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कहानी- कल्याण-भूमि (Short Story- Kalyan-Bhoomi)

"सुकून… सुकून… जब घर पहुंचा, तो ये शब्द मेरे मस्तिष्क पर हथौड़े सा वार करने लगे." लाम्बाजी सिर पकड़कर बैठ गए. मुझे ऐसा लगा, मानो वो अब भी अपने मस्तिष्क पर वार महसूस कर रहे हैं.
"मेरा बेटा चला गया और उसकी चिता जलाकर मैं सुकून
महसूस कर रहा हूं? धिक्कार है मुझे. पर क्या करता बेटा, मैं मजबूर था. बेटे के जाने के ग़म से ज़्यादा ख़ुशी उसे अग्नि देने में हुई." मुझे लाम्बाजी ने 'बेटा' कहकर संबोधित किया.
"घर जाकर ख़ूब रोया मैं." लाम्बाजी की आंखें नम देखकर मेरी आंखें भी नम हो गईं. भरसक प्रयत्न किया, पर दो बूंद आंसू छलक ही पड़े.

"राम नाम सत्य है…" के शब्द कानों में पड़ रहे थे और मेरे कदम मां की अर्थी के साथ तेज-तेज चल रहे थे. मेरे जीवन का अंतिम साथी भी मुझसे विदा हो गया था. बूढ़े मां-बाप की संतान था मैं. सात भाई-बहनों में सबसे छोटा. फिर कितने कदम साथ चल पाते मां-बाप मेरे साथ, पिताजी तो बचपन में ही गुज़र गए. बहनें पराए घर चली गईं. एक मां ही थी, जो मेरे लिए सब कुछ थी.
मौत को इतने क़रीब से देखने का पहला मौक़ा था. पिताजी की मृत्यु के समय में छोटा व नासमझ था. मां की अर्थी को पूरे रास्ते मैं अपने कंधे पर उठाना चाहता था, परंतु कुछ बड़े-बुज़ुर्ग मुझे बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए हटा देते और मैं उनके साथ कदम-से-कदम मिलाकर भागता, कितनी जल्दी थी उनको.
फिर एक चौराहे पर न जाने कौन-सी रस्म कराई और शीघ्रता से अर्थी उठाकर चल पड़े, मानो किसी की गाड़ी छूट रही हो.
श्मशान भूमि आ गई थी. मां की अर्थी को अंदर ले गए. मैं आगे की प्रक्रिया से अनभिज्ञ था. क्या होगा? कैसे होगा? नहीं जानता था. फिर पड़ोस के रामदयालजी ने पूछा, "लकड़ियां कहां हैं?"
मैं क्या जवाब देता. मैं तो बस निरंतर आंसू बहा रहा था. फिर मैंने देखा सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे, "लकड़ियां नहीं आई? धी कहां है? और हां, वो हांडी?" पर मेरा किशोर मन रूदन कर रहा था.
फिर रामदयालजी ने ही भेजा किसी को लकड़ियों का इंतज़ाम करने. शव यात्रा में आए सब लोग छितर से गए थे. सब अलग-अलग समूह में बातचीत करने लगे. अकेला मैं ही बैठा था अर्थी के पास. रोने की भी एक सीमा होती है. बस, टकटकी लगाए देख रहा था. इतने में ही एक व्यक्ति आया, जो पहनावे से सफ़ाई करनेवाला लगा. मुझसे बोला, "बाबूजी, यह चादर मुझे देना." वो मेरी मां पर ओढ़ाई हुई चादर मांग रहा था. मन बहुत ख़राब सा हो गया था. मैं तो मां के प्यार से वंचित हो गया और इसे चादर की पड़ी है. किस लिए ओढ़ाई है चादर हमने मां को… मेरा मन उथल-पुथल हो रहा था. श्मशान भूमि में कुत्ते घूम रहे थे. गंदगी का साम्राज्य था. बैठने का स्थान न होने के कारण सब खड़े ही बतिया रहे थे. कोई इधर-उधर उकडूं होकर बैठे थे.

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फिर कुछ हलचल हुई, शायद रामदयालजी लकड़ियां ले आए थे. मैंने नहीं चाहा था कि वे जल्दी आएं. लेकिन मेरे अलावा सबको जल्दी थी. आनन-फानन में रस्में पूरी कराई गईं और मेरी मां का शरीर अग्नि को समर्पित कर दिया गया.
