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कहानी- लौटते हुए (Short Story- Lauttay Huye)

क्या…क्या वह ठीक कर रही है? रमेश को इतना विश्‍वास क्यों है उस पर? जिस व्यक्ति ने बुरे दिनों से उसे उबारा, सुरक्षा दी, योग्य बनाया, क्या उसका विश्‍वास तोड़ दे वह? मन में ऊहापोह मची हुई थी. अगर न जाए तो… शायद नौकरी जा सकती है. क्या पता दूसरी मिले न मिले…? वह सो नहीं पा रही थी.

अनु के शब्द अभी भी जया के कानों में रह-रह कर गूंज रहे थे. कितने आत्मविश्‍वास और गर्व से सब कुछ कह जाती है वह. कहीं कोई संकोच नहीं, झिझक नहीं, तभी तो इतनी सुखी है. ठाठ से अकेले अपने फ्लैट में रहती है, गाड़ी चलाती है, अपनी शर्तों पर नौकरी करती है, दो नौकरियां तो इसी शहर में बदल चुकी है.
“जो बीत गया, उसे मैं भुला देती हूं जया और नए सिरे से फिर से अपनी ज़िंदगी शुरू कर लेती हूं.”
अपने कंधे पर झूल आए घुंघराले बालों को एक ख़ास अदा से हल्का-सा झटका देकर वह मोहक ढंग से मुस्कुराई थी.
“तू इतनी सहज, इतनी ख़ुश कैसे रह लेती है?”
जया अभी भी हैरानी से उसका मुंह ताक रही थी.
“क्यों, इसमें क्या कठिनाई है? भई, जो रुचे सो खाओ. जो रुचे सो पहनो. जो अच्छा लगे करो. दूसरे क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे इन सब बकवासों के लिए तो समय ही नहीं है मेरे पास.”
“पर अनु, हम लोग जिस समाज में रहते हैं, उसकी कुछ सामाजिक मर्यादाएं होती हैं, जिनका हमें पालन करना होता है. हम सब कुछ अपनी मर्ज़ी से कैसे कर लें?”
“रबिश…”
जया ने फिर अपनी गर्दन को झुका दिया था.
“मुझे तो तेरी ज़िंदगी को देखकर तरस आता है जया. बचपन से तुझे देखती आ रही हूं. पहले आर्थिक अभाव थे तो अब पारिवारिक दायित्व… तू तो शायद कभी अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जी ही नहीं पाएगी. इतनी ख़ूबसूरत है, पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती है, क्या कमी है तुझमें? फिर लाइफ़ एन्जॉय कर न… जब देखो तब कोई-न-कोई रोना रहता ही है तेरे पास- कभी अपने अपाहिज देवर की दास्तान तो कभी कुंआरी ननद की शादी में आ रही अड़चनों का ब्योरा और बीमार सास के दुख-दर्द तो हैं ही, साथ ही पति की नसीहतें भी. यही सब सुनती आई हूं अब तक तेरे मुंह से… और तेरा घर देखकर तो लगता है कि तू रह कैसे लेती है इस दमघोंटू वातावरण में… अरे कभी बाहर भी निकल इस मनहूसियत से. चटपटे क़िस्से बुन, रसभरी बातें सुना तो मेरा भी मन लगे… कुछ नहीं तो अपने बॉस से ही दोस्ती कर ले, थोड़ा मस्त माहौल तो मिलेगा. वैसे तेरा बॉस है तो बड़ा स्मार्ट…”
“बॉस…” जया एकदम चौंक गई थी.
तो… तो क्या अनु जानती है संदीप को? क्या पता शायद उसके चेहरे पर उभर आए भावों को भी ताड़ गई हो वह?
“अरे! तू तो ऐसे शरमा रही है जैसे मैंने तेरा कोई रहस्य खोल दिया हो. मैं तो यूं ही सामान्य-सी बात कह रही थी कि जब हम बाहर रहते हैं, कमाते हैं, दिनभर खटते हैं तो क्या हमारा हक़ नहीं बनता कि हम अपनी ज़िंदगी एन्जॉय करें? क्या हमने ठेका ले रखा है दुनियाभर की ज़िम्मेदारियां ओढ़ने का? पति को निभाओ, साथ ही उसके लम्बे-चौड़े परिवार के दायित्व भी ढोओ. ऐसी सड़ी-गली मान्यताओं में विश्‍वास नहीं करती  मैं. दुनिया में आए हैं तो उसका लुत्फ़ उठाओ.”

