सोते कृष्णा को बेड पर लिटाकर मैं भी उसी के बराबर लेट गई. लगा जैसे घर की दरों-दीवारें मेरे आने से खिल उठी हों और मुझे अपने आलिंगन में लेने को आतुर हों. कितना अंतर था, मायके के घनिष्ठ संबंधी कितने अजनबी थे और इस घर की हर चीज़ में जैसे आत्मीयता बसी हो. आह्लाद के अतिरेक से आंखों में आए पानी में बहुत-सी सुखद यादें तैर गई.
मैं, प्रमोद जब कॉलेज से घर लौटा, तो बाहरी दरवाज़े पर ताला पड़ा मिला. अंदर खाने की मेज़ पर कॉपी से फाड़े गए काग़ज़ पर लिखा था- ‘अब और सहन नहीं कर सकती, हमेशा के लिए अपने घर जा रही हूं. वो लोग पूरी उम्र मुझे और मेरे बच्चे को पाल लेंगे.’ कल जो विवाद हुआ था, उसी की परिणति थी यह. माना कि आज विवाद उग्र हो उठा था, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि अपना घर छोड़…
मीना के साथ शादी को 4 साल हो गए हैं. लव मैरिज की थी हमने, जिसे दोनों परिवारों ने स्वीकार नहीं किया था. हम दोनों नैनीताल में एम.एससी. में क्लासफेलो थे. जाति बंधन तोड़कर अनजाने ही एक-दूसरे के दिलों में जगह बनाई थी, घरवालों के तमाम विरोधों के बावजूद. मैं पिछड़ी जाति का था और मीना शुद्ध ब्राह्मण. मैं मानता हूं कि इस तरह से उसने मुझे पाने के लिए कहीं ज़्यादा त्याग किया था. मुझे याद है, फाइनल ईयर के अंतिम दिनों में कॉलेज के पीछे पहाड़ की आड़ में धुंध से लिपटी मीना अलगाव के डर से सहमी हुई थी. उसकी आंखों में आंसू थे, “मैंने घरवालों के सम्मान और अरमानों का गला घोंटकर आपको चुना है. कभी मुझसे अलग मत होना.”
“तुम्हारे लिए मैं सब कुछ छोड़ सकता हूं. कुछ भी कर सकता हूं.” उसे बांहों में जकड़ते हुए मैंने दिलासा दिया. साथ ही यह वचन भी दिया कि उसकी ख़ातिर अपने घरवालों को भी छोड़ दूंगा. डिग्री लेने के बाद मीना अपने घर चली गई और मैं अपने. लेकिन फोन पर और कभी-कभी नैनीताल में आकर दोनों मिलते रहते. बाद में मीना कॉन्वेंट स्कूल में अध्यापिका बन गई और मैं राजकीय इंटर कॉलेज में प्राध्यापक. दोनों के घरवालों ने हम दोनों की दृढ़ इच्छा को ध्यान में रखते हुए अपनी इच्छाओं को दबा डाला और कुछ विरोध करने के बाद विवाह कर दिया, लेकिन यह ताना देने से भी नहीं चूके कि कर लो अपनी मर्ज़ी, दोनों को इसका परिणाम भुगतना होगा. हम अपने भावी संबंधों की मज़बूती को लेकर आश्वस्त थे, इसलिए इन तानों का हम पर कोई असर नहीं हुआ.
लेकिन जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं. साथ रहने के लिए मीना ने अपना स्थानांतरण मेरे पास करवा लिया. सोचा था कि हम दोनों आनंद का जीवन गुज़ारेंगे. कृष्णा के आने के मौक़ों पर परिवारवालों के साथ बातचीत शुरू हो गई. मुझे भी होम सिकनेस ने आ घेरा. उनके प्रति मुझे अपने कर्तव्य याद आने लगे. बीच-बीच में मैं घर भी जाने लगा और वो लोग भी आने लगे. इस पर मीना ने थोड़े दिनों में अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया.
गाहे-बगाहे उसके मुंह से विरोध के स्वर फूटने लगे, “आख़िर कब तक चलेगा यह?”
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“मेरे परिवार के लोग हैं, कोई ग़ैर नहीं. उनका अधिकार है मुझ पर.”
