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लघुकथा- कल हो ना हो… (Short Story- Kal Ho Naa Ho…)

वह सब एक-दूसरे से मिलकर ख़ुश थे. घंटों हंसी-मज़ाक चलता रहा, स्कूल के क़िस्से याद किए जाते रहे.
हर थोड़ी देर में हंसमुख को याद कर वह फिर से बातों में खो जाते.
थोड़ी देर बाद गणेश सेठ ने फिर सूचना दी कि हंसमुख सर का एक और मैसेज आया है कि 'आप तीनों अपना मनपसंद भोजन मंगवा लें और खाना शुरू करे.'

बारहवीं की परीक्षा हो चुकी. इस छोटे से शहर में आगे की शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं था. अतः उसके लिए सब अलग-अलग शहरों में जाने वाले थे.
इनमें से थे- श्याम, सतीश, दलजीत और हंसमुख. इन चारों की आपस में ख़ूब जमती थी.
विदा लेने से पहले इन चारों का एक शाम संग गुज़ारने का कार्यक्रम बना. वहीं के एक छोटे से टी स्टाल में जिसे आप चाय समोसा बेचने वाला भी कह सकते हैं.
सब निश्चित समय पर मिले. भविष्य की योजनाओं पर बातचीत हुई और अंत में यह तय किया गया कि ठीक ४० वर्ष पश्चात इसी तारीख़ को इसी होटल में हम फिर मिलेंगे. यह देखना दिलचस्प रहेगा कि किस-किस ने ज़िंदगी में अपना मनचाहा मुक़ाम हासिल किया.
और यह भी तय हुआ कि जो सबसे बाद में आएगा बिल का पूरा भुगतान वही करेगा.
ऐसा इसलिए ताकि सब समय पर पहुंचने का प्रयास करें.
वेटर गणेश को इनकी बातों में मज़ा आ रहा था. जब वह मित्र मंडली जाने लगी, तो उसने कहा, “यदि मैं तब तक इसी होटल में रहा, तो मैं भी आपका इंतज़ार करूंगा. मुझे आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी होगी."
इसके बाद सब अपनी-अपनी राह चले गए.
श्याम को मेडिकल कॉलेज में दाख़िला मिल गया और वह विवाह कर मुंबई जा बसा.
सतीश को इंजीनियर बनने की चाह थी और उसने भी अपनी मंज़िल पा ली.
दलजीत फ़िज़िक्स में बीएससी करके रिसर्च करने के इरादे से विदेश जा बसा.
धीरे-धीरे शहर की आबादी बढ़ती गई. कई नए कॉलेज खुल गए. नई सड़कें-फ्लाईओवर बन गए. लोगों की तरह ही शहर भी तो तरक़्क़ी करते हैं. अब वह छोटा सा शहर काफ़ी बड़ा हो चुका था.
और हंसमुख आगे की पढ़ाई पूरी कर उसी शहर में ही लौट आए थे एवं एक कॉलेज में पढ़ाते रहे थे.

