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कहानी- कंबल (Short Story- Kambal)

दुल्ला काकी ने घर संभाल लिया, पर मन संभालने के लिए तुम्हें पुराने कंबल की ज़रूरत क्यों पड़ी, इस पर तुम्हारी सफ़ाई की मोहताज़ नहीं हूं मैं… समझ चुकी हूं, तुम बेशक न समझने का स्वांग करो. जो भी कहो, आई तो व्यथित मन से थी, पर जा रही हूं अपने इस घर से एक अजब सी संतुष्टि लेकर…

आसमान में बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे थे. जून-जुलाई के महीने में शिमला की बारिश अच्छी-ख़ासी ठंडक ले आती है. ऑफिस से आते हुए यहां-वहां घूमते सैलानियों और चाय की गुमटियों को देख पलाश की चाय पीने की इच्छा हुई. इच्छा से ज़्यादा सुविधा का ख़्याल था. घर में चाय बनाने से छुटकारा मिलने वाली सुविधा… पर मन पर आदत हावी हो गई. ऑफिस से सीधा घर आने की आदत… सो रुका नहीं, जबकि आज वह चाय पीने के लिए रास्ते में रुक सकता था. समय से घर पहुंचे न पहुंचे, किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़नेवाला था.
ये समय तो घर से भागने का है, पर आदत का क्या? गाड़ी धीमी ज़रूर हुई, पर चलती गई उस घर की ओर… जिसमें “क्यों देर हुई?” पूछनेवाला कोई नहीं.
‘घर हुंह’ फीकी सी बेबस मुस्कान पलाश के अधरों पर फैल गई और विचारों की सुई घर और केतकी की ओर मुड़ गई. ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’ किसी ने क्यों कहा होगा? क्या वह भी भूत की तरह रात को घर में भटकता है. कभी खिड़की बंद करता है, कभी खोलता है. कभी पानी पीने रसोई में आता है, तो कभी बालकनी में खड़े होकर दूर गगन में चांद की दिशा देखकर समय का अंदाज़ा लगाता है या शायद चांद को देखने का उसे अब समय मिल रहा है… इसकी तसल्ली ख़ुद को देता है.
हां, यही सही है. इसी सकारात्मक सोच के साथ उसे अकेलेपन का उत्सव मनाना है. बच्चे कॉलेज की प्रोफेशनल डिग्री के लिए उसके शहर से दूर हैं. पत्नी को उसकी ज़रूरत नहीं, अब वह स्वच्छंद है. यही समय है ख़ुद को व़क्त देने का, व़क्त ही व़क्त है उसके पास…
केतकी के बगैर घर भूत का डेरा तो कहीं से नहीं लगता. रेडियो, टेलीविज़न, म्यूज़िक सिस्टम की आवाज़ से गुलज़ार रहनेवाला घर बिन घरनी ख़ूब मजे से चल रहा है.
सुबह-शाम एफएम पर गाने… देर रात तक टेलीविज़न, अपनी मर्ज़ी का चैनल और कोई टोकनेवाला नहीं. जब मर्ज़ी हो कहीं घूम  आओ, कहीं जाओ-आओ, कोई रोक-टोक नहीं… इस अकेलेपन के रोमांच का श्रेय  शत-प्रतिशत केतकी को जाता है. केतकी के ख़्याल ने चाय को रिप्लेस कर दिया था… अब दिमाग़ में अनचाहे विषय के रूप में वह  पूर्णत: छा गई थी. नतीज़तन, सख्ती से भिंचे होंठ खुले और वह बुदबुदा उठा, “थैंक्यू, मुझे छोड़कर जाने के लिए… तुम्हें तुम्हारी जगह दिखानी ज़रूरी थी. उम्मीद करता हूं मेरे ख़त ने तुम्हारी इस ख़ुशफ़हमी को बख़ूबी दूर कर दिया होगा कि तुम्हारे बगैर मेरा काम नहीं चलेगा.”