“लेकिन आपने तो कहा था कि उन लोगों से कोई वास्ता नहीं रहेगा. जब आपके घरवाले डेरा डालेंगे, तो मेरे घरवाले भी जब तक जी चाहेगा यहां रुकेंगे.”
“यह मेरा घर है. जिसे चाहूंगा, वही आएगा.”
“हिम्मत हो, तो रोककर देख लीजिए मेरे घरवालों को.” मीना ने जल्द ही इस धमकी को चरितार्थ भी कर दिखाया. कारण, पहले मेरे भइया-भाभी और बच्चे आ गए. ज़िद में मीना ने अपना पूरा परिवार बुलवा लिया. दोनों परिवारों में तनातनी तो थी ही. जून के पूरे महीने खींचातानी बनी रही. जब स्कूलों के खुलने का समय आया, तो दोनों परिवार लौटे, लेकिन महीनेभर जो घुटन मैंने महसूस की थी, वह उबलकर बाहर आ ही गई, “थोड़ा सब्र करके बुला लेतीं, तो क्या बिगड़ जाता. अपनी ज़िद करके ही मानीं.”
“पिछले साल की छुट्टियों का हिसाब लगा लो, तुम्हारे ही घरवाले पड़े रहे. न जाने क्या दुश्मनी है मेरे घरवालों से.”
“तुमसे ज़्यादा यह मेरा घर है. मेरे घरवाले आएंगे, तुम उन्हें रोककर देखो.”
धीरे-धीरे दोनों परिवारों का जमघट लगने लगा. कभी-कभी तो दोनों परिवार एक ही समय पर आ जाते. तब हम दोनों में अघोषित युद्ध और बढ़ जाता. अतिथियों के जाने के बाद तो घर में कई दिनों तक वाक्युद्ध चलता रहता. ऐसे ही दोनों के परिवारों के सदस्यों के आने-जाने से उपजे तानों व नोक-झोंक को समायोजित करते-करते चार साल बीत गए. हमारे बीच चल रही तकरार अम्मा, बाबूजी और परिवार के दूसरे लोगों से छुपी नहीं रह सकी. पिछले रविवार को जब मैं घर गया, तो बाबूजी, अम्मा और बड़े भैया बोले, “कैसे जीएगा ऐसे? यह औरत तो तुझे बर्बाद कर देगी. पीछा छुड़ा जैसे भी हो. इससे तो अच्छा है कि तू यहीं रहकर आ-जाकर नौकरी कर ले. आने-जाने में थोड़ी परेशानी तो होगी, लेकिन कम से कम मन की शांति तो मिलेगी.” मैं चुप रहा. मन में भी इन बातों को लेकर जब वापस मीना के पास लौटा, तो वह नाराज़ बैठी थी. घर में क़दम रखते ही बरस पड़ी, “पड़ गई कलेजे में ठंडक! सबने जी भरकर मेरी ख़ूब बुराइयां की होंगी. उन्हीं से चिपटे रहना था, तो शादी क्यों की?”
“मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता. तुमने तो घर में जीना हराम कर रखा है. अगर वो लोग अपनापन न देते, तो कभी का मर गया होता.”
“तो रहते उन्हीं के पास, यहां आए ही क्यों?”
“तुम क्यों नहीं चली जातीं. रात-दिन मम्मी-पापा रटती रहती हो. हमेशा के लिए उन्हीं के पास चली जाओ. मुझे भी शांति मिलेगी. मैं तो तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहता. कृष्णा और नौकरी की ख़ातिर टिका हूं.” मैं बड़बड़ाता हुआ घर से बाहर निकल गया. बाहर ही खाना खाकर जब देर रात घर लौटा, तो सन्नाटा पसरा हुआ था. मीना बेडरूम में लेटी थी. पता नहीं उसने खाना खाया था या नहीं. खिसियाहट में मैंने पूछना गंवारा भी नहीं समझा. इसी विवाद से उपजे क्रोध को मीना ने दूसरे दिन मायके जाकर चरितार्थ कर दिया.
एक सप्ताह तक मीना की कोई ख़ैर-ख़बर नहीं मिलने पर घर उजड़ा-उजड़ा-सा लगने लगा. सारी दिनचर्या ही बिगड़ गई. हारकर बाबूजी और अम्मा के पास चला गया और वहीं से आ-जाकर नौकरी करने लगा. अपना घरौंदा छोड़ने पर उदासीनता इतनी बढ़ गई कि उसमें दीया-बत्ती करने के लिए भी जाने की इच्छा नहीं हुई.