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दिन, महीने, साल बीत गए.
वह छोटा सा टी स्टाल अब फाइव स्टार होटल बन गया था. वेटर गणेश पिछले कुछ वर्षों से इस होटल के मालिक थे और अब वह गणेश सेठ कहलाते थे.
उन्होंने अपनी डायरी में आज की तारीख़ के नीचे रेखा खींच रखी थी और कोने वाली मेज़ पर ‘रिज़र्व ‘ का बोर्ड भी रखवा दिया था.
ठीक चार बजे एक बड़ी सी प्राइवेट टैक्सी होटल के दरवाज़े पर आ कर रुकी और डॉक्टर श्याम लाल उतर कर होटल के भीतर गए.
सेठ जी ने स्वयं उठ कर उनका स्वागत किया, नाम पूछा और रिज़र्व टेबल पर बिठा दिया.
डॉक्टर श्याम लाल मन ही मन बहुत ख़ुश हुए. ‘लगता है कि मैं सब से पहले पहुंचा हूं और आज का बिल मुझे नहीं देना पड़ेगा।’
थोड़ी ही देर में सतीश भी आ गया. वह इंजीनियरिंग कर अब अपनी कंपनी के उच्चतम पद पर पहुंच चुका था. वह बहुत थका हुआ एवं अपनी उम्र से अधिक बूढ़ा लग रहा था.
दोनों एक-दूसरे के बारे मे जानकारी ले रहे थे कि दलजीत भी आन पहुंचा. उसका हुलिया ही बता रहा था कि वह विदेश से आया है.
तीनों मित्रों की आंखें बार-बार दरवाज़े पर जा रही थीं, ‘हंसमुख कब आएगा?’
इतनी देर में मालिक गणेश ने कहा कि श्री हंसमुख की ओर से एक मैसेज आया है कि ‘आप लोग अपनी पसंद के स्नैक्स मंगवा कर शुरु करो, मैं अभी आ रहा हूं.’
वह सब एक-दूसरे से मिलकर ख़ुश थे. घंटों हंसी-मज़ाक चलता रहा, स्कूल के क़िस्से याद किए जाते रहे.
हर थोड़ी देर में हंसमुख को याद कर वह फिर से बातों में खो जाते.
थोड़ी देर बाद गणेश सेठ ने फिर सूचना दी कि हंसमुख सर का एक और मैसेज आया है कि 'आप तीनों अपना मनपसंद भोजन मंगवा लें और खाना शुरू करे.'
भोजन भी हो गया, परन्तु हंसमुख शाह तब भी नहीं पहुंचे. हंसमुख के आने की उम्मीद त्याग उन्होंने बिल लाने को कहा, तो उन्हें बताया गया कि बिल का ऑनलाइन भुगतान कर दिया गया है.
उसी समय बाहर एक युवक कार से उतरा और भारी मन से निकलने की तैयारी कर रहे तीनों मित्रों के पास पहुंचा. तीनों उस आदमी को देखते ही रह गए.
युवक कहने लगा, “मैं आपके दोस्त हंसमुख का बेटा यशवर्धन हूं. मेरे पिता ने मुझे आज आपके इकट्ठा होने के बारे में बता रखा था. वह वर्षों से इस दिन का इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन पिछले महीने एक गंभीर बीमारी के कारण उनका निधन हो गया.
उन्होंने मुझे निर्देश दिया था कि मैं देर से ही आप लोगों के पास पहुंचूं. उनका कहना था कि यदि तुम शुरू में ही चले गए, तो मेरे मित्रों की मिलने की ख़ुशी अधूरी रह जाएगी, जब उन्हें पता चलेगा कि मैं अब इस दुनिया में नहीं हूं.
पापा ने मुझे उनकी ओर से आप सब को गले लगाने के लिए भी कहा था.” और यह कहकर यशवर्धन ने अपने दोनों हाथ फैला दिए.
आसपास के लोग उत्सुकता से इस दृश्य को देख रहे थे, बहुतों को लगा कि उन्होंने इस युवक को कहीं देखा है.
यशवर्धन ने बताया, "मेरे पिता को अध्यापन का बहुत शौक था. अतः वह इसी शहर में रह कर पढ़ाने लगे. मुझे भी उन्होंने ख़ूब पढ़ाया, आज मैं इस शहर का कलेक्टर हूं."
मित्रों ने तय किया कि आगे से वर्षों की प्रतीक्षा न कर जल्दी मिला करेंगे.

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अपने दोस्त-मित्रों व सगे-संबंधियों से मिलने के लिए बरसों का इंतज़ार मत करो.
जाने कब किसकी बिछड़ने की बारी आ जाए और हमें पता ही न चले.
और जब भी मिलो औपचारिक सा हाथ मिलाकर नही, प्रीत प्यार से गले लग कर मिलो.

Usha Wadhwa
उषा वधवा

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