अकेलेपन ने उसे मन ही मन बतियाना सिखा दिया था. आजकल वह रह-रहकर बुदबुदा उठता है… आंखें रास्ते पर और हाथ स्टेयरिंग पर जमे थे. दिमाग़ में केतकी का चेहरा न चाहते हुए भी कौंध रहा था.
धीरे-धीरे एक महीना होने को आया, पर तुमने ख़बर नहीं ली, फिर मैं ही क्यों तुम्हारी कमी महसूस करूं… इस विचार के साथ ही एक विजय सूचक मुस्कुराहट अधरों से होती हुई संपूर्ण चेहरे पर व्याप्त हुई, तो चेहरा तन गया और उसका अहं भी… ज़ेहन में छाई ख़त की इबारतों ने उसे संतुष्टि से भर दिया.
तिलमिलाने वाली इबारतें जब ख़त के मार्फत केतकी तक पहुंची होंगी, तब उसका चेहरा देखने लायक रहा होगा. टूट गया होगा उसका वह वहम कि उसके बगैर घर भूत का डेरा बना होगा. पलाश के चेहरे पर एक वहशियाना मुस्कान चस्पा हो गई.


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पत्नी के अहं के चकनाचूर होने के अहं में डूबा वह कब सोसायटी के गेट के भीतर  घुसा, जान ही न पाया.
विचारों का कारवां दुल्ला काकी को देखकर थमा. गार्ड रूम के समीप बने चबूतरे पर बैठी दुल्ला काकी हाथ से उसे रुकने का इशारा करती घुटने पकड़कर उठ रही थीं.
गाड़ी किनारे लगाते-लगाते दिमाग़ में चल रहा था, काकी तो अमूमन इस समय तक चली जाती हैं. आज अभी तक रुकी हैं. ज़रूर कोई बात है. क्या पता उससे कोई काम हो. एंट्री पास के लिए शायद एप्लीकेशन लिखवानी हो.
दुल्ला काकी को देख चाय की दबी तलब फिर उठ आई. शाम की चाय का इंतज़ाम होने की संभावना बनती देख मन में हिलोर उठी.
वैसे दुल्ला काकी का वह बहुत सम्मान करता है… वह दो-तीन घरों में ही काम करती हैं. उसके यहां स़िर्फ बर्तन, झाड़ू-पोंछा ही करती थीं, पर कोई आता-जाता है या फिर हारी-बीमारी हो या फिर केतकी रूटीन तौर पर मायके गई हो, तो वह उस पर तरस खाकर खाना भी बना देती हैं… बेगार नहीं टालतीं, मन से उसका ध्यान रखती हैं. उसे क्या और कैसा पसंद है, इस बात का पूरा ख़्याल रखती हैं… येे अलग बात है कि इस बार केतकी उससे नाराज़ होकर अनिश्‍चित काल के लिए चली गई है.
यह बात काकी नहीं जानतीं… कई बार पूछ चुकी हैं, “दुल्हिन कब तक अइहैं?”
वह कब तक वापस आएगी? आएगी भी या नहीं… इन संभावनाओं पर वह पिछले एक महीने से गोलमोल जवाब देता आया है.
“भैया, आजकल होस कहां रहत है?” खिड़की का शीशा नीचे करते ही दन्न से काकी ने उलाहना दे मारा, तो उसने घबराकर पूछा, “क्या हुआ?”
चिढ़े हुए कुछ उद्दिग्न भाव के साथ बोलीं, “चाभी काहे मेज़ पर भूल आए..?”
“अरे… कौन सी? घर की…”
“और क्या… यही मारे रुकेक पड़ा… और हां, बिटिया आई रहीं आज…”
दुल्ला काकी ने बम सा फोड़ा, वह बेतरह चौंका, “कौन? केतकी?”
“और कौन… हम चाभी दिए थे उनको, पहले तो लीं, फिर वापस कर दीं. बोलीं, हम मम्मी के इहाँ जा रहे हैं, आप ही दे देना… बताओ आईं, घंटा खांड़ रुकी और चली गईं. हमका देर हुई सो अलग.”