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एक लंबा-चौड़ा भाषण झाड़कर अनु तो चल दी, पर जया देर तक इन विचारों से उबर नहीं पाई थी. शायद अनु सच ही कहती है. बचपन से साथ रही है वह. उन दिनों जब वह मां के साथ अकेली आर्थिक संकटों से जूझ रही थी तब से अनु उसे जानती है.
पुराने दिन एक बार फिर से जया के सामने घूम गए थे. अनु ठीक ही कह रही है, अभाव ही अभाव तो देखे हैं उसने, तब भी और अब भी…
तब दूसरा संकट था. बचपन में पिता नहीं, नाते-रिश्तेदारों  में दूर तक कोई नहीं, मां की भी छोटी-सी नौकरी और बड़ी होती वह. बचपन तो किसी तरह कट गया था, पर युवावस्था की दहलीज़ पर पांव रखते ही दूसरे संकट शुरू हो गए थे.
युवा बेटी को देखकर मोहल्ले के आवारा लड़कों का घर के आस-पास चक्कर लगाना शुरू हो गया था. कई बार तो रात को अकेली मां-बेटी भी दरवाज़े पर हो रही खटपट से भयभीत हो जातीं. लेकिन मां को तो नौकरी पर जाना ही होता था. स्कूल की पढ़ाई पूरी करके जया ने कॉलेज जाना तो शुरू कर दिया था, पर अब तो मुसीबतें दिन पर दिन और बढ़ने लगी थीं. पढ़ाई का ख़र्च निकालने के लिए उसने एक जगह पार्ट टाइम नौकरी भी शुरू कर दी. वहीं रमेश से परिचय हुआ था. सीधा-सादा-सा यह युवक दिनभर अपने काम में ही डूबा रहता.
जया को वह औरों से कुछ अलग लगा था. शुरू-शुरू में टाइपिंग में जब गलतियां हो जातीं तो रमेश ही उसकी मदद करता था. कई बार देर हो जाती तो घर छोड़ने भी आ जाता. धीरे-धीरे मां को भी रमेश पसंद आने लगा था.
फिर उन्होंने ही रमेश से बात की थी.
“पर आप तो जानती ही हैं कि मेरे घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, पारिवारिक दायित्व भी बहुत से हैं…” रमेश के स्वर में थोड़ा संकोच था.
“वो तो ठीक है बेटा, पर यदि तुम जया का हाथ थाम लोगे तो मैं निश्‍चिंत हो जाऊंगी. मेरी ज़िंदगी का भी क्या ठिकाना…? फिर अकेली मैं कहां-कहां, किस-किस का सामना कर पाऊंगी? मोहल्ला भी ऐसा है कि बहू-बेटियों की खैर नहीं.” वैसे जया को भी अच्छा लगा था. जो भी हो, रमेश की बांहों में सुरक्षा तो थी. उसकी अधूरी पढ़ाई भी रमेश ने पूरी करवा दी थी और स्टेनोग्राफ़ी का कोर्स भी शुरू करवा दिया. फिर जया को अच्छी नौकरी भी मिल गई थी. घर की आर्थिक दशा में मामूली-सा सुधार भी आया. पर रमेश के पारिवारिक दायित्व बढ़ते जा रहे थे. छोटा भाई अपाहिज था, उसके इलाज पर भी ख़र्चा हो रहा था. मां गठिया की मरीज़ थीं, इसलिए उनसे घर का काम-काज नहीं होता था. बहन की जैसे-तैसे शादी की तो काफ़ी कर्ज़ा हो गया था. सुबह से घर में जैसे मशीनी ज़िंदगी शुरू हो जाती थी. एक प्याला चाय के साथ जया घर की सफ़ाई, धुलाई में जुट जाती. फिर सबका नाश्ता, खाना इसी बीच रमेश अपने भाई को तैयार करके उसे अस्पताल एक्सरसाइज़ करवाने ले जाता. भागते-दौड़ते ही वह नाश्ता करती, बस पकड़ती. फिर दिनभर ऑफ़िस का काम… शाम को लौटने तक पस्त-निढाल हो जाती, पर घर के काम मुंह बाए खड़े रहते. रमेश ऑफ़िस से निकलकर पार्ट टाइम जॉब करता था, इसलिए बाज़ार से सौदा, सब्ज़ी लाने का काम भी अक्सर जया को ही करना पड़ता था. चाहे छुट्टी का दिन हो या वर्किंग डे, सब दिन उसके लिए एक से थे. काम और काम बस…
कई बार उसके साथ की लड़कियां कह भी देतीं, “अरे भाई, अब तो तीन-चार साल हो गए तुम लोगों की शादी को, अब तो फैमिली के बारे में सोचो.” फैमिली… बच्चा… जया और रमेश इस बारे में तो सोच ही नहीं सकते थे और इस बेरंग होती जा रही ज़िंदगी से जया को भी को़फ़्त होने लगी थी. यहां तक कि घर का दमघोंटू वातावरण तो जैसे और उबाऊ हो गया था. कई बार तो सोचती कि रविवार या छुट्टी के दिन भी क्यों आते हैं. ऑफ़िस में कम-से-कम दूसरी बहुत-सी चिंताओं से तो मुक्ति मिल ही जाती है. जब से ऑफ़िस में नए बॉस संदीप ने कार्यभार संभाला है तब से अक्सर वह ऐसा ही सोचती है.

