ठीक भी है, बुरा तो हुआ बेचारे के साथ.” भइया ने सूत्रधार का रोल अदा करते हुए एक पैग और बना लिया था. अमर ने उनकी बात काटी, “मुझे तो सही नहीं लग रहा. ये कोई बात ही नहीं है शादी तोड़ने की या फिर मांग उठाने की. मान लो शादी के कुछ साल बाद ये होता तो? और ये तो किसी के साथ भी हो सकता है, कभी भी. और रज्जन ख़ुद परफेक्ट है क्या? जो डिमांड करेगा इस बात के लिए.”
अमर के सामने रज्जन का पूरा व्यक्तित्व घूम गया था, उनका इतिहास भी.. भूगोल भी! अमर के सवाल पर भइया भड़क गए थे, “रज्जन में क्या कमी है अमर? अच्छा-ख़ासा डीलडौल है. हाथ-पैर सलामत हैं. क्या फालतू बात उठा रहे हो? जाओ, खाना खाओ.”
अमर बगलवाले घर में झांकता हुआ सीढ़ी उतरा. अम्मा की बात सही थी, मातम ही पसरा हुआ था. घर का लड़का गायब था. रिश्तेदार खा-पीकर, मखौल उड़ाकर, नई बहू को खरी-खोटी सुनाकर वापस चले गए थे. आंगन में बैठे रज्जन के पिताजी की आंखें अमर से टकरा गईं.
“कब आए बेटा.” हल्की कांपती आवाज़ में उन्होंने पूछा. अमर ने सबसे नीचेवाली सीढ़ी फांदकर बगलवाले आंगन में पैर
रख दिया.
“आज सुबह ही आया ताऊजी. शादी में आ नहीं पाया…”
उनके पैर छूते हुए जाने कैसे अमर के मुंह से बात निकल गई थी.
“काहे की शादी बेटा. जानते तो होगे तुम भी! रज्जन घर छोड़कर चला गया. आज फोन आया था. कह रहा था कि लड़की के पिता से कार दिलवाओ, नहीं तो तलाक़ देगा. अब बताओ बेटा, क्या करें हम?”
अमर को लगा ताऊजी का चेहरा किसी काले धुएं से भरा हुआ हो और आंखें
किसी गड्ढे में धंसती जा रही हों हर बीतते पल के साथ.
“बहुत अच्छी बहू लाए हम, बस वही हाथवाली बात को लेकर हल्ला हो गया. कितनी पढ़ी-लिखी है. रज्जन तो कहीं नहीं टिक सकता उसके सामने. बहू से मिलोगे?”
अमर के जवाब देने से पहले ही वो किसी को आवाज़ देकर बहू को बुलवा चुके थे. थोड़ी देर में ही छम-छम पायलों की आवाज़ अमर के पास आकर थम गई थी.
“आओ बहू, बैठो. ये अमर है, रज्जन और ये साथ ही बड़े हुए हैं. रात-दिन का साथ रहा दोनों का. और ये शिउली है, हमारी बहू.”
ताऊजी ने परिचय की गांठ में दो अपरिचित नामों को बांध दिया था. दोनों तरफ़ से नमस्ते के लिए हाथ उठे… रज्जन के साथ इसकी जोड़ी एकदम बेमेल थी. कहां रज्जन का धूर्तता से भरा चेहरा, जिसमें पान मसाला गुलगुलाने की आदत उसको और वीभत्स बना जाती थी और कहां इस लड़की का मासूम चेहरा,
जिस पर सुघड़ता और शिक्षा के निशान साफ़-साफ़ देखे जा सकते थे! क्या नाम बताया था ताऊजी ने… शिउली! अमर मन ही मन बुदबुदाया. शिउली यानी हरसिंगार… आंगन में लगे पेड़ पर नज़र टिक गई.
इस पेड़ के फूल बस गिरने के लिए जन्मते हैं क्या?
“ताऊजी, मैं चलता हूं, फिर आऊंगा.”
उस माहौल में वहां और थोड़ी देर बैठना, संभव ही नहीं था.
