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कहानी- मामला कुछ यूं है कि… (Short Story- Mamla Kuch Yun Hai Ki…)

“… यह एक मेरे साथ नहीं हुआ है. महिलाओं के साथ सदियों से होता आ रहा है, क्योंकि समाज की चेतना असंतुलित है. प्रमोशन हो न हो, आज मेरा भय ख़त्म हो गया. सी.आर. बिगड़ने का भय था, बिगड़ गया. डी.सी. अधिकतम यही कर सकते हैं. न मेरा निलंबन करा सकते हैं, न तबादला.”
न बौखलाहट, न सियापा, न किसी का चरित्र हनन, न अपशब्द. प्रमुदित उस जांबाज महिला अधिकारी को देखता रह गया.

विक्रय कर अधिकारी दोहा का इस जिले में तीसरा साल है. तबादले या सी.आर. बिगड़ जाने सा माहौल बन चुका है. उसे प्रत्येक तबादले पर नई जगह में नए सिरे से व्यवस्थित होने की मशक्कत करनी पड़ती है. विभागीय लोगों से तालमेल बनाने के जतन करने पड़ते हैं. विभागीय लोगों की अनाधिकार चेष्टा पर लड़ाई लड़नी पड़ती है, परिणाम भुगतने पड़ते हैं. शुरुआती साल में अनपेक्षित फुसफुसाहटों से गुज़रना पड़ता है-

  • शक्ल-सूरत साधारण है, पर त्वचा का रंग साफ़ है…
  • तीस-पैंतीस के बीच की लगती है…
  • त्वचा से उम्र का पता ही नहीं चलता…
  • दफ़्तर में दिनों बाद इत्र की महक सूंघने को मिली है…
    दोहा की कार्य पद्धति अच्छी है. वसूली का लक्ष्य प्रति वर्ष प्राप्त करती है. राजस्व आय में वृद्धि हुई है, लेकिन विभागीय लोग उसकी प्रशासनिक क्षमता, स्वविवेक से किए गए ़फैसलों पर ध्यान न दे उसकी कमनीयता, त्वचा, वस्त्र चयन पर अधिक ध्यान देते हैं.
    वह उन तमाम समस्याओं का सामना करती है, जिनका अधिकांश लड़कियों को करना पड़ता है. हर कोई उसका रहनुमा बनने की फ़िक्र में. अपनी निगहबानी में देखने का आकांक्षी. उसे अकेलापन लगता है. यहां एक भी लेडी प्रैक्टीशनर या लेडी ऑफिसर नहीं है. मात्र एक अधेड़ महिला केशकली है, जो दिवंगत पति के स्थान पर चपरासी नियुक्त हुई है. तीन बड़ी बेटियों के कारण नौकरी सुचारू रहे, इसलिए केशकली पूरा दिन मेज़ से मेज़ तक इस तरह डोलती फिरती है जैसे हर किसी की कृपाकांक्षी बनना उसकी पहली पसंद है.
    दोहा विभाग से उतना ही प्रयोजन रखती है जो अपरिहार्य है. जानती है उसकी इस सतर्कता पर समूचा विभाग प्रमुखतः डी.सी. (सम्भागीय उपायुक्त) खफ़ा रहते हैं. डी.सी. के उचित आदेश-निर्देश पर उनके चैम्बर में जाती है, किंतु उन कारणों पर नहीं जाती जो उसे अधीनस्थ बताने के लिए उत्पन्न किए जाते हैं.
    अपने चैम्बर में केस कर रही थी कि डी.सी. का फोन कॉल आ गया.
    “कॉफी के लिए शुगर क्यूब भेजो. केशरवानीजी बैठे हैं. आप भी कॉफी पीने
    आओ.” दोहा ने अर्दली को पैसे देकर बाज़ार से शुगर क्यूब लाने को कह दिया. अर्दली से ही सामग्री डी.सी. के चैम्बर में भेज दी. सहायक आयुक्त केशरवानी ने डी.सी. की थाह ली, “सर, मैडम आपके आदेश को अनदेखा करती हैं. कॉफी पीने नहीं आईं.”