उस समय मैं फफक पड़ा. कितना स्वार्थी होता है ये इंसान, एक पल में सारे रिश्ते तोड़ देता है, अपने प्रियजन का शरीर अग्नि में झोंक देता है. ऐसा लग रहा था, मानो जिगर हलक में अटक रहा हो. मस्तिष्क चेतना शून्य हो गया था मेरा.
फिर रामदयालजी ने ही मुझे गले से लगाया. सभी ने जल्दी से जलती चिता के चारों ओर फेरी लगाई और चलने की तैयारी करने लगे. रामदयालजी ने मुझसे कहा, "चलो बेटा."
"क्यों चलूं?" मेरा मन बोल रहा था.
"अभी तो आग पूरी तरह प्रज्जवलित भी नहीं हुई थी. क्या हम और इंतज़ार नहीं कर सकते?" पर मेरी बात रूदन के कारण मुंह पर नहीं आ पाई.
सभी को घर जाने की जल्दी थी. सूरज सिर पर आ गया था. किसी को प्यास लगी थी, तो कोई नहाना चाहता था. परंतु मैं तो अपनी मां के पास बैठना चाहता था. मुझे कोई भूख नहीं थी, कोई प्यास नहीं थी. कुछ तो लकड़ियों के प्रबंध में देरी के कारण झल्ला रहे थे, लेकिन मैं तो मां के शरीर को होम होते देखना चाहता था. मां को विदा करते समय अंत तक मां के पास बने रहना चाहता था. परंतु रामदयालजी ने मुझे समझाते हुए कहा, "अब मां अपनी नहीं है. भगवान अपने आप संभालेगा इसे." मैं मुड़-मुड़कर जलती चिता को देख रहा था.
'कितना स्वार्थी हो गया हूं मां! तेरे पास जी भर कर बैठ भी नहीं सकता. मुझे इस संसार से विरक्ति-सी हो गई है'. संपूर्ण संसार मुझे स्वार्थ का पुतला नज़र आया.
श्मशान भूमि के द्वार पर पहुंचा तो नाई उस्तरा लेकर खड़ा था. रामदयालजी ने कहा, "बेटा, अपने केशदान कर दो." मैंने चुपचाप अपना सिर झुका दिया. 'क्या केशदान ही सच्ची श्रद्धांजलि है?' मेरा मन मुझसे ही प्रश्न कर रहा था? संसार का यह ढोंग मुझमें वितृष्णा पैदा कर गया.
घर आकर फिर वही स्नान, आवास-शुद्धि, लोगों की आवा-जाही, रस्में, औपचारिकताएं और भी न जाने क्या-क्या.

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भारतीय रीति के अनुसार अस्थि चुनने के लिए वहां पहुंचे तो देखा, जहां मां की चिता जलाई थी वहां आसपास कुत्ते कुछ सूंघते हुए घूम रहे थे. ऊपर से नीचे तक झनझना उठा मैं. कई आशंकाओं से घिर गया.
अपने दो मित्रों की सहायता से अस्थियां चुनीं और हरिद्वार विसर्जन के लिए रवाना हो गया.
मां की मौत और उसका अंतिम संस्कार मेरे लिए कई प्रश्न छोड़ गया. ये प्रश्न समय-समय पर कौंधते रहते. मेरा संवेदनशील मन कभी भी यह बात स्वीकार नहीं कर पाया कि हम अंतिम समय में मृत व्यक्ति को यूं ही जलता छोड़ आएं या अंतिम समय में जब व्यक्ति अपने प्रियजन को भावभीनी विदाई देना चाहता हो, तो वह लकड़ी, घी, अग्नि जैसे अन्य प्रबंधों में स्वयं को झोंक दे और उसका श्रद्धांजलि भरा भाव ही काफ़ूर हो जाए.
परंतु मैं भी क्या करता. मां की मौत के समय में अकेला ही था. कोई रिश्तेदार तब नहीं पहुंचा था. पड़ोसी थे, लेकिन वो भी मुझसे ही सभी प्रबंध पूछ कर करते रहे.
इस बात को क़रीब २० वर्ष हो चुके हैं. अपनी एयरफोर्स की नौकरी के दौरान शहर-दर-शहर घूमा हूं, परंतु अब भी मां की मौत का दृश्य नहीं भुला पाया हूं.
इस शहर में आए मुझे एक वर्ष हुआ है. कुछ दिन पहले स्क्वैडून लीडर रमनकांत की माताजी का देहांत हो गया, पड़ोसी होने के नाते मेरा फ़र्ज था कोई काम हो, तो उसके बारे में पूछना.
