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कहानी- लौटता बचपन (Short Story- Lautata Bachpan)

“मां…” वह ग़ुस्से में चिल्लाई. पुष्पा फटाफट चली गई और मां छोटी बच्ची की तरह डर कर सिटपिटाई-सी बिस्तर पर बैठ गईं. लेकिन सुमन चुप न रह पाई. ग़ुस्से के मारे उसने मां को बुरी तरह डांट दिया.
बचपन में ग़लती करने पर वह डांट खाती थी. ग़लती भी उसकी होती, लेकिन रूठती भी वही थी. मां भी तो आख़िर मां ही थीं. ग़लती उनकी भले ही थी, पर मां ने दो दिन तक उससे बात नहीं की. वह भी ग़ुस्से में भुनी भरी बैठी रही. किन शब्दों में समझाया जाए आख़िर मां को. इसलिए वह ख़ुद भी मतलब की ही बात कर रही थी.

कोरोना की दूसरी लहर इतनी भयानक होगी, किसी ने सोचा न था. पहली लहर के मंद पड़ने की ख़ुशी को अभी ओढ-बिछा भी न पाए थे कि दूसरी लहर ने दस्तक दे दी. दूसरी लहर की सूनामी ने जब दस्तक दी, तो कोई संभल न पाया. जब तक दस्तक को समझते-बूझते, उसके अंदर न आने के पुख्ता इंतज़ाम करते, तब तक लहर खिड़की-दरवाज़े तोड़ गर्जना करती हुई अंदर घुस गई. हॉस्पिटल में बेड कम पड़ गए. ऑक्सीजन के लाले पड़ गए. शमशान घाट में कईयों को दो गज ज़मीन न मिल पाई, अपनों का कंधा नसीब न हो पाया. कोई गले मिल कर रो न सका. पूरा का पूरा परिवार कोरोना संक्रमित… कोई मदद करनेवाला भी नहीं. कहीं अपनों को पराया होते देखा, तो कही-कहीं परायों को अपना बनते भी देखा. कहीं मानवता शर्मसार हुई, तो कहीं मानवता के रक्षक भी दिखे.
कोरोना ने दूसरी बीमारियों का जैसे अस्तित्व ही मिटा दिया. लोग कोरोना से बचने के लिए किसी दूसरी बीमारी से पीड़ित होने पर भी डॉक्टर के पास नहीं जा रहे थे. बड़े-बुज़ुर्गों के लिए यह किसी सज़ा से कम न था. बुज़ुर्गों के लिए उनकी उम्र ही सबसे बड़ी बीमारी है. जिसके साथ हर रोग जुड़ जाता है, लेकिन इच्छाएं आकांक्षाएं थोड़े ही न कम होती है. 75-80 के ऊपर के बुज़ुर्गों की यादों में उनका समृद्ध अतीत है. आस-पड़ोस, दूर-पास के रिश्तेदार हैं. ढेर सारी यादें और बातें हैं और आज का बचपन, युवा व नई-नई ज़िंदगी की शाम को गले लगाती अधेड़ पीढ़ी की बातों में, सोच में तो कोरोना घुस आया है.
सुमन की मां भी कुछ ही दिन हुए उसके पास रहने आई थी. भाई की बड़ी मिन्नतें की थी उसने, थोड़े दिन के लिए छोड़ जा. कोरोना की डर से भाई छोड़ना नहीं चाहता था, लेकिन मां व उसकी इच्छा समझ कर छोड़ गया. आधे घंटे की दूरी पर ही तो था मायका.
“ध्यान रखना, मां के लिए कोरोना होते हुए भी नहीं है… वे तो अभी भी रामराज्य में जी रही हैं.” मां को छोड़ने आया भाई मुस्कुराकर बोला था.


“तुम फ़िक्र मत करो भाई, मैं पूरा ध्यान रखूंगी.” उसने विश्वास दिलाया.
मां उसके पास दस दिन रहीं और कोरोना के कारण नहीं, बल्कि मां के कारण उसकी सांस जब-तब ऊपर-नीचे होती रही. बाहर आंगन में बैठी मां को वह समझाती, “मां यहीं बैठे रहना… गेट खोल कर बाहर मत निकल जाना.”
