"हा… हा… किसका दिल जीतना है… जिसने आपका दिल जीत लिया है."
तड़ाक… मां ने ग़ुस्से से एक तमाचा रसीद कर दिया.
"इतनी बदतमीज़ी! ऐसे तो तुम कभी नहीं थे!"
"आप भी तो ऐसी नहीं थीं." कहकर धैर्य ने आंसू पोंछ लिए और अपना दर्द अपने अंदर समेट चुपचाप जाकर सो गया.
"एडजस्ट करना सीखो, धैर्य!"
"कितना मां..? कितना एडजस्ट करूं… कब तक..! आप नहीं जानतीं आपके पीछे..!" कह चुप्पी साध ली.
"तुम्हें समझना होगा धैर्य..?"
"कब तक? कब तक सब मुझे ही समझना होगा? क्या मुझे कोई कभी नहीं समझेगा?"
"नया माहौल है. तुम बाहर से आए हो. अपनी जगह बनानी पड़ती है. तुम अपने व्यवहार से ही सबका दिल जीत पाओगे."
"हा… हा… किसका दिल जीतना है… जिसने आपका दिल जीत लिया है."
तड़ाक… मां ने ग़ुस्से से एक तमाचा रसीद कर दिया.
"इतनी बदतमीजी! ऐसे तो तुम कभी नहीं थे!"
"आप भी तो ऐसी नहीं थीं." कहकर धैर्य ने आंसू पोंछ लिए और अपना दर्द अपने अंदर समेट चुपचाप जाकर सो गया.
मां के दिल में कसक सी रह गई. बहुत देर तक उसके पास बैठी सिर पर हाथ फेरती रही.
"क्या हो गया रे आजकल तुझे? क्यों ऐसी बातें करने लगा है. माफ़ कर दे. पता नहीं ये हाथ कैसे तुझ पर… तू भी तो कभी ऐसा नहीं था. हमेशा अपनी मां के साथ खड़ा रहा है, तो आज क्या हुआ..?"
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उसे लाड़-लड़ाती न जाने कब नींद के आगोश में चली गई.
"धैर्य, चलो बेटा स्कूल…" जैसे ही पिता ने आवाज़ लगाई. वो बिना किसी भाव के उनके पीछे चल दिया. स्कूल जाने और वापिस घर आने में उसका एक अलग ही व्यवहार नज़र आता.
मां ने कईं बार कोशिश की पिता और बेटे में नज़दीकियां बढ़ें, लेकिन दोनों की तरफ़ से… कोई कोशिश नहीं थी. किससे शिकवा करे.. अंत में धैर्य के व्यवहार से हर बार परेशान हो जाती.
शाम को बच्चे को पढ़ा रही थी कि अचानक किसी मेहमान का आना हुआ.
"बहू, बुआ सास आईं हैं, आओ तुम्हे मिलवा दें."
धैर्य को घुटन भरे कमरे से निकलने का मौक़ा मिला.
"पापा मैं खेलने जाऊं?"
"नहीं! जब तक मेहमान हैं कमरे से बाहर नहीं निकलोगे. चुपचाप बैठकर पढ़ते रहो."
लगभग चार घंटे बाद जब मेहमान गए, तो मां के ग़ुस्से का बांध फूट पड़ा.
"कितनी बार तुझे बाहर आने के लिए आवाज़ दी. आया क्यों नहीं? इतनी बदतमीजी… क्या हो गया है तुझे?.. आखिर चाहता क्या है? कितना और किस भाषा में समझाऊं, इतने अच्छे रिश्ते मिले है उन्हें समेट ले."
धैर्य जोर से हंसा, "रिश्ते..! हा… हा… हा…
किसे मिले है मां… तुम्हें..! तुम यहां की बहू हो, तुम्हें सास-ससुर, पति, रिश्तेदार सब मिले हैं और मुझे… आपके सामने ये मेरे पापा है और जब आप नहीं..!"
"चुप! बिल्कुल चुप हो जा!"
"मैं तो एक माध्यम था आप तक पहुंचने का. अब मेरा क्या काम? यहां किसने मुझे दिल से स्वीकारा होगा! क्या आप कभी समझ पाईं? नहीं..! समझेंगी भी कैसे आप तो इन्हें समझने में लगी रहती हो. मेरा क्या होगा? मेरी तो मां भी खो गई..?" कह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा.
मां स्तब्ध थी अपने इस कदम पर अफ़सोस करे कि…
क्या सच में वो सबकी चाहत पूरी करने में इस कदर व्यस्त हो गई कि कभी ये सोचा ही नहीं कि जिस बच्चे की ख़ुशी, उसके भविष्य का सोचकर दूसरा विवाह कर रही है सही मायनों में आज वो कितना ख़ुश है."
धैर्य ने मां को रोता देखा, तो भाग कर चिपट गया और
आंसू पोंछते हुए बोला, "रो मत मां, पूरी कोशिश करुंंगा तुम्हारे रिश्तों को अपनाने की…" वो उठकर गया, तो पास रखी कॉपी में चार पंक्तियां लिखी थीं-
तोला जब मैंने
तराजू में क़िस्मत को
मां तेरा पलड़ा जल्दी झुक गया
क्या कभी तूने सोचा
ये किस्मत का मारा
पहले से भी अधिक हल्का क्यों हो गया?..
असहाय मां बस मन ही मन यही सोच पाई, 'जीवन एक बार मिलता है और हम भावनाओं में बहकर जल्दबाज़ी में निर्णय ले लेते हैं. क्यों हम नहीं समझ पाते कि किसी के असामान्य व्यवहार के पीछे कई वजह हो सकती है. अकेला रह जाने पर पुनः विवाह का फ़ैसला शायद उचित था, लेकिन यदि बच्चे की वजह से मैंने ये फ़ैसला लिया, तो वो कितना ख़ुश है, उसका भविष्य कितना सुरक्षित है, इसका ध्यान रखना भी तो मेरी ही ज़िम्मेदारी थी.
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सच ही तो कह रहा था घर की बहू के साथ कई रिश्ते स्वतः ही जुड़ जाते हैं. जोड़ना है उस बच्चे को जिसके लिए सब अंजान हैं. आंसू पोंछ मन ही मन संकल्प लिया अपने बच्चे के प्रति सारे फ़र्ज़ निभाऊंगी उसके मन को पढ़ना मेरी ज़िम्मेदारी है किसी और से अपेक्षा कैसी?
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