दाह संस्कार के लिए सामग्री जुटाने का काम मुझे सौंपा. शहर के स्थानीय लोगों ने बताया कि यहां गढ़ रोड पर श्मशान भूमि है. बस, वहां के संरक्षक को सूचना दे दो, बाक़ी काम अपने आप हो जाएगा.
"कौन है वो संरक्षक?" मैंने पूछा तो मुझे बताया गया कि वो संभागीय आयुक्त के कार्यालय में लेखाधिकारी हैं.
"लेखाधिकारी?" मैं चौंक गया.
"इस वक़्त कहां मिलेंगे?" मैंने पूछा.
"अपने ऑफिस में."
मुझे ऑफिस का पता देकर भेजा गया. मेरे मन में अजीबोगरीब विचार उमड़ रहे थे. 'श्मशान भूमि का संरक्षक एक लेखाधिकारी कैसे हो सकता है?' और मैं विचारों में खोया बेवजह स्कूटर के गियर बदल रहा था.
संभागीय आयुक्त के कार्यालय परिसर में स्कूटर रोका. "लाम्बाजी कहां मिलेंगे जो…" अभी पूरी बात बताता इससे पहले ही मुझे दूर एक कमरे की ओर संकेत कर दिया गया.
कमरे में प्रवेश किया, तो देखा कि सामने धूसर बालों वाले, आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ाए एक अधिकारी फाइलों में सिर गड़ाए बैठे हैं. मेरे कदमों की आहट ने उन्हें चौकन्ना कर दिया."
"आप, लाम्बाजी…" मैंने धीरे से कहा.
"हां-हां. क्या बात है?" उन्होंने बड़ी विनम्रता से पूछा.
"वो ऐसा है… हमारे पड़ोसी की मांजी की मृत्यु हो गई."
"अच्छा, कब ला रहे हैं संस्कार के लिए?"
"अभी, बस, अभी."
"आप चलो, मैं आता हूं." वे तुरंत खड़े हुए और फुर्ती से फाइलें समेटने लगे. मैं हैरान था कि उन्होंने मेरा एक वाक्य सुना और बस तैयार हो गए.
"वो सर, ऐसा है. वो पैसे." मैं हिचकिचा रहा था.
वो मुझे ज़्यादा जल्दी में लग रहे थे. मेरी बात अनसुनी कर वे आगे बढ़ गए. मैं बाहर निकला, तो देखा कि वे पहले अपना स्कूटर स्टार्ट करके चले जा रहे थे. मैं अजीब-सी कशमकश में था.

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घर पहुंचा तो रमनकांतजी की माताजी की अर्थी तैयार थी, बस ले जाने की तैयारी थी. मैंने सूचना दी कि वो संरक्षक मिल गए थे, वहां पहुंचने को कहा है.
"राम नाम सत्य है…" के उच्च स्वर के साथ रूदन भरे माहौल से अर्थी को कंधा देते हुए श्मशान भूमि की ओर ले गए. एक-डेढ़ किमी चलने के बाद एक बड़ा-सा गेट दिखा, जो घने छायादार पेड़ों के बीच स्थित था. गेट पर काले अक्षरों में लिखा था 'कल्याण-भूमि'. लाम्बाजी हमसे पहले पहुंचकर गेट पर इंतज़ार कर रहे थे. फिर हाथ से संकेत करते हुए उन्होंने अंदर आने के लिए इशारा किया. अंदर गए तो आश्चर्य, चिता तैयार थी, बस हमें तो वहां मृत शरीर रखकर रस्में पूरी करनी थीं. मुझे अपनी मां की मौत का दृश्य याद आ रहा था.
यहां तो सभी शोक से व्याकुल चिता के चारों ओर बैठ गए. साफ़-सुथरी जगह, नीचे ज़मीन पर बैठना भी बुरा नहीं लग रहा था. रमनकांतजी ने मुखाग्नि दी, तो वातावरण और ग़मगीन हो गया. सभी ने चिता के चारों ओर फेरी लगाई और पुनः गोल दायरे में बैठ गए. सभी निर्विकार भाव से धू-धू करती चिता को जलते देखते रहे. लाम्बाजी स्वयं भी हमारे साथ पूरे समय रहे.
मैंने देखा, रमनकांतजी की मां के शव पर जो चादर ओढ़ाई हुई थी, किसी ने उसे उतारा नहीं. वो चादर समेत चिता को समर्पित कर दी गई थीं.
मैं भी तो ऐसा ही चाहता था, जब मेरी मां की मृत्यु हुई थी. अपनी मां का अंतिम क्षणों में पूरा साथ देना चाहता था, परंतु व्यवस्था की कमी कहो या कुछ और… मेरी मां को बिना चादर के चिता में रखा गया. मां बिना ओढे जलती रहीं. चादर वहां का कोई व्यक्ति उतारकर ले गया था. कोई रुका नहीं, न ही रुकने दिया. उस दिन कितना वितृष्णा से भर गया था मैं संसार के प्रति.