“हां मैं यहीं बैठी हूं… तू अपना काम कर ले तब तक.” मां उसे भरोसा दिलाती. लेकिन जब वह थोड़ी देर बाद बाहर जाती, तो मां नज़र न आती. गेट खुला मिलता. ‘अरे मां कहां चली गई‘ वह घबराकर बाहर भागती, तो मां बहुत इत्मीनान से सब्ज़ीवाले को आवाज़ देती हुई दिखती. सुमन का पारा चढ़ जाता. मां ज़रूर अपने साथ सबको मुसीबत में डालेगी. वह ग़ुस्से में मां का हाथ पकड़ कर अंदर ले आती.

“मां तुमसे मना किया था न. और मास्क भी उतार दिया.” वह किसी तरह ग़ुस्से पर काबू रखती.
“तू ही तो कह रही थी, सब्ज़ी ख़त्म हो रही है, इसलिए बुला रही थी.” मां पूरी ईमानदारी और भोलेपन से कहती.
“सब्ज़ी मैं अपने आप ले लूंगी. तुम इस तरह से बिना मास्क के बाहर मत जाया करो.”
“ठीक है.” मां कुछ-कुछ बुरा मान कर कहतीं.
सुमन सब्ज़ी-फल कुछ भी गेट से ख़रीदती, तो पूरी सावधानी बरतती. सब्ज़ीवाले से सब्ज़ी और फल एक जगह पर रखवा देती. वह टोकरियां लेने अंदर जाती, तब तक मां सब्ज़ी की थैलियां उठा कर अंदर जाने को तत्पर दिखती. बाहर आकर ऐसा नज़ारा देख कर उसका सिर घूम जाता.
“मां तुम ये क्या कर रही हो?”
“तू कितना काम करेगी. मैं अंदर रख देती हूं.” मां ममता से कहतीं, पर उसे ममता की बजाय कोरोना दिखता.
“मां, तुमसे कितनी बार एक ही बात कह रही हूं कि किसी बाहर से आए सामान को मत छुओ…” वह सेनिटाइज़र मां के हाथों पर स्प्रे करती हुई कहती, “अब अंदर जाकर हाथ साबुन से धो लो.”
वह मां को फिर सामने बिठा कर आराम से नम्र शब्दों में समझाती, “मां, तुम्हें पता है न कि कोरोना संक्रमण कितना विकराल हो गया है… तुम उम्र देखो अपनी… ज़रा भी कुछ हो गया, तो बच नहीं पाओगी… ऊपर से तुम्हारे कमरे में कोई आएगा भी नहीं… ज़्यादा हो गया, तो हस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा… हम में से कोई नहीं दिखेगा.” वह मां को डराती.

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उसे लगता मां बच्ची है और वह मां है. कैसे समय के साथ भूमिकाएं बदल जाती हैं. बचपन में मां कहती थी, "बाहर मत जाना बूढा बाबा आ जाएगा… गागू आ जाएगा…" वह नाख़ून न काटने के लिए मचलती, तो मां कहती, "नाख़ून लंबे हो जाएंगे, तो सपने में तुझे डराएंगे. तू कहना नहीं मानेगी, तो मां तुझे छोड़ कर चली जाएगी…" आज वह मां से कह रही है कि अगर कहा नहीं माना, तो भाई को बुला कर तुम्हें वापस भेज देगी. वह मां की इकलौती लाडली बिटिया. मां थोड़ी देर के लिए कहना मान जातीं.
लेकिन फिर भूल जातीं. अख़बार पूरे विस्तार से पढ़तीं. फिर उसे व उसके पति को हिफाज़त से रहने की हिदायत देती रहतीं. उन दोनों की चिंता करतीं. भाई-भाभी की चिंता करतीं. लेकिन ये सब पहाड़े ख़ुद के लिए भूल जातीं. रात को चपाती बनाते वह सोच रही थी, तभी मां किचन में आ गई.