दुल्ला काकी के चेहरे पर देर से घर जाने का मलाल था और उसके चेहरे पर विस्मय…
“अच्छा!” उसने भरसक ख़ुद को सामान्य दिखाया, जबकि सच यह था कि मन बेतरह धड़क रहा था. धड़कना भी प्रेम वाला नहीं, भय वाला… जिस तरह जली-कटी लिखकर उसने अपना रोष ख़त के माध्यम से उसे जताकर उसकी अनुपस्थिति में अपने सुखी, संतुष्ट और शांत जीवन का बढ़-चढ़कर महिमा मंडन किया, उसे पढ़कर सीने में बर्छियां तो चली ही होंगी. ऐसे में क्या वह बिना कुछ कहे रहती…
पर वह बिना कुछ कहे चली गई, इस सच को अब तो नकार ही नहीं सकता. पर जब जाना ही था तो आई क्यों? उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसके आकर चले जाने पर ख़ुश हो या नहीं.
दुल्ला काकी उसे चाभी पकड़ाती कह रही  थीं, “संभालकर धरा करो.” उसने सिर हिला दिया. दरअसल घर की एक चाभी उसके पास और एक केतकी के पास हमेशा रहती है, पर बैठक यानी मेन डोर की तीसरी चाभी दुल्ला काकी को ख़ास मौक़ों पर दी जाती है, ताकि वे उनकी अनुपस्थिति में आकर काम करके जा सकें. बेडरूम अमूमन  लॉक रहते हैं. स़िर्फ बैठक और रसोई जाया  जा सकता है, पर इन दिनों तो रोज़ के लिए ही उसने मेन डोर की चाभी दुल्ला काकी को दे दी, ताकि वह अपनी सहूलियत के हिसाब से काम करके जा सकें. आज वह अपनी वाली चाभी बेख़्याली में टेबल पर छोड़ गया था.


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“भैया, बहू काहे घंटा-दो घंटा रुककर चली गईं? जब आई थीं, तो दो-चार दिन ठहर कर जातीं… अब एकै सहर मा महतारी-बाप है, तो का जी उनहिन में लगा रही. अइसे कइसे चली…” दुल्ला काकी ने यह कहने का हक़ अपनी फ़रमाबदारी से कमाया है.
दुल्ला काकी चली गईं, तो उसे भी घर का ख़्याल आया. वह जल्दी से जल्दी वहां जाकर देखना चाहता था कि केतकी क्यों आई थी? क्या ले गई?
गाड़ी पार्क करके फ्लैट का ताला खोला. बैठक पर सरसरी नज़र डालकर बेडरूम में गया. मुआयना करने के लिए आलमारी खोली, तो वो भी जस की तस ही थी. सरसरी तौर पर कपड़ों पर हाथ फिराया, तो पाया कोई हैंगर खाली नहीं था. तभी नज़र स्टडी रूम में चाय के जूठे कप के नीचे दबे ख़त पर पड़ी. ‘ओह! तो ख़त का बदला ख़त से…’ उसके आने का उद्देश्य समझ में आते ही विद्रूप मुस्कान से उसका चेहरा बना-बिगड़ा. पता नहीं कितने ज़हर उगले होंगे, सोचते हुए ख़त उठाया. एकबारगी मन में आया कि बिन पढ़े ही फाड़ फेंके, पर कितने ताने, उपेक्षा, लांछन बंद हैं, यह जानने की स्वाभाविक उत्कंठा दबा पाने का सामर्थ्य नहीं जुटा पाया, तो पढ़ना शुरू किया.
बिना किसी संबोधन के वह लंबा ख़त आरंभ हुआ था.
पलाश, कितना दुखद है कि छोटे से वैचारिक मतभेद ने हमें इतना दूर कर दिया कि इस  माध्यम से बात करनी पड़ रही है. मैं यहां अपना कुछ छूटा बटोरने आई थी. शायद न भी आती यदि तुम मुझे वो ख़त न भेजते… तुमने लिखा कि तुम्हारा जीवन सानंद बीत रहा है. मेरी कमी का एहसास तक तुम्हें नहीं होता… खाना-पीना दुल्ला काकी बढ़िया से संभाल रही हैं. मैं अब पहले से ज़्यादा तरतीब से हूं. हां, मैंने देखा, किस तरह तुमने अपनी आलमारी के साथ-साथ मेरी आलमारी में भी कब्जा जमा लिया है.
