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कहानी- इत्र में भीगी हथेलियां… (Short Story- Itra Mein Bhigi Hatheliyan…)

लोग पता नहीं क्यों कहते हैं कि स्त्री-पुरुष पर आश्रित होती है. सच तो यह है कि पुरुष जीवन के हर पग पर स्त्री पर आश्रित होता है. वह स्त्री ही तो होती है, जो तेल मल कर मांस के लोथ में हड्डियां बनाती हैं और उसे एक शरीर का आकार देती है. वही होती है, जो अपनी हथेलियों का सहारा दे धरती पर पैर जमाना सिखाती है, अन्न का ग्रास मुंह में देकर पोसती है. हाथ पकड़कर क ख ग… सिखाती है. पुरुष हर क्षेत्र में स्त्री पर निर्भर रहता है. ममत्व से लेकर सामाजिक, मानसिक, भावनात्मक संबल के लिए भी. स्त्री की हथेलियों में जीवन का इत्र होता है, जो पुरुष में प्राणों की सुगंध भरता है.

सामने आसमान पर सूरज धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था. जल्दी ही सामने वाली इमारत के पीछे छुप गया और फिर अपनी सारी लालिमा को समेटे पता नहीं किस लोक को चला गया की धरा पर अंधकार की छाया डोलने लगी. सूरज डूब गया और पंछी अपने नीड़ों को लौटने लगे. प्रभास ने एक गहरी सांस ली. उनके दिन का सूरज तो डूबते हुए उस पंछी को भी साथ ही ले गया जिसके कारण उनके नीड में चहचहाहट रहती थी. सारे नीड़ों के पंछी सांझ ढलते ही लौट आते, लेकिन उनका जीवनसाथी जाने किस देश की ओर उड़ गया कि अपने नीड़ का रास्ता ही भूल गया. जाने कब कैसे बिछड़ गए वे उससे कि आज अपने आसमान में अचानक अकेले रह गए. जैसे-जैसे घोसलों में लौटते पंछियों के कलरव से आसमान मुखर होता जा रहा था, वैसे-वैसे उनके भीतर का सन्नाटा गहराता जा रहा था.
क्यों..? क्यों विधि का ऐसा विधान है कि रोज़ शाम को डूबने वाला सूरज, तो हर बार दूसरे दिन सुबह पुनः लौट आता है, लेकिन गया हुआ व्यक्ति उस पार से फिर कभी लौट कर नहीं आता. प्रकृति का ऐसा भेदभाव क्यों? वह अपने सूरज को तो फिर से भेज देती है संसार में उजाला करने को लेकिन उनके छोटे से संसार को हमेशा के लिए अंधेरा कर दिया. प्रभास की आंखें फिर भीग गईं. आंसू बहुत रोकने पर भी बह निकले, जिन्हें उन्होंने बड़ी तत्परता से शर्ट की आस्तीन से पोंछ लिया, लेकिन लगा जैसे पीछे से कोई धीरे से निकल गया.

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रात में बिस्तर पर लेटते ही सीने में कुछ घुमड़ने लगा. एक दुख भाप बनकर गले में अटका और तब पानी होकर आंखों से बहने लगा. पिछले चार महीनों में कितना रो चुके हैं वे. भीतर के दुख को आंसुओं में ढाल चुके लेकिन मन का भारीपन है कि कम ही नहीं होता. जो जमा हुआ है वह जैसे और ठोस होता जा रहा है और उनके सीने की जकड़न बढ़ती ही जा रही है. एक भारी पत्थर-सा है, जो छाती पर हर समय धरा हुआ महसूस होता है उन्हें. एक सवाल मकड़जाल-सा घेरे रहता है.

क्यों रंजना..? क्यों चली गई तुम असमय ही मुझे छोड़कर? बड़ा तो मैं था, जाना तो पहले मुझे चाहिए था, तुम पहले क्यों? यह क्यों दिन-रात उनके सामने खड़ा रहता है. जानते हैं इसका कोई जवाब नहीं है. ऊपर वाले के यहां ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो जीवन की बस में, इस यात्रा में पहले चढ़ा है, वही पहले उतरेगा. इस यात्रा में कौन सा यात्री किस समय, कब, किस स्टॉप पर उतर जाए किसे पता होता है. रंजना भी क्या उन्हें छोड़कर जाना चाहती होगी, कभी नहीं! उसे पता था वे उसके बिना किसी हाल में नहीं रह पाएंगे. यह दुख वो सहन नहीं कर पाएंगे.


