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कहानी- मकान मालिक (Short Story- Makan Malik)

"... वैसे भी देखा जाए तो किराएदार तो हम सब हैं, कुछ भी सदा के लिए अपना नहीं. ईश्वर जब चाहे तब इस मायारूपी मकान को खाली करा लें, इसलिए मेरा मानना है कि हम सब ऊपर वाले के किराएदार हैं. असल मकान मलिक तो वो है.''

अचानक से बिगड़ी पापा की तबियत के बारे में सुनते ही मैं दिल्ली से अपने घर देवास आ गई थी. पापा फ़िलहाल ठीक थे. हार्ट अटैक आया था. इलाज के बाद वे घर आ चुके थे. मैं उनके बेड के पास लगी कुर्सी पर बैठी उन्हें जूस दे ही रही थी कि मम्मी के चिल्लाने की आवाज़ आई, ''तुम बच्चों से कितनी बार बोला है कि यहां ज़्यादा शोर-शराबा मत किया करो. किराएदार हो तो किरायएदारों की तरह रहा करो.''

उनकी आवाज़ सुनकर मैं बाहर जाने को हुई तो पापा मुझे रोकते हुए बोले, ''बैठी रहो दूर्वा, तुम्हारी मम्मी का तो यह रोज़ का काम है. ऊपर वाले किराएदार के बच्चों को डांट रहीं होगीं. अरे बच्चे हैं तो थोड़ा तो शोर करेगें ही, कौन समझाए तेरी मां को?"

मैं और पापा बात कर ही रहे थे कि अंकित भइया अपनी पत्नी संग पापा से मिलने आ गए. वे हमारे यहां पिछले एक साल से किराए से रह रहे थे. आते ही उन्होंने पापा से बड़े आदर के साथ पूछा, ''अब कैसे हैं अंकल आप! आज शाम को डॉक्टर को यहीं घर पर बुला लिया है, जो भी दिक्क़त हो उनसे बोल दीजिएगा.''

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''तुम लोगों के होते हुए क्या दिक्क़त होगी बेटा! अब तो एकदम बढ़िया हूं.''

आंकित भइया और पापा के बीच होती बातचीत से मैं सन्तुष्ट हो गई. वे कुछ देर बैठे और फिर चले गए. ‌

उनका अच्छा व्यवहार देखकर मैं बोली, ''पापा! किराएदार तो बड़े अच्छे मिले हमें.''

''हां सो तो है, पर तेरी मां को वे बिल्कुल नहीं भाते. हर रोज़ किसी न किसी बात पर उनको फटकारती रहती है. ना जाने मकान मालिकिन होने का कौन सा दंभ लिए घूमती है तेरी मां. वो समझती ही नहीं कि अगर मकान मलिकों को अच्छे किराएदारों की चाह होती है तो किराएदारों को भी अच्छे मकान मालिकों की चाह होती है.''

''सही कहा पापा! आप चिंता मत कीजिए, मैं मम्मी से बात करूंगी.''

बातें करते हुए पापा की आंख लग गई. मैं किचन में जाकर मम्मी का हाथ बंटाते हुए बोली, ''मम्मी, मैं आपको और पापा को दिल्ली ले जाना चाहती हूं. यहां आप लोग अकेले रहते हो, मुझे फ़िक्र होती आप दोनों की.''

''अभी तुम्हारा! नया-नया जॉब है, अभी तुम उस पर ध्यान दो. हम फिर कभी चलेगें. वैसे भी बड़े शहर में हमारा मन नहीं लगेगा.''

हम मां-बेटी बात कर ही रहे थे कि बाहर से पानी गिरने की आवाज़ आई.

''फिर मोटर चलाकर भूल गए ये लोग! आज मैं इन किराएदारों की ठीक से ख़बर लूंगी.'' मम्मी का ग़ुस्सा शांत करने के लिए मैं बोली, ''जान-बूझकर कोई नहीं भूलता मम्मी! आप ग़ुस्सा मत करो, मैं मोटर बंद करके आती हूं.''