तुम्हारे कपड़ों ने मेरे कपड़ों के बीच जबरन अपनी जगह बना ली है. तुम्हारे बनियान अंडरवियर और रुमाल तक का कब्जा मेरी आलमारी में हो गया है. अब तुम्हें अपने कपड़े ढूंढ़ने में मारा-मारी नहीं करनी पड़ती है.
तुमने लिखा कि अब तुम बिना किसी चिक-चिक के ऑफिस जाते हो, वापस आकर अपने हाथों की ख़ूब मीठी चाय के साथ  तेज म्यूज़िक वाले वेस्टर्न म्यूज़िक का आनंद  उठाते हो… क्लासिकल संगीत और ग़ज़लें अब तुम्हें तंग नहीं करतीं… रात को आराम से सोते हो, क्योंकि हमेशा से ही तुम्हें मेरे उपन्यास पढ़ने की आदत से चिढ़ रही है. तुमने मेरी गैरमौजूदगी से छाए सन्नाटे को उत्सव में परिवर्तित कर दिया वो भी देखा…  दुल्ला काकी घर की सार-संभाल अच्छे से कर रही हैं. खाना चखा था, काफ़ी अच्छा था.
झूठ नहीं कहूंगी, मारे ईर्ष्या के यहां चली आई थी देखने कि किस तरह तुम मेरे बगैर सुख से रह रहे हो. वह शायद मेरा अहंकार था, जो सोचता था कि मेरे बगैर तुम्हारा गुज़ारा नहीं… दरवाज़ा खोलते ही साफ़-सुथरा घर, करीने से रखी हर वस्तु को देख मन बुझ गया. अफ़सोस हुआ कि क्यों आई, अब कभी नहीं आऊंगी. तुम ख़ुश हो, तो क्या मैं नहीं रह सकती… इस विचार के साथ ढेर सारी मायूसी और खालीपन समेटे चलने ही वाली थी कि दुल्ला काकी आ गईं. मुझे देखकर समझीं कि मैं हमेशा के लिए आ गई हूं, पर मैंने मां की तबियत ख़राब होने का बहाना बनाया, कह दिया अभी वहीं रहूंगी.
“कब तक?” उन्होंने पूछा था, पर मेरे पास इसका जवाब नहीं था.
मेरे बिना पूछे भी वो बताती चली गईं कि वो समय से सारा काम कर देती हैं. खाना भी तेल-मसालेदार तुम्हारी पसंद का बनाती हैं. फिर भी तुम ढंग से खाते नहीं हो. रोज़ आधा, तो कभी उससे ज़्यादा खाना फेंकती हैं. बता रही थीं कि तुमने मेरे बनाए मठरी-नमकीन और लड्डुओं पर ख़ूब हाथ साफ़ किए. मैंने भी देखा, तुमने तो पूरा का पूरा  डिब्बा खाली कर दिया है. इतनी कैलोरी सही नहीं है तुम्हारी सेहत के लिए… फिर भी राहत की एक रोशनी मुझ तक पहुंची कि कम से कम तुमने मेरे बनाए लड्डुओं और नमकीन पर ग़ुस्सा नहीं दिखाया, वरना तुम्हारे ख़त के हिसाब से जैसे मुझे हाशिये पर धकेल दिया गया, वैसे ही मेरे हाथों के बने ये सब पकवान डिब्बों समेत कचरे के डिब्बे में जाने थे. पर तुम तो स्वार्थी हो, यही तो कहती आई हूं हमेशा… तुम्हें तुम्हारा स्वार्थ, तुम्हारा स्वाद, तुम्हारी पसंद, तुम्हारा आराम प्रिय है. इन सबके बीच मैं और मेरा वजूद कहीं नहीं है, न कभी था.
