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कहानी – खिलौना (Short Story- Khilona)

कितनी आसानी से हम फ़िज़ूलख़र्ची के नाम पर बच्चों का मुंह बंद कर देते हैं… उनकी इच्छाओं को, उनकी भावनाओं को गैरज़रूरी सा करार देकर उपेक्षित कर देते हैं, जबकि हम स्वयं दिन में जाने कितनी बार अनावश्यक रूप से व्यय कर डालते हैं. हमारी सारी बुद्धि, सारा विवेक तभी क्यों जागृत होता है जब हमारा बच्चा ज़िद कर बैठता है… और ज़िद भी क्यों कहें उसे… शायद बच्चे की जिस अभिलाषा को हमें पूर्ण न करना हो, उसे ही हम ज़िद से नामांकित कर डालते हैं.

स्कूल खुलने को ह़फ़्ताभर रह गया था. “ईशान के लिए ढेर सारी शॉपिंग करनी है और अबीर है कि ज़रा-सा समय ही नहीं निकाल पा रहे हैं...” रह-रह कर ईला झल्ला जाती है. आज इतवार का दिन था. घर के कामकाज फुर्ती से निपटाकर अबीर और ईला ईशान को लेकर बाज़ार निकल पड़े.

लंबी-चौड़ी फेहरिस्त थी सामान की. आजकल के स्कूल क्या हुए जैसे कोई व्यवसाय हो गया हो. किताबों-कॉपियों की लंबी सूची... वर्दी छः दिन के लिए चार तरह की... सोमवार को लाल शर्ट तो शनिवार को स़फेद... ऊपर से योगा, कराटे की ड्रेस अलग... पीटी शूज़ एक दिन तो काले जूते दूसरे दिन.... दो जोड़ी नीले मोजे तो दो जोड़ी स़फेद... जोड़ते-जोड़ते करीब तीन-चार हज़ार का सामान तो हो ही जाएगा... मन-ही-मन ईला हिसाब लगाती रही.

“क्या करें... कॉम्पटीशन का ज़माना है.. हमारे चाहने न चाहने से क्या होता है... इस अंधी दा़ैड में शामिल न हुए तो कल को बच्चा बड़ा होकर हमें ही दोषी ठहराएगा...” हर मां-बाप का यही रोना!

बाज़ार पहुंचते ही शुरू हो गयी ईशान की ख़रीददारी... घंटे-दो घंटे घूमकर आधा सामान ले चुके तो ईशान को भूख-प्यास लग आई.

ईला ने अबीर से कहा, “सुनो... तुम ईशू को कहीं कुछ खिला-पिला दो तब तक आधे घंटे में पार्लर से मैं अभी आती हूं... मेरा वाला ब्यूटीपार्लर यहीं पास में है..  दोबारा यहां तक आओ यानी फिर से ऑटो के बीस रुपए ख़र्च करो... बस आधे घंटे से ज़्यादा समय नहीं लगेगा... प्लीऽऽज़...”

ईला मानने से रही... अबीर को पता था, “ओ.के. चलो हो आओ तुम भी...”

“रीगल चौराहे पर मिलना. वहीं से ईशू की किताबें लेने चलेंगे...” जाते-जाते ईला कह गई.

गर्मी के मारे अबीर का भी बुरा हाल था. ईशान को लेकर ज्यूस-सेंटर में दोनों ने गला तर किया... आइस्क्रीम खाई व बाहर निकलकर यूं ही बाज़ार में विंडो-शॉपिंग करने लगे..!

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तभी खिलौनों की दुकान पर ईशान के पैर स्वतः थम गए. शो-केस में तरह-तरह के खिलौने थे... हर आते-जाते बच्चे को लुभा लेने वाले खिलौने...

“पापा प्लीज़ चलिए न अंदर... कुछ मत लेना... बस प्लीज़ अंदर का एक चक्कर लगा लेते हैं... चलिए न प्लीज़...” ईशान ज़िद करने लगा.

“ईशू फालतू बात नहीं... जब कुछ लेना ही नहीं है तो अंदर क्यों जाना. यहीं से देख लो जो देखना है...”

ईशान दुकान के शोकेस से और अधिक सट गया. फुटपाथ पर घूम-घूम कर प्रलोभित-सा सभी खिलौनों को गौर से देखने लगा.

“पापा...पापा... वही रिमोटवाली कार जो मुझे चाहिए थी. पिछले जन्मदिन पर कितनी ढूंढी थी, पर मिली नहीं थी. पापा प्लीज़ ले लो न... फिर कोई और ले लेगा तो फिर नहीं मिलेगी. प्लीज़ पापा प्लीज़..” ईशान ज़िद पर अड़ने लगा.

