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कहानी- लाइफ बाई चॉइस बनाम बाई डिफॉल्ट (Short Story- Life By Choice Banam By Default)

दरअसल, समस्या व़क्त की नहीं है, न ही उम्र की है. समस्या है अपने भीतर पैदा हुए नश्‍वरता के एहसास की. हर वह चीज़, जो किसी व़क्त जान से भी अधिक प्यारी और क़ीमती होती है, व़क्त बीतने के साथ न जाने कैसे अपने आप वह मिट्टी हो जाती है. वह चाहे जज़्बात हों, सामान हों या रुपए-पैसे. Hindi Kahani ज़िंदगी क्या है कोई चाके कफ़न है यारों, उम्र के हाथों जिसे चुपचाप सिये जाते हैं... उसने एक बार फिर से रिपीट कर ग़ज़ल की लाइनें सुनीं.  क्या सचमुच बस इतनी ही है ज़िंदगी या फिर हम ज़िंदगी को इतना ही जानते हैं. 50-55 साल की उम्र गुज़रने के बाद अगर कोई महसूस करने लगे कि वह उम्र से परे जा चुका है... जीते जी अपने होने के एहसास से बाहर है... किसी ख़्वाबों-ख़्यालों की दुनिया में जी रहा है या फिर निराशा की पराकाष्ठा पर खड़ा है, तो उसे ज़िंदगी कौन दे पाएगा? कहने का अर्थ यह कि जब किसी के जीने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए, तो उसे कौन-सी दवा, कौन-सा डॉक्टर ज़िंदा रख पाएगा. छीन ली व़क्त ने उल्फ़त के ग़मों की दौलत, खाली दामन है, वही साथ लिए जाते हैं… क्या फ़लसफ़ा है प्यार में मिले ग़म ज़िंदगी की दौलत की तरह हैं और कमाल की बात यह कि इन्हीं ग़मों के सहारे ज़िंदगी कट रही है. समय ने मेमोरी डिलीट करके ग़मों की दौलत तक छीन ली है. रोज़ एक सुबह और फिर किसी शाम का गुज़र जाना ज़िंदगी है, तो फिर ये ज़िंदगी कौन-सी ज़िंदगी है… तभी तो कहते हैं कि ज़िंदगी कुछ भी नहीं, फिर भी जीए जाते हैं, तुझ पे ऐ व़क्त हम एहसान किए जाते हैं… माय गॉड! जहां इंसान एक-एक मिनट जीने को तड़प रहा है, वहां किसी के लिए जीना व़क्त पर एहसान करने के समान है, तो कहीं न कहीं कुछ तो छुपा है उसकी ज़िंदगी के दामन में. क्या सचमुच ज़िंदगी का दामन इतना छोटा है कि उसमें स़िर्फकांटे ही कांटे हों. वह सोचने लगा ज़िंदगी बाई चॉइस है या बाई डिफॉल्ट है, क्योंकि किसी ने लिखा है... लाई हयात आए, कजा ले चली चले, अपनी ख़ुशी से आए न अपनी ख़ुशी चले. कहने का अर्थ यह कि इस धरती पर आना और जाना हमारी चॉइस नहीं है. वह बाई डिफॉल्ट है. इसे हम चुन नहीं सकते और इस आने-जाने के बीच जो है, वही तो उम्र है. व़क्त और उम्र में फ़र्क़ है. कुछ लोग व़क्त के गुज़र जाने को उम्र की तरह देखते हैं और जन्मदिन मनाते हुए बोलते हैं कि इस धरती पर 25 साल का व़क्त गुज़र गया और यह मेरी लाइफ की सिल्वर जुबली है. इसी तरह गोल्डन और प्लैटिनम जुबली भी होती है. व़क्त का क्या है, लोग वेडिंग ऐनिवर्सरी से लेकर अपनी शॉप के 10 साल और 20 साल होने का जश्‍न भी मनाते हैं. कई संस्थाएं अपनी स्थापना के 30 वर्ष और 40 वर्ष का उत्सव मनाती हैं. ढेरों कार्यक्रम होते हैं, उपहार बांटे जाते हैं, पार्टी होती है और लोग ऐसे उत्सव को वर्षों याद