जब मैं अपने परिजनों के बीच पहुंचा था, तो घर भरा-पूरा लगा था.
बड़े से पुश्तैनी घर में थे तो तीन परिवार- अम्मा-बाबूजी, बड़े भइया और उनसे छोटे भइया, लेकिन तक़रीबन मिला-जुला-सा परिवेश था. एक तरह से अर्द्ध संयुक्त परिवार था. सब मेरे लिए आंखें बिछाए बैठे थे.
कुछ दिनों बाद दशहरा और दीवाली की छुट्टियां भी पड़ गई थीं. बड़ी जीजी अपने तीनों बच्चों के साथ आ गई थीं. मुझे लगा कि मैं मरुस्थल से हरितिमा में आ गया हूं. सब मुझे अक्सर बहलाते रहते, “अच्छा किया जो यहां आ गया. ऐसी पत्नी मिली है कि इसकी तक़दीर ही फूट गई. अब यहां मौज से रह.” मैं इतनी आत्मीयता पाकर आत्मविभोर हो उठा, लेकिन मुझे क्या पता था कि यहां की उपजाऊ ज़मीन कुछ ही दिनों में बंजर होनेवाली है. धीरे-धीरे सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए. छुट्टियां शेष बचने के बावजूद जीजी ने कहना शुरू कर दिया, “अम्मा, मुझे जाने दो, वह पता नहीं कैसे रह रहे होंगे. बच्चों के बिना तो एक पल नहीं रह पाते…” आदि-आदि. सबके आग्रह को अनदेखा करके वह चली गईं.
बड़े और छोटे भइया भी अपने परिवारों के रूटीन में रम गए. ऑफिस से आते, तो सीधे भाभी और बच्चों के पास चले जाते. बच्चों को झूले या ट्राइसाइकिल पर बैठाकर जब तक बहला नहीं लेते, वे पीछा ही नहीं छोड़ते. ऐसा देख मुझे कृष्णा की याद सताने लगती. मैं अक्सर भाइयों, भाभियों और बच्चों के बीच हंसी-ठिठोलियां देखता, लेकिन उनमें शामिल भी तो नहीं हो सकता था. उनके नितांत व्यक्तिगत आनंद में दख़ल देना ठीक भी तो नहीं.
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ऑफिस से आता, तो बरामदे पर पड़ी खटिया पर बैठ जाता. बड़ी और मंझली भाभी तभी खाना-पीना करतीं, जब उनके पतियों की मर्ज़ी होती. मुझे जल्दी खाने की आदत थी, लेकिन भाभियां अपने पतियों को ताज़े फुलके खिलाने के लिए टाइम-बेटाइम खाना बनातीं. अम्मा-बाबूजी का परहेज़ी खाना वे पहले बनाकर उनके कमरे में पहुंचा देतीं, जिसे खाकर वे दोनों सो जाते. मैं घर में अम्मा-बाबूजी के बगलवाले कमरे में बेवजह लोटता-पोटता रहता.
क़रीब चार महीने हो गए हैं मुझे मीना से अलग हुए और अपना घर छोड़े हुए. एक माह पहले कॉलेज से अवकाश मिलने पर उस घर में गया, तो लगा कि खंडहर में आ गया हूं. फ़र्श पर धूल की मोटी परत, दीवारों पर उखड़ी पपड़ी, सीलन और बदबू. अम्मा-बाबूजी के बड़े घर में सबको अपने-अपने घरौंदों की चिंता थी. अम्मा-बाबूजी, बड़े भाई-भाभियां और बड़ी जीजी सभी अपना घर संवारने में लगे हैं. मेरा अपना घरौंदा कहां खो गया? यह प्रश्न मेरे अंतस को चीरने लगा है, पल-प्रतिपल खाए जा रहा है.
