अब तो ये सभी महिलाएं एक परिवार के सदस्य के समान ही आपस में आत्मीयता से जुड़ चुकी थीं. एक-दूसरे के
सुख-दुख की साथी बन गई थीं. सभी इस विषम परिस्थिति में दूसरे को संबल देतीं. सबको यह आश्वासन रहता कि कोई अपना है. सोशल मीडिया के ज़रिए यह अपने आपमें अनूठा समूह व पहल जल्दी ही चर्चित हो गया.
"क्या ढूंढ़ रही हो?” अनीता को आलमारी में बेचैनी से कुछ ढूंढ़ते देख डॉक्टर साहब ने पूछा.
“कुछ बिछड़े हुए, कुछ भूले-बिसरे दोस्तों को ढूंढ़ रही हूं.” अनीता ने उत्तर दिया.
“तुम्हारे दोस्त भला आलमारी में छुपकर कब से रहने लगे?” डॉक्टर साहब ने चुहल की. “ऐसे किन दोस्तों को छुपा रखा है हमसे भी तो मिलवाओ कभी.”
“जब से मैं इस घर में आई, तब से वह आलमारी में छुप गए.” अनीता भी भला चुटकी लेने में कहां पीछे थीं.
“मुझे मिल जाए, फिर मैं आप से भी मुलाक़ात करवा दूंगी.”
आख़िर जो वह ढूंढ़ रही थीं, वह मिल गया. एक वर्षों पुरानी ड्रॉइंग कॉपी, जिसमें मालवा प्रांत की लोक कला मांडना के
सुंदर-सुंदर नमूने बने हुए थे. उसे देखकर अनीता के मन को ढेर-सा सुकून मिला.
“यह लीजिए, मिल लीजिए मेरे भूले-बिसरे, बिसर चुके दोस्तों से.” हंसते हुए उन्होंने ड्रॉइंग कॉपी डॉक्टर साहब को दे दी और उनके लिए नाश्ता लगाने किचन में चली गई.
नाश्ता करके डॉक्टर साहब हॉस्पिटल चले गए और अनीता ने बचे हुए काम निपटाए. तब उन्होंने खाना बनाया और ड्रॉइंगरूम में आकर बैठ गईं. अब वे ढाई-तीन बजे तक एकदम फ़ुर्सत में थीं.
अनीता एक लेखिका भी हैं और शहर की लेखिकाओं के संघ की अध्यक्षा भी.
आज वे अपने लॉकडाउन के समय के सदुपयोग और सृजनता को याद कर मुस्कुरा दीं. वो कार्य जो आज नए सिरे से और भी फल-फूल रहा है और न जाने कितनी महिलाओं के तनाव-अवसाद को दूर करने के साथ कुछ नया करने की प्रेरणा भी दे रहा है.
पहले वे लेखिका संघ व अन्य संस्थाओं के कार्यों में व्यस्त लगभग हर दिन ही कहीं ना कहीं भागती-दौड़ती रहती थीं, लेकिन जब से कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन लगा था, ज़िंदगी जैसे अचानक ही थम कर रह गई. उस पर डॉक्टर साहब का अस्पताल में अधिकाधिक व्यस्त हो जाना, बेटी-दामाद भी डॉक्टर होने के नाते इस समय अधिक व्यस्त थे और बेटा-बहू विदेश में.
इस महामारी के चलते परिवार के तीनों डॉक्टरों की सेहत की चिंता में वे वैसे ही आधी हो गई थीं. उस पर खाली बैठे रहने से दिनभर तनावपूर्ण स्थिति के कारण मन में अजीब-सा अवसाद घिरता जा रहा था. हर पल एक अव्यक्त आशंका मन को घेरे रहती. उन्हें लग रहा था कि अब स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए किसी कार्य में ख़ुुद को व्यस्त रखना आवश्यक है और इसलिए आज सुबह से ही वे बड़ी व्यग्रता से अपनी ड्रॉइंग कॉपी को ढूंढ़ रही थीं.
