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कहानी- लौट आओ‌ (Short Story- Laut Aao)

बेशक प्रेम का तूफ़ान और भावनाओं का ज्वार-भाटा औरत और मर्द दोनों के लिए बराबर होता है. किंतु औरत धीरज से काम लेती है और पुरुष शोर मचाता है. किसी अन्य स्री से दिल लगा लेता है. पर नारी- वह एक समय में एक ही पुरुष को चाहती है. उसी से प्यार करती है और वो प्यार सांसारिक संबंध से परे होता है. मेरे पास है भी क्या तुम्हारे लिए सिवा प्यार के!

समझ नहीं पा रही कि बात शुरू कहां से करूं? पर कहीं-न-कहीं से शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी. मैं कई दिनों से मन पर एक अनचाहा बोझ लेकर जी रही हूं. मैंने कहीं पढ़ा था कि आदमी के मन पर कोई बोझ हो तो उसे किसी से बांट लेना चाहिए, इससे वह कुछ कम हो जाता है. अब तुमसे बेहतर कौन है, जिससे मैं अपने अनचाहे बोझ को बांट सकूं? लगभग ३६ हफ़्ते हो चले हैं हम दोनों के बीच के तनाव को. ये ३६ हफ़्ते मुझ पर कितने भारी गुज़रे हैं, तुम सोच भी नहीं सकते. काश! तुम मुझे न मिले होते विशाल. एक चट्टान थी मैं, जो ऊपर से सामान्य सी थी, लेकिन भीतर-ही-भीतर स्वयं से उलझी हुई.
लोग मुझे संगदिल व घमंडी कहते, मुझे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगता. लेकिन तुम ऐसे न थे. तुम… तुमने मेरे भीतर अंकित निबंध के एक-एक शब्द को कितनी ख़ूबसूरती से पढ़ लिया था. तुम्हारे स्नेह का संबल पाकर मैं एक उफनती नदी की तरह बहती चली गई थी. मुझे किनारों का होश ही कहां था. मैं तो सिर्फ़ बहती रहना चाहती थी. मैं सब कुछ समेट लेना चाहती थी अपनी लहरों में. मैंने तो अपने आपको तुमसे जोड़कर तुम्हारे मन के हाशिए पर अंकित एक-एक इबारत को पढ़ा था. तभी तो आज दावे के साथ कह सकती हूं कि तुम निरे मायावी थे विशाल. वक़्त के साथ स्वयं को बदलनेवाले, प्रवाह के अनुरूप बहनेवाले.
कितनी घनी होती है स्मृतियों की बगिया. इनमें से निकलना भी मुश्किल है और छोड़ना तो है ही दर्द की चुभन सा. कितने लंबे क़दम है इन सन्नाटों के कि घिरती ही जा रही हूं मैं. कितना कुछ याद आ रहा है है आज. यह मन भी बड़ा अजीब होता है. ज़िंदगी जी कर सिर्फ़ ख़ुशियों की उपलब्धि जुटाता है और मादा बंदर की तरह ख़ुशियों के क्षत-विक्षत शव को सीने से लगाए रखता है.
याद है विशाल, जब हम पहले पहल मिले थे, तब तुम मुझसे ज़्यादा बात भी नहीं करते थे. बस ऑफिस में दोपहर के खाने के समय या कहीं इंटरकॉम पर कोई बात कर लेते थे.

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तुम दिनभर ऊपर के फ्लोर पर अपने काम में व्यस्त रहते और मैं नीचे अपनी ब्रांच में. याद करो विशाल, एक दिन तुम्हारे टेबल पर बैठे हम दोनों कुछ काग़ज़ जांच रहे थे. तुम एकाएक बोलते-बोलते चुप हो गए, कुछ पल बाद जब मैंने तुम्हारी ओर देखा तो तुम्हारी आंखों में प्यार का सागर हिलोरे मार रहा था. बिना कुछ कहे तुम्हारी नज़रों ने प्यार का इज़हार कर दिया था, जिसे मैंने चुपचाप स्वीकार भी कर लिया था.
