धीमी गति से उस अधेड़ को गाड़ी के पास आता देख विनय कार से बाहर आ गया और वर्मा जी के चेहरे पर झुंझलाहट आ गई… दो कदम उस अधेड़ के पास चलकर खाने का डिब्बा उसकी ओर बढ़ाते हुए वही चिरपरिचित जुमला… "इसमें खाना है. क्या आप लेंगे?"
यह सुनते ही अधेड़ की आंखों में चमक आई और उसने लपककर डिब्बा ले लिया.
पिछले एक महीने से वर्मा जी ने ऑफिस के नए सहकर्मी विनय मिश्रा के साथ ऑफिस जाने के लिए कार साझा करना आरंभ किया है.
आज वर्मा जी की कार लाने की बारी थी. विनय मिश्रा अमूमन साढ़े आठ बजे चौराहे पर खड़े मिलते हैं, पर आज आठ पैंतीस हो गया था और उनका कहीं अता-पता नहीं था…
और कितनी देर इंतज़ार करें यह जानने के लिए वर्मा जी ने मोबाइल निकाला कि तभी नज़र जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते विनय मिश्रा पर पड़ी.
बैग के साथ लंच बॉक्स और लंच बॉक्स के साथ अल्मुनियम फॉयल में लिपटा कुछ देखकर वर्मा जी समझ गए कि वह घर का बचा हुआ खाना लेकर आ रहे है. उन्हें कुछ उलझन सी हुई वह जानते थे कि अब वह रास्ते में गाड़ी रुकवाएंगे और किसी ज़रूरतमंद को यह कहकर सौपेंगे कि "क्या आप खाना लेंगे..?"
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देर न हो रही होती, तो विनय पर झुंझलाहट न होती. उन्हें भी यह सोच ठीक लगती है कि बचा खाना यदि अच्छा है, फ्रिज में रखा हुआ है, तो तुरंत ही किसी ज़रूरतमंद को दे देना चाहिए. वह समझते हैं कि देश में ऐसे लोग हैं, जो भूखे पेट सोने को मजबूर हैं. पर 'क्या आप खाना लेंगे यह खाना?..' पूछकर देना उन्हें हास्यस्पद लगता है या यूं कहें कि अखर जाता है.
सोच में डूबे वर्मा जी सहसा चौंके. जब लगभग हड़बड़ाते हुए विनय ने गाड़ी का दरवाज़ा यह कहते हुए खोला, "माफ़ कीजिएगा, आज देरी हो गई…"
"अभी और होगी, क्योंकि आज फिर आप बचा हुआ खाना लाएं है. इसे देना भी तो होगा."
कहते हुए उन्होंने गाड़ी स्टार्ट कर दी, तो विनय ने सफ़ाई दी, "कल खाना ज़्यादा बन गया था. फ्रिज में रख दिया कि शाम को निपट जाएगा, पर दोस्त का फोन आ गया कि शाम को पार्टी है. तो सोचा, किसी ज़रूरतमंद को दे दूं."
"और आपके हिसाब से भिखारियों को तो ज़रूरतमंद की कैटेगरी में रखा ही नहीं जा सकता है." वर्मा जी के उलाहने पर विनय मुस्कुराया पर बोला नहीं…
बचा खाना किसी सुपात्र को मिल जाए इस आकांक्षा से रास्तेभर विनय इधर-उधर देखता रहा. वर्मा जी ने कई बार भिखारियों को देख गाड़ी धीमी कर इस उम्मीद से कि शायद गाड़ी रुकने का सिग्नल मिले… सवालिया नज़र विनय पर डालते रहे, पर निराशा ही मिली. आख़िरकार गाड़ी रोकने का सिग्नल मिला, तो वर्मा जी ने गाड़ी रोक दी.
"भैया सुनना ज़रा…" खिड़की का शीशा नीचे करके सिर बाहर निकालते हुए विनय ने कुछ ही दूरी पर मैले-कुचैले कपड़े पहने उस कचरा बीनने वाले को पुकारा.
धीमी गति से उस अधेड़ को गाड़ी के पास आता देख विनय कार से बाहर आ गया और वर्मा जी के चेहरे पर झुंझलाहट आ गई… दो कदम उस अधेड़ के पास चलकर खाने का डिब्बा उसकी ओर बढ़ाते हुए वही चिरपरिचित जुमला… "इसमें खाना है. क्या आप लेंगे?"
यह सुनते ही अधेड़ की आंखों में चमक आई और उसने लपककर डिब्बा ले लिया.
विनय जैसे ही वापस गाड़ी में बैठा, तो कोफ्त में सिर हिलाते हुए वर्मा जी ने गाड़ी आगे बढ़ाते हुए बोले, "अब इस कचरे वाले को भी खाना पूछकर दोगे क्या विनय… तुम भी हद करते हो… 'खाना लेंगे' ऐसी इज़्ज़त क्यों बख्श रहे थे. कचरा बीनने वाला ही तो था. डिब्बा पकड़ा देते, तो क्या वह लेने से मना कर देता."
"ज़रूर पकड़ा देता, अगर भिखारी होता तो. पर यह कचरा बीनने वाला है."
वर्मा जी के चेहरे पर असमंजस के भाव देखकर विनय ने स्पष्ट किया, "भिखारी और कचरा बीनने वाले वेशभूषा में बेशक एक से हैं, पर नीयत में बिल्कुल अलग हैं."
"मतलब..?"
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"मतलब यही है कि भीख मांगने से बेहतर उसे कचरा बीनना लगा. ऐसे में बिना पूछे खाने का डिब्बा पकड़ाकर भीख लेने जैसा भाव उसे असहज न कर दे, तो बस इसीलिए उसे इज़्ज़त बख़्शी."
आज तक सहते आ रहे विनय के अटपटे व्यवहार के पीछे छिपी मंशा को समझकर वर्मा जी ने सल्यूट अंदाज़ में हाथ उठाया, तो विनय मुस्कुरा पड़ा.
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