    डी.सी. ने ठहरे हुए अंदाज़ में कहा, “महिलाएं अदा दिखाती हैं. बाइ दि वे इनका मैरिटल स्टेटस क्या है?”
    “विवाहित हैं, अविवाहित, परित्यक्ता, तलाक़शुदा इसकी पुष्टि नहीं हो पा रही है.”
    “क्यों?”
    “दफ़्तर के लोग व्यक्तिगत जान न लें, इसलिए सेल टैक्स कॉलोनी में आवंटित मकान न लेकर किराए के मकान में रहती हैं.”
    “व्यक्तिगत क्या जानने लायक नहीं है?”
    “मालूम हुआ है अकेले रहती हैं.”
    अकेली महिला को आज़माना चाहिए.
    डी.सी. टाइम-कुटाइम दोहा के मोबाइल पर रिंग करने लगे, “कुछ शासकीय
    जानकारी चाहिए.”
    “दफ़्तर में दे दूंगी सर.”
    वे रहनुमा बनना चाहते हैं.
    यह महाभारत ठान रही है.
    अंज़ाम से गुज़रना होगा.
    वह रात का खाना बना रही थी. सेल फोन पर केशरवानी थे, “मैडम, मोबाइल चेकिंग (ट्रक, टैंपो इत्यादि चलित वाहन का निरीक्षण कर, अनियमितता पाए जाने पर वाहन को हस्तसात किया जाता है) पर जाना हैे. गाड़ी भेज रहा हूं. तुरंत आएं.”
    “पर सर…”
    “गाड़ी भेज रहा हूं.”
    दोहा को मोबाइल चेकिंग में जाना असुविधाजनक लगता है. रात का सन्नाटा, पुरुष टीम के साथ अकेले होने का बोध, ट्रक चालकों के सख्त हाव-भाव देख कर नसें कांपती हैं, लेकिन कर्तव्य करना पड़ता है.
    दोहा को लेकर जीप केशरवानी के घर पहुंची. चार इंस्पेक्टर वहां मौजूद थे. जीप में आगे की सीट पर दोहा बैठी थी. केशरवानी ने आपत्ति की, “मैडम पीछे…”

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“सर, यदि आप पीछे…”
“मैं आपका सीनियर हूं.”
“जी सर, मैं अकेली महिला…”
“आप तो कहती हैं आपको महिला नहीं अधिकारी के रूप में देखा जाए.”
“देखते नहीं हैं…”
द्वंद सुनकर चालक और इंस्पेक्टर श्रीपद निरपेक्ष दिखे. दोहा की समीपता की तमन्ना रखनेवाले बाकी दो इंस्पेक्टर कल विभाग में पूरा प्रसंग बताकर माहौल को मुदित करेंगे.
केशरवानी से आग्रह कर उपहास की पात्र बनेगी या दया की या चित्तरंजन की.
दोहा पीछे बैठ गई. दोहा के पास श्रीपद बैठा, दूसरी सीट में दो इंस्पेक्टर बैठ गए. श्रीपद ख़ुद को भरसक साधे हुए था कि जीर्ण जर्जर सड़क के झोल-झटकों में उसकी वजह से मैडम को दख़ल न हो.
पिछली बार दोहा की सीट पर बैठा इंस्पेक्टर शर्मा झोल-झटकों का लाभ ले उसके ऊपर लदा जा रहा था. श्रीपद ने ताड़ लिया था, “शर्माजी, ठीक से बैठो.”
शर्मा बेअसर बना रहा, “सड़क ठीक से बैठने नहीं दे रही है.”
दोहा के लिए यह दुरूह स्थिति होती है. वह पुरुषों के भेद नहीं समझ पाती. श्रीपद युवा है, लेकिन नेक है. जबकि पिता की उम्र के डी.सी. केशरवानी लोलुप जान पड़ते हैं.