सोफे पर बैठ उन्होंने अपनी बिछड़ी सहेली को प्यार से सहलाया. कितनी स्मृतियां ताज़ा हो गईं. बचपन से ही चित्रकला से अत्यंत प्रेम था उन्हें. सौंदर्य अनायास ही उनकी दृष्टि को आकर्षित करता था, तभी उन्होंने फाइन आर्ट्स में एम.ए. किया और मालवा अंचल की लोककला मांडना पर शोध कार्य.
मालवा के गांव-देहात में जा-जाकर इस कला का बारीक़ी से अध्ययन किया. उस समय जाने कितने घरों के ड्रॉइंगरूम व बरामदों की दीवारों पर उनके बनाए मांडने सज गए थे. पर जैसा कि लगभग हर लड़की के साथ होता है, घर परिवार, बच्चों को योग्य बनाने में वे ख़ुद को व अपनी रुचियों को ही भूल गईं. लेकिन अब सभी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर इस उबाऊ अकेलेपन की तनावपूर्ण स्थिति में उसी साथी की उन्हें याद आई और वे उससे मिलने के लिए बेचैन हो गईं.
ढूंढ़ने पर और भी कई ड्रॉइंग कॉपियां, पुस्तकें और शीट्स मिल गई. मानो जन्म का कोई आत्मीय मिल गया हो. ऐसा अपनापन महसूस हुआ उन्हें. देर तक वह अपनी ही कला को मुग्ध दृष्टि से देखती रहीं और उससे पुनः परिचय स्थापित करती रहीं. फिर उन्होंने ढूंढ़कर स्केल और पेंसिल निकाली और उनका नाती अपने स्केच पेन यही छोड़ गया था वह ले आईं. इसके बाद कॉपी में खाली पड़ी शीट पर वह मांडना बनाने में ऐसी खो गईं कि जब डॉक्टर साहब घर आए, तो बरबस उनके मुंह से निकला, “अरे, आप आज इतनी जल्दी आ गए?”
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“जल्दी? कहां खोई हो आज. तीन बज गए हैं. आज तो मैं ज़्यादा ही देर से आया हूं.” डॉक्टर साहब हंसे.
“ओह! मैं तो अपने बिछड़े साथी से मिलकर ऐसा खो गई कि समय का पता ही नहीं चला.” अनीता झेंप गईं.
“अरे वाह कितना सुंदर मांडना है.” डॉक्टर साहब की आंखों में प्रशंसा के भाव देख वह पुलकित हो गईं और खाना गर्म कर उन्होंने दोनों के लिए थाली लगाई.
खाना खाकर और कुछ देर आराम कर डॉक्टर साहब पुनः अस्पताल चले गए और अनीता पुनः अपनी कला में खो गई. पांच बिंदी के बाद उन्होंने सात बिंदी वाला मांडना बनाया, उसमें रंग भरा और तब चारों तरफ़ बॉर्डर बना दी. सृजन व रचनात्मकता के अपूर्व सुख व संतुष्टि से भर गईं वे. महीनों बाद मन से अवसाद व भय के बादल छंटे हुए लगे. मन का अकेलापन व बोझिलता कम हुई, तो होंठ अनायास गुनगुनाने लगे. अपनी कृति को देख-देख कर ख़ुुश होती रहीं और शाम को उन्होंने अपने लेखिका संघ के तथा फेसबुक समूह पर अपने मांडना के चित्र पोस्ट कर दिए.
आख़िर इस लॉकडाउन की कैद में रहते हुए सोशल मीडिया ही तो वह एकमात्र ज़रिया था जिसने सबको आपस में जोड़ कर रखा था और जहां आभासी होते हुए भी सुख-दुख में साथ देनेवाले रिश्ते व मित्र थे.