“मैं आज खाना नहीं खाऊंगी.”
“अरे, पर क्यों?” उसे लगा मां का उसकी नाराज़गी पर आया ग़ुस्सा अभी तक नहीं उतरा.
“मुझे भूख नहीं है. पेट भी ठीक से साफ़ नहीं हो रहा घर में बैठ-बैठ कर.”
“उफ्फ़!” वह फिर मन ही मन भन्नाई, “मां, ड्राइव-वे में टहल लिया करो. गेट से बाहर जाना क्या ज़रूरी है?” लेकिन मां उसकी बात अनसुनी कर छोटी बच्ची की तरह लॉबी में जाकर टीवी देखने लगीं. सुमन ने झांक कर देखा, ‘चलो टीवी देखते-देखते भूल जाएंगी.' लेकिन मां फिर किचन में आ गई.
"रमेश पता नहीं कौन-कौन से चैनल देखता रहता है. कुछ भी ढंग का नहीं आ रहा… मैं तो घर में अपनी पसंद के सीरियल देख लेती थी अपने कमरे में लेटे-लेटे."


उसे समझ नहीं आया क्या जवाब दे उसे लगता, मां को अपना कमरा भी चाहिए और सुमन भी. वहां अपने कमरे में वे अपनी आलमारी में उठा-पटक करती रहतीं. इस उठापटकी में कुछ इधर-उधर हो जाता, फिर उसे ढूंढ़ती रहतीं और कोई दूसरी चीज़ इधर-उधर कर देतीं. उनका टाइम इसी उधेड़बुन में पास होता रहता.
कोरोना की सूनामी आने के पहलेवाले जन्मदिन पर वह मां के लिए सूट लेकर गई. अच्छी तरह से कुर्ता, सलवार व दुप्पटा… तीनों दिखाए. समझाया भी कि इधर-उधर मत रख देना फिर कहोगी मैने दिया नहीं था. लेकिन अगली बार जब गई, तो मां की शिकायत हाज़िर थी.
“तू सिर्फ़ सूट लाई थी. उसके साथ का दुप्पटा तो लाई ही नहीं…” मां की शिकायत पर उसका सिर फिर घूम गया. अब या तो घर में दुप्पटा ढूंढ़ना पड़ेगा या फिर मार्केट से नया लाना पड़ेगा.
“मां, मैंने अच्छी तरह तुम्हें दिखाए थे न तीनों पीस… पता नहीं तुमने कहां रख दिया.” उसने झुंझलाते-बड़बड़ाते मां का दुप्पटा पूरी आलमारी में ढूंढ़ा, पर नहीं मिला. मिलता तो तब, जब घर में होता. वह हताश होकर चुप बैठ गई.
“तू चिंता मत कर, मैंने टेलर सविता को ही कह दिया कि उस सूट का दुप्पटा भी ला दे.” सुमन ने सिर पर हाथ रख लिया. सुमन जानती है कि कितना लूटती है वह मां को, लेकिन मां को सविता बहुत प्रिय है. घर आकर नाप लेकर कपड़े ले जाती है और दे जाती है. लेकिन मां के सूट में कभी सलवार नहीं, तो कभी दुप्पटा नहीं. पर वह कुछ कह नहीं सकी.
सविता को भला-बुरा कहने का मतलब है कि ख़ुद वो काम करना. तब वह पहले यहां आएगी फिर मां को टेलर के पास लेकर जाएगी, फिर घर छोड़ेगी. सूट सिल जाएगा, तो लाकर मां को पहना कर देखेगी. फिर कुछ ठीक न हुआ, तो टेलर के पास लेकर जाएगी. एक लंबा अंतहीन सिलसिला. नहीं-नहीं, चलने दो मां का जैसा चल रहा है. रोज़-रोज़ यहां आकर वह उनकी छोटी-छोटी ज़िम्मेदारियां नहीं संभाल सकती. मां 82 साल की है, तो वह भी अब कहां छोटी रह गई.