तुम्हारी व्यस्तता को देखकर कोई भी सहज ही अनुमान लगा लेता कि तुम्हारे लिए अपने काम के अलावा किसी और बात में कोई रुचि नहीं है. लेकिन मैं, हां सिर्फ़ मैं जानती थी कि तुम्हारे पास प्यार और स्नेह से भरा, तुम्हारे नाम के अनुरूप विशाल हृदय भी है. तभी तो बड़ी उत्सुकता से दोपहर के उन पलों का इंतज़ार किया करती जब तुम लंच करने के बहाने नीचे चले आते.
जब कभी तुम्हारे पास खाली समय होता, तुम मेरे पास चले आते. कभी समय निकालकर मैं तुम्हारे पास जा बैठती. तुम मुझे बैठने को कहकर अपने काम में व्यस्त हो जाते और मैं सामने कुर्सी पर बैठी सोचती रहती कि अभी तुम कुछ कहोगे, अभी कुछ कहोगे… लेकिन नतीजा शून्य. मैं चुपचाप अख़बार या कोई और काग़ज़ उठाकर पढ़ने लगती और तुम एकाएक मेरा नाम पुकारकर मुझे चौंका देते. मैं ढेर सारी आशाओं को संजोए, मुग्ध होकर तुम्हारी ओर निहारती कि तुम प्यारी-सी बात करोगे, जिसे अपने मन में संजोए मैं लंबे समय तक सपनों की दुनिया में खोई रहूंगी. पर तुम मेरा नाम पुकार कर पुनः मौन हो जाते. मैं मन-ही-मन उस मौन की परिभाषा ढूंढ़ती रहती.
फिर हार कर तुम्हें कह बैठती, "कुछ बोलो विशाल."
"क्या बोलू?" तुम पूछते.
"कुछ भी, कोई अच्छी सी बात जिसे सुनकर…"
"जिसे सुनकर…" मेरी बात बीच में ही काटते हुए तुम एक भरपूर नज़र मुझ पर डालते हुए हौले से मुस्कुरा देते. तुम्हारी इन मायावी आंखों में ढेर सारे प्यार के प्रज्ज्वलित दीपों में मुझे अपना प्रतिबिम्ब नज़र आता, फिर अचानक तुम कहते, "क्या सुनना चाहती हो तुम? क्या अनकहा है हमारे बीच ?"
कितना विषम प्रश्न जाल होता था वह. क्या उत्तर देती मैं? कुछ भी तो अनकहा नहीं था हमारे बीच, पर मैं तो नारी हूं और नारी आदिम युग से ही अपने पुरुष से हमेशा कुछ नया सुनना चाहती रही है. स्वभावगत विवशता के वशीभूत मैं तुमसे ज़िद करती, "फिर भी कुछ बात करो ना. चुप रहने से तुम्हारे कमरे की ख़ामोशी मनहूसियत में बदलने लगती है."

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"तो सुनो." तुम अपने पुराने अंदाज़ में मुझे छेड़ते, "आज सुबह जब मैं घर से निकला, तो बस स्टॉप पर मुझे एक सुन्दर सी लड़की दिखी. वो भी मुझे देख रही थी. मैंने सोचा उससे बात करूं, पर तभी बस आ गई. मैं चढ़ गया, वो रह गई, और…"
"और… रह गई अधूरी तुम्हारी उससे बात करने की तमन्ना, बदमाश कहीं के. ऐसी बातें करने से तो अच्छा है कि तुम चुप ही रहो."
"अजीब लड़की हो तुम भी. न बोलने देती हो, न चुप रहने देती हो. चुप रहता हूं तो कहती हो बात करो. कुछ बोलता हूं तो चुप रहने को कहती हो."
"उफ़, रहने दो. उससे भी ऐसी ही बकवास करते, तो सचमुच वो लड़की भी धन्य हो जाती तुमसे बात करके."
"अरे धन्य तो वो हो ही जाती. तुम्हारी तरह थोड़े ही थी, वो तो बहुत अच्छी और सुंदर थी, और मैं उससे बातें भी अच्छी-अच्छी ही करता ना."