थोड़ी ही देर बाद लोगों की उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया आने लगी. तारीफ़ों के पुल बंध गए. अनीता का उत्साह बढ़ गया. वह नवीन ऊर्जा से भर गईं. दूसरे दिन उन्होंने एक त्योहार से संबंधित मांडना बनाकर पोस्ट किया. दिनभर फेसबुक और व्हाट्सएप पर लोग प्रशंसा करते रहे. महीनों बाद उनका दिन इतना आनंद में बीता. एक तो कला वैसे ही सृजन का सुख देती है और उस पर लोगों की स्नेहमयी आत्मीय प्रशंसा के क्या कहने.
शाम को जब वे चाय पीते हुए नए मांडना की रूपरेखा मन में तैयार कर रही थीं, तभी नविता का फोन आया. नविता भी लेखिका संघ की सदस्य थी और अच्छी कवयित्री थी. उनके बनाए चित्रों की प्रशंसा करने के बाद नविता ने भी मांडना सीखने की इच्छा प्रकट की.
“ठीक है जब स्थितियां सामान्य हो जाएंगी, तब मैं अवश्य ही तुम्हें सिखाऊंगी.” वे बोलीं.
“लेकिन मुझसे तो सब्र नहीं होगा और स्थितियां भी पता नहीं कब सामान्य होंगी. मन हर समय घबराहट से ही घिरा रहता है. नई कला सीखूंगी, तो मन बहल जाएगा और तनाव से भी मुक्ति मिलेगी.” नविता ने आग्रह किया.
“हम तो बहुत दूर-दूर रहते हैं, तो कैसे सिखा पाऊंगी.” अनीता की बात भी सही थी.
“वह सब हमने सोच लिया है. दोपहर में महिमा का फोन आया था. वह और सुधाजी भी सीखना चाहती हैं.” नविता ने बताया.
“मुझे बहुत ख़ुशी होगी सिखाने में, लेकिन हम सभी बहुत दूर-दूर रहते हैं.
एक-दूसरे के घर आसानी से आ-जा नहीं सकते. मैं एक कोने में, महिमा दूसरे कोने में, आप अलग तीसरे कोने में.” अनीता बोलीं.
“सब हो जाएगा और सब अपने-अपने घर पर बैठकर ही सीख लेंगे. आख़िर इंटरनेट और सोशल मीडिया कब काम आएगा.” नविता चहकी.
“पर सोशल मीडिया पर मैं मांडना कैसे सिखाऊंगी?” अनीता अब भी उहापोह में थी.
“मैं व्हाट्सएप पर एक समूह बनाकर आपको, महिमा को तथा और भी कोई जुड़ना चाहता होगा तो जोड़ लेती हूं. फिर आप
मांडना के प्रत्येक स्टेप के चित्र का फोटो उसमें पोस्ट कर दिया कीजिए. हम सब उसे देखकर घर पर बनाया करेंगे. बन जाने पर आप एक बार सबके चित्र देख लिया कीजिएगा कि ठीक बने हैं या नहीं. कुछ ग़लत हो तो बता दिया करिएगा.” नविता ने उत्साह से बताया.
“ठीक है. तुम समूह बनाओ, तो फिर देखते हैं कि क्या कर सकते हैं.” अनीता को ठीक समझ तो नहीं आया, लेकिन कौतूहल हो रहा था.
दो ही दिन में नविता ने व्हाट्सएप पर एक समूह बना लिया. कला मंच और उसके परिचय में जितनी स्त्रियां यह कला सीखना चाहती थी, उन्हें भी जोड़ दिया. बार-बार समूह खोलकर यह पता करना कि कब अनीता ने चित्र डाले हैं कठिन कार्य था. अतः सब ने मिलकर तय किया कि घर के सारे काम ख़त्म कर दोपहर के डेढ़ बजे सब समूह पर आएंगे और तभी अनीता चित्र डालेंगी और बाकी सब बनाते जाएंगे. सबने इस राय को बहुत पसंद किया. उस रात सभी बहुत रोमांचित रहीं. नई कला सीखने का रोमांच, पहली बार स्कूल जाने जैसा रोमांच हो रहा था सभी के दिलों में.