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उसने खाना टेबल पर लगाया, लेकिन मां गायब थीं. ‘मां भी हमेशा खाना खाने के टाइम में इधर-उधर हो जाती है‘ बड़बड़ाते हुए वह कमरे में गई. देखा मां लगभग सो गई थी.
“मां उठो, खाना खा लो.” उसने मां को हिलाया. मां एकदम उठ बैठी.
“मुझे भूख नहीं है. मैंने कहा तो था.”
“कैसे भी खाओ… थोड़ा-सा खाना ज़रूरी है.” वह एक प्लेट में एक रोटी व दाल-सब्ज़ी डाल कर ले आई. मां ने किसी तरह आधी रोटी खाई. प्लेट वापस किचन में रख कर वह दूध लेकर आ गई.
“मैं आज दूध भी नहीं पीऊंगी.” मां ने दूध के ग्लास को हिकारत से देखा.
“मां, तुम रोज़ यही कहती हो. दूध नहीं पीओगी, तो कमज़ोर हो जाओगी और कमज़ोर लोगों पर कोरोना किस कदर हावी हो रहा है पता है न.” उसने फिर मां को डराया. मां अनिच्छा से दूध का ग्लास पकड़ पीने लगीं. उसकी आंखों में वर्षों पहले का दृश्य कौंध गया. जहां मां की जगह पर वह थी और उसकी जगह पर मां. इस उम्र में मां बच्चों की तरह ही उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचना चाहती है हर वक़्त और उस वक़्त वह काम में व्यस्त मां का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश में रहती थी.
अगले दिन सुबह उठी ही थी कि उसे मां खिड़की से बाहर आंगन में अख़बार उठाते दिखीं. 'उफ्फ़ मां बिल्कुल भी मानती नहीं है.' वह तेजी से बाहर गई. मां के हाथ से अख़बार छीन, हाथ धोने का निर्देश देती हुई बोली, “मां तुम्हें मालूम है न, मैं पहले अखबार सेनेटाइज़ करती हूं. तुमने क्यों अख़बार उठा लिया. पता नहीं किस माध्यम से कोरोना हमारी बॉडी में घुस जाए.” मां अचानक हुए इस प्रसंग पर हतप्रभ-सी उसे देखती रही, फिर, “पता नहीं कैसा है ये कोरोना… मुआ मरता भी नहीं है.” बुदबुदाती हुई मां अंदर चली गई. मां की बात पर उसकी हंसी छूटने को हुई.
अख़बार सेनेटाइज़ कर जब उसने खोला, तो दिल घबरा-सा गया. मृतकों की बढ़ती संख्या, ऑक्सीजन को तरसते लोग.एक-एक सांस को ख़रीद रहे थे, पर आज इस छोटे से राज्य उत्तराखंड में भी संक्रमितों की संख्या आठ हज़ार पार कर गई थी.
“लगता है कामवालों का आना अब बंद करना पड़ेगा. कोई भरोसा नहीं. कहां से कोरोना मौत बन ज़िंदगी का दरवाज़ा खटखटा दे… लेकिन इतना सारा काम होगा कैसे?” सुमन मायूसी से बोली.
“जिंदगी रही तभी तो सब कुछ होगा… अभी तो बंद ही कर दो सबका आना.” रमेश भी चिंतित स्वर में बोले.
हालांकि उन्हें मालूम था कि यह इतना आसान नहीं है. सुमन पर काम का अत्यधिक बोझ पड़ जाएगा, पर कोई चारा भी नहीं था. आख़िर सोच-विचार कर घर के अंदर आनेवालों को मना कर दिया. लेकिन घर के बाहर काम करनेवालों, मसलन- माली, स्वीपर, ड्राइव-वे साफ़ करना आदि को रहने दिया.
अगले दिन से सुमन व्यस्त हो गई. मां की कामवालियों से गहरी छनती थी. बरतन-पोंछा करनेवाली पुष्पा से तो उन्होंने कई जन्मों का नाता जोड़ रखा था. वह भी मां न दिखे, तो पूछे बिना न रहती थी, ‘नानी चली गई क्या… बताया भी नहीं. हम मिल लेते‘ हां, सात समंदर पार गई हैं न जैसे… उसे मन ही मन हंसी आती. उसे पता था, मां जाते वक़्त हमेशा पुष्पा के हाथ में कुछ रुपए रख देती थीं. दोनों की ज़रूरतों ने उनके बीच नेह नाता कायम कर रखा था.


