“तो यही होगा न, हम फिर वहीं आ जाएंगे जहां से चले थे. इस डर से हम चलना नहीं छोड़ देंगे. बेटे, अब जो भी होगा, उतना बुरा नहीं होगा, जितना हो चुका है. सच कहती हूं. इस घर को तीसरे की ज़रूरत है. कुछ उम्मीद जागेगी. किसी के किए की सज़ा हम क्यों भोगें? हमें ज़िंदगी को सही तरी़के से जीने का हक़ है.”
वह किसी के साथ जुड़ना नहीं चाहता, जबकि मौसी की ज़िद है, उसे किसी से जुड़ना सीखना होगा. मौसी की ज़िद पर वह जुड़ना सीखने लगा, लेकिन उसने पाया, किसी को उससे जुड़ना अच्छा नहीं लगता. तब वह हैरान हुआ. मौसी सदमे में आ गई. बौखलाकर कहने लगी, “निर्गुण, वह तुम्हारा सच ज़रूर है, पर उस सच का कारण तुम नहीं हो, फिर उस सोच को लड़कीवालों को बता देने की क्या ज़रूरत है?” वह निर्विकार मुद्रा अपना लेता है.
“मौसी, विवाह जीवनभर का मामला होता है, इसमें ईमानदारी बेहद ज़रूरी है. बाद में कोई यह न कहे कि ग़लत, ढोंगी लड़के के साथ संबंध हो गया.”
“... पर तुम्हारा सच किसी को पता क्यों लगेगा?”
“मौसी बातें अपनी ही ताक़त से एक दिन सामने आ जाती हैं. और कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें छिपाना धोखा देना होता है.” “लेकिन जब तुम दोषी नहीं हो, तो...”
“यही तो अड़चन है मौसी, दोषी और पीड़ित दोनों की ज़िंदगी समान रूप से प्रभावित होती है.”
‘मैं बचपन में यौन शोषण का शिकार हुआ हूं’, यह सच बताकर, वह अब तक चार लड़कियों को चौंका चुका है. चारों लड़कियां समान भाव से चौंकी थीं. उनसे एकांत में बातें करते हुए वह उनके बारे में कुछ नहीं पूछता है, बल्कि कहता है... मौसी के लाख समझाने का भी उस पर असर नहीं हुआ. मौसी से बातचीत के बाद वो परिमल बुक सेंटर चला गया. जब वह बुक सेंटर बंद कर रात में घर आया, तो मौसी ने घर के पते पर आया लहर का लेटर, जो चार लड़कियों में तीसरी थी, उसको दिखाया, “निर्गुण, हमारे लिए अच्छी ख़बर है. लहर शादी के लिए तैयार है.”
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“मनोविज्ञान की इस छात्रा ने क्या अच्छी तरह विचार कर लिया है?”
“कर ही लिया होगा, तभी तो.” वह थोड़ा हंसकर ही रह गया. खाना खाकर वह अपने कमरे में आया और पत्र पढ़ने लगा, ‘कुछ दिन पहले मैंने आपको एक चैनल के कार्यक्रम में देखा. आप हॉट सीट पर थे. विषय था- चाइल्ड एब्यूसमेंट. आपने कुछ बातें संकेत और बिंब में बताईं, कुछ अंग्रेज़ी में. यह आपको सरल और सुविधाजनक लगा होगा, क्योंकि इस विषय में किस भाषा-परिभाषा में संवाद किया जाए, यह बड़ी समस्या है. कार्यक्रम को देखकर मुझे लगा आपके जिस सच को सुनकर मैं आपको विचित्र मान बैठी थी, वस्तुतः वह आपकी नैतिकता और ईमानदारी है. तभी तो आपने चीज़ें स्पष्ट कर दीं. यदि आपने मेरे बारे में बुरी राय न बना ली हो, तो प्रस्तुत हूं- लहर.’