पर एक बात कहे बिना न रहूंगी कि तुम्हें  मुझसे परहेज़ है, मेरे एहसास से नहीं… क्यों क्या ग़लत बोल गई मैं?
अपने दिल पर हाथ रखो और कहो मैं झूठ  कह रही हूं कि तुमने अपने पैंट-कमीज मेरी साड़ियों के साथ टांग दिए हैं, ताकि साथ न रहकर भी तुम मेरे स्पर्श को महसूस करो. इसीलिए तो तुमने मेरी एक भी साड़ी को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया.


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तुमने मेरे साथ एडजेस्ट करना नहीं सीखा तो क्या, तुम्हारे कपड़ों ने एडजेस्टमेंट सीख लिया है मेरे कपड़ों के साथ… मेरे इस ख़्याल को शायद तुम मेरी ख़ुशफ़हमी कहो, पर उस बदरंग कंबल के लिए क्या सफ़ाई दोगे, जिसे आजकल तुम ओढ़ते हो.
पलाश का गला सहसा सूखने लगा, तो उसने गटागट पानी पीकर गले को तर किया.
आंखें ख़त पर फिर टिक गईं.
यह बदरंग कंबल, जिसकी नरमाई अब लगभग ख़त्म हो चली है. रंग फीका पड़ चुका है, जो काफ़ी दिनों से ट्रंक में कहीं दबा पड़ा था, जिसे तुमने कई बार फेंकने की पेशकश भी की थी…
घोर आश्‍चर्य हुआ उस आकर्षण विहीन कंबल को तुम्हारे बिस्तर पर देखकर. तुम मुझे इमोशनल फूल कहते आए, पर तुम क्या हो? क्या ये सच नहीं कि उस कंबल में तुम मुझे ढूंढ़ते हो. हमारी शादी के रूमानी दिनों का, हमारे प्रथम स्पर्श का साक्षी यह कंबल तुम्हारे दिल के भी उतना ही क़रीब है जितना मेरे दिल के… फिर क्यों तुम्हें कोफ़्त होती थी कि मैं क्योंकर अब तक इस बदरंग कंबल को संभालती आई हूं.
हां, मैं मानती हूं कि मैं कंबल को नहीं तुम्हारे प्रथम स्पर्श के एहसास को सहेजे थी. शायद तुम भी ऐसा ही करना चाह रहे थे, पर मानोगे नहीं या शायद मानते तो हो, पर जताना नहीं चाहते या फिर जताना आता ही नहीं. कुछ बातें ज़रूरत के साथ सीख लेनी चाहिए, आदतें बदल लेनी चाहिए. उम्र की इस सांध्य बेला के क़रीब पहुंच रहे केतकी को थोड़ा पलाश और पलाश को थोड़ा  केतकी हो जाना चाहिए, पर अफ़सोस ऐसा नहीं हुआ, शायद यहीं हम दोनों मात खा गए… खैर… 
मुझे तो आज पता चला कि जिस कंबल को तुमसे छिपाकर इस भय से मैंने ट्रंक में सबसे नीचे डाल दिया था कि कहीं तुम उसे उठाकर किसी दिन किसी को दे न दो या फेंक न दो, वह कंबल ट्रंक में नीचे दबा पड़ा है यह बात तुम जानते थे, इसीलिए तो मेरी गैरमौजूदगी में उसे निकाल पाए. और मैं बेवजह डरती रही. तुम्हें असंवेदनशील समझती रही. समझती ही रहती यदि यहां न आती और नए की जगह पुराने को न देखती.
चलो, एक बात तो साबित हुई कि तुम्हें भी वो याद है, जो आज तक मैं न भूल पाई. नहीं भूल पाई वो दिन जब मैं नई-नई ब्याह कर आई थी और थकावट में आंखें झपक पड़ीं. ठंड के दिन थे सो कुछ सिमटी-सिकुड़ी सी जहां बैठी थी, वही ढह गई. तब अनुभव किया था उस अपरिचित अनचिन्हे मधुर स्पर्श को जो ठंड से बचाने के लिए मुझे यही कंबल ओढ़ा रहा था… देह में उठती सिहरन और रिश्तेदारों की दबी हंसी के बीच मैं चुपचाप आंखें मूंदे पड़ी रही.