दूसरे दिन सभी ने अपने घर के काम तेज़ी से निपटाए और डेढ़ बजे से पहले ही सब अपने-अपने घर में अपने मोबाइल के साथ बड़ी उत्सुकता से अपनी पहली ऑनलाइन कला कक्षा के प्रारंभ की प्रतीक्षा करने लगीं. ठीक डेढ़ बजे से अनीता ने पांच बिंदी वाला मांडना बनाना शुरू किया और एक-एक स्टेप करके चित्र के फोटो खींचकर पोस्ट करती गईं. उन फोटो को देख-देखकर सबने अपने-अपने घरों में मांडना बनाना शुरू किया.
किसी के पास ड्रॉइंग कॉपी थी बच्चों की, किसी के पास लाइनोंवाली कॉपी थी. किसी के पास स्केल थी, लेकिन स्केच पेन नहीं थे. सुधाजी के पास स्केल नहीं थी, तो उन्होंने रसोईघर से चिमटा लिया और उसी को स्केल मान लिया. मन में उत्साह हो कुछ करने की, लगन हो, तो अभाव भी मार्ग में बाधक नहीं बन पाते.
शाम तक जिसके पास जो भी जैसा भी सामान था, उसी से उन्होंने मांडना बना लिया. अब तो नए सृजन व कला सीखने में ऐसा मन लगा सबका कि कोरोना की बुरी ख़बरों का डर पूरी तरह निकल गया और उसकी जगह मन में एक सकारात्मक भाव आ गया. अब सभी को सुबह से बस डेढ़ बजने की ही प्रतीक्षा रहती और उत्सुकता रहती कि आज क्या नया सिखाया जाएगा. हर रोज़ स्कूल जैसे ही सब अपने-अपने शहरों के अपने-अपने घरों में नियत समय पर कॉपी, पेन और रंग लेकर बैठ जाते. छह इंच का स्क्रीन सबको साथ जोड़ लेता और कला का एक नया संसार उनके सामने खुल जाता. सब एक-दूसरे के चित्र देखते, सराहते, प्रोत्साहन पाते और ऊर्जा से भर जाते.
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कला मंच भी समृद्ध होता जा रहा था.
फेसबुक के माध्यम से नित नए सदस्य जुड़ते हुए जल्दी ही यह लगभग 40 से अधिक महिलाओं का परिवार बन गया. जैसे ही लॉक डाउन में ढील मिली तुरंत सबने रंग, स्केच पेन, ड्रॉइंग कॉपी आदि सभी ज़रूरत का सामान मंगवा लिया. 80 साल की शीलाजी के साथ ही कुमकुमजी की 22 साल की बेटी शुभी भी सृजन में रत रहती. अब तो यह सभी महिलाएं एक परिवार के सदस्य के समान ही आपस में आत्मीयता से जुड़ चुकी थीं.
एक-दूसरे के सुख-दुख की साथी बन गई थीं. सभी इस विषम परिस्थिति में दूसरे को संबल देतीं. सबको यह आश्वासन रहता कि कोई अपना है. सोशल मीडिया के ज़रिए यह अपने आपमें अनूठा समूह व पहल जल्दी ही चर्चित हो गया. और एक दिन अनीता सुखद आश्चर्य से भर गई जब स्थानीय समाचार पत्र के संवाददाता ने उनसे संपर्क किया और उनकी इस अनूठी गतिविधि को जिसने इतनी सारी महिलाओं को अवसाद से बाहर निकालने में सहायता की, उसकी ख़बर प्रकाशित करनी चाही.
“यह मेरे अकेले की यात्रा नहीं है, इसमें सभी ने मेरा सहयोग किया है.” अनीता ने विनम्रता से कहा.