उस ख़ामोश घर में वह पत्र ताज़ा ख़बर की तरह दाख़िल हुआ. यद्यपि निर्गुण ने अनुत्तेजित भाव से पत्र तकिए के नीचे रख दिया और आंखें मूंद लीं. वह कार्यक्रम में भाग लेने की मानसिकता नहीं बना पा रहा था. यौन को जिस तरह गोपनीय, वर्जित बनाकर रखा गया है, उसे देखते हुए वह साहस नहीं कर पा रहा था. फिर साहस किया, शायद किसी पीड़ित को उससे हौसला मिले.
ऐंकर पूछ रही थी, “कुछ याद है, जब तुम्हारे साथ यह सब हुआ, तुम कितने साल के थे?”
“नौ या दस.”
“... और यह सब तुम्हारे साथ मौसा ने किया.”
“हां. मौसी-मौसा ने मुझे गोद लिया था.”
“दत्तक पुत्र के साथ? बाप रे..! कैसा महसूस किया था तब?” “वह अस्त-व्यस्त कर देनेवाला अनुभव था. इस तरह का उत्पीड़न बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक प्रत्येक स्तर पर असर डालता है. यह असहनीय है.”
“तुमने अपनी समस्या किसी को बताई थी?”
“बहुत दिनों तक नहीं. मैं मौसा से बहुत डरता था. पर एक दिन मौसी ने ख़ुद ही देख लिया.”
“कभी भूल सकोगे?”
“कुछ ज़ख़्म ऐसे होते हैं, जो कभी नहीं भरते.”
“विवाह को लेकर क्या सोचते हो?”
“मौसी की इच्छा है कि अब मेरा विवाह हो जाना चाहिए, पर सच जानने के बाद लड़कीवाले चुप्पी साध लेते हैं.”
“यहां पर बैठी कितनी लड़कियां हैं, जो निर्गुण और निर्गुण जैसे लड़कों से शादी करना चाहेंगी?” एक भी हाथ नहीं उठा. निर्गुण हंसा.
“यही होता है. किसी के प्रति दया या सहानुभूति रखी जा सकती है. सहयोग नहीं मिलता.”
वे दृश्य... वे कुछ दृश्य फिर कभी धुंधले नहीं हुए. दृश्य उतने भरे नहीं होते, जितने दिखते हैं. उनके भीतर का विस्तार चौंकानेवाला होता है. वे कुछ घटनाएं... ऐसी होती हैं, जो पूरी ज़िंदगी का फ़ैसला कर देती हैं और ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है. वह चेहरा... चेहरा मौसा का था, अब हर किसी का चेहरा बन जाता है और निर्गुण हतप्रभ हो जाता है. वह मज़बूत पकड़... वह ज़बरदस्त पकड़ थी, जिससे वह आज भी नहीं छूट पाया है. उसकी बदलती-बिगड़ती ज़िंदगी...
ज़िंदगी से जब-जब उसका सामना हुआ, हर बार अलग अर्थ, रहस्य भिन्नता और अनिश्चितता के साथ मिली. इस आलीशान घर, जो कि बर्बर घर में तब्दील हो गया, में रहना कुटुंब के सभी बच्चों का सपना था. निःसंतान गंगा मौसी की बहनें और ननदें समय-समय पर अपने बच्चों को मौसी के घर रहने के लिए भेजा करती थीं कि मौसी का उनके बच्चे से लगाव विकसित हो और वे उसे गोद ले लें.
जीत निर्गुण की हुई. वह गौरव के साथ उस आलीशान घर में स्थापित हुआ. उसे पता नहीं क्या-क्या होता था. उसे मोटे तौर पर याद है, आरंभिक अरुचि के बाद मौसा उससे अनुराग रखने लगे थे. उस अनुराग पर वह संदेह क्या करता, जब मौसी ही न कर पाई. और एक दिन यह अनुराग कठिन खेल में बदल गया. नानाजी बीमार थे. मौसी उन्हें देखने चली गई. परीक्षा के कारण वह न जा सका... एक रात मौसा बिल्कुल बदले हुए रूप में थे. उनकी आंखों में मुग्धता थी, हाथों में मज़बूत पकड़ थी, उसका रोना उन पर असर न डाल रहा था, उसके दर्द की अनसुनी ध्वनियां वायुमंडल में अब भी कहीं होंगी.