प्रभास तकिए का सहारा लेकर पलंग पर टिक कर बैठ गए. कितना पैसा जोड़ रखा था उन्होंने रंजना के लिए. हमेशा कहते थे कि मेरे जाने के बाद तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी इतना पैसा रख दिया है तुम्हारे लिए. स्वाभिमान से रह पाओगी. बच्चों पर भी आश्रित रहने की ज़रूरत नहीं और हां मेरे जाने के बाद जैसे रहती आई हो हमेशा वैसे ही रहना. माथे पर बिंदी, गले में मंगलसूत्र, पैरों में बिछुआ और रंगीन साड़ियां ही पहनना. रंजना ने जैसे उनकी आज्ञा का पालन किया. ख़ूब हरी-भरी साड़ी, बिंदी, चूड़ियां, मंगलसूत्र पहने रही. सब साथ ले गई बस उन्हें ही उतार कर इस धरा पर छोड़ गई. अठहत्तरवे बरस की ओर बढ़ते हुए वे रह गए और बहत्तर साल की उम्र में रंजना चली गई. जिसके होने की सुगंध ने जीवन को सदा सराबोर रखा वह हथेलियां पुनः एक बार बिछड़ गई और जीवन एकदम फीका-सा, उद्देश्य हीन हो गया.
दरवाज़े पर टंगे पर्दे के पार कोई छाया हिलती-सी देखी. प्रभास तुरंत दरवाज़े की ओर पीठ करके लेट गए. कोई देख ना ले कि वह रो रहे हैं. सांस रोककर वे निश्चल पड़े रहे. मन के संस्कार उन्हें रोने पर लज्जित अनुभव करवाते हैं. पुरुष है ना, पुरुष तो हिम्मत व दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है. रोने जैसी कमजोरी अनकहे ही उसके लिए वर्जित है. जबकि भावनात्मक रूप से पुरुष तो स्त्री से भी अधिक कमज़ोर होता है. स्त्री में अपना दुख प्रदर्शित करने की, सबके सामने रोने की हिम्मत होती है. पुरुष में इतना साहस नहीं होता. साहस-हिम्मत के क्षेत्र में पुरुषोचित आवरण ओढ़े वह सबके सामने धैर्य का झूठा प्रदर्शन कर भीतर ही भीतर अपने दर्द में घुलता रहता है. वे भी तो छुप-छुप के रोते हैं, कभी अख़बार की आड़ में, कभी रात के एकांत में, कभी नहाते हुए.
अगले दिन सुबह वे अख़बार पर नज़रें गड़ाए बैठे थे. समय काटने के उद्देश्य से आंखों के सामने अख़बार लिए वे पिछले आधे घंटे से पढ़ने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन एक पंक्ति भी ठीक से पढ़ नहीं पा रहे थे.
"नानाजी मां पूछ रही है नाश्ता दे दूं?" नीरा ने आकर पूछा.
"कितने बज गए?" उन्होंने अख़बार से आंख उठाकर पूछा.
"सवा आठ बज गए." नीरा ने बताया.
"अच्छा दे दो." उन्होंने उदासीन भाव से कहा.
नीरा ने उपमा की प्लेट ला दी. वे उपमा गले से नीचे धकेलने लगे. भूख तो आजकल लगती नहीं. खाना खाने का ज़रा भी मन नहीं होता, लेकिन वह किसी को परेशान नहीं करना चाहते, इसलिए जब कोई चाय का कप पकड़ा देता वह चुपचाप पी लेते. कोई नाश्ता-खाना दे देता वह खा लेते. ना उन्हें ठंडा-गरम का भान रहता न स्वाद का.
छप्पन बरस का लंबा साथ कैसे एक क्षण में टूट गया. इतना लंबा जीवन जीवनभर का साथ आज एक सपने की भांति लग रहा है. जीवन के जिस काल में जीवनसाथी की सबसे अधिक आवश्यकता थी, उसी आयु में रंजना उन्हें छोड़ गई. भरा-पूरा परिवार है उनका, लेकिन आज बस एक रंजना के न रहने से जैसे वे अकेले रह गए. रिश्तों की भीड़ में अकेले. ऐसे ही अकेले रह गए थे वे, असहाय से अकेले जब उनकी अम्मा उन्हें छोड़ गई थी. प्रभास ने अपनी हथेलियां देखी. बचपन में वह नींद में डर कर रोने लगते थे, तो दो हथेलियां तुरंत उन्हें थपककर आश्वस्त कर देती, उनका सिर और पीठ सहला देती. वह अकेली संतान थे. पिता काम की वजह से घर पर कम ही रहते. जन्म से ही प्रभास बस मां से ही जुड़े थे. वह अम्मा के प्राण थे और अम्मा उनकी. भले ही कितनी गर्मी हो उन्हें गोद में लेकर ही अम्मा खाना बना पाती. वे चूल्हे की आंच सह जाते, लेकिन अम्मा से दूरी नहीं.