रखते हैं, लेकिन यह व़क्त उम्र नहीं है. किसी की ज़िंदगी का 20 से 30 साल का 10 वर्ष का व़क्त और उसी की ज़िंदगी का 50 से 60 साल का और फिर 70 से 80, 80 से 90 साल का व़क्त गिनती में भले ही 10 साल हों, पर हर 10 साल ज़िंदगी के हर पड़ाव पर अलग-अलग होता है. जब हम ख़्वाबों में खो सकते हैं, गाने सुन सकते हैं, फिल्म देख सकते हैं, नाम और शोहरत के पीछे पागल हो सकते हैं... उस व़क्त के 10 साल कब, कहां और कैसे खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता. लेकिन वही 10 साल का व़क्त तब बहुत बड़ा हो जाता है, जब उम्र अधिक हो जाए. जब व्यक्ति को जीवन की सच्चाई का बोध हो जाए, तब यही 10 साल बहुत लंबे हो जाते हैं. यह भी पढ़ेलघु उद्योग- जानें सोप मेकिंग बिज़नेस की एबीसी… (Small Scale Industry- Learn The Basics Of Soap Making) दरअसल, समस्या व़क्त की नहीं है, न ही उम्र की है. समस्या है अपने भीतर पैदा हुए नश्‍वरता के एहसास की. हर वह चीज़, जो किसी व़क्त जान से भी अधिक प्यारी और क़ीमती होती है, व़क्त बीतने के साथ न जाने कैसे अपने आप वह मिट्टी हो जाती है. वह चाहे जज़्बात हों, सामान हो या रुपए-पैसे. दर्द तो यह है कि हमारे अपने ख़्याल भी अपने नहीं रह जाते, उनसे भी लगाव ख़त्म-सा हो जाता है. वो गाड़ी-बंगला, नौकर, आलमारी में भरे कपड़े, ढेर सारे काग़ज़, बैंक व लॉकर के पेपर सब निरर्थक हो जाते हैं. यह जो बिस्तर है, टीवी, फ्रिज, मेल आईडी, इंटरनेट, ख़बरें... अपने आस-पास बिखरी दुनिया आख़िर क्या है यह सब? सब का सब तो निरर्थक है. हां, मोह तो शरीर का भी छूट जाता है. आख़िर जितना लंबा यह शरीर चलेगा, उतनी ही इसे फिट रखने की मांग होगी. दवा-दारू, सेवा सब तो इसी शरीर के लिए चाहिए और इस शरीर में बचा क्या है? अजीब बात है. एक तरफ़ सच का बोध होता है और दूसरी तरफ़ ज़िंदगी जीना दूभर हो जाता है. उम्र बढ़ने के साथ सांसारिकता और जीवन की नश्‍वरता जैसे जीने के सभी कारण समाप्त कर देती है और जीवन जैसे स्वयं ही अवसान की बाट जोहने लगता है. अर्थ यह कि अब यह जीवन किसलिए? क्या है इसके चलते रहने की सार्थकता? बस,  किसी अनजान अनकहे लम्हे का इंतज़ार. उसकी आवाज़ नीम बेहोशी और चिंतन से गुज़रते हुए कब चेतना से मुखातिब हो गई उसे पता नहीं चला. वह उधेड़बुन में था कि अचानक उसे अपने आस-पास कोई शोर  महसूस हुआ. “डॉक्टर-डॉक्टर, पेशेंट नंबर नाइन को होश आ गया है...” वह चौंका! पेशेंट नंबर नाईन... यह कौन है? तभी सचमुच उसे होश आया. उस ने ख़ुद को देखा. यह क्या? वह तो किसी अस्पताल के बेड पर पड़ा है. उसका सिर दर्द से फटने लगा. उसे कुछ समझ में नहीं आया वह यहां कैसे? वह तो अकेला रहता है और आख़िरी बात जो उसे याद थी, वह यह कि वह अपने डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करने बैठा था. इससे पहले कि वह कुछ और समझता बेटे ने क़दम रखा, “पापा, अब कैसी है आपकी तबीयत?” एक बेहद मज़बूत आदमी आसक्त-सा बिस्तर पर निढाल पड़ा क्या जवाब देता?  