अगले ही दिन सुबह फिर आमना-सामना हुआ.
“वो कपड़ा आपकी छत पर चला गया है.”
मंदिर की घंटी जैसी आवाज़ ने अमर का ध्यान भंग किया. बगलवाली छत पर खड़ी शिउली एक कपड़े की ओर इशारा करके कह रही थी. अमर ने अपनी छत पर आया वो कपड़ा देखा, “ये आपका है?”
“हां, ये…”
बगलवाली छत पर बढ़ते हुए अमर ने, तार पर कपड़े फैलाती शिउली के हाथों पर गौर किया. बायां हाथ पूरी तरह ऊपर नहीं उठ पाता था.
“इसमें मिट्टी लग गई है.” अमर ने वो कपड़ा शिउली को थमाते हुए कहा. उसने तुरंत कहा, “हां, फिर से धोना पड़ेगा.”
अमर उसके चेहरे पर फैली शांति देखकर हतप्रभ था. कौन कहेगा, मन के अंदर ये इतने तूफ़ान समेटे बैठी हुई थी. कितने ही सवाल अमर की ज़ुबान तक आकर लौटते रहे. कैसे बात शुरू करता? शिउली ने ही सवाल पूछकर ये समस्या हल कर दी थी, “पिताजी बता रहे थे आपकी जॉब के बारे में. इतना कठिन एग्ज़ाम, बैंक पीओ का आपने क्वॉलिफाई कर लिया. कॉन्ग्रेचुलेशन्स!”
अमर ने ‘थैंक्स’ कहने के साथ ही पूछ भी लिया, “आपने क्या किया हुआ है, मतलब क्वॉलिफिकेशन?”
“हिंदी में एमए हूं. आगे रिसर्च के लिए सोचा था, लेकिन घर में कोई माना नहीं. बस शादी की रट लगा दी गई.”
अमर ने देखा कि शादी के नाम से उसका चेहरा ऐसे कुम्हला गया था जैसे कोई गुलाब का फूल तोड़कर तपती धूप में रख दिया गया हो.
“हिंदी लिटरेचर में मेरा भी इंटरेस्ट है, काफी पढ़ता हूं.”
“अच्छा! आपके पास किताबें हों, तो दीजिएगा. यहां दिनभर खाली क्या करूं, कुछ समझ नहीं आता.”
शिउली के जीवन का अकेलापन उसके चेहरे पर आकर पसर गया था. खाली बाल्टी उठाकर वो तुरंत सीढ़ियों की ओर बढ़ गई थी. अमर सीढ़ियां उतरती उस धैर्य की मूर्ति को देखता रह गया था. दिमाग़ में इतने बवाल लिए ये लड़की रहती कैसे होगी?
अगली सुबह ठीक उसी वक़्त किताबों का पुलिंदा लिए अमर छत पर जा पहुंचा था या शायद थोड़ा जल्दी आ गया था. शिउली अभी तक आई नहीं थी.
“ये रहीं आपकी किताबें.”
“थैंक्स.” वो बस इतना ही बोल पाई.
“थैंक्स की कोई बात नहीं.”
अमर ने जिस भावना के अभिभूत होकर कह दिया था. उस भावना को उस समय संवेदनशीलता ही नाम दे सकते थे. हालांकि आनेवाले समय में इस भावना का नाम मित्रता हो गया था. 15-20 दिनों में ही वो छत साक्षी हो चुकी थी उस मित्रता की, जहां वो बातें की जाने लगी थीं, जो और कहीं नहीं की जा सकती थीं. अमर अपने लिए आए रिश्तों के बारे में बताता… और शिउली थोड़ा-बहुत ही सही, लेकिन अपनी उलझनों का ज़िक्र भी छेड़ती. कभी ताऊजी की बीमारी से संबंधित सलाह लेती, कभी बीते कड़वे संस्मरण साझा करती.
“आपका नाम बहुत अच्छा है, शिउली, किसने रखा?”
अमर के पूछते ही उसकी आंखों में पानी तैर गया था.