मैं गुस्से से पांव पटकती उठ खड़ी होती, "ठीक है, तुम उसी से बातें करो. जब तुम्हें मेरी ज़रूरत नहीं, तो मुझे भी तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं, समझे."
तुम मेरी मनःस्थिति भांपकर अपने चिर-परिचित अंदाज़ में मुझे अपनी विशाल बांहों में समेट लेते और मैं बिना किसी प्रतिरोध के बंधी चली जाती. वो थोड़े से पल सार्थक हो उठते मेरे लिए. मैं ख़ुद से, दुनिया से बेख़बर हो जाती. तुम्हारे कंधे पर सिर टिकाए, मेरा जी चाहता कि काश, इतनी ही होती समय की परिधि और मेरी उम्र की सीमा.
"मत लड़ा करो यूं मुझसे विशाल, मत चिढ़ाया करो मुझे."
"मैं कहां कुछ कहता हूं, तुम ख़ुद ही खीझ जाती हो."
"जानते हो न, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती, तभी तो इस तरह की हरकतें करते हो. कई-कई दिन तक बात न करके बहुत ख़ुशी होती है ना तुम्हें!"
"वो तो मैं जानता हूं कि कितनी ख़ुशी होती है. टाइमपास करना मुश्किल हो जाता है. यहां कोई बात तक करनेवाला नहीं होता."
तुम्हारी बातें सुनकर मैं पुलकित सी हो जाती. यही सब कुछ सुनना चाहती थी मैं तुमसे एक बार नहीं, कई बार, बार-बार, क्यों दिया था तुमने इतना विश्वास? क्यों नहीं पहचान पाई थी मैं तुम्हें? मैं क्यों न समझ सकी कि जीवन मरुस्थल की तपती धूप में प्यास के कई विंध्याचल लांघने की निरंतर भटकन का ही नाम प्यार है. हां विशाल, इन भटकनों का पर्याय ही तो बनती चली गई थी मैं. भटकते हुए जब तक मैंने जाना कि तुम सचमुच ही एक मृगतृष्णा हो, तब तक समय मेरी पकड़ से बहुत दूर जा चुका था. मैं तुम्हारे झूठे और निष्ठुर विश्वास पर सर्वस्व समर्पित कर चुकी थी. तुम्हारी आंखों के सतही वशीकरण में बंधकर मैंने अपने समूचे अस्तित्व को छला था.
अपने वर्तमान के खुशनुमा फूलों की आहुति देकर भविष्य के लिए आंसुओं के कांटे संजोए थे मैंने. मैं जितना तुम्हें पकड़ने की कोशिश करती, तुम उतना ही मेरे हाथों से फिसलते चले जाते.

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पता नहीं, मैं तुम्हें लेकर इतनी पजेसिव क्यों हो बैठी थी? मैंने तुम्हें कई बार कहा भी कि मैं तुम्हें किसी से भी बांट नहीं सकती, पर तुम अपनी आदत से कहां बाज आए. मुझे आज भी याद आते हैं तुम्हारे साथ गुज़ारे खट्टे-मीठे वो लम्हे. लेकिन उन खट्टी-मीठी यादों पर जब कड़वे पल पूरी ताक़त से हमला करते हैं, तो सब कुछ खो सा जाता है.
आज तुम भी खो गए विशाल. खो नहीं गए, बल्कि तुम्हें चुरा लिया किसी ने मुझसे. याद है, एक बार मैंने कहा था कि जो चीज़ें मुझे ज़्यादा अज़ीज़ होती हैं, अक्सर वो खो जाती हैं. इस पर तुम्हारा जवाब था, "भगवान ही चुरा ले तो मैं कह नहीं सकता, वर्ना किसी इंसान में तो इतनी हिम्मत नहीं कि मुझे तुमसे चुरा ले." कितना अंतर है तब और अब में. आज फिर मेरी ही बात सही निकली. किसी ने देखते-देखते तुम्हें मुझसे चुरा लिया.