“तो आप सभी सदस्यों के इस गतिविधि के बारे में विचार व अनुभव संक्षिप्त में लिखवा कर हमें दीजिए. हम उन्हें प्रकाशित करेंगे. हम चाहते हैं कि समाज में दूसरे लोग भी इससे प्रेरणा लें.” संवाददाता ने कहा.
दूसरे दिन के अख़बार के सांस्कृतिक परिशिष्ट में बहुत विस्तार से यह ख़बर छपी थी कि कैसे कुछ महिलाओं ने कला के माध्यम से महामारी के अवसाद से एक-दूसरे को बाहर निकालकर रचनात्मक गतिविधियों में ख़ुुद को व्यस्त कर लिया. अनीता के हृदय को अपार संतोष मिला. ख़ुद को तनाव-अवसाद से बाहर निकालने के लिए प्रारंभ हुई इस कला यात्रा में आज चालीस से अधिक सहयात्री हो गए हैं.
मांडना के बाद रंजनाजी ने मधुबनी कला सिखाई, तो मधुलिका ने सबको गोंड कला के सुंदर चित्र सिखाए. सुधाजी ने रायपुर में बैठे-बैठे सबको बस्तर की कला से परिचित करवाया, तो नविता ने महाराष्ट्र की वार्ली कला बनवाई. बरसों से जो कला व हुनर उन सभी के भीतर सुप्त पड़ा था, वह अनीता की प्रेरणा से उत्साह से जागृत हो गया था. वे सब अपनी ही कृति को देख आनंदित व आश्चर्यचकित होतीं कि उनके भीतर इतनी कला छुपी हुई थी. शहर के अनेक समाचार पत्रों में उनके इस अनूठे मंच की ख़बरें छपीं.
सालभर में तो सबने इतने चित्र बना लिए, जितने कि वे लोग पूरे जीवन में नहीं बना पाई थीं. महामारी की कैद के अवसादपूर्ण समय का इससे अच्छा सृजनशील उपयोग कोई दूसरा हो ही नहीं सकता था. सबकी मेहनत व उत्साह को देखते हुए अनीता को लगा कि इन चित्रों की प्रदर्शनी लगनी चाहिए, ताकि सबकी मेहनत का फल मिले और समाज तक एक सकारात्मक संदेश पहुंचे. बस, वे लॉकडाउन खुलते ही इस दिशा में प्रयास करने लगीं और दो महीने के अथक परिश्रम से उन्होंने संस्कृति विभाग में बात करके एक कला वीथिका का प्रबंध कर लिया. इस ख़बर ने सभी को हर्षित कर दिया. लीना, मृदुल, कुमकुम, साधना, अर्चना, वर्षा, शशि, श्यामा, नमिता सभी प्रदर्शनी की तैयारी में जुट गईं. घरेलू काम में उलझे हाथों को आज कला के क्षेत्र में नई पहचान मिल रही थी. एक नया आत्मविश्वास मन में लहरा रहा था. प्रदर्शनीवाले दिन सारे शहर में धूम थी इस अनूठे लॉकडाउन आर्ट ग्रुप की, जिसके सदस्यों ने एक-दूसरे को सहारा दिया, एक-दूसरे की कला को निखारा, आपस में ही सबको प्रोत्साहन दिया, मंच दिया और पहचान दी. आज अनीता का कला मंच अपनी अनूठी पहचान के साथ 40 से अधिक चेहरों की मुस्कान में चमकता हुआ अपने शहर को रोशन कर रहा था और लाखों लोगों को सृजन की प्रेरणा दे रहा था. महामारी में ख़ुद को अवसाद के गहरे सागर में डुबोने की बजाय एक-दूसरे का हाथ थाम उन्होंने अनमोल मोती खोज लिए थे सृजन के. उन्होंने साथ मिलकर महामारी के अवसाद को एक अनूठे व अनमोल सृजन के उत्साह में परिवर्तित कर दिया था.
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