मैं, मीना अभी अपने पति प्रमोद का घर छोड़कर तीन साल के बेटे कृष्णा के साथ मायके आई हूं. शादी के बाद रोज़-रोज़ की कलह से तो यह होना ही था. आज सुबह विवाद की पराकाष्ठा से तंग आकर जब मैंने फोन पर मम्मी-पापा को बताया, तो उन्होंने तुरंत घर आने को कहा, “छोड़ ऐसे आदमी को. हमने तो पहले ही समझाया था बेटा. तू यहां आ जा, अपने आप अकल ठिकाने आ जाएगी.” मेरे घर पहुंचते ही भइया ने कृष्णा को गोद में ले लिया, “मेरा राजा बेटा है, मेरे साथ रहेगा.” भाभी भी उसके गाल चूमने लगीं. थोड़ी देर तक प्रमोद को सब कोसते रहे, “क्या हम अपनी बेटी को पाल नहीं सकते, क्या समझता है वह अपने आपको. ऐसी सीधी और होनहार लड़की मिल गई, तो दिमाग़ चढ़ गया…” आदि-आदि.
माहौल शांत होने पर मैं चाय पीने के बाद छत पर चली गई. नीले आकाश में दो पक्षियों का जोड़ा उड़ रहा था. दोनों में कितना प्रेम था! शादी से पहले हम दोनों भी तो ऐसे ही थे. पक्षियों की साम्यता ने पल भर में मुझे वर्तमान से पीछे धकेल दिया.
उस दिन की ख़ुशी को मैं संभाल नहीं पा रही थी, जिस दिन तमाम विरोधों के बाद प्रमोद मुझे ब्याहने आए थे. मुझे याद आ रहा है, एक दिन जब हम दोनों कड़कड़ाती ठंड की रात में कॉलेज के एक प्राध्यापक के घर बच्चे की बर्थडे पार्टी में गए थे. लौटते समय एकांत में हम एक पुलिया की मुंडेर पर बैठ गए. ठिठुरता देख उन्होंने मुझे आलिंगन में बांध लिया, “इससे पहले कि ठंड तुम्हें जकड़ ले, मैं जकड़ लेता हूं.” मैं कसमसायी, तो आलिंगन और कसता चला गया. उस सुखद अनुभूति को मैं आज तक नहीं भूल सकी हूं.
हम आगे बढ़े, तो उन्होंने अपना ओवरकोट मुझे पहना दिया, “मैडम,
अमूल्य निधि हो तुम. कितने जन्म लिए होंगे, तब तुम्हें पाया है. तुम ख़ुश रहो, बस, यही चाहता हूं. मुझे कुछ हो जाए, कोई परवाह…” उनके शायराना शब्दों को बीच में ही मैंने हथेली से होंठों को दबाकर रोक दिया,
“आपको कुछ हो, उससे पहले मैं मर जाना चाहूंगी.” क्या दिन थे वो! घंटों नैनीताल की झील के किनारे पर खड़े होकर पेड़ों और पर्वतों को निहारना, कभी ठंडी सड़क पर धुंध में खो जाना, कभी भोवाली रोड पर कत्थई घास पर पेड़ों के नीचे बैठे रहना… और अब… कहां खो गया वो सब कुछ?
मेरी समझ में नहीं आता कि विवाह के बाद क्या लड़की के परिवारवालों और संबंधियों से रिश्ता-नाता हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है? क्या पति को यह अधिकार है कि वह अपनी पत्नी, बच्चों और घर को अपनी मिल्कीयत समझे और इस बात का निर्धारण करे कि पत्नी के परिजन आएंगे या नहीं? लेकिन प्रमोद ने यही सब तो चाहा है और किया भी है, नहीं तो मैं अपना बसा-बसाया घर छोड़कर मायके क्यों आती? आख़िर तानाशाही और तानों को भी कोई कब तक सहेगा? विवाह से पहले प्रमोद ने क्या-क्या वायदे नहीं किए थे. ‘तुम रानी बनकर रहोगी. दोनों परिवारों का कोई भी व्यक्ति हमारे प्यार के घरौंदे में घुसपैठ नहीं करेगा.’ लेकिन कुछ दिनों बाद ही इस समझौते से मुकर गए. वह अक्सर अपने परिवार के बीच जाने लगे और उनके घरवाले भी जब-तब हमारे परिवार में हस्तक्षेप करने लगे.
मजबूरी में मैंने उस दिन मम्मी-पापा और भइया-भाभी को बुला लिया. वह सुबह आए और शाम को चले गए. उन्होंने प्रमोद को काफ़ी समझाया भी, लेकिन उन्होंने उसका उल्टा मतलब निकाला. “अब तुम अपने घरवालों से मुझे प्रताड़ित कराओगी. मैं दबनेवाला नहीं हूं. घर का मालिक हूं.”