अम्मा की हथेलियों में जाने कौन से इत्र की सुगंध बसी थी, जो उन्हें जीवन की आश्वस्ति सी लगती. वे अम्मा का पल्लू पकड़ कर ही सोते. अम्मा का हाथ नींद में भी उन पर रहता और उनकी हथेलियों से झरती सुगंध में वे गहरी नींद में खो जाते. उन हथेलियों की सुगंध उनके जीवन के हर कोने में व्याप्त थी. खाने में स्वाद बनकर, साफ़-धुले कपड़ों की चमक में, उन्हें पहली बार स्कूल के लिए तैयार करते हुए पहनाए गए यूनिफॉर्म में, बड़े होने पर उनके टेबल पर रखे चाय के प्याले में, करीने से सजी उनकी किताबों में, तहकर आलमारी में रखे उनके कपड़ों में उन्हीं हथेलियों की सुगंध बसती थी. रात में वही हथेलियां चुपके से उन्हें चादर या रजाई ओढ़ा जाती. अम्मा के बिना वे अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे. उनकी हथेलियों की सुगंध में ही प्रभास की सांसें चलती थी. अपना कहने को था ही कौन उनका. अम्मा सिर पर या पीठ पर हाथ फेर देती थी, तो वह बड़े से बड़े दुख से भी उबर जाते थे.
लोग पता नहीं क्यों कहते हैं कि स्त्री-पुरुष पर आश्रित होती है. सच तो यह है कि पुरुष जीवन के हर पग पर स्त्री पर आश्रित होता है. वह स्त्री ही तो होती है, जो तेल मल कर मांस के लोथ में हड्डियां बनाती हैं और उसे एक शरीर का आकार देती है. वही होती है, जो अपनी हथेलियों का सहारा दे धरती पर पैर जमाना सिखाती है, अन्न का ग्रास मुंह में देकर पोसती है. हाथ पकड़कर क ख ग… सिखाती है. पुरुष हर क्षेत्र में स्त्री पर निर्भर रहता है. ममत्व से लेकर सामाजिक, मानसिक, भावनात्मक संबल के लिए भी. स्त्री की हथेलियों में जीवन का इत्र होता है, जो पुरुष में प्राणों की सुगंध भरता है. इन हथेलियों के बिना तो वे एकदम निष्प्राण हैं. माना शरीर में अभी भी हृदय धड़क रहा है, फेफड़े हवा अंदर-बाहर खींच रहे हैं, लेकिन इन सारी भौतिक क्रियाओं के बीच प्राण कहां है, जीवन का आनंद कहां है. आनंद तो रंजना थी, जीवन का आश्वासन तो रंजना थी…
चाहे स्कूल की हो, चाहे कॉलेज की, वे दिनभर की हर बात सहज मन से अम्मा को बताते थे. उनका मन अम्मा के लिए दर्पण जैसा था, जिसमें झांककर अम्मा सब कुछ देख सकती थी. पिताजी के गुज़र जाने पर भी अम्मा की हथेलियों का साया उनके सिर पर था और उन्होंने मज़बूती से उन्हें थाम रखा था. जब अम्मा उन्हें छोड़कर जाने लगी, तो उन्हें लगा कि उनकी ही देह से प्राण निकल रहे हो. असह्य था वह दुख, दारुण थी वह वेदना.
"कैसे जी पाऊंगा तुम्हारे बिना अम्मा…" वह बच्चे की भांति बिलख पड़ते थे.
"'जा कहां रहे हैं बिटवा. अम्मा भला तुम्हें कभी छोड़ कर जा सकती है. देह भले छूट रही है, हमारे प्राण तो सदा तुममें ही बसे रहेंगे." अम्मा ने रंजना की हथेली उनके हाथ में थमा दी थी.
"अब यही तुम्हारी सुख-दुख की साथी है बिटवा. आगे की यात्रा अब इसके साथ ही करना."