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मौसा धीरे से बोले थे, “निर्गुण, तुम मुझे राक्षस समझ रहे होगे, पर मैं राक्षस नहीं हूं. यह सब सभी बच्चों के साथ होता है, पर वे किसी से बताते नहीं हैं. बता देने से मां-बाप तुरंत मर जाते हैं.” वह उसके बचपन पर हमला था. उस दिन से वह एक बड़े शून्य में बदलने लगा. बचपन की मासूमियत, मस्ती, मोहकता ख़त्म हो गई. हृदय खाली हो गया, कभी न भरने के लिए. वापस आई मौसी ने मौसा को उलाहना दिया, “निर्गुण कुंभला गया है, तुमने इसका ध्यान नहीं रखा.”
मौसा हंसे, “रोज़ होटल से इसकी पसंद का खाना लाता था. पूछ लो.” मौसी आश्वस्त हो गई, पर वह कभी आश्वस्त न हो सका. हरदम डरा हुआ होता. बिस्तर गीला कर देता. इसी बीच उसे दस्त लग गए. गंदा बिस्तर देख मौसी खीझ गई, “निर्गुण, क्या हो गया है तुम्हें? बिस्तर भी गीला कर देते हो और आज बिस्तर में दस्त? इतने बड़े हो गए हो?”
मौसा बीच में कूद पड़े, “इतना बड़ा भी नहीं हो गया है. नींद में दस्त छूट गया होगा. यह परेशान है. इससे सहानुभूति रखो.” “हां, पर अचानक क्या हो गया है? बेटा, तुम्हें मेरे पास अच्छा नहीं लगता क्या?”
“गंगा, बच्चे से सहानुभूति रखो. परेशान है.” निर्गुण सचमुच परेशान था. मौसी उसकी याचना को पहचानती क्यों नहीं? लेकिन मौसी ऐसे किसी संदर्भ के बारे में सोच तक नहीं सकती थी. रिश्तों में इस तरह की भूल, भ्रम, अज्ञानता, असावधानी, अति विश्वास पनप जाता है, कथित संस्कारशील घरों में शोषण निर्बाध रूप से जारी रहता है. प्रत्येक पुनरावृत्ति पर निर्गुण का हृदय भर आता- भगवान, नरसिंह की तरह किसी खंभे से निकलकर मौसा को दो फाड़ कर दो.
कई बार सोचा चुपचाप अपनी मां के पास चला जाए, पर नहीं जानता था किस बस में बैठकर जाए. कारण क्या बताए? अब उसे लगता है कि वह तय नहीं कर पाता था, क्या करना चाहिए. यह बात बताएगा, तो मां-बाप मर जाएंगे, यह भ्रम इतना प्रभावी था कि जब छुट्टियों में मां के पास गया, तब भी कुछ न बता पाया. बस, इतना कहा, “मां मैं यही रहूं?”
मां ने पुचकारा, “वहां अच्छा नहीं लगता? बेटा, तुम भाग्यवान हो, जो ग़रीब घर से उस अच्छे घर में चले गए. अपने बाबू को देखते तो हो, कभी इधर काम ढूंढ़ते हैं, कभी उधर. मेरी क़िस्मत में गंगा की तरह सुख नहीं है. बेटा, तुम बड़े हो गए हो, तुम्हें समझदारी सीखनी होगी. अपने कुछ कपड़े अपने छोटे भाई को दे जाना. मौसी तुम्हें नए ख़रीद देगी.” चूंकि वह तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ा था, अतः उसे छोटी उम्र में ही बोध कराया जाने लगा था कि वह बड़ा है.