दोस्ती एक प्यारा एहसास व एक प्यारा सा रिश्ता है विशाल, पर ईर्ष्या पर तो किसी का एकाधिकार नहीं. गलतफ़हमियां मुहब्बत की दुश्मन होती हैं, उसे बर्बाद कर देती हैं. पर ये ग़लतफ़हमियां आती कहां से हैं? शायद ज़्यादा मुहब्बत इंसान को शक्की मिज़ाज बना देती है. मैं कुछ नहीं जानती सिवा इसके कि किसी ने तुम्हें मुझसे चुरा लिया. इसके लिए मैं उसे दोष नहीं देती. दोषी तुम हो या शायद मैं. मर्द हमेशा एक ही औरत को प्यार करता नहीं रह सकता. यह शाश्वत सच है. यदि उसे ख़्वाब में भी कोई ख़ूबसूरत औरत नज़र आए, तो वह पहलू में पड़ी औरत को भूलकर उस स्वप्नसुंदरी को पाने की चाह में निकल पड़ेगा. इस सत्य से मैं बख़ूबी वाकिफ़ हूं. तुम्हारी स्वप्नसुंदरी तो साक्षात तुम्हारे सामने है. माशाअल्लाह। ख़ूबसूरत है, जवान है. सबसे बड़ी बात योग्यता में तुम्हारे बराबर है.
नारी की भावनाओं में बड़ी स्थिरता होती है विशाल और उसके प्यार में बड़ी गंभीरता. वह निराश भी होती है, तब भी शोर नहीं करती. मौन से ही काम लेती है. बेशक प्रेम का तूफ़ान और भावनाओं का ज्वार-भाटा औरत और मर्द दोनों के लिए बराबर होता है. किंतु औरत धीरज से काम लेती है और पुरुष शोर मचाता है. किसी अन्य स्री से दिल लगा लेता है. पर नारी- वह एक समय में एक ही पुरुष को चाहती है. उसी से प्यार करती है और वो प्यार सांसारिक संबंध से परे होता है. मेरे पास है भी क्या तुम्हारे लिए सिवा प्यार के!
कितना सही कहा था किसी ने, "वो तेरे आगे भागता है, तू उसके पीछे दौड़ती है और एक मैं हूं, जिसकी तुझे परवाह ही नहीं." मज़ाक-मज़ाक में कितना बड़ा सच मेरे सामने रख दिया था उसने, उसे तो क़रारा सा जवाब देकर मैंने चुप करा दिया, लेकिन उसके शब्द आज भी जब तब मेरे दिलो-दिमाग़ पर गूंजते रहते हैं, एक उसी की क्या बात करूं, लोगों ने और भी न जाने क्या-क्या कहा. पर मुझे इसकी कोई परवाह नहीं,
हक़ीक़त के कठोर धरातल पर पांव जमाए हुए भी मैं जब-तब कल्पना की दुनिया में रहती हूं. आजकल बरसात का मौसम है. मुझे तेज बारिश, ठंडी हवा में मस्त झोंके और धुंध भरा बरसाती मौसम बहुत पसंद है. ऐसे में यदि मनपसंद साथी भी साथ हो तो… लेकिन तुम मेरे साथ नहीं हो, हो भी कैसे सकते हो? तुम्हारे पास तो फ़ुर्सत ही नहीं है मेरे लिए. तुम तो उलझे हुए हो अपने आप में, अपनी दोहरी ज़िंदगी जीते हुए. लेकिन इसके बावजूद तुम्हारे भीतर कहीं-न-कहीं शीतल जल का छोटा सा ही सही, झरना ज़रूर है, जिसमें तुम मेरे टूटते-बिखरते अस्तित्व को देखते हो. कहीं गहराई में तुम महसूस करते हो कि तुम्हारी दुविधा मेरे लिए कितनी विषम और भयंकर बनती जा रही है.