वर्तमान में लौटा, तो चिता की आग अंगारे बन चुकी थी, अब सभी लोग उठने लगे थे. लाम्बाजी ने पानी की ओर इशारा किया. पीने के पानी के मटके रखे थे. सबको प्यास लगी थी, अतः सबने पानी पिया. दूसरी ओर पानी के नल थे. साफ़-सुथरा सीमेंट का घड़ा था, जिस पर नहाया जा सकता था. सबने वहां स्नान किया.
मुझे वहां न कोई बाल मुंडनेवाला नाई दिखा, न चादर उठानेवाला व्यक्ति. न कोई आवारा कुत्ते थे, न कोई कूड़ा-करकट. पेड़ों पर पंछी अवश्य कलरव कर रहे थे, मानो हमारे शोक में शामिल हों, चारों ओर छायादार पेड़ थे, जिनके नीचे संसार के सफ़र से थककर चूर व्यक्ति सांस ले सकता था. सांत्वना भरी छाया हरे घावों को कुछ मरहम दे सकती थी, वरना एक तो अपने प्रियजन के बिछड़ने का ग़म, ऊपर से ये सांसारिक प्रबंध. मैं अभिभूत हो गया था वहां की व्यवस्था देखकर. लाम्बाजी पूरे समय मूक बने रहे.
मैं पूरे तेरह दिन तक रमनकांतजी के साथ रहा. उनकी घर की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, परंतु हर समय लाम्बाजी की छवि मेरे दिमाग़ में घूमती रही. अपनी मां की मौत और रमनकांतजी की मां की मौत की तुलना एक फिल्म की भांति मेरे दिमाग़ में चलती रही.
रह-रहकर मेरे मस्तिष्क में कई तरह के सवाल उठ रहे थे. "इतने अच्छे ऑफिस के अधिकारी, इस काम में कैसे आ गए? क्यों इस कार्य के प्रति इतना समर्पित हो गए? कैसे सामंजस्य बैठाते होंगे अपनी इस नौकरी में?"
न मैं कोई पत्रकार था, न कोई लेखक, पर मेरे मन में उलझे प्रश्नों की जिज्ञासा ने मुझे लाम्बाजी से पुनः मिलने को प्रेरित किया. रमनकांतजी के घर से काम ख़त्म होते ही में पहुंच गया लाम्बाजी के कार्यालय में.
मुझे देखकर बोले, "हां, बोलिए."

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"सर, आज वैसा काम… मतलब दाह-संस्कार का कोई काम नहीं है. क्षमा करना, मैं तो आपसे मिलने, बस यूं ही चला आया."
चेहरे पर गंभीरता ओढ़ते हुए उन्होंने बैठने का इशारा किया. एक बार तो उनकी गंभीरता को देखकर मैं डर गया.
घंटी बजाई तो चपरासी पानी लेकर आ गया. पानी का ग्लास पीकर कुछ पूछने की हिम्मत जुटाने लगा. वे शांत बैठे रहे. मैंने पूछा, "अगर आप नाराज़ न हों तो आप से एक बात पूछूं?"
"नाराज़ किससे होऊं? नाराज़ होना छोड़ दिया है मैंने." वे दार्शनिक अंदाज़ में बोले.
"आप… ये… दाह-संस्कार में इतनी सहायता करते हैं… क्यों?" बड़ी मुश्किल से शब्द निकल रहे थे.
"मैं कारण जानना चाहता हूं."
"हां, ज़रूर, कारण है…" उनका गंभीर चेहरा और ज़्यादा गंभीर हो गया था. मेरा हृदय बात के गांभीर्य से धड़कने लगा था, इसलिए मैं स्वयं को कारण सुनने के लिए मानसिक तौर से तैयार करने लगा.
… इस शहर में आए हुए अभी एक माह ही बीता था कि मेरा १८ वर्षीय पुत्र सड़क दुर्घटना में चला गया. जवान बेटे की मौत, नया शहर, कंधा देनेवाला भी न था कोई, इसी श्मशान भूमि पर लेकर आया था मैं अपने बेटे को. दाह- संस्कार के लिए लकड़ी नहीं जुटा पाया था. बेटे का शव दो घंटे लकड़ी के इंतज़ार में पड़ा रहा. बेटे के जाने का जो दर्द था, वो उसे लकड़ी के इंतज़ार में पड़ा रहने का दर्द बन गया. शव को वहीं छोड़ साइकिल पर लकड़ी ढूंढ़ने निकला. इंतज़ाम करके आया, तो शव पर ओढ़ाई चादर कोई ले गया था…" लाम्बाजी अनवरत बोल रहे थे.