अब उसे लगता है कि उसने बचपन ठीक से जीया ही नहीं. उसकी नादानियां कभी माफ़ हुई ही नहीं, क्योंकि वह घर का बड़ा बच्चा था. मौसा उसे लेने आ गए. छोटे भाई व बहन के लिए कपड़े और मिठाई लाए थे. इसी कारण मौसा का जादू सभी पर चल जाता था. उसे वापस भेजते हुए अम्मा-बाबू बहुत प्रसन्न थे. वह फिर बर्बर घर में था. डरा हुआ. मौसा उसे घेरते, वह दूर भागता. बात करते, वह जवाब न देता.
मौसी को लगता अनादर कर रहा है, “निर्गुण, मौसाजी कुछ पूछ रहे हैं.” मौसा हंसते, “गंगा, बात को तूल न दिया करो. बच्चे ऐसे ही होते हैं. इसे स्वाभाविक भाव में रहने दो.” आज सोचता है, सब कुछ अस्वाभाविक बनाकर मौसा किस स्वाभाविक भाव की बात करते थे? मौसा ने ऐसा क्यों किया? कौन-सी कुंठा, अतृप्ति, विकार, प्रतिरोध रहा जो..? उसका चित्त अशांत रहने लगा. अंक कम आने लगे. वह मौसी के साथ बैठकर मूवी देख रहा था. मौसी फिल्मों की शौकीन थीं. कैसेट मंगाकर देखा करती थीं. रेप सीन था. निर्गुण भय और घबराहट से कांपने लगा. “मौसी यह सब तो बच्चों के साथ...” मौसी ने वीसीआर बंद कर दिया, “निर्गुण तुम पागल हो.”
“मैं जानता हूं न.”
“लगता है गंदे लड़कों की सोहबत में पड़ गए हो. यह सब बच्चों के साथ नहीं, लड़कियों के... अच्छा जाओ यहां से. बच्चे मूवी नहीं देखते.” मौसी क्रुद्ध हो गईं. निर्गुण की परेशानी बढ़ गई. मौसी क्या ठीक कहती हैं? किससे पूछे? उसे अपने मित्र विराम की याद आई. विराम दो साल बड़ा था और बहुत अधिक जानकारी रखता था.
अब उसे लगता है कि वह समस्या ठीक से बता नहीं पाया था, पर अधिक जानकारी रखने के कारण विराम समझ गया था. “निर्गुण, तू बेवकूफ़ है क्या? मौसा को दो लात रसीद कर. मौसी को बता. बेवकूफ़, बताने से मां-बाप नहीं मरते. चीख-चिल्ला, शोर मचा. मेरा बड़ा भाई शहर का दादा है. कहे तो चार जूते मौसा को मरवा दूं...” मौसा को कल्पना नहीं थी कि निर्गुण योजना बना रहा है. निर्गुण ने मौसा की भुजा पर दांत गड़ा दिए और तब तक काटता-चिल्लाता रहा, जब तक जागकर मौसी न आई. मौसी के आदर्श पुरुष का यह अब तक का सबसे घिनौना रूप था. वे डर और अविश्वास से मौसा को देखती रह गई थी. यह बच्चा पता नहीं कब से यातना सह रहा है और इस पिशाच को झिझक न हुई.
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मौसी ख़ूब रोने लगी थी. फिर निर्गुण को लेकर अपने कमरे में आ गई थी. वह नहीं जानता मौसी और मौसा के बीच फिर क्या बहस हुई. बस, इतना जानता है कि दोनों फिर अजनबियों की तरह रहने लगे थे. आज सोचता है, तो हैरान होता है. अल्प शिक्षित मौसी में दृढ़ता आ गई थी या मौसी में मौसा का सामना करने का साहस नहीं था. मौसी की वह कई स्तरों पर हार थी. मौसी का विश्वास भंग हुआ था. बच्चा गोद में लेने-देने जैसी सामाजिक आस्था को धक्का लगा था. वे तो मौसा के साथ रहना ही नहीं चाहती थी, किंतु नितांत निजी फ़ैसले भी व्यक्ति ख़ुद नहीं कर पाता. कुटुंब की राय को मानना पड़ता है.