“पता नहीं किसने रखा, लेकिन सही नहीं किया. स्कूल-कॉलेज सब जगह शिउली और मेरी अपंगता की तुकबंदी मिलाई गई. चुटकुले बने- शिउली लूली…” आंखों में भरे आंसू बात पूरी करते हुए छलक भी आए थे.
अमर ने बात संभाल ली थी, “शिउली यानी हरसिंगार! जितनी अच्छी सूरत, उतनी ही अच्छी सीरत. पता है न आपको इसके औषधीय गुणों के बारे में?”
शिउली के बहते आंसुओं पर जैसे किसी ने बांध बना दिया था उस दिन. आंसू रुके… मुस्कान की ऊर्जा बिखर गई.
उस दिन के बाद तो जैसे सच में हरसिंगार थोड़ा और समृद्ध हो उठा था, आंगनवाला भी… छत वाला भी!
और धीरे-धीरे इतना समृद्ध हुआ कि उसकी ख़ुशबू से अमर अछूता न रह सका. अमर छत पर जाने के बहाने ढूंढ़ता, कभी मैसेज करके किसी काम के बहाने से उसको छत पर आने को कहता… हिंदी साहित्य की बातें होतीं, कविताएं सुनाई जातीं, साहित्यिक बहस भी होती… अमर उससे मिलकर आता, तो उसको लगता आंगन में लगा हरसिंगार फूलों से अचानक लद गया हो.
एक दिन शिउली ने भरी आवाज़ में पूछ लिया था, “आप बताइए मुझे? क्या अपंगता केवल शारीरिक होती है. रज्जन भी तो अपंग हैं… किसी की शैक्षणिक अपंगता कब गिनी जाएगी? केवल यही नहीं, किसी लड़की के घरवालों को ब्लैकमेल करके कार मांगना… ये सोच, ये सामाजिक अपंगता नहीं? मैंने मना कर दिया था कि केवल आठवीं पास लड़के से मैं शादी नहीं करूंगी, लेकिन मेरी इस शारीरिक कमी को बार-बार
जताकर, रिश्ता तय कर दिया गया था…” बोलते हुए वो फफक-फफक कर रोने
लगी थी. अमर किताबें थमाकर नीचे आ
गया था.
शिउली की कही एक-एक बात सच थी. लेकिन इस सच को कौन मानने को तैयार होता? शिउली के बारे में सोचते हुए अमर बहुत दूर तक सोचता चला गया. ऐसा नहीं कि स़िर्फ आज उसके बारे में सोच रहा था. कुछ दिनों से उसने महसूस किया था कि जब तक छत पर न जाए, लगता ही नहीं कि दिन हुआ भी है. अम्मा से या ताऊजी से कुछ कहना इतना आसान नहीं था. भइया से ही शिउली के बारे में बात की जा सकती थी. रात में भइया छत पर होते थे. इसी उम्मीद में अमर छत पर पहुंचा. भइया वहां थे ही नहीं, लेकिन मेज़ पर रखी बोतल और ग्लास में बची शराब उनकी थोड़ी देर पहले की उपस्थिति दर्ज़ करा रही थी.
अमर निराश होकर नीचे लौट आया. रात गहरा रही थी. बात सुबह तक टाल दी, लेकिन सुबह तो कुछ और ही बवाल लिए खड़ी थी.
“ज़बान संभाल कर बात करिए ताऊजी. मेरा मुंह मत खुलवाइए.” भइया की गरजती आवाज़ सुनकर ही अमर की आंख खुली थी. बाहर आकर देखा, इधर भइया-भाभी, मां… उधर दूसरी तरफ़ ताऊजी और एक खंभे की ओट में खड़ी शिउली!
“क्या हुआ भइया?” अमर ने भइया के पास जाकर पूछा.
उनकी आंखें आग उगल रही थीं, होना क्या है. “ख़ुद का पति छोड़कर चला गया, मेरे ऊपर इल्जाम लगा रही है कि रात में इसकी छत पर मैं गया था. अरे, अच्छी-ख़ासी बीवी है. इसके पास काहे जाएंगे? ये तो… ये तो…”
अमर उनको खींचता हुआ अंदर लाने लगा था. भइया चिल्लाते जा रहे थे.