"दिल और दिमाग़ दर्द से चीत्कार कर उठे. छोटे बेटे और पड़ोसियों की मदद से जैसे-तैसे दाह-संस्कार किया. इस दौरान आसपास घूमते कुत्तों को भी भगाता रहा. चिता शांत हुई तो एक सुकून मिला, जैसे कोई जंग जीती हो." मैं मौन, सुन रहा था.
"सुकून… सुकून… जब घर पहुंचा, तो ये शब्द मेरे मस्तिष्क पर हथौड़े सा वार करने लगे." लाम्बाजी सिर पकड़कर बैठ गए. मुझे ऐसा लगा, मानो वो अब भी अपने मस्तिष्क पर वार महसूस कर रहे हैं.
"मेरा बेटा चला गया और उसकी चिता जलाकर मैं सुकून
महसूस कर रहा हूं? धिक्कार है मुझे. पर क्या करता बेटा, मैं मजबूर था. बेटे के जाने के ग़म से ज़्यादा ख़ुशी उसे अग्नि देने में हुई." मुझे लाम्बाजी ने 'बेटा' कहकर संबोधित किया.
"घर जाकर ख़ूब रोया मैं." लाम्बाजी की आंखें नम देखकर मेरी आंखें भी नम हो गईं. भरसक प्रयत्न किया, पर दो बूंद आंसू छलक ही पड़े.
"फिर मेरे मन में विचार आया कि मैं किसी की मौत पर ऐसा नहीं होने दूंगा. उसके प्रियजन की मौत का ग़म मौत के लिए ही रहने दूंगा. मौत पर प्रियजन उसे भीगी आंखों से विदा कर पाए, उसे संस्कार के लिए प्रबंध में उलझना न पड़े. जहां उसका प्रिय व्यक्ति मौत की नींद सोए, वह स्थान कम-से-कम कुत्तों के घूमने की जगह न हो, चादर खींचने की जगह न हो."
मेरी आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी. मुझे अपनी मां की मौत याद आ रही थी. लाम्बाजी की आंखें नम थीं, शायद इतनी चिताओं की अग्नि देखते-देखते उनकी अविरल धारा सूख चुकी थी.
"बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप." आंसुओं से तर चेहरा और भरी हुई आवाज़ के साथ मैं बोला.
"बेटा, मेरी इस कल्याण-भूमि में किसी को लकड़ी की फ़िक्र नहीं होती, कोई प्यासा नहीं जाता. बस अपने प्रियजन के विछोह के क्षण को महसूस करते हैं सब, ताकि ज़िंदगी में कोई पश्चाताप न रह जाए कि हम मौत को अलविदा नहीं कह पाए."
"कई लावारिस शव भी आते हैं, तो उनका संस्कार भी मैं करता हूं. आर्थिक कोष के लिए जो पैसा संस्कार के समय आता है, वही मैं इसमें लगा देता हूं. पैसा बचता है, तो कल्याण भूमि के विकास में लगा देता हूं." लाम्बाजी अब सामान्य हो गए थे.
मैंने पूछा, "लेकिन यदि कोई कार्यालय समय के दौरान आए, तो क्या करते हैं?"
"उच्च अधिकारियों ने मुझे इसकी विशेष छूट दी है. इस कार्य में आने-जाने पर कोई पाबंदी नहीं है."
मैं उठना नहीं चाह रहा था, पर समय काफ़ी हो गया था. मैंने उठकर हाथ जोड़कर लाम्बाजी का अभिवादन किया और बाहर आ गया.
मैं भावविह्वल हो गया था लाम्बाजी की कहानी सुनकर. नतमस्तक था उस व्यक्तित्व के सामने. सोचता आ रहा था कि इंसानियत अभी ज़िंदा है हमारी सभ्यता में. हमारे शास्त्रों में, वेदों में मृत्यु पर कितने ही कर्मकांड लिखित हैं. कितने ही पाखंडों का उल्लेख है. लेकिन मृतकों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही है, जिसे लाम्बाजी ने अपनाया है.
और फिर रास्ते में ही निर्णय कर लिया था कि मैं भी इस श्रद्धांजलि में शामिल हो जाऊंगा लाम्बाजी के साथ.

संगीता सेठी

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