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और उसके बाद जीवन में अम्मा के हाथों में बसा इत्र जैसे रंजना की हथेलियों में बस गया और वे उसकी सुगंध में धीरे-धीरे आश्वस्त होते गए. रंजना की हथेलियों ने अम्मा की संपूर्ण धरोहर को उसी स्नेह से, उसी अपनेपन के साथ सहेज लिया था. घर को, गृहस्थी को और उन्हें भी. बच्चों की बढ़ती ज़िम्मेदारियों, घर-परिवार, दूर-पास के नाते-रिश्ते सभी कुछ स़वारने में रंजना की हथेलियां भी उतनी ही कुशल थी जितनी की अम्मा की. ऐसा लगता था अम्मा अपने हाथों की सारी सुगंध रंजना को सौंप गई है. पूरे छप्पन बरस तक रंजना आत्मा रूप में उनके हृदय में बसी रही लेकिन अचानक…
बहुत खाली से हो आए थे वे. अम्मा उन्हें रंजना को सौंप गई थी, लेकिन रंजना उन्हें एकदम अकेला कर गई… निःसहाय! अम्मा के बाद वे अपने मन की हर बात रंजना से साझा करते. दिनभर नौकरी में क्या कुछ हुआ, कौन मिला, किसने क्या कहा, दफ़्तर की राजनीति, एक-एक क्षण वे रंजना के साथ बांटते. अब किस से मन बांटे वे, जीवन का, मन का साझेदार तो चला गया हमेशा के लिए.
प्रभास ने विकल होकर अपनी हथेलियां मली.
रंजना थी तो उनका एक स्थाई ठौर था, एक घर था. उसके जाते ही जैसे वे घर होते हुए भी बेघर हो गए अब उस मकान की बेजान दीवारें उन्हें काटने को दौड़ती. चप्पे-चप्पे में बसी यादें रात-दिन उन्हें व्याकुल करती रहती. जैसे-तैसे उन्होंने लोक-लाज और विधियों के संपन्न होने तक ख़ुद को उस घर में रोके रखा. फिर बेटी उन्हें अपने घर में ले आई. हालांकि उसी शहर में होने के कारण कुछ ख़ास फर्क़ नहीं पड़ा, क्योंकि मन तो वही था. वेदना तो यहां भी साथ ही चली आई है. तब भी जीवन के शेष दिन व्यतीत तो करने ही है. कभी बेटी के यहां चले आते हैं, कभी घर चले जाते हैं. वहां सुमन है उनकी बहू, जो उनका बहुत ध्यान रखती है. ठीक समय पर नाश्ता, खाना, चा. यहां बेटी भी वही सब करती है, तब भी प्राण विकल रहते हैं जैसे का श्वास के अभाव में. बस दिन काट रहे हैं वे.
प्रभास को बेटी के यहां आए महीना भर हो गया. बेटी भरसक उनके आसपास ही रहती. कभी सब्ज़ी काटने सामने आ बैठती, कभी कपड़े तहाने, तो कभी कोई और काम करने. वह रसोईघर में चली जाती, तो नीरा आ बैठती. बेटी पूरा प्रयत्न कर रही थी उनका दुख हल्का करने का. वह भी बेटी के सामने कभी-कभी दुख कह देते. और किसी से कह नहीं पाते थे. बेटी ही थी, जो धैर्य से उनको सुनती, भीगी आंखों में आंसुओं को रोक कर उन्हें सांत्वना देती. वे बार-बार एक ही बात कहते, तब भी बेटी पूरे ध्यान से सुनती. उनकी भावुकता को आदर देती, लेकिन वे जिस सुगंध के संरक्षण, मानसिक निर्भरता के आदी हो चुके थे, उसके लिए सतत व्याकुल बने रहते.
अक्टूबर की शामें अब हल्की-सी ठंडी रहने लगी थी. प्रभास को ठंड ज्यादा ही लगती थी. कल रात भी देर तक जागने के बाद जब उन्हें झपकी लगी, तो हल्की-सी ठंड का एहसास हो रहा था,. फिर पता नहीं कब उन्हें नींद लग गई. जब जागे तब चादर के ऊपर उनके पैरों पर एक कंबल भी ओढ़ाया हुआ था. दोपहर में नींद तो नहीं आती, मगर वे कमरे में जाकर लेटे रहते हैं. आंखें बंद करके घंटा-दो घंटा, ताकि बेटी भी थोड़ा आराम कर सके. सुबह जल्दी उठकर जो काम में लगती है, तो दामाद के आने तक देर रात हो जाती है उसे काम समेटने में. आज भी वह कमरे में आकर लेट गए. कंबल ओढ़ कर लेटे रहना अच्छा लग रहा था. पांच बजे बाहर आए, तो नीरा सोफे पर बैठ कर ही पढ़ रही थी.
"चाय बना दूं नानाजी?" नीरा ने किताब बंद करते हुए पूछा.
"मां उठ जाए, तब साथ ही बना देना." उन्हें लगा बेटी सो रही होगी.
"मां तो दोपहर से ही बाहर गई है." नीरा ने बताया.
"कहां गई है?"
"पता नहीं कह रही थी नानाजी उठ जाए, तो चाय बना देना." नीरा चाय बनाने चली गई.