“कल रात बारह बजे तो घर लौटा हूं… कह रही है दस बजे इसकी छत पर गया मैं.”
भइया को पकड़े हुए अमर के हाथ
एकदम से ढीले पड़ गए. अगर भइया ने ये सफ़ाई न दी होती, तो शायद वो भइया को ही सही मानता. लेकिन कल रात वो ख़ुद बोतल देखकर आया था, ठीक उसी जगह. जहां भइया बैठकर पीते थे. अमर के मन में गुणा भाग अब भी चालू था. भइया घर आने की बात झूठ क्यों बोल रहे थे? कुछ तो था जो मुट्ठी में छुपा था.
“भइया, ये सब क्या बोला जा रहा है?”
अमर ने अंदर आकर पूछ लिया था. भाभी ने चेहरा घुमाकर बात टाल दी थी. अम्मा भड़क उठी थी.
“ये तुम अपने बड़े भाई से पूछ रहे हो? शरम नहीं आती?”
भइया ने अम्मा की ओर देखा, फिर अमर की ओर फिर आंखें मटकाते हुए बोले, “इसको किस बात की शर्म आएगी अम्मा? इनका नैन-मटक्का चल रहा है. पूरा मोहल्ला देखता है. छत पर खड़े होकर रोज़
बतियाते हैं.”
अम्मा इसके आगे सुन ही न पाई थीं. बेड का कोना पकड़कर लड़खड़ा गई थी. अमर ने आगे बढ़कर संभाला ना होता तो गिर ही गई होती.
“हमारी क़सम खाकर बताओ अमर, ये सब सच है?”
अम्मा ने अमर का हाथ लेकर अपने सिर पर रख दिया था. अमर ने झटके से अपना हाथ खींचा.
“पहले भइया का हाथ अपने सिर पर रखवा कर पूछिए कि कल रात वहां गए थे कि नहीं?” भइया को तो जैसे बिजली का नंगा तार छू गया था.
“पहले बताओ, तुम किसलिए जाते हो?”
“भइया तमीज से बात करिए मैं आपकी तरह नहीं हूं.”
“मेरी तरह नहीं हो? किसलिए बात करते हो फिर? शादी करोगे क्या? जाओ कर लो. हाथ देखे हैं ना उसके?”
किसी दानव की तरह अट्टहास करते हुए भइया कमरे से बाहर निकल गए थे. अमर घर में रुक ही नहीं पा रहा था. बाहर आते ही उसने सबसे पहले फोन ही करना ठीक समझा था.
“हैलो शिउली, सुनो, कुछ बात
करनी है.”
“किसलिए फोन किया है?” सवाल पूछते हुए उसकी आवाज़ भर्रा गई थी. थोड़ी देर बाद वो सुबकने भी लगी थी. अमर ने इससे ज्यादा बेबस कभी महसूस ही नहीं किया था.
“शिउली, मेरी बात सुनो. मुझे पता है, सच क्या है. हेलो, सुन रही हो ना? एक
बात बताओ.”
“पूछिए.” उधर से हल्की-सी आवाज़ आई.
“तुम किस बात का इंतज़ार कर रही हो?अपने घर चली क्यों नहीं जाती?”
“किस घर की बात कर रहे हैं आप? मायके की? वो मेरा घर होता, तो मुझे ले नहीं जाया जाता अब तक? भाई कह चुका है साफ़-साफ़ बोझ हूं मैं सब पर.”
शिउली की आवाज़ फिर भर आई थी. अमर ने एक लंबी सांस लेकर पूछा, “तुम क्या सोचती हो ख़ुद को?”
“कल सब आ रहे हैं. पापा और रज्जन भी. कल पता चल जाएगा कि क्या करना है.”
“तुमने ठीक से सुना ही नहीं! मैंने यह नहीं पूछा था कि तुमने आगे के लिए क्या सोचा है. मैं यह पूछ रहा था कि तुम अपने को क्या सोचती हो? तुम भी बोझ मानती हो ख़ुद को?” थोड़ी देर उधर शांति रही, फिर जवाब आया, “सच बताऊं?”