अबीर ने पलटकर शोकेस में झांका... कार की क़ीमत साढ़े सात सौ देख माथे पर बल डालकर गर्दन ना में झटक दी, “साढ़े सात सौ! ईशू पागल हो गए हो क्या... ह़फ़्ते भर खेलोगे, फिर भूत उतर जाएगा. कार तो यूं ही पड़ी रहेगी... कोई उपयोगी वस्तु होती तो सोचते भी... ज़रा से खिलौने पर इतनी फ़िज़ूलख़र्ची..?”

पापा की चढ़ी त्योरियां व बिगड़ते मिज़ाज को देख ईशू बेचारा चुप हो गया. बाल मन क्या जाने वस्तु की उपयोगिता-अनुपयोगिता और फ़िज़ूलख़र्ची... मन तो मन है... खिलौने से खेलने का मन हुआ तो बच्चे के लिए वही सबसे उपयोगी, सबसे वांछित वस्तु हो गई. ईशान का बाल मन अपने ही विचारों की कशमकश में डूबा रहा.

परंतु अपने ही जुमले के साथ अबीर का मन ज़रूर अतीत की गलियों में पहुंच चुका था.

ठीक यही तो मां ने कहा था उससे जब बचपन में चाबी से उड़ने वाले हवाई जहाज की ज़िद कर बैठा था वह... बिल्कुल इसी तरह मां झल्लाई थी, “ज़रा से खिलौने पर इतनी फ़िज़ूलख़र्ची?” पर अगले ही क्षण न जाने क्या सोचकर दुकान के अंदर चली गई थी मां.

फिर धीरे से बोली, “अबीर हवाईजहाज महंगा हुआ तो न लूंगी हां... चल पूछ तू ही... कितने का है...”

दबी-सी आवाज़ में अबीर ने दुकानवाले से पूछा था, “अंकल जी कितने का है ये?” उसे आशंका थी कि कहीं मां के पर्स के बूते का न हुआ तो सारी मंशा धरी की धरी रह जाएगी.

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क़ीमत थी पूरे एक सौ पचास रुपए... मां ने एक तरफ़ होकर पहले अपने पर्स को टटोला. अबीर भी उत्सुकता से उचक-उचक कर मां के पर्स में झांकने लगा... तब उसे न मां के हिसाब-किताब से कोई सरोकार था न उनके बजट की चिंता... बस एक सौ पचास रुपए पूरे हों पर्स में... यही भगवान से विनती की थी.

अगले ही पल मां ने दुकानवाले से कहा, “वो हवाई जहाज पैक कर दीजिए.”

अबीर ख़ुशी के मारे हवा में उड़ रहा था. दुकान से निकलते ही मां ने घर के लिए ऑटो लिया तो जैसे उसे याद आया, “मां तुम्हारा सामान?... वो नहीं लेना?”

“चलो अब रहने दो... बाद में ले लेंगे...” मां बोली.

बाल मन में तब कहां थी इतनी समझ कि अपनी ज़िद से मां-बाप के बिगड़ते बजट को समझ सके. वह तो ख़ुश था... बहुत ख़ुश... उसे तो जल्दी थी घर पहुंचने की... घर पहुंचते ही सबसे पहले वह चाबी भरेगा और हवाई जहाज के साथ ख़ूब ऊंची उड़ान भरेगा... उसके लिए तो जैसे एक सौ पचास रुपए बिल्कुल सही ख़र्च हुए थे.

शाम को पिताजी ऑफ़िस से लौटे तब तक अबीर का खेल जारी ही था. पिताजी को देख उत्साह से हवाई जहाज में चाबी भर-भर कर अबीर ने दौड़ लगाई... उसे लगा हवाई जहाज देखकर पिताजी भी उसी की तरह ख़ुश होंगे और उमंग से हाथ से खिलौना लेकर देखेंगे.

“पिताजी देखिए ये हवाई जहाज.. कितना ऊंचा उड़ता है.”

“कहां से आया... कौन लाया.. कितने का है?” बिना कोई उत्साह दिखाए पिताजी ने ढेर सारे सवाल दाग दिए.

हवाई जहाज हाथ में ही धरे-धरे अबीर बोला, “मां ने दिलवाया है... एक सौ पचास रुपए का है.”