टोह लेती जीप अंधेरी सड़क पर गति कर रही है. ट्रक नहीं मिल रहे हैं. ट्रक चालकों को सम्पर्क सूत्र से चेकिंग की ख़बर हो जाती है. वे ट्रक को सुरक्षित जगह पर खड़ा कर देते हैं.
रातभर की कड़ी मेहनत के बाद फली दाना, सुपारी, सोंठ आदि किराना आइटम से लदे तीन ट्रक पकड़े जा सके. अग्रिम कर के रूप में आठ लाख रुपया जमा हुआ.
दोहा सुबह चार बजे घर पहुंची. विक्रय कर विभाग ने दिन का चैन, रातों की नींद छीन ली है. नींद नहीं आनी थी. पति निष्काम की याद आ गई. दोनों अध्यापक थे. दोनों ने एक साथ पी.एस.सी. दी. निष्काम विफल रहा, दोहा सफल हो गई. यह दोहा का दोष नहीं था. निष्काम ने दोष की तरह देखा. उसके मेल ईगो ने सरल जीवन को कठिन बना दिया. घर में उत्पात करता.
“फिर तबादला. जब से पदाधिकारी बनी हो, तबादले ही देख रहा हूं.”
“दुख होता है. दफ़्तर में पुरुष वर्ग मुझे अधिकारी नहीं महिला की तरह देखता है. घर में तुम पत्नी नहीं, अधिकारी की तरह देखने लगे हो. बता दो क्या करूं? तबादला क्या मैं ख़ुद कराती हूं?”
“मुझे संगिनी चाहिए. तुम्हारे तबादलों ने घर को घर नहीं रहने दिया.”
निष्काम ने संगिनी की चाहत में साथ की एक परित्यक्ता अध्यापिका की संगत पकड़ ली. संगत ने ऐसा ज़ोर दिखाया कि निष्काम ने दोहा से तलाक़ लेने के लिए अदालत में अर्ज़ी लगा रखी है.
दोहा रातभर सो न सकी, पर दफ़्तर ठीक व़क्त पर पहुंच गई. उसके चैम्बर में कर सलाहकार प्रमुदित केस करा रहा था. स्थानीय अख़बार का ढीठ पत्रकार धमक पड़ा, “मैडम मोबाइल चेकिंग की क्या प्रगति रही? केशरवानीजी ने कहा है आपसे इंफॉर्मेशन लेकर न्यूज़ बना लूं.”
“केस चल रहा है. बाद में आएं.”
पत्रकार कुर्सी खींच कर बैठ गया, “मैडम, पांच मिनट का समय लूंगा. कुछ उल्टा-सीधा छाप दिया, तो विभाग की छवि ख़राब होगी.”
“अभी केस चल रहा है. बाहर बैठें.”
पत्रकार उसे भर नज़र देखते हुए चला गया. प्रमुदित ने देखा, दोहा के मुख पर सताए जाने का भाव है. उसे वह निरीह जान पड़ी. प्रमुदित अब दोहा की कार्यक्षमता और ईमानदारी का प्रशंसक है. आरंभ में इसके साथ सामंजस्य नहीं बैठा रहा था. ऐसे क़ानूनी और तकनीकी बिंदु ढूंढ़ लाता था कि वह समझ न पाती थी प्रकरण में कर की छूट दी जानी चाहिए या नहीं. दी जानी चाहिए, तो कितनी.

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वरिष्ठ अधिकारियों से चर्चा करती, तो कौतुक भरा सुझाव आता, “मैडम आप तो बस ख़ुश रहो, हम फैसला लिख देंगे.” वह निस्पृह दिखती, तो कहा जाता, “हमसे क्यों पूछती हो? स्वविवेक से काम लो.” स्थिति का लाभ उठाते हुए प्रमुदित चुनौती देता, “मैडम, आप पैनाल्टी लगा दें. मैं मुद्रा देकर ऊपर से माफ़ करा लूंगा. चाहें तो मुद्रा लेकर आप ही पैनाल्टी छोड़ दीजिए. अधिकारी वकीलों से सहयोग बना कर चलें, तो काम आसान हो जाता है. सभी ऑफिसर्स यही करते हैं.”
