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कन्यादान (Short Story- Kanyadan)

‘कन्यादान’ को सबसे बड़ा दान माना गया है. यह दान है उन संस्कारों का जिसकी ज्योति से वह कन्या किसी और के घर को रोशन करती है. यह दान है उन गुणों का जो उसे अपने पिता के घर से मिला है और जिसकी शक्ति के कारण वह कन्या बड़ी सादगी से अपने पति के माता-पिता अर्थात  अपने सास-ससुर को अपने माता-पिता का दर्जा देती है. यह दान है उस निष्ठा का. यह दान है उस  विश्वास का जो कन्या को इतनी शक्ति देता है कि वह अपना घर आंगन छोड़कर अपने पति के घर को अपनाती है. यह दान है उस स्नेह का जिसके धागे में वह अपने नए परिवार को पिरोती है, उसे  पल्लवित करती है और यह प्रतीक है माता-पिता के उस बलिदान का जिसके कारण वह अपनी  पुत्री को अपने पति के घर विदा करते हैं. फिर क्यों वही माता-पिता इसी ‘कन्यादान’ शब्द का सहारा लेकर अपने ऊपर आई हर मुसीबत से अपनी पुत्री को मदद के लिए रोकते हैं? क्यों यह ‘कन्यादान’ शब्द एक बेटी को कभी-कभी पराया-सा बना देती है?

लेकिन अपने माता-पिता को संकट में देखकर उस बेटी पर क्या गुज़रती है. यह परायापन उसे भीतर से कितना खोखला बना देती है, इसका अंदाज़ा वही बेटी लगा सकती है  जिसके माता-पिता संकट में हों, परंतु वह बेटी से कोई मदद न लेना चाहते हों और इसका अंदाज़ा  वही बहू लगा सकती है जिसे अपने माता -पिता की सहायता करने से उसी ‘कन्यादान’ शब्द का  सहारा लेकर रोका जा रहा हो.

दुर्भाग्यवश मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. जिस श्रद्धा से मैंने समीर की मां को अपनी मां का दर्जा दिया, उनकी हर इच्छा को पूरा करने की कोशिश की अपनी इच्छाओं को भूलकर. कई बार समीर भी मुझसे  कहते, “सीमा, मां को कभी भी कुछ चाहिए होता है, तो वह मुझसे न कहकर तुमसे कहती है, क्योंकि वह जानती हैं मैं शायद उन्हें टाल भी दूं, लकिन तुम उनकी हर इच्छा पूरी करने की कोशिश करोगी. मुझे तुम पर नाज़ है सीमा, परंतु अपनी भी इच्छाओं का अपने भी सपनों का ध्यान रखा करो.सबके सपनों को पूरा करते-करते तुम अपने सपनों को भूल मत जाना.”

और प्यार से मेरे माथे पर हाथ रख देते. मैं कुछ कह नहीं पाती. मेरी आंखें भर जातीं. जानती थी कि समीर मेरी सबसे ज़्यादा फिक्र करते हैं और यही मेरी सबसे बड़ी पूंजी थी. आज जब मां ने फोन से यह सूचित किया कि पिता जी की बाईपास सर्जरी करवानी पड़ेगी, जल्द से जल्द ऑपरेशन करवाना होगा, तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी. मैंने जब मां से ऑपरेशन के ख़र्च के बारे में पूछा, तो बोलीं “सीमा ऑपरेशन तो बहुत महंगा है बेटी, परंतु तेरे पापा की कुछ जमापूंजी है और कुछ पैसे भविष्य निधि से भी आ जाएंगे बाकी तुम्हारे चाचा जी से उधार ले लेंगे, इंतज़ाम हो जाएगा बेटा. रवि को भी सूचित कर दिया है. वह भी शाम तक दिल्ली से यहां लखनऊ आ जाएगा. तुम चिंता मत करो बस हो सके तो ऑपरेशन के वक़्त यहां रहना. तुम्हारे पापा को अच्छा लगेगा जब वह अपने दोनों बच्चों को अपनी आंखों के सामने देखेंगे, तो उन्हें बहुत सुकून मिलेगा और हिम्मत भी बंधेगी. बड़ी बहन को देखकर रवि को भी हिम्मत मिलेगी इस बुरे दौर से उबरने की. कितने दिनों से तुम लखनऊ आई भी नहीं हो और हां एक बात और दामाद जी से ये बिल्कुल भी मत कहना की हमने पैसे तुम्हारे चाचा-चाची जी से उधार लिए हैं. तुम्हारे पिता जी कभी भी तुम से और दामाद जी से पैसे नहीं लेना चाहेंगे, तुम तो उन्हें जानती हो हो न. बस बेटी जल्द से जल्द  लखनऊ आने की कोशिश करना.”