अब उसे लगता है कि ननिहाल में यह बात मौसी ने ही बताई होगी. मौसा का जादू सभी पर चल जाता था, अतः कोई भी सहसा विश्वास न कर सका. किया तो सुझाव दिए जाने लगे. नाना बोले, “गंगा, तुम्हारी बेवकूफ़ी और लापरवाही कम नहीं रही, जो तुमने जानने की कोशिश नहीं की कि निर्गुण डरा हुआ रहने लगा है. अब चुप रहने में बेहतरी है. इस कलंक का असर पूरे परिवार पर पड़ेगा. हम लोगों को क्या जवाब देंगे? निर्गुण की ज़िंदगी भी कठिन हो जाएगी?”
मामा ने विरोध किया, “जीजा को समाज से बेदख़ल करना चाहिए.”
निर्गुण की मां व्याकुल थी, “गंगा, मैं सोचती थी कि निर्गुण सुख से है. मैं इसे वापस घर ले जाऊंगी.”
मौसी अकुला गई, “लीला, मेरे पास अब निर्गुण के अलावा कोई आधार नहीं है. तुम्हें डर है, तो मैं उस घर में नहीं रहूंगी.”
नाना ने चेताया, “...तो कहां रहोगी? अलग रहने का लोगों को कारण क्या बताओगी? शांति से काम लो और सतर्कता बरतो.” उस समय तो वह इन बातों का मतलब समझ नहीं पाया था. आज सोचता है कि अपने कहे जानेवाले लोग भी अपनी पोज़ीशन, हित, स्वार्थ ही देखते हैं. तभी तो नाना को कुटुंब की चिंता हो आई थी. मामा मौखिक विरोध करके रह गए. मां ज़िद कर उसे वापस न मांग सकी. मौसा कुछ भी न बोल सके. मौसी की नज़र में गिरने से मौसा की ताक़त जाती रही या ग्लानि महसूस हो रही थी. नींद की गोलियां खाईं या हृदयाघात हुआ. वे एक रात कमरे में मृत पाए गए.
मौसी यही बोली, “लोग ऐसा काम करते क्यों हैं कि फिर जी नहीं पाते.” निर्गुण ने बी. काॅम अंतिम साल की तैयारी और परिमल बुक सेंटर एक साथ संभाला. कभी इस प्रतिष्ठान में मौसा की कुर्सी पर बैठना उसका सपना था. अब उसने वह रिवॉल्विंग चेयर बदल दी, जिस पर मौसा बैठा करते थे. उसे चेयर में मौसा के होने का बोध होता था. जल्दी ही वह बुक सेंटर स्थापित हो गया. उसे अपने काम में आनंद आने लगा था.
वह तो इसी तरह से ज़िंदगी बिता देना चाहता था, लेकिन लहर का पत्र आने से घर परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था. मौसी उत्साहित थी, “निर्गुण, मैं लहर के बारे में बात करना चाहती हूं.” “वह भावुक होकर सोच रही है. बाद में पछताएगी.”
“तो यही होगा न, हम फिर वहीं आ जाएंगे जहां से चले थे. इस डर से हम चलना नहीं छोड़ देंगे. बेटे, अब जो भी होगा, उतना बुरा नहीं होगा, जितना हो चुका है. सच कहती हूं. इस घर को तीसरे की ज़रूरत है. कुछ उम्मीद जागेगी. किसी के किए की सज़ा हम क्यों भोगें? हमें ज़िंदगी को सही तरी़के से जीने का हक़ है.”
“पर मौसी...”
“निर्गुण, मेरे भी कुछ अरमान हैं.”
“मौसी, मैं शून्य में बदल चुका हूं. मुझसे किसी को कोई लाभ न होगा.”
“शून्य कहीं पर जुड़ता है, तो बढ़त दिलाता है.”
“तुम्हें विश्वास है मौसी?”
“यह तो मानी हुई बात है.”
“तो क्या इस मानी हुई बात को आज़माया जाना चाहिए?” निर्गुण के भीतर इच्छा हो आई है, यह जानने की कि किसी से जुड़ने पर अंततः लगता कैसा है?
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