“तो मैं भी अब और सहन नहीं करूंगी. आप हठधर्मिता दिखाओगे तो किसके पास जाऊंगी? वे मुझे अपने प्राणों से अधिक चाहते हैं. वो आएंगे भी और आपकी करतूतों को रोकेंगे भी. आपके लिए मैंने सब कुछ छोड़ दिया और अब आप मुझे…”
मैं तकिये पर औंधा सिर रखकर रोने लगी.
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“अब नौटंकी शुरू कर दी.” इन शब्दों ने मेरे आंसुओं की धार और तेज़ कर दी. सारी रात रोती रही. दूसरे दिन मैं मायके आ गई थी. कुछ दिनों बाद प्रमोद भी अपने परिजनों के पास चले गए थे. यह मुझे एक परिचित से पता चला.
मैं मम्मी-पापा के घर से बस से जाकर नौकरी करने लगी, लेकिन यहां कुछ ही दिनों में अपनापन खोने-सा लगा. पापा, भइया और भाभी तीनों नौकरी करते थे. सुबह चले जाते, शाम को लौटते. बच्चों को मम्मी और नौकरानी संभालती थी. एक दिन भाभी काम से लौटीं, तो नौकरानी पर बरस पड़ीं, “क्या हाल बना रखा है बच्चों का. ठीक से देखभाल नहीं कर रही हो. अगर दो की जगह तीन बच्चे हो गए हैं, तो पापा से कुछ पैसे बढ़वा लो, लेकिन लापरवाही मत बरतो, समझीं. और मीना, तुम भी तो काम कर सकती हो, थोड़ा तो सहयोग तुम्हें भी देना चाहिए.” मैं चुप रही.
मैं भाभी के बदलते व्यवहार को देख हतप्रभ थी. एक दिन जब भइया घर आए, तो उनके हाथ में लटकी पारदर्शी थैली में आम देखकर कृष्णा ज़िद करने लगा. भइया ने थैली मेरी तरफ़ बढ़ाई, तो बीच में ही भाभी ने ले ली. एक छोटा आम देते हुए बोलीं, “कई दिनों से बच्चे कह रहे थे, उनके लिए तो ये भी कम पड़ेंगे. मीना, तुम भी तो बाहर जाती हो, कभी-कभार कुछ चीज़ें ले आया करो.” उनकी बात से उतना दुख नहीं हुआ, जितना भइया के चुप रह जाने से हुआ. न जाने क्यों प्रमोद का चेहरा मेरी आंखों में तैर गया. घर में सबके अपने-अपने कमरे थे. मेरे लिए अम्मा-बाबूजी के कमरे के पास स्टोर को खाली कर जगह बनाई गई थी.
शुरू में तो सब ठीक था, लेकिन कुछ दिनों बाद ही ख़र्चे में खींचातानी होने लगी. सीधे मुंह तो नहीं, लेकिन गाहे-बगाहे भाभी ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि घर में व्यय और मिल-जुलकर काम करना संभव नहीं रह गया. मैंने बिना किसी हील-हुज्जत के अपने कमरे और उसके सामने कॉमन बरामदे में अपने जीवनयापन की व्यवस्था कर ली. जिस घर में मैं पदा हुई, पली-बढ़ी, उसी में बेगानी खानाबदोश-सी ज़िंदगी हो गई थी मेरी. अपनेपन के सारे रिश्ते न जाने कहां तिरोहित हो गए. कहां खो गया मेरा अपना घरौंदा, जहां तक़रार और रूठने-मनाने में भी आनंद आता था.
शनिवार को हाफ डे था, इसलिए मैं दोपहर में ही स्कूल से आ गई. कल रविवार है और उसके अगले दिन तीज का पर्व. घर में घुसी, तो वही उदासीन माहौल. भइया-भाभी पकवान बनाने में जुटे थे. तीज की तैयारियां चल रही थीं. मुझे पूछा तक नहीं. अपना बैग स्टूल पर रखकर, कमरे में जाकर सो रहे कृष्णा के पास बेड पर औंधी लेट गई. थोड़ी देर में प्रमोद की स्मृतियां सताने लगीं. मेरी आंखों से आंसू निकलकर तकिये को भिगोने लगे. सो रहे कृष्णा का चेहरा देखा, लगा जैसे प्रमोद लेटे हैं. अचानक मैंने एक दृढ़ संकल्प लिया. उठकर हाथ-मुंह धोया और ज़रूरी सामान बैग में रखने लगी.