उस कंबल में महसूस होती थी तुम्हारी वो उष्मा भरी मादक छुअन… पर तुम्हारी क्या विवशता थी जो तुमने अपने पसंदीदा कोरियन मखमली कंबल की जगह इस पुराने को दे दी.
पलाश की गर्दन पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आईं. चेहरे पर कई रंग आए और गए. वह उसका ख़त पढ़ता रहा.
दुल्ला काकी ने घर संभाल लिया, पर मन संभालने के लिए तुम्हें पुराने कंबल की ज़रूरत क्यों पड़ी, इस पर तुम्हारी सफ़ाई  की मोहताज़ नहीं हूं मैं. समझ चुकी हूं, तुम बेशक न समझने का स्वांग करो. जो भी कहो, आई तो व्यथित मन से थी, पर जा रही हूं अपने इस घर से एक अजब सी संतुष्टि लेकर.
अरे हां, एक बात और बता दूं, तुम्हारी तरह मैंने भी अपने अकेलेपन को सेलीब्रेट करने के लिए चार-पांच उपन्यास ख़रीदे थे. सोचा तो था कि जी भरकर पढूंगी. एक उपन्यास पढ़ना शुरू भी किया, पर क्या कहूं, पिछले एक महीने से उसी उपन्यास के पृष्ठ संख्या नौ पर ही अटकी हूं. हमारे झगड़े का मूल कारण तो मुझे याद ही नहीं है, शायद तुम भी भूल गए होगे. इसका मतलब झगड़ा अहम नहीं था. अहम है हम दोनों का अहं, जो बच्चों के सामने दबा रहा, पर अब मुखर होने लगा है.
केतकी
बुत बना पलाश कुछ पल यूं ही बैठा रहा मानो किसी फिल्म के धमाकेदार अंत के बाद उसके प्रभाव में डूबा दुनिया जहान से कटा हुआ. नज़र ख़त के अंतिम शब्द पर गई तो बुदबुदाया.
“अकड़ अभी भी वैसी ही… नाम के आगे तुम्हारी लगाने से शान जो जाती है…”
एक बार उसने फोन की तरफ़ हाथ बढ़ाया, फिर वापस खींच लिया. केतकी ने उसके सामने कोई रास्ता भी तो नहीं छोड़ा था. अहं का किला ध्वस्त हो चुका था, सो वह उठा और आलमारी खोली. कपड़ों से बेड भर गया तब जाकर मिली केतकी की पसंदीदा नीली शर्ट, जो उसी के दुपट्टे के नीचे टंगी हुई थी.
शर्ट में कुछ सलवटें थीं, सो शर्ट को दो- तीन बार यूं झाड़ा मानो अहं को झाड़ रहा हो. पहनकर शीशे में देखा, तो हंस पड़ा ख़ुद पर.
बाहर निकलते हुए एक बार फिर नज़र उस चुगलखोर बदरंग कंबल पर पड़ गई, जिसे एक रात बेचैन होकर उसने ही ट्रंक से निकालकर अपनी देह पर डाला था देह की गंध खोजने के लिए. क्या जानता था कि   केतकी के सामने सारे राज़ उगलकर उसे बेनकाब कर देगा.
नीली शर्ट पहनकर उसने ख़ुद को देखा. शर्ट पर सिलवटें थीं, पर चेहरे पर तनाव और क्षोभ की सिलवटें तिरोहित हो चुकी थीं. चाय की तलब के साथ दिल की धड़कन, भय वाली नहीं, प्रेम वाली… वह भी कई सालों पहले जैसी गति में बढ़ी हुई थी.
अब रुकना न मुमकिन था, न ही मुनासिब. उसे देखकर केतकी क्या प्रतिक्रिया देगी, यह काल्पनिक आभास मन को हुलसाए पड़ा था. वह भी अगल-बगल से बेख़बर उस ओर बढ़ चुका था जहां उसकी ज़िंदगी है.

Meenu
मीनू त्रिपाठी

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