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लघुकथा- मायका (Short Story- Maayka)

पापा अख़बार के साथ चाय के लिए बहू की राह तकते होंगे. मां को भी अपनी दवा याद रहती भी होगी या नहीं. खैर! जाऊंगी तो मां भी अपने मन का दर्द बांटकर जी हल्का कर लेंगी. आख़िर मां-पापा को बेटी और बहू‌ में फ़र्क़ तो नज़र आ ही गया होगा. पता नहीं कैसे वे लोग एडजस्ट कर रहे होंगे. यह सोचकर उसका मन भारी हो गया था.

मां के हाथों से कंघी लेते हुए सुजाता कुछ दंभ भरे स्वर में बोली, "लाओ मां, मैं तुम्हारे बाल बांध देती हूं." सरला देवी कुछ बोली नहीं, चुपचाप कंघी सुजाता के हाथों में थमा दीं. कुछ देर सुजाता इंतज़ार करती रही कि मां कुछ कहे. कम से कम इतना तो कह ही सकती है,"देखो तो, बेटी आख़िर बेटी होती है. मां के हाथों से कंघी ले ली, लेकिन बहू तो कभी कहती भी नहीं." लेकिन सरला देवी तो कुछ बोली ही नहीं, न बेटी की प्रशंसा न बहू की बुराई.
सुजाता के सब्र का बांध टूट रहा था. उसके मन में बचकानी सोच हिलोरें ले रही थी. वह सोचने लगी, "अभी छह महीने पहले जब उसकी शादी नहीं हुई थी, तो पूरे घर के सदस्यों की ज़ुबान पर उसका ही नाम रहता था. पापा की चाय से लेकर भाई के लंच तक की ज़िम्मेदारी उसी की रहती थी. मांं की थायराॅइड की दवा तो वही याद दिलाती थी. खाने में क्या बनना है इस चिंता से तो मां मुक्त ही रहती थी.


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"जो तेरा जी चाहे बना ले." यही मां का जवाब रहता था. भाई और पापा भी हर काम में उससे सलाह ज़रूर लेते थे.
वह शादी करके ससुराल क्या गई और दो महीने बाद ही भाई की शादी क्या हो गई कि सारे मायने ही बदल गए.
जब वह ससुराल से आ रही थी, तो रास्ते भर सोचते आई थी कि सभी उसकी कमी महसूस कर रहे होंगे. वो जितना सबका ख़्याल रखती थी भला बहू थोड़े ही रखती होगी. पापा अख़बार के साथ चाय के लिए बहू की राह तकते होंगे. मां को भी अपनी दवा याद रहती भी होगी या नहीं. खैर! जाऊंगी तो मां भी अपने मन का दर्द बांटकर जी हल्का कर लेंगी. आख़िर मां-पापा को बेटी और बहू‌ में फ़र्क़ तो नज़र आ ही गया होगा. पता नहीं कैसे वे लोग एडजस्ट कर रहे होंगे. यह सोचकर उसका मन भारी हो गया था.


लेकिन यहां आने पर तो नजारा कुछ और ही दिखा. न पापा के चेहरे पर शिकन, न मां के लबों पर बहू की शिकायतें, न ही भाई के दिलेर स्वभाव में कोई कमी. सबसे बड़ी बात, न तो किसी ने उसकी कमी महसूस होने की बात कही और न ही बहू के किसी अवगुणों की चर्चा.
उसे यह सब बहुत नागवार गुज़र रहा था. आख़िर दुनिया कहती है, "बहू बहू होती है, बेटी, बेटी होती है."    
कंघी करते-करते इन्हीं सब बचकानी सोचों के ज्वार मन में उमड़ते-घुमड़ते. आख़िर लबों से बोल फूट ही पड़े, "देखो तो मां, बहू तो आपको कंघी करते देखकर भी निकल गई. लेकिन मैं आपका बाल बांधने आ गई, न?आख़िर बेटी, बेटी होती है और बहू,बहू होती है."

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सरला देवी उसके हाथों से कंघी लेते हुए बड़े ही सशक्त और दृढ़ स्वर में बोल, "हां, तुम सच कह रही हो. बहू, बहू होती है. जब मैं बीमार पड़ती हूं, तो माथे पर पट्टी रखने बहू ही आती है. दूध का ग्लास लेकर मेरे सामने मेरी बहू ही खड़ी रहती है. तुम्हारे पापा और भाई की हर ज़रूरतों का ध्यान बहू ही रखती है. बेटी अपने घर से आकर हमारा ख़्याल, हमारी सेवा नहीं करती है. अभी तुम्हारे पास कोई काम नहीं है, तो तुम मेरे बाल बांधने आ गई,  क्योंकि सारा काम मेरी बहू संभाल रही है. इसमें भी तुम्हें तकलीफ़ है, तो लाओ,‌ दो कंधी. मैं अपने बाल स्वयं भी बध सकती हूं."
मां का जवाब सुनकर सुजाता हतप्रभ रह गई. वह सोचने लगी- यह कैसा मायका है? न बेटी की प्रशंसा न बहू की बुराई...'

  • रत्ना श्रीवास्तव

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Photo Courtesy: Freepik

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