पुष्पा बाहर ही बाहर आती और काम करके चली जाती. उसको आया जान मां बाहर जाने को उतावली हो जातीं. लेकिन उसे मां को बच्चे की तरह डांटना पड़ता. बाहर जाने की सख्त मनाही रहती. वह मेन दरवाज़े की चाभी घुमा देती, ताकि मां ग़लती से भी बाहर न जा पाए पुष्पा के रहते.
आज भी पुष्पा बाहर काम कर रही थी. उसने नाश्ता बना कर टेबल पर रखा. मां को आवाज़ दी, लेकिन मां फिर गायब थीं. 'मां कहां चली गईं… इस समय तो सो भी नहीं सकती…' बुदबुदाते हुए वह बेडरूम में गई, तो वहां का दृश्य देख कर सिर पीट लिया. मां और पुष्पा मज़े से खिड़की की जाली पर मुंह चिपकाए गप्पों में मस्त थे. मास्क दोनों ने ही नहीं लगाए थे. पुष्पा का मास्क नीचे गले में था और मां ने तो लगाया ही नहीं था.
उसका पारा बुरी तरह चढ़ गया.
“मां…” वह ग़ुस्से में चिल्लाई. पुष्पा फटाफट चली गई और मां छोटी बच्ची की तरह डर कर सिटपिटाई-सी बिस्तर पर बैठ गईं. लेकिन सुमन चुप न रह पाई. ग़ुस्से के मारे उसने मां को बुरी तरह डांट दिया.
बचपन में ग़लती करने पर वह डांट खाती थी. ग़लती भी उसकी होती, लेकिन रूठती भी वही थी. मां भी तो आख़िर मां ही थीं. ग़लती उनकी भले ही थी, पर मां ने दो दिन तक उससे बात नहीं की. वह भी ग़ुस्से में भुनी भरी बैठी रही. किन शब्दों में समझाया जाए आख़िर मां को. इसलिए वह ख़ुद भी मतलब की ही बात कर रही थी.
बचपन में डांट अगर उसकी सुरक्षा व भविष्य से संबधित होती थी. तो रूठने पर उसे भी कहां मनाया जाता था. कितनी पुनरावृत्ति हो रही थी घटनाओं की. यत्रंवत काम हो रहे थे. मां रूठी हुई अधिकतर अपने कमरे में ही रह रही थीं. वह भी चुप थी. चलो रूठ कर ही सही मां अपने कमरे में तो बैठी हैं. कभी-कभी वह झांक लेती, तो मां कोई पत्रिका पढ़ती हुई दिखतीं. उसे मन ही मन हंसी आती. बचपन में डांट पड़ने पर वह भी अपने कमरे में बैठी पढ़ने का नाटक किया करती थी.
उसे मां पर ममता व दया एक साथ आ रही थी. कोरोना है. भयावह है. मां को सब कुछ पता है, लेकिन समझ कर भी नासमझी से काम लेना उनकी उम्र की ग़लती है शायद. वह पति से ऐसा ही कुछ वार्तालाप कर रही थी. एक बार समझा कर जैसे वह भी तो बचपन में बात नहीं मानती थी. मां भी ऐसे ही बार-बार भूल जाती हैं. तभी मां प्रसन्नचित-सा चेहरा लिए कमरे से बाहर आते दिखीं. उसे लगा मां का मूड सही हो गया.
“आज लंच में क्या खाओगी मां.” उसने दुलार से पूछा.
“मुझे भूख नहीं है… नारियल पानी पीऊंगी.” मां बाहर के दरवाज़े की तरफ़ जाती हुई दिखीं.
“नारियल पानी? पर कहां से?” वह चौंक कर बोली.
“बाहर आवाज़ आ रही है नारियल पानीवाले की… लेकर आती हूं.” मां दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गईं.