अभी तो ‘उसे’ अपने सवालों के जवाब चाहिए थे. तभी देखा, तो शिबी दौड़ते हुए आई और हाथ पकड़कर बोली, “दादू... दादू, मेरे साथ खेलो ना. पापा मुझे आने नहीं दे रहे थे. कह रहे थे दादू बीमार हैं, अभी नहीं खेलेंगे. दादू आप पापा को बताओ आप बीमार नहीं हो, आप मेरे साथ खेलोगे. मैं आपके साथ खेलने ही तो आती हूं यहां.” इतना कहकर वह रोने लगी. उसे समझ नहीं आया कि वह पहले इन मासूम सवालों के जवाब दे या अपने सवालों के जवाब ढूंढ़े. यह भी पढ़े: शरीर ही नहीं, मन की सफ़ाई भी ज़रूरी है (Create In Me A Clean Heart) तभी डॉक्टर गोखले ने प्रवेश किया. नर्स ने ब्लड टेस्ट, बीपी, शुगर की रिपोर्ट रख दी. कुछ देर देखने और हार्ट बीट चेक करने के बाद वे बोले, “हाउ आर यू फीलिंग सर?” अब शायद उनके बोलने का नंबर आ गया था. “अभी तो ठीक फील हो रहा है, पर मैं यहां कैसे डॉक्टर? और मुझे हुआ क्या है?” डॉक्टर हंसे. “कुछ नहीं, बस एक माइल्ड अटैक था, पर अब चिंता की कोई बात नहीं है, सब नॉर्मल है. बीपी, शुगर और हार्ट बीट. हां, बस दो-तीन दिन ऑब्ज़र्वेशन में रखकर छुट्टी दे देंगे. अब आप रेस्ट कीजिए और रिलैक्स, आपको कुछ नहीं हुआ है. उस दिन आपकी शुगर हाई हुई और ब्लड प्रेशर लो हो गया था. शायद आप अपनी रेग्युलर मेडिसिन नहीं ले रहे थे.” यह तो डॉक्टर का जवाब था. अभी भी उनके सवाल वहीं खड़े थे. आख़िर वह यहां तक आए कैसे? वे तो घर में अकेले थे, फिर उन्हें ऐन वक़्त पर यहां कौन लाया? बेटे को उनकी ख़बर किसने दी, वह भी बिना समय गंवाए? और यह शिबी, जो दादू... दादू... करते हाथ पकड़े रोए जा रही है, यह यहां कब और कैसे पहुंची? फिर ख़्याल आया, सचमुच अगर मुझे कुछ हो जाता, तो शिबी का क्या होता? यह दादू को इतना प्यार करती है... हमें कभी पता ही नहीं चला. इससे पहले कि वे कुछ और सोच पाते, सोसायटी के सिक्योरिटी गार्ड को देख चौंक गए, “तुम भी यहां हो?” वह बोला, “बाबूजी, हम ही तो आपको यहां लाए आप जब बेहोश हुए, तो भइया का फोन आया कि मास्टर की से डोर खोल आपके पास पहुंचे. एंबुलेंस आ रही है. बाबूजी को अस्पताल भेजकर मुझे ख़बर करो, मैं रात तक आ रहा हूं, फ्लाइट में इतना टाइम लग जाएगा, बस तब तक तुम ध्यान रखना. इतना सुनते ही उनकी आंखों में आंसू आ गए. वे सोचने लगे... ‘ज़िंदगी वाकई बाई डिफॉल्ट है, बाई चॉइस नहीं’ न ही मौत ‘बाई चॉइस’ है. वह बेटा, जिसे वे सोचते थे कि उसे किसी की परवाह ही नहीं है, वह बस अपनी दुनिया और जॉब में खोया रहता है. उन्हें आज एहसास हो रहा था कि इतनी दूर रहकर भी वह उनके कितना क़रीब है. यह अलग बात है कि इसका उन्हें पता ही नहीं था. इससे पहले कि रघुवीर सहाय कुछ और बोलते, शिशिर बोला, “पापा, हम आपको  ऐसे नहीं जाने देंगे. वैसे भी अभी आपकी उम्र ही क्या है 65... आपके बिना  हमारी सफलता और संपन्नता के क्या मायने हैं. आपकी ज़िंदगी बहुत क़ीमती है, इसकी क़ीमत आप क्या समझेंगे. यह जानना है, तो शिबी से पूछिए, जो रात-दिन ‘दादू-दादू’ करती रहती है. पापा, टेक्नोलॉजी, नौकरी और व़क्त हमसे साथ रहने का अधिकार छीन सकती है. संस्कार नहीं. भौतिक संपन्नता की मांग ने जहां हमें अपनों से दूर रहने को मजबूर किया है,  काम के दबाव ने जहां हमें पहले की तरह ढेर सारी बातें करने और गप्पे मारने से दूर कर दिया है, वहीं इस टेक्नोलॉजी ने हमें बहुत कुछ दिया भी है. हां, हम कुछ कह नहीं पाते, तो इसका यह अर्थ नहीं कि हम मशीन हैं. हमारे सीने में भी दिल है. हमारे भीतर भी वैसे ही जज़्बात पलते हैं, जैसे आपके भीतर. बस, हम आपकी तरह व्यक्त नहीं कर पाते. रात-दिन कंप्यूटर, लैपटॉप और  मोबाइल से जुड़े रहने का यह अर्थ नहीं कि हम आपसे जुड़े हुए नहीं हैं. ना ही आपके पास न रह पाने का यह अर्थ है कि हमें आपकी चिंता नहीं है. यह भी पढ़ेसाइलेंट मोड पर होते रिश्ते… (Communication Gap In Relationships) रोज़ ऑफिस में मैं लंच से पहले घर की सीसीटीवी फुटेज में देखता हूं और उस दिन जब आप बेहोश हुए, तो तुरंत मैंने सिक्योरिटी गार्ड को मास्टर की के साथ भेज दिया, जो मैंने किसी इमर्जेंसी के लिए सोसायटी में दे रखी थी. आज कहीं से भी एंबुलेंस भेजी जा सकती है. सिक्योरिटी गार्ड और एंबुलेंस  के सही मेल ने आपको व़क्त पर मेडिकल सुविधा दिला दी. रही फ्लाइट, तो आजकल कहीं भी आना-जाना बहुत आसान हो गया है.” इतना सुनते ही रघुवीर सहाय न जाने कब फिर चिंतन की दुनिया में खो गए. ‘पता नहीं कब और कैसे हम ख़ुद-ब-ख़ुद अपने ख़्यालों की दुनिया में सिमटते चले जाते हैं. ख़ुद ही अपने लिए दायरे बना लेते हैं कि इस उम्र के बाद यह कपड़े नहीं पहनने हैं, यहां नहीं जाना है, यह नहीं खाना है, हंसना नहीं है, सीरियस रहना है. बस, हमउम्र लोगों से ही मिलना है, यह नहीं सोचना है और न जाने क्या-क्या... इसी सोच में कि किसे क्या अच्छा लगेगा... क्या बुरा लगेगा... इसी  उधेड़बुन में पड़े रहते हैं... न जाने कब और कैसे हम सोच लेते हैं कि हमारे अपनों को हमारी ज़रूरत नहीं रही.’ बड़ी बारीक़ लाइन है दुनिया ने हमें छोड़ दिया है या हमने दुनिया को अर्थात् हम ख़ुद ही अपने विचारों में बंधकर इस ख़ूबसूरत दुनिया की सुंदरता और अपने क़रीबी रिश्तों को भूलते और छोड़ते चले जाते हैं. हां, अपनी सोच को तर्क में भरने के लिए हमने मनगढ़ंत भ्रम पाल लिए हैं कि दुनिया हमें छोड़ रही है. और जैसे ही शिशिर ने कहा, “पापा, आपको कुछ हो जाता, तो हम तो कहीं के नहीं रहते. आपको क्या पता कि आपके इमोशनल सपोर्ट की मेरी ज़िंदगी में कितनी क़ीमत है...” इतना कहते-कहते जहां शिशिर की आंखें छलछला आईं, वहीं रघुवीर सहाय की आंखों से भी झर-झर आंसू बहने लगे. सचमुच चार आंखें और दो दिल ख़ामोशी से रोए जा रहे थे. किसी के पास अब कहने को कुछ नहीं था और न ही ज़िंदगी की सार्थकता को लेकर कहीं कोई प्रश्‍न बचा था. Murli Manohar Shrivastav मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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