पिताजी के चेहरे के भाव देखकर वह और अधिक  खड़ा न रहा, अगले ही पल दौड़कर बाहर आंगन में आ गया. पिताजी नाराज़ हों तो हों... मां तो है... वही संभाल लेंगी बात को... उसे क्या चिंता. और फिर वही हवाई जहाज वाला खेल जारी.

मां पिताजी के लिए ठंडा पानी का ग्लास व चाय की प्याली ले आई.

बिना किसी भूमिका के पिताजी गरजे, “तुम भी बेमतलब की फ़िज़ूलख़र्ची करती हो... क्या ज़रूरत थी एक सौ पचास रुपए का खिलौना लाने की? पूरे पैसे इसी में फूंक दिए होंगे... अब अपनी ज़रूरत के लिए फिर पैसे चाहिए होंगे तुम्हें...”

“नाराज़ क्यों होते हो जी... ? नहीं लूंगी और पैसे बस.” मां ने बड़े धैर्य से जवाब दिया.

“लो... तुम तो बुरा मान गई... बात ये नहीं है... पर अबीर की उम्र है क्या इन खिलौनों से खेलने की? पूरे बारह का हो गया है. अब तो किताबों में रुचि लेनी चाहिए.”

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“कितने साल बच्चा बना रहेगा... साल, दो साल-चार साल...” मां समझाते हुए बोली, “एक बार बड़ा हुआ नहीं कि स्वतः ही ढेर सारी ज़िम्मेदारियों के जंजाल सर को घेर लेंगे. साल-दो साल और जी लेने दो बचपन को जी भर के... एक बार गया तो फिर लौटकर नहीं आने का बचपन... किताबें तो ज़िंदगीभर पढ़नी हैं. आज दो की जगह एक कमीज़ सिलवा दूंगी, तो मन दुखी न होगा उसका, पर बाल मन में खिलौने की लालसा अधूरी छूट जाए तो ताउम्र सालती रहेगी... क्या फ़र्क़ पड़ता है... दिल की उमंग जितनी हो सके, कर लेने दो पूरी...”

“तुम कुछ भी कहो... लेकिन है तो यह फ़िज़ूलख़र्ची ही...”

“रहने दो... फ़िज़ूलख़र्ची तो फ़िज़ूलख़र्ची ही सही.. तुम दिनभर पान-सुपारी, तंबाकू पर पैसा ख़र्चते हो. क्या वो फ़िज़ूलख़र्ची नहीं है? दो जोड़ी पायलें होने के बावजूद तीसरी के लिए मैं पैसे जोड़ रही हूं, क्या ये फ़िज़ूलख़र्ची नहीं है? हर उम्र में अपनी-अपनी ज़रूरतें सबको सर्वोपरि और वांछित नज़र आती हैं और दूसरों की ज़रूरतें निरर्थक, बेमतलब की. ज़रा अपने बचपन में झांककर तो देखो.... फिर कहना कि बेटे के हवाई जहाज पर फ़िज़ूलखर्ची हुई है...”

मां के तर्कों पर ठहाका लगाकर हंस पड़े थे पिताजी... शायद उन्हें अपने बचपन का कोई किस्सा याद हो आया था.

अब सब कुछ ठीक-ठाक है... पिताजी हंस रहे थे. पिताजी के नाराज़ न होने का अंदेशा होते ही अबीर फिर दौड़कर कमरे में पहुंच गया व चाबी भर-भरकर उनके सामने हवाई जहाज उड़ाने लगा.

आंगन में खेलते हुए मां-पिताजी का जो वार्तालाप उस छोटी उम्र में अबीर के कानों पर पड़ा था तब उसे उसकी कोई समझ नहीं थी, पर आज बीस साल बाद जैसे एक-एक बात उसके मस्तिष्क में स्पष्ट व साफ़ होती चली गई.

मां ने कितनी सूक्ष्मता से बाल सुलभ मन की भावनाओं को व उम्र की नज़ाकत को समझा था तथा अपने सीमित बजट के बावजूद उसकी लालसा को पूरा किया था. इतना ही नहीं... अपने तर्कों से पिताजी की ज़ुबान पर ताला भी डाल दिया था.

सहसा अबीर की नज़र उदास खड़े ईशान पर पड़ी.

व़क़्त बदल जाता है... व्यक्ति बदल जाते हैं... समय के साथ उम्र दर उम्र पार करते-करते इंसान इतने आगे निकल आता है कि उसे अपना अतीत तक याद नहीं रहता... सचमुच कितना स्वार्थी होता है इंसान.