मैं समझ नहीं पा रही हूं कि हमेशा संयमित रहनेवाला तुम्हारा व्यक्तित्व असंतुलित सा कैसे हो गया? कैसे बहक गए तुम? तुम्हारे भीतर प्रवाहित झरना एक उन्मुक्त धारा में विलीन होने के लिए कैसे और क्यों मचल उठा? लड़ना-झगड़ना, चिढ़ना- चिढ़ाना, रूठना-मनाना ये तो हमारे लिए आम बात थी, एक बार सिर्फ़ एक बार कहते तो सही तुम, मैं तुमसे तुम्हारा सुख छीन तो न लेती, जिसका अपना सब कुछ लुट रहा हो, वह किसी से क्या छीन सकता है?
ज़िंदगी ने जितनी क्रूरता से मुझे परखना चाहा, उससे कहीं ज़्यादा क्रूरता से मैं उससे उलझती चली गई. कहीं कुछ मिठास मिली भी तो कुछ लोगों के व्यवहार से मन में जो कसैलापन भर गया था, उस तेजाबी घोल की तासीर को वह मिठास बदल न सका. आज तुम भी मुझे वही तेजाबी घोल पिलाना चाहते हो? हमारे बीच का रिश्ता रस्सी के टुकड़े से बंधा हुआ जुड़ाव नहीं विशाल, यह तो बिजली के नंगे तारों का जुड़ाव है, जो दोनों सिरों पर जुड़ें, तभी प्राणवान हैं, वर्ना कहीं कुछ नहीं.
बेशक मैं तुम्हारे सामने एक याचक थी. तुम्हारा थोड़ा-सा प्यार पाने के लिए आतुर. एक अनाधिकार चेष्टा की तरह तुम पर अपना सर्वस्व लुटा कर भी तुम्हें बचाने को, तुम्हारे भटकते कदमों को रोकने के लिए तत्पर, लेकिन जो अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी छला जाए, उसे क्या करना चाहिए, बता सकते हो? मैं तुम्हें नहीं रोक सकती, लेकिन स्वयं पर तो नियंत्रण रख ही सकती हूं. लो अब मैं तो सारी कश्तियां जलाए बैठी हूं, न भंवर की परवाह, न साहिल की तमन्ना, कहीं कुछ बाक़ी नहीं. लगता है सब कुछ ख़त्म हो गया, फिर भी कहीं-न-कहीं कोई शै ऐसी है, जो हर घड़ी आग उगलती रहती है. पर धुआं कहीं नज़र नहीं आता.


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बेशक़ मुझे अपने हाथों पर मेहंदी का लहू जैसा लाल रंग बहुत पसंद है, पर यहां तो दिल ही लहूलुहान होकर रह गया है. तुम्हारी ज़िंदगी के आदर्श बहुत ऊंचे और अजीब हैं. मेरे आदर्श छोटे और सहज, इसलिए मैं तुम्हारे रास्ते से हट गई, लेकिन तुम… जो सालों साल मेरा इंतज़ार करनवाले थे, इतने निष्ठुर कैसे हो सके तुम? तुमने कैसे भुला दिया उस दर्द को, जो मेरे भीतर अंकित निबंध के शब्दों में गुंथा हुआ था? कुछ संबंध इतने सगे और प्यारे लगते हैं, जैसे कि अपना घर. ये संबंध वीणा के तारों की तरह होते हैं. यह ज़रूरी नहीं विशाल कि वीणा के टूटे तारों से उंगलियां छिल जाएं या उससे बेसुरे सुर निकलने लगें तो वीणा ही बदल दी जाए, वीणा के तारों को ठीक कर सुर और लय को जीवंत किया जा सकता है.
जानते हो, प्यार की वीणा तो होती ही मधुरता से भरपूर है. मैंने तुमसे बहुत कुछ पाया है विशाल, अपनी एक वापसी और दे दो मुझे. मैं तेज हवाओं में भी विश्वास की चौखट पर उम्मीद के दीये जलाए बैठी हूं. शून्या के शून्य को भरने के लिए लौट आओ विशाल, प्लीज़ लौट आओ.

- कुसुम लता सरसवाल

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