“उफ्फ़! मां…” वह तेजी से उठी और दौड़ कर मां का हाथ पकड़ कर अंदर लाती हुई बोली, “मां, लोगों के जान के लाले पड़े हैं तुम्हें नारियल पानी की पड़ी है…” उससे ग़ुस्से के मारे और कुछ न बोला गया.
“लेकिन नारियल पानी पीने से क्या होता है?.. तू हर बात के लिए ना बोलती रहती है.”
“मां, मेरे बस का नहीं है अब तुम्हें संभालना… मैं आज ही भाई को फोन करके तुम्हें वापस भेज देती हूं… वहीं अपने कमरे में उठा-पटकी करते रहना.”
मां वैसे ही नारियल पानी न ले पाने के कारण उस पर कुपित हो गई थीं. तुरंत बोलीं, “अभी फोन करके बुला ले.”
“मैं अपने आप करती हूं फोन… तुम अपने कमरे में बैठो जाकर…” मां वापस कमरे में चली गईं. लेकिन जो थोड़ी बहुत मानी थीं फिर रूठ गईं. रात को उसने भाई से सारे क़िस्से बयान कर दिए.
“भाई, मेरे बस का नहीं है मां को रोक पाना… तुम कल ही आकर मां को घर ले जाओ… और मां भी आना चाह रही है.” उसकी बात सुन भाई हंसने लगा.
“मैं ग़ुस्सा होता हूं, तो मां तुझसे शिकायत करती है, लेकिन तेरी शिकायत मुझसे नहीं करेंगी कभी भी.” वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी.
“हां भाई यह बात तो है… पर कहना भी तुम्हारा ही मानती हैं… मेरी बात तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देती हैं.” दोनों भाई-बहन काफ़ी देर बहुत-सी बातें करते रहे.
दूसरे दिन भाई लेने आ गया. मां दो-दो मास्क लगाए अपना बैग लेकर कमरे से बाहर आ गईं. उन्हें दो मास्क लगाए देखकर दोनों भाई-बहन की हंसी छूट गई. घर से बाहर चाहे कार में बंद होकर जाना है, पर कोरोना है… बाकि कहीं नहीं.”
“फिर कब आएंगी मांजी.” रमेश ने पैर छूते हुए कहा.
“देखती हूं.” मां पूरी गंभीरता से बोलीं, “तुम दोनों अपना बहुत ध्यान रखना. कोरोना सिर्फ़ मां के बच्चों पर हमला कर सकता है, मां पर नहीं." तीनों एक-दूसरे को देखकर मां के भोलेपन पर स्नेह से मुस्कुरा दिए. मां चली गईं.
मां के चले जाने से वाक़ई बहुत बुरा लग रहा था. ठीक वैसे ही जैसे छोटे बच्चे की शैतानियों से परेशान माता-पिता एक दिन भी बच्चे की अनुपस्थिति बरदाश्त नहीं कर पाते. पर कहां ले पाते हैं युवा, बुज़ुर्ग माता-पिता के बुज़ुर्ग बालपन को. अधिकतर घरों में उनकी अवहेलना ही होती है. सुमन अपने अंतस में खोई मां के जाने के बाद कमरे को ठीक कर रही थी. कहीं मां की दवाई का रैपर पड़ा था, तो कहीं पानी का ग्लास और बोतल. तकिए की बगल में छोटे टॉवल, रुमाल… बेतरतीब पड़ी बाथरूम स्लीपर. चद्दर अस्त-व्यस्त, ओढ़नेवाली चद्दर भी अस्त-व्यस्त. वह सब कुछ यथास्थान रखती जा रही थी. बाथरूम में झांका. गंदा और बिखरा हुआ. मन के साथ आंखें भी भीग रही थीं.