मैं तो बारह वर्ष की उम्र में भी अपना बचपन नहीं छोड़ पाया था. ईशान तो अभी केवल पांच का ही है. बच्चे से बच्चे का पिता बनते ही मैं बाल मन की सारी लालसाएं भी विस्मृत कर बैठा... अबीर अपने ख़यालों में ही गुम था.

“पापा चलें... मम्मी भी तो इंतज़ार कर रही होंगी...” बड़ी मासूमियत से ईशान ने अपनी ज़िद को भुलाकर कहा.

“चलते हैं... चलते हैं... चलो पहले चलकर कुछ खिलौने तो देख लें...” अबीर ने देखा कि उसका छोटा-सा वाक्यांश ईशान के मन पर जादू कर गया... चेहरे पर वही पुरानी रौनक लौट आई.

“पापा अंदर और भी अच्छे-अच्छे खिलौने होंगे... ये ज़्यादा महंगा हो तो कोई और पसंद कर लेंगे.”

अबीर दंग रह गया बच्चे की समझ पर... उसे मां की बात स्मरण हो आई. मां अक्सर पिताजी से कहा करती थी कि बच्चों कि भावनाओं की कद्र कर उन्हें सही-ग़लत का ज्ञान कराया जाए, तो वे बात को जल्दी ग्रहण करते हैं.

अबीर के नर्म रुख को देखकर ही शायद ईशान रिमोटवाली महंगी कार की ज़िद छोड़ बदले में कोई अन्य खिलौना लेने की बात कह गया.

कितना सच था मां की बातों में... अबीर ने सोचा. अपने पापा का उत्साहित होकर उसके खिलौने के चयन में रुचि दिखाना इतना असर कर गया कि अंततः ईशान कहने लगा, “पापा आप ही बताइए न मैं क्या लूं... मैं तो वही लूंगा जो आप बताएंगे...”

आपसी पसंद से अंततः पांच सौ रुपए का एक रेस कार सेट अबीर ने ईशान के लिए ख़रीद लिया.

ईला बड़ी देर से रीगल चौराहे पर अबीर और ईशान का इंतज़ार कर रही थी. दोनों के पहुंचते ही फट पड़ी, “कहां थे इतनी देर से... और ये क्या ख़रीद लाए...?” अबीर की ओर मुख़ातिब होकर ईला ग़ुस्से से उबल पड़ी.

“इतनी ख़रीददारी करनी बाकी है अभी और नाहक फ़िज़ूलख़र्ची कर डाली तुमने...”

“इट्स ओ.के. यार... चलो दो के बदले एक ही जीन्स ले लेना ईशू के लिए बस!”

“फ़िज़ूलख़र्ची?” शब्द पर बरबस हंसी आ गई अबीर को. ईला का ब्यूटीपार्लर जाना भी फ़िज़ूलख़र्ची ही तो था. उसका स्वयं का दिन में एक पैकेट सिगरेट फूंक डालना भी तो फ़िज़ूलख़र्ची था.

कितनी आसानी से हम फ़िज़ूलख़र्ची के नाम पर बच्चों का मुंह बंद कर देते हैं... उनकी इच्छाओं को, उनकी भावनाओं को गैरज़रूरी सा करार देकर उपेक्षित कर देते हैं, जबकि हम स्वयं दिन में जाने कितनी बार अनावश्यक रूप से व्यय कर डालते हैं. हमारी सारी बुद्धि, सारा विवेक तभी क्यों जागृत होता है जब हमारा बच्चा ज़िद कर बैठता है... और ज़िद भी क्यों कहें उसे... शायद बच्चे की जिस अभिलाषा को हमें पूर्ण न करना हो, उसे ही हम ज़िद से नामांकित कर डालते हैं.

घर पहुंचकर ईला की नाराज़गी को इन चेतनीय तर्कों से दूर करना आवश्यक है, वरना प्यारी मम्मा के असंतुष्ट होने का भार बाल मस्तिष्क पर निरंतर दबाव डालेगा. हो सकता है अपने खिलौने से ईशान आबद्ध रूप से आमोदित ही न हो पाए. अबीर को याद आया कि पिताजी के हंसते ही उनकी नाराज़गी के काफूर होने का एहसास पाकर कैसे दुगुने प्रफुल्लित भाव से हवाई जहाज को उड़ाने लगा था वह. ईशान के साथ भी इसी तरह का प्रयास आवश्यक है. मन ही मन सोचता... अबीर ईला और ईशान के साथ चल दिया.

- स्निग्धा श्रीवास्तव

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