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संदीप जैसे हवा के ख़ुशबूदार झोंके की तरह आया था. उसके आते ही पूरे ऑफ़िस की तो कायापलट हुई ही है, पर उसे लगता है जैसे उसकी ख़ुद की भी ज़िंदगी बदलने लगी है. पुराने बॉस तो बस अपने काम से ही काम रखते थे. शुरू में तो उसे लगा कि संदीप भी रिज़र्व स्वभाव के हैं, पर चूंकि वह बॉस की स्टेनो है तो अक्सर उसे वहीं केबिन में बैठना होता और डिक्टेशन लेते-लेते वह जान ही नहीं पाती थी कि कब से संदीप की प्रशंसात्मक नज़रें उसके चेहरे पर गड़ी हुई हैं.
“जया, तुम में आगे बढ़ने की काफ़ी संभावनाएं हैं…”
पहली बार जब संदीप ने धीरे से ये शब्द कहे तो वह भीतर तक चौंक गई थी. मिसेज नारायण से वह कब जया हो गई. ‘आप’ से कब ‘तुम’ हो गई, वह समझ ही नहीं पा रही थी. यह ज़रूर था कि संदीप का साथ उसे भी अच्छा लगने लगा था, यहां तक कि छुट्टी का दिन भी बेमानी लगता. क्या संदीप भी ऐसा ही कुछ सोचते होंगे, यह विचार भी कई बार मन में उठता.
अब वह ऑफ़िस अच्छी तरह तैयार होकर भी आती. दो-चार जोड़ी अच्छे कपड़े भी ख़रीदे थे. रमेश भी तब ख़ुश ही हुआ था. “चलो अच्छा है, तुम्हें अपनी सुध तो आई. नहीं तो अब तक बस दूसरों का ही ख़याल रखती रही हो और जब तुम ख़ुश रहती हो तो मुझे भी अच्छा लगता है.”
रमेश ने तो सहज स्वाभाविक स्वर में ही यह सब कहा था, पर वह देर तक रमेश को देखती रही थी. एक बार ऑफ़िस के ही काम से संदीप को शहर में ही दूसरी जगह जाना पड़ा था, मीटिंग में वह भी साथ थी. संदीप की बड़ी-सी आरामदायक एसी कार, उसका साथ, पऱफ़्यूम की महकती ख़ुशबू, संदीप का धीमी मुस्कुराहट के साथ उसे तकना… लगता था जैसे किसी स्वप्निल दुनिया में आ गई है वह.
काश! ये घड़ियां यहीं थम जाएं, संदीप का साथ कभी न छूटे. लौटने में जब देर हुई तो रमेश ने ज़रूर कहा था, “बहुत देर हो गई… मां बीमार थीं. घर में तो बत्ती तक नहीं जली थी, अभी मैंने दूध लाकर मां और भाई को चाय बनाकर दी है.” “तो क्या हुआ? रोज़ तो ये काम मैं ही करती हूं, तुम तो रोज़ ही देर से आते हो. आज मुझे भी देर हो गई तो इसमें कौन-सी आफ़त आ गई.” जया ने लापरवाही से कहा और कपड़े बदलने चली गई. “कोई बात नहीं, मैं तो यूं ही कह रहा था. तुम भी थकी होगी, तुम्हारे लिए भी चाय बना देता हूं और खाना ढाबे से ले आऊंगा.”
रमेश का स्वर अभी भी सहज ही था. कई बार तो जया को लगता कि पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ है रमेश. भाई की सेवा, बहन की चिंता, मां की देखभाल… अगर शादी नहीं भी करता तो क्या फ़र्क़ पड़ता, उसे और को़फ़्त होने लगती.
जाने-अनजाने हर बार वह मन-ही-मन रमेश और संदीप की तुलना करने लगती. ईश्‍वर भी कैसे विपरीत ध्रुव कर देता है.
कहां रमेश… कहां संदीप…
संदीप… नाम ज़ेहन में आते ही जैसे किसी अपूर्व ऊर्जा का संचार हो जाता है उसके मन में.
कल ही संदीप ने अपना टूर चार्ट थमाया था उसे…
“जया, ऑफ़िस के काम से बैंगलोर जाना होगा. तैयारी कर लो, अगले ह़फ़्ते चलना है…”
“सर… मैं… मेरा मतलब है मैं…”
एक पल को वह तो सोच ही नहीं पाई थी कि क्या कहे. बॉस के साथ दूसरे शहर जाने का उसका यह पहला मौक़ा था.
“कहां हो भई तुम…? इसमें हैरानी की क्या बात है? तुम मेरी स्टेनो हो, तुम्हें तो साथ जाना ही होगा.”
संदीप की दृष्टि उस पर गड़ गई थी. ऐसा भी नहीं था कि इन नज़रों को वह भांप नहीं पाई हो. संदीप के साथ कहीं जाना, चार-पांच दिन होटल में रुकना… जान-बूझकर संदीप ने यह टूर प्रोग्राम बनाया था. ऑफ़िस के ऐसे काम के लिए और भी किसी पुरुष को साथ ले जाया जा सकता था, पहले भी तो यही होता आया है.
“ठीक है…?”
संदीप ने फिर मुस्कुराकर उसकी ओर देखा था…
“जी सर…”
ख़ुशी तो उसे भी हो रही थी. इतने सालों बाद घर की मनहूसियत से छुटकारा मिलेगा. दो-चार दिन ही सही, अपनी ख़ुशी से तो जी पाएगी. वह भी अनु की तरह लाइफ़ एन्जॉय करे, आख़िर उसका भी कुछ हक़ बनता है अपनी ज़िंदगी पर…
पर रमेश… रमेश से क्या कहेगी?
“मुझे बॉस के साथ बैंगलोर जाना होगा…”
उसी रात सपाट स्वर में उसने रमेश को बता दिया था.
“बैंगलोर… पर तुम जाओगी?”
“हां, इसमें हैरानी की क्या बात है. ज़ाहिर है कि मैं बॉस की स्टेनो हूं तो मुझे जाना ही होगा…”
रमेश कुछ देर चुप रहा.
“ठीक है, मैं मां को संभाल लूंगा… न हो तो आधे दिन की छुट्टी ले लूंगा… तुम अपनी तैयारी कर लेना. दो-चार दिन की ही तो बात है…”