मैं मां से कुछ कह नहीं पायी. दुःख, चिंता और इस परायेपन की तकलीफ़ ने मुझे खोखला-सा बन दिया था. दिल तो कह रहा था कि तुरंत समीर से कहे की वह 10 लाख  रुपये पापा के अकाउंट में ट्रांंसफर कर दें, पर जाने क्यों वह रुक गयी. वह जानती थी कि समीर के पैसे उसी के पैसे हैं और समीर कभी मना नहीं करेंगे, परंतु फिर भी क़दम क्यों रुक गए?  समीर ने यह पैसे फ्लैट बुक करने के लिए जमा लिए थे. उनका सपना है कि हमारा अपना घर हो और अपने नन्हें मेहमान का आगमन अपने घर में हो. मांजी ने सभी को अपने नए घर के बारे में बता रखा है और उस पर से मां समीर से कुछ भी आर्थिक मदद नहीं लेना चाहतीं हैं, परंतु मैं तो बस अपने पापा की जान बचाना चाहती हूं और मैं यह कतई नहीं चाहती कि पापा मेरे होते हुए अपने छोटे भाई से मदद लें. चाची हर बार मां को कितना कुछ सुनाती हैं. ऐसे में फिर उनके सामने हाथ फैलाना उचित नहीं है. आख़िर बेटी होने के नाते क्या अपने माता -पिता  के आत्मसम्मान की रक्षा करना मेरी ज़िम्मेदारी नहीं? एक पत्नी और बहू होने का मैंने फर्ज़ निभाया है, तो एक बेटी होने के नाते अपने फर्ज़ से क्यों पीछे भाग रही हूं? ऐसे कई प्रश्‍न मेरे दिमाग़ में आ रहे थे और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था. फिर मैंने मांजी से इस बारे में बात करने की सोची. आख़िर समीर के पैसों पर जितना मेरा हक़ था उतना उतना ही मांजी का भी था.

उनका जवाब उम्मीद के विपरीत मिला. मांजी ने मुझसे कहा, “देखो बहू तुम्हारी चिंता अपनी जगह सही है, परंतु यदि उन्हें पैसों की ज़रूरत होगी, तो वो ख़ुद समीर से मांग लेंगे.तुम्हारी मां ने तो तुमसे कोई मदद नहीं मांगी और वैसे भी ये रुपये समीर ने कितने सालों से जमा किए हैं. तुम्हें तो पता ही है की कब से वो एक घर लेने की सोच रहा है और सबसे बड़ी बात कि अब तुम हमारे घर की बहू हो अच्छा होगा कि तुम अपने मायके के घर के मामलों में दूर ही रहो. हां, यदि तुम लखनऊ जाना चाहती हो, तो जा सकती हो, वो बात और है. तुम्हारे छोटे भाई को भी अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए.”

मुझे लगा कि मैं वहीं जड़वत खड़ी रहूं मानो मैं अब और कुछ सुनने समझने के स्थिति में नहीं थी. मैंने कभी मांजी से कुछ नहीं मांगा था. मेरी आंखों से आंसू अविरल बहे जा रहे थे. मेरा छोटा भाई रवि बैंकिंग की परीक्षाओं की तैयारी करने दिल्ली गया था. उसने कई परीक्षा दी भी थीं और कई के रिज़ल्ट आने ही वाले थे. शुरू से ही वह एक होनहार छात्र था, परंतु उसे अभी तक सफलता हाथ नहीं लगी थी. मैं मांजी से क्या कहती या उनकी कही बातों की पीड़ा से मैं इतनी आहत थी कि मैंने चुप रहना ही उचित समझा. हिम्मत करके समीर से मैं फोन पर बस इतना ही कह पायी कि वो मेरे जाने का रिज़र्वेशन जल्द से जल्द तत्काल में करवा दें .  शाम को जब समीर घर आये तो उन्होंने मुझे उदास पाया तो कहा, “सीमा पापाजी जल्द ही ठीक हो जाएंगे. तुम चिंता मत करो, मेरी तुम्हारी मम्मी और रवि से बात हुई है. मैंने ऑपरेशन के ख़र्च के बारे में भी पूछा था, पर उन्होंने कहा कि उसकी कोई समस्या नहीं है, फिर भी हो सकता है कि वो हमें बताना नहीं चाहती हों या हमसे आर्थिक मदद नहीं लेना चाहती हों, परंतु तुम चेक बुक साथ लेकर जाना हमारे पास फ्लैट के लिए जो भी रुपये जमा हैं तुम्हें जितना भी निकालना निकाल लेना. तुम बड़ी बेटी हो और हमारी ज़िम्मेदारी उनके प्रति भी उतनी ही है जितनी मां के प्रति, ठीक है न. तुम जाने के तैयारी करो और फ्लैट की चिंता बिल्कुल मत करना. हम बाद में फ्लैट ले लेंगे. सीमा पता नहीं ऑफिस से मुझे छुट्टी मिले या नहीं, लेकिन तुम वहां सब संभाल लेना. मैं भी आने की कोशिश करूंगा.”