''अरे तुम नहीं जानतीं इन लोगों का रोज़ का यही है, मैं तो तुम्हारे पापा से रोज़ कहतीं हूं कि निकालो इन्हें और कोई ढंग के किराएदार रखो.''

''मम्मी, आधी रात को जब पापा की तबियत बिगड़ी थी तो यही आंकित भइया काम आए थे. थोड़ी-बहुत ग़लतियां तो हम सबसे हो जाती हैं, छोटी-छोटी बात पर ऐसे नहीं ग़ुस्सा होते!'' 

 ''दूर्वा तुम उनकी ज़्यादा पैरवी मत करो. उनसे कैसे निपटना है मुझे अच्छे से पता है."

मैं समझ गई कि मम्मी को समझाने का कोई मतलब नहीं है. दूसरे दिन ही मैंने मम्मी-पापा का दिल्ली का टिकट करा लिया. दोनों ने कुछ ना-नुकुर की पर आख़िरकार दोनों कुछ दिनों को मेरे साथ चलने को मान ही गए.

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दिल्ली पहुंचते ही जैसे ही हमारे घर आने की सूचना मेरे पड़ोस में रह रही, मेरी लैंडलॉर्ड आंटी को मिली वे तुरंत मिलने आ गईं. उन्होंने फटाफट अपने घर से चाय-पानी का इंतज़ाम करवाया. पापा-मम्मी से वे बड़ी आत्मीयता से मिलीं.

''दूर्वा! कोई ज़रूरत हो तो बताना.'' कहती हुई वे चली गईं.

उनके जाने के बाद मम्मी बोलीं, ''दूर्वा, तेरी मकान मालकिन तो बहुत अच्छी हैं.''

''ह्म्म्म...'' कहते हुए मैं आगे बोली, ''अच्छा मम्मी मुझे अभी ऑफिस जाना पड़ेगा, शाम को पापा को दिल्ली के एक हार्ट स्पेशलिस्ट डॉक्टर को दिखाना है इसलिए मैं जल्दी वापस आ जाऊंगी. आप किचन में देखकर कुछ बना लेना, वरना मैं खाना ऑर्डर कर दूंगी. ओके बाय मैं निकलती हूं.'' कहती हुई मैं ऑफिस चली गई.

ऑफिस में इतना काम था कि एक बार भी मम्मी को कॉल करने की फ़ूर्सत नहीं मिली. शाम को जब घर लौटी तो पापा-मम्मी आंटी की तारीफ़ों के पुल बांध रहे थे.

पन्द्रह दिन वे दिल्ली में रुके. मैंने उन्हें जितना वक़्त दिया सो दिया, पर मेरी मकान मालकिन आंटी ने उन्हें पूरा वक़्त दिया. देवास जाते हुए मम्मी आंटी से बोलीं, ''बहनजी! दूर्वा यहां आपके सानिध्य में है यह जानकर अब मुझे इसकी बिल्कुल चिंता नहीं है, सच कहूं तो ऐसा पहली बार देखा है कि मकान मलिक आप जैसे भी होते हैं, जो किराएदारों को भी अपना समझते हैं.'' मम्मी की इस बात पर आंटी बोलीं, ''जी, इस बिल्डिंग में मेरे आठ फ्लैट है. सभी में किराएदार रहते हैं, पर मैं किसी को भी किराएदार नहीं समझती. वैसे भी देखा जाए तो किराएदार तो हम सब हैं, कुछ भी सदा के लिए अपना नहीं. ईश्वर जब चाहे तब इस मायारूपी मकान को खाली करा लें, इसलिए मेरा मानना है कि हम सब ऊपर वाले के किराएदार हैं. असल मकान मलिक तो वो है.''

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आंटी की बात सुनकर मम्मी की आंखें तरल हो आईं. धीमे से वे मेरे सिर पर हाथ फेरकर बोलीं, ''दूर्वा! यहां लाकर तुमने मुझे बड़ा पाठ पढ़ा दिया. सच ही तो है हम सब ऊपर वाले के किराएदार हैं और यहां मकान मलिक कोई भी नहीं.''

- पूर्ति खरे

Photo Courtesy: Freepik

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