“हां, बिल्कुल सच.”
“बचपन से अब तक अपने अधूरेपन को लेकर इतना कुछ सुना कि मन में कुंठा तो बैठ ही गई थी, फिर शादी के बाद ये कुंठा और बढ़ी… लेकिन…”
शिउली कुछ बोलते-बोलते रुक गई थी. अमर ने बात पूरी करने के लिए कहा, “मैं सुन रहा हूं बोलो.”
“आपने मेरे अंदर की कुंठा को काफ़ी हद तक कम किया है या कह लीजिए ख़त्म ही कर दिया है…”
अमर को लगा जैसे शिउली सामने होती, तो ये बात सुनते हुए उसको देख भी लेता. चेहरे पर कौन-सा रंग आया होगा इस वक़्त? दोस्ती का या फिर कुछ और..?
“और कुछ कहना चाहती हो?”
अमर कुछ और भी सुनना चाहता था, शिउली ने कहा भी, “शायद मैं कल यहां से चली जाऊंगी. एक रिक्वेस्ट थी आपसे! आपने मेरे लिए बहुत कुछ किया है, बस मेरे ऊपर लगा ये दाग़ हटा दीजिए कि मैं झूठ बोल रही थी. सबके सामने कह पाएंगे कि आप जानते हैं अपने भाई की असलियत? आप मेरा साथ देंगे?”
“तुमसे कुछ पूछना था, बताओगी?” अमर ने जवाब देने की बजाय एक और सवाल पूछ लिया था.
“पूछिए.” बहुत धीमी आवाज़ सुनाई दी.
“मैं तो तुम्हारा साथ दूंगा ही. तुम मेरे साथ आगे तक चलोगी?”
शिउली थोड़ी देर चुप रही थी, फिर अमर ने ही फोन काट दिया था. उसको ख़ुद नहीं पता था कि कल क्या होनेवाला था?
अगली सुबह सब इस तरह बारूद से भरे बैठे थे कि एक तीली छुआते ही सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा. ताऊजी, भइया, रज्जन, अम्मा, भाभी, अमर, शिउली के पिताजी और हर बार की तरह ओट में खड़ी हुई शिउली!
बारूद के ढेर पर पहली तीली रज्जन ने छुआई, शिउली के पिता की ओर देखते हुए बोला, “ये सब आपका किया धरा है. आपको पता था न कि लड़की ठीक नहीं है, फिर क्यों छुपाई ये बात?”
“हमको लगा तुम्हारे पिता जानते हैं, तुमको बता देंगे.” शिउली के पिताजी निगाहें चुराते हुए बोले. रज्जन भड़क गया था, “कतई नहीं. जान-बूझकर छुपाई गई बात. दोनों बुड्ढों की मिली-भगत थी. लाकर थोप गए इसको हमारे ऊपर.”
बदतमीज़ी की सीमाएं लांघते हुए रज्जन दहाड़ा. अब बारी भइया की थी. रज्जन को समझाते हुए बोले, “या तो तुम अपने ससुर से कहो मुआवज़ा भरें इस शादी का या तो इस लड़की को भेजो मायके. खाली बैठी हम सबके कैरेक्टर पर उंगली उठा रही है. अब तुम बताओ रज्जन, मैं इसके पास जाऊंगा?”
तिरछी मुस्कान फेंकते हुए भइया ने चोर नज़रों से शिउली को देखा. वो अभी भी चुप ही थी. रज्जन को भइया की बात से बल मिला था, सीना तानकर आगे बढ़ा, “हां या तो कार दे जाइए, नहीं तो अपनी लड़की ले जाइए. दो दिन के अंदर काग़ज़ भिजवा दूंगा तलाक़ के.”
चुटकी बजाते हुए रज्जन अच्छा-ख़ासा लफंगा लग रहा था.
“कार का इंतज़ाम हो जाएगा रज्जन बाबू. आप बात को यहीं ख़त्म करिए.” शिउली के पिताजी ने अचानक हाथ जोड़कर आत्मसमर्पण कर दिया था.