प्रभास बालकनी में आकर हल्की धूप में बैठ गए. नीरा चाय दे गई. बेटी नहीं है, तो घर में अजीब सन्नाटा लग रहा था. वह होती है, तो उनसे बातें करती रहती है या नीरा से बोलती रहती है. घर में कुछ आवाज़ें तो तैरती रहती हैं. कहां गई होगी? क्या काम पड़ गया होगा? वह देर तक बालकनी में बैठे बाहर की चहल-पहल को देखते हुए अपने भीतर के सन्नाटे को दूर करने का, एकाकीपन को दूर करने का प्रयत्न करते रहे. सूरज ढल गया था. हवा में हल्की-सी ठंडक उतर आई थी. वे भीतर जाने का सोच ही रहे थे. सोच रहे थे कल घर वापस चले जाएं. सारे स्वेटर, गर्म कपड़े वही हैं, कल से नवंबर लग जाएगा, तो दिन पर दिन ठंड बढ़ती ही जाएगी. उठने को हुए ही थे कि तभी कंधों पर किसी का स्पर्श पाकर चौंक गए. बेटी पता नहीं कब लौट आई थी. उनके कंधों पर स्वेटर रखते हुए कह रही थी, "हल्की ठंडक पड़ने लगी है ना, आपके स्वेटर शॉल ले आई हूं. स्वेटर पहन लीजिए और अंदर आ जाइए. अब धूप ढलने पर हवा ठंडी होने लगी है."
स्वेटर पहनते हुए उनकी आंखें भीग आईं. रंजना की याद में नहीं बस यूं ही. कुछ देर बाद वे कमरे में गए, तो बेटी बैग में से उनके गर्म कपड़े निकाल कर आलमारी में रख रही थी.
"ऊपर वाले खाने में पूरी और आधी बांह वाले स्वेटर हैं. नीचे वाले खाने में पाजामे और गर्म बनियाने रखी हैं. इधर शॉल हैं. उस ड्रावर में मफलर है और इसमें मोजे." बेटी बता रही थी और कपड़े तह कर रखती जा रही थी. अचानक उन्हें लगा एक चिर-परिचित सुगंध उनके आसपास फैल गई है, इत्र से भीगी हथेलियों की सुगंध. वह सुगंध, जो अम्मा रंजना की हथेलियों को दी गई थी. क्या रंजना रेवती को दे गई है? या हर स्त्री कोख में रहते ही अपनी बेटी की हथेलियों में वह सुगंध भर देती है. ममत्व की सुगंध, साथ के आश्वासन की सुगंध, सबकी परवाह की सुगंध. स्त्री जन्मतः ही मां होती है. और पुरुष मां, बहन, पत्नी अथवा बेटी के रूप में इसी 'मां' की हथेलियों में बसी सुगंध पर भावनात्मक रूप से जन्मभर आश्रित होता है. हर स्त्री की हथेलियां जीवन की सुगंध से भरे इत्र में भीगी होती हैं. अम्मा की भी, रंजना की भी और रेवती की भी. पीढ़ी दर पीढ़ी की स्त्री अपनी हथेलियों की सुगंध को आने वाली पीढ़ी की स्त्री को सौंप देती है और हर पीढ़ी की स्त्री के पास होती है पुरुष को संबल देती इत्र से भीगी हथेलियां.

Dr. Vinita Rahurikar
डॉ. विनीता राहुरीकर

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