“समीर, तुम कितने निश्छल हो, कितने अच्छे इंसान हो.” यह कहते हुआ मेरा दिल भर आया. तभी मांजी के कमरे से ज़ोर के चीख सुनायी दी. हम दोनों भागकर उनके कमरे में गए. देखा तो वह नीचे  ज़मीन पर सीने के दर्द से छटपटा रहीं थी. समीर ने तुरंत एम्बुलेंस बुलवाया. मांजी को हार्ट अटैक  आया था और शारीर का आधा भाग लकवाग्रस्त हो गया था, परंतु समय पर इलाज और अच्छे डॉक्टरों की टीम ने उनकी जान बचा ली. 3 दिन आई.सी.यू. में रहने के बाद मांजी हमसे बात कर सकीं. उन्होंने सर्वप्रथम मेरे पिता जी के बारे मैं पूछा.” मांजी पापा का कल ही ऑपरेशन हुआ है वो अब बिल्कुल ठीक हैं. आप चिंता मत करिए, आपको आराम की ज़रूरत है.” मांजी की आंखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने मुझे पास बुलाया और मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, “मुझे माफ़ कर देना बेटी मेरी वजह से तू अपने पिताजी के ऑपरेशन में नहीं जा पायी. मैंने तुम्हें तुम्हारे माता-पिता की आर्थिक मदद करने से रोका था और वह रुपये तो फिर मेरे पीछे चले ही गए. कभी-कभी हम बड़े होकर भी कितनी छोटी सोच रखते हैं. तुमने जितना मेरा सम्मान किया, उतना  स्नेह और सम्मान तो एक बेटी भी नहीं करती.” मांजी यह कहकर फूट-फूट कर रोने लगीं. समीर  मेरी तरफ आश्‍चर्य से देखने लगे मानो वो अपनी मां की कही बातों को समझने की कोशिश कर रहे हों. मैंने मुस्कुराकर मांजी से कहा, “मांजी अब आप ये सब भूल जाइए. चलिए मैं आपको एक ख़ुशख़बरी सुनाती हूं रवि का सरकारी बैंक में अफसर पद पर चयन हो गया है. मां और पापा बहुत ख़ुश हैं और मैंने मां से बात कर ली है. हम पापा के अकाउंट में कुछ रुपये भेज रहे हैं. मां तो हमसे मदद लेने के बिल्कुल खिलाफ़ थी. बार-बार यही कह रहीं थीं कि हम कन्यादान कर चुके हैं, बेटी-दामाद से मदद लेना ठीक नहीं लगता, लेकिन जब समीर ने उनसे कहा, “कन्यादान  करके आपने ऐसे संस्कारों और गुणों का मेरे घर दान किया है जिससे मेरे घर का वातावरण और मेरा जीवन धन्य हो गया. अब हमें पराया न समझें. सीमा का क्या आप पर और पापा पर कोई हक़ नहीं? क्या दामाद होने के नाते मेरा कोई दायित्व नहीं? आप लोगों का आशीर्वाद रहा तो पैसे में फिर कमा लूंगा और उन रुपयों का क्या मोल जो अपनों के काम न आ सकें.” मांजी ने समीर की तरफ़ देखा और कहा, “मां की ग़लती को बेटे ने सुधार लिया एक मां के लिए इससे बड़ी गर्व की बात और क्या हो सकती है.”  हम मांजी  को घर ले आए. उनके इलाज में भी काफ़ी पैसे लग गए थे. कुछ रुपये हमने पापा के अकाउंट में भी ट्रांसफर कर दिए. रवि ट्रेनिंग के लिए दिल्ली चला गया. मां को अब चाचा जी से रुपये उधार लेने की ज़रूरत नहीं पड़ी. रवि की सफलता की ख़ुशी ने पापा को ठीक होने में दवाइयों से ज़्यादा मदद की. दामाद के अपनत्व ने उन्हें गौरवान्वित कर दिया. वह ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे. मैं हर रोज़ उनसे फोन पर बात करती. मांजी की तबियत की वजह से मैं लखनऊ तो नहीं जा पायी, परंतु समीर और में प्रतिदिन 3-4 बार ज़रूर पापा से बात करते. कुछ दिनों बाद समीर ने मुझसे पूछा, “सीमा, मां उस दिन हॉस्पिटल में क्या कह रही थीं मुझे समझ में नहीं आया. क्या उन्होंने तुम्हें पापाजी को पैसे ट्रांसफर करने से रोका था?”  मैंने हंसते हुए समीर से कहा, “तुम्हें इतना परेशान होने की कोई ज़रुरत नहीं है यह सास-बहू के बीच का मामला है. तुम तो बस अब मेरे लखनऊ जाने का रिज़र्वेशन करा दो. मांजी भी अब ठीक हो गईं हैं और ऑपरेशन के बाद मैं पापा से मिली भी नहीं हूं.” इस पर समीर ने झट से कहा, “अच्छा तो तुम अकेले-अकेले लखनऊ जाना चाहती हो आख़िर मुझे भी मेरे ससुराल जाने का मौक़ा दो. सरिता मौसी मां से मिलने यहां आने वाली हैं. मां ने कहा है कि मैं भी तुम्हारे साथ लखनऊ जाऊं. मां के पास सरिता मौसी तो रहेंगी ही.” मैं और समीर एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे.

- पल्लवी राघव

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