अमर ने कोने में खड़ी शिउली को देखा, ठीक उसी वक़्त शिउली ने भी उसको देखा… आंखों ही आंखों में संबल, विश्‍वास और भरोसे के संदेश भेजे गए, शिउली के पैर
आगे बढ़े.
“किस बात के लिए कार चाहिए आपको?” शिउली ने रज्जन की कुर्सी के पास जाते हुए पूछा.
रज्जन भड़क उठा, “अन्याय हुआ मेरे साथ. आधी-अधूरी लड़की हमारे गले धोखे से बांध दी गई, इसलिए चाहिए.”
“कार मिलने से मेरा अधूरापन दूर हो जाएगा?” शिउली ने गरजकर पूछा. फिर रज्जन की आंखों में झांकते हुए बोली, “आपको शक नहीं हुआ था शादी से पहले कि कोई तो बात होगी जिसकी वजह से इतनी पढ़ी-लिखी लड़की आप जैसे लड़के से ब्याही जा रही है?”
एक साथ कई बारूद के ढेर सुलग पड़े थे. रज्जन उठकर खड़ा हो गया था. शिउली के पिताजी तेज़ आवाज़ में चिल्लाए, “चुप रहो शिउली! ये क्या बेमतलब की बात उठा रही हो?”
“महीनेभर से चुप हूं, अब बस हो गया. क्या ग़लती थी मेरी? अपाहिज हूं यही न? और आपने क्या किया? एक मुझसे भी ज्यादा अपाहिज के साथ मुझे बांध दिया. वो लड़का जो शादी के बाद घर से भाग जाता है, फिर मुआवज़े के रूप में कार मांगता है? शादी है या विपदा? मुआवज़ा किस बात का?”
बोलते हुए शिउली कांपने लगी थी, लेकिन अभी उसका बोलना पूरा नहीं हुआ था.“न शक्ल, न अक्ल… आप अपने को गौर से देखिएगा रज्जन, तब समझ में आएगा कि अन्याय किसके साथ हुआ है.”

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रज्जन दहाड़ कर बोला, “अब तो इसको मैं नहीं रख सकता इसको… ले जाइए तुरंत.”
“तुम कौन होते हो मुझे रखने या न रखनेवाले. मैं ख़ुद नहीं रहूंगी यहां.” शिउली ने रज्जन को फैसला सुनाते हुए अपने पिता की ओर भी देखा, “आप भी मत घबराना. वहां भी नहीं आऊंगी. पढ़ी-लिखी हूं, ख़ुद को संभाल सकती हूं.”
रज्जन को तब भी चैन नहीं मिला था. कुर्सी पर बैठकर पैर हिलाते हुए शिउली के पिताजी से बोला, “और अपनी लड़की से कहिए, भइया से माफ़ी मांगे. इतना घटिया इल्ज़ाम लगाया है इन पर.”
शिउली ने अपने पिता की ओर देखते हुए कहा, “इल्ज़ाम नहीं, सच है ये सब. कल रात मैं किसी काम से छत पर आई, तो ये अपनी छत पर बैठे हुए पी रहे थे. मुझे देखते ही इस छत पर कूद पड़े और बोले कि रज्जन नहीं तो क्या.. मैं हूं…”
रुकते, हिचकते शिउली के मुंह से बात निकली. पूरी बात कह भी नहीं पाई थी कि आंखें भरने लगी थीं. इसके आगे कुछ बोला ही नहीं गया.
“कितनी झूठी है ये, मैं तो तब घर पर था भी नहीं. मुंह तोड़ दूंगा मैं इसका.”
भइया हाथ उठाकर शिउली की ओर बढ़े ही थे कि अमर ने रास्ता रोक लिया, भइया की आंखों में झांकते हुए बोला, “शिउली पूरी बात सच कह रही है. आप कल रात पी भी रहे थे, उसकी छत पर भी गए थे. भूल गए क्या? कल मुझसे बोले तो थे कि गए थे.” शिउली के लिए उठा हाथ अमर पर पड़ चुका था. अम्मा सन्न रह गई थीं.