“कहीं जाना है?” बरामदे में आकर मम्मी ने पूछा.
“हूं. सोच रही हूं अपना घर संभालूं.”
“वहां अकेले रहोगी? परेशानी होगी तुम्हें.” मम्मी ने कहा. उनके स्वर में अब वह खनक नहीं थी, जिसके सहारे उन्होंने मुझे अपना घरौंदा छोड़ यहां आने को कहा था.
“मम्मी, खाली घर भूतों का डेरा बन जाता है, हवा-धूप मिलती नहीं. सीलन और बदबू से जर्जर होने लगता है. दो दिन की छुट्टी है, सोचा थोड़ा संभाल आऊं.”
“कृष्णा भी जाएगा?”
“मेरे बिना कैसे रहेगा. सबको परेशान करके रख देगा.” मैं जानती थी कि जब अपनी लाडली से कुछ ही दिनों में सब उकता गए, तो कृष्णा तो उनके लिए एक बोझ ही बनता. मम्मी के साथ हो रही बातचीत भइया-भाभी भी सुन रहे थे. “अपना ख़्याल रखना बेटा!” भइया ने भाभी की उपस्थिति से डरते-डरते इतना ही कहा. मुझसे नज़रें न मिलें, इसलिए भाभी कृत्रिम व्यस्तता में रमी रहीं. जाने की कुछ ख़ास तैयारी नहीं करनी थी. असली तैयारी तो करनी थी मन को और वह इस कैद से उड़ने को तैयार बैठा था.
जब मैं अपने घर के पास पहुंची, तो शाम घिर आई थी. रिक्शा छोड़ आगे बढ़ी, तो अचंभित हो उठी. घर का बाहरी हिस्सा साफ़-सुथरा था. कमरों की लाइटें भी जल रही थीं. बाहरी दरवाज़े पर ताला पड़ा था. इसका मतलब कोई यहां रह रहा था. कोई क्यों, प्रमोद रह रहे होंगे. दूसरी चाबी तो उन्हीं के पास थी. फ़िलहाल किसी काम से बाहर गए होंगे. अपनी चाबी से ताला खोलकर मैं जब अंदर गई, तो घर की सुंदर व्यवस्था को देखती ही रह गई. बेडरूम में साइड में रखे तिकोने स्टूल पर कृष्णा के साथ प्रमोद और मेरा क़रीब दो वर्ष पहले खिंचा वह फोटो सलीके से रखा था, जिसे मेरे घर छोड़कर जाने से पहले हुए विवाद के दौरान प्रमोद ने क्रोध में सोफे पर फेंक दिया था और मैंने भी उसे उठाना गंवारा नहीं समझा था.
सोते कृष्णा को बेड पर लिटाकर मैं भी उसी के बराबर लेट गई. लगा जैसे घर की दरों-दीवारें मेरे आने से खिल उठी हों और मुझे अपने आलिंगन में लेने को आतुर हों. कितना अंतर था, मायके के घनिष्ठ संबंधी कितने अजनबी थे और इस घर की हर चीज़ में जैसे आत्मीयता बसी हो. आह्लाद के अतिरेक से आंखों में आए पानी में बहुत-सी सुखद यादें तैर गई. तभी कॉलबेल ने मुझे चौंका दिया. दरवाज़ा खोला, तो आशानुरूप प्रमोद थे. क़रीब चार महीने के बाद हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा था. हम दोनों ही कुछ क्षण एक-दूसरे को देखते रह गए.
“मुझे विश्वास था कि जिस तरह मैं अपने घर वापस आ गया हूं, उसी तरह तुम भी अपने घर ज़रूर लौटोगी, इसीलिए पूरे घर को सजाकर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था.” प्रमोद ने मुझे अपने बाहुपाश में बांध लिया और मैं भी उनकी बांहों में सिमटती चली गई. आंखों में ख़ुशी के आंसू लिए यह सोचने लगी कि यह कौन-सा रिश्ता था, जो मुझे अपने मां-पिताजी और भाई के रिश्ते से कहीं अधिक मज़बूत और आत्मीय लग रहा था.
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