शादी के बाद वह भी जब मायके आती, तो उसके चले जाने के बाद मां भी ऐसे ही उसका कमरा सहेजती थीं. उसका बाथरूम साफ़ करती थीं. तब मां उसे ससुराल व सास के साथ समझौता करने की शिक्षा देती थीं. अब वह मां को भाभी के साथ समझौता करने को कहती है. तब उसके साथ कुछ ग़लत लगते हुए भी मां हमेशा उसे ही ग़लत बोलती थी, ताकि कोई बात बढ़ने न पाए और उसकी ज़िंदगी में कोई भूचाल न आए. अब मां की ग़लती न होते हुए भी वह मां को ही ग़लत बोलती है, ताकि मां का बुढ़ापा आराम से कट सके.


कैसे भूमिकाएं बदल जाती हैं. स्वरूप बदल जाता है. लेकिन प्रेम के तंतु अपनी तासीर और विरासत नहीं छोड़ते. सब कुछ संभालते रखते वह अपने अंतस की यात्रा कर रही थी. बच्चों का ग़लतियां करना बचपना और सहेजना माता-पिता का कर्तव्य, लेकिन माता-पिता का ग़लतियां करना उनकी ग़लती और सहेजना बच्चों का बड़प्पन. किसने डिसाइड किया यह फॉर्मूला. वह भी मां की छोटी-छोटी ग़लतियों पर हाइपर हो जाती है. धैर्य रख कर आराम से भी तो समझा सकती है. भाई भी जब ज़ोर से बोलता है, तो मां उससे शिकायत करती है. अब वह बिल्कुल भी ग़ुस्सा नहीं करेगी. आराम से समझाएगी.
अभी मां सिर्फ़ यहां से अपने घर ही गईं है फिर आ जाएंगी. तब भी कितना बुरा लग रहा है. मां कभी दुनिया से चली गईं, तो क्या माफ़ कर पाएगी वह ख़ुद को. सुमन के विचार, भावनाएं, संवेदनाएं, सोच सब एक-दूसरे से उलझकर गड्मड हुए जा रहे थे. तभी उसका मोबाइल बज गया. मां का फोन था.
“मैं घर पहुंच गई…” मां की आवाज़ में अपने कमरे में जाने की ख़ुशी छलक रही थी, “पर मेरा टार्च वहीं छूट गया…” उसने देखा मां का टार्च मां के सिराहने पड़ा था. बाथरूम में इनवर्टर की लाइट भी ऑन रहती है, पर मां की पुरानी आदत है. रात में लाइट जाने का डर… जैसे उसकी पीढ़ी के अधिकतर लोगों को अक्सर हर ज़रूरी दास्तावेज़ फाइलों में संभालने की आदत होती है. हार्ड-डिस्क की आदत रखनेवाली पीढ़ी के लिए यह अजूबा ही रहेगा.
मां को गए कुछ दिन हो गए थे. सुमन अपने रूटीन में व्यस्त हो गई. मई का महीना चुकने को था. गर्मी में किचन में लस्त-पस्त सुमन खाना बनाने की तैयारी में उलझी थी कि मोबाइल बज उठा. मां थीं. “हैलो सुमन बेटा…” मां घायल और उदास आवाज़ में बोलीं.
“क्या हुआ मां…” मां की आवाज़ सुन वह हड़बड़ा गई.
“ये नवीन तो हर बात के लिए ना करता है… ग़ुस्सा करता रहता है हर वक़्त… मैंने तो कह दिया, मुझे सुमन के पास छोड़ दे… मैं अब यहां नहीं रहूंगी.” सुनते ही उसे ताव आ गया. उबलने को हुई, ‘तो फिर गईं ही क्यों थीं. दूसरा तुम्हें इधर-उधर करने को फालतू बैठा है क्या?‘
लेकिन दूसरे ही पल अपने उबाल को अंदर ही दबा उसने शांति से कहा, “ठीक है मां, भाई को टाइम न हो तो बता देना, मैं लेने आ जाऊंगी.” मां सुनकर फिर पुलकित हो गई. लेकिन उसे पता था, कुछ दिन बाद मां ऐसे ही ग़ुस्से में वापस जाने की बात करेगी. उसके उबाल के ऊपर फिर झाग बनना शुरू हो गया था.

Sudha Jugran
सुधा जुगरान

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Photo Courtesy: Freepik

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