“एक गैर लड़की के लिए दोनों भाई लड़ पड़ोगे?”
चोट खाए सांप की तरह भइया फुफकार रहे थे, “गैर नहीं है ये लड़की अम्मा! रोज़ छत पर तोता-मैना बने रहते हैं दोनों. इनका कैरेक्टर कौन बताएगा कैसा है?”
भइया के कहते ही सबकी निगाहों का केंद्र बिंदु वो दोनों हो गए थे. शिउली ने अमर की ओर देखा था, अमर ने अम्मा की ओर, फिर ताऊजी की ओर और फिर शिउली के पिताजी की ओर देखते हुए कह दिया था, “मैं शिउली से शादी करना
चाहता हूं.”
इतनी देर से सुलगते हुए बारूद के ढेरों में एक साथ विस्फोट हो गया था. अम्मा की दहाड़ सुनाई दी, “दिमाग़ ठिकाने है तुम्हारा? क्या बक रहे हो अमर? ऐसे लोगों की शादी ऐसे लोगों से ही होती है. तुम काहे ख़ुद को झोंक रहे हो?” अमर ने आगे बढ़ते हुए अम्मा से पूछा, “ऐसे लोग! मतलब? कैसे लोग?”
अम्मा ने पल्लू संभालते हुए पूरी अकड़ से कहा,
“विकलांग लोग…”
अमर ने अम्मा के पास जाकर दृढ़ आवाज़ में पूछा, “फिर भइया और भाभी की शादी कैसे होने दी आपने?”
अम्मा ने बगल में खड़े अमर को सिर उठाकर देखा, अमर ने अपनी बात का मतलब समझाया, “अपंगता केवल वही नहीं होती, जो दिखती है… चरित्र की अपंगता नहीं गिनेंगी आप? शादी से पहले कितनी लड़कियों से संबंध रहे भइया के और किस हद तक रहे. आपको नहीं पता क्या? चारित्रिक अपंगता होते हुए भी भाभी से कैसे जोड़ दिया आपने उनको? कल रात भी इसी अपंगता के चलते वो बगलवाली छत पर कूद पड़े थे.”
“चुप हो जाओ अमर.” भइया चीखकर बोले थे. अमर ने भाभी की ओर देखा, क्रोध और अपमान से चेहरा लाल था उनका.
जीवनसाथी की ये अपंगता इतने सालों बाद सामने आई? भाभी पैर पटकती हुई तुरंत वहां से चली गई थीं. उनके पीछे-पीछे समझाते हुए भइया भी दौड़ पड़े. रज्जन भी और सबके पीछे-पीछे अम्मा भी.
… सच खुलते ही सभा विसर्जित होने लगी थी. स़िर्फ दोनों बुज़ुर्ग ही बचे थे. ताऊजी और शिउली के पिता को देखते हुए अमर ने पूछा, “किस हिसाब से आपने ये शादी तय की थी? किस बात को छुपाया? ये बात सामने आती नहीं क्या? हर तरह से बेमेल जोड़ी है ये. आप लोगों ने बनने कैसे दी?” ताऊजी की आंखें झुक गई थीं. अमर ने हाथ जोड़कर शिउली के पिताजी से कहा, “माफ़ कीजिएगा, लेकिन केवल शारीरिक कमी को इतना बड़ा हौआ बना दिया आपने कि अपनी बेटी का क्या नुक़सान कर रहे हैं, ये भी नहीं दिखा आपको?”
अमर के जुड़े हाथों को उन्होंने कसकर थाम लिया था. उनकी आंखों से गिरते आंसू उन चारों हथेलियों को भिगोते जा रहे थे. ताऊजी ने भी अमर का सिर थपथपाकर आशीर्वाद दे दिया था. अमर ने मुड़कर देखा शिउली उसी तरह ओट में खड़ी थी. नज़रें एक बार फिर मिलीं.
अमर की नज़रें पूछ रही थीं, ‘हरसिंगार कितना खिला इस बार?’
शिउली की नज़रें बता रही थीं, ‘इतना खिला कि पूरा आंगन
भर गया…’

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