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रमेश सो भी गया था. बात इतनी आसानी से बन जाएगी, यह तो उसने सोचा भी नहीं था. दो दिन तैयारी में लगे. नया सूटकेस और बैग ख़रीदा. कुछ कपड़े और कॉस्मेटिक्स भी, आख़िर बॉस के साथ जाना है. सब कुछ पऱफेक्ट होना चाहिए. संदीप ने तो कल भी पूछा था, “हां, तो तुम्हारी तैयारी हो गई? कल सुबह की ही फ्लाइट है. ड्राइवर से कह दिया है, तुम्हें लेता हुआ आएगा. मैं टैक्सी से एयरपोर्ट पहुंच जाऊंगा…”
संदीप ने हल्के से उसके कंधे को छुआ था.
“ठीक है सर…”
क्या वह जानती नहीं कि क्या मतलब है इन सब बातों का? पर वह भी तो जा रही है… क्यों… पता नहीं…
रात को देर तक तैयारी करती रही थी वह. रमेश ने भी मदद की. थककर रमेश तो सो भी गया था, पर उसे देर तक नींद नहीं आई.
क्या…क्या वह ठीक कर रही है? रमेश को इतना विश्‍वास क्यों है उस पर? जिस व्यक्ति ने बुरे दिनों से उसे उबारा, सुरक्षा दी, योग्य बनाया, क्या उसका विश्‍वास तोड़ दे वह? मन में ऊहापोह मची हुई थी. अगर न जाए तो… शायद नौकरी जा सकती है. क्या पता दूसरी मिले न मिले…? वह सो नहीं पा रही थी. ड्राइवर ने हॉर्न बजाया… रमेश उठे इसके पहले ही उसने धीरे से दरवाज़ा खोला-
“साब से कहना कि मैं नहीं चल पाऊंगी…” कहकर वह भीतर आ गई. अब वह चैन की नींद सो रही थी.

- डॉ. क्षमा चतुर्वेदी

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