विभाग के सर्वाधिक सफल और सक्रिय कर सलाहकार प्रमुदित के अहंकार को दोहा समझने लगी. लेकिन परख लिया यह अपने मुवक्किल को लाभ पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध ज़रूर है, पर उसे महिला समझ कर घुसपैठ का प्रयास बिल्कुल नहीं करता है. कई मौक़ों पर संकट मोचक की तरह सावधान करता है कि कहां, कब, किससे सावधान रहना है. परिणामत: प्रमुदित पर भरोसा न करते-करते करने लगी है. पत्रकार के जाते ही बोली, “यह पत्रकार अक्सर दखल देने चला आता है. हम क्या पत्रकारों के लिए काम करते हैं.”
“डी.सी. ने पूल बना रखा है मैडम. सभी अधिकारी तीन हज़ार रुपए मंथली देते हैं. उसी में पत्रकारों को कुछ दिया जाता है कि विभाग की अच्छी न्यूज़ बनाएं.”
“मैं पूल में पैसा नहीं देती.”
“तभी डी.सी. आपसे खफ़ा हैं.”
“डी.सी. को वसूली के लक्ष्य पर ध्यान देना चाहिए. सालभर मुद्रा के खेल में उलझे रहेंगे. फिर अचानक अंधाधुंध छापे, मोबाइल चेकिंग, दुकानदारों से वसूली, फैक्टरियों, कंपनियों से प्रार्थना कि पैसा जमा करो. टारगेट पूरा करना है.”
“आप जैसे ईमानदार अधिकारी बहुत कम हैं मैडम.”
“ईमानदारी से काम करती हूं, फिर भी डी.सी. की हिट लिस्ट में हूं.”
“आप सचमुच हिट लिस्ट में हैं. डी.सी. अपने सहायक आयुक्त देशपांडे से अक्सर कहते हैं कि मैडम के चैम्बर का इन्सपेक्शन कर डालो. देशपांडे कहते हैं- मैडम का काम व्यवस्थित है. अनियमितता नहीं पाई जाएगी.” यह भेद प्रमुदित के कंठ तक आया जिसे उदर में ढकेलते हुए बोला, “ईमानदारी की अपनी एक सज़ा होती है.”
“सज़ा कहें या क्या कहें?”
सायं काल दोहा के सेल पर डी.सी. ने कॉल किया, “होटल स्वागत का केस आपके पास है न?”
“येस सर.”
“मेहमान आए हैं. स्वागत को कॉल करो. चार लोगों के लिए डिनर बंगले पर भेज दे.”
“ठीक है सर.”
डी.सी. यह काम इंस्पेक्टर अस्थाना से कह सकते थे, लेकिन उसे असमंजस में डाल दिया. होटल मैनेजर से खाने के लिए कहना उसे तुच्छ हरकत लग रही थी. उसने प्रमुदित के मोबाइल पर कॉल किया, “होटल स्वागत आपका क्लाइंट है. डी.सी. बंगले में चार लोगों के लिए डिनर भेजने को कह दें.”
“ठीक है मैडम.”
दूसरे दिन डी.सी. के चैम्बर में केस कराते हुए प्रमुदित ने औपचारिक पूछ लिया, “स्वागत का खाना कैसा था सर?”
“खाना..?”
“मैनेजर कह रहा था स्पेशल भेजेगा.”
“आपसे कह रहा था?”
“हां, मैंने खाना भेजने के लिए कहा था.”
“मैडम ने आप पर भार डाल दिया. महिला में अधीनस्थ भाव का अभाव है.”
“ऐसा नहीं है सर.”
⁛फैसले ख़ुद लिखती है या आप मदद करते हैं? महिलाएं इतना व्यवस्थित काम नहीं कर सकतीं.”
“मैडम काम अच्छा करती हैं, बस आपसे सौमनस्यता नहीं बढ़ातीं. यदि आप अपनी विवाहिता बेटी की उम्र की अधिकारी से प्रमोद काल जैसी मंशा रखना चाहते हैं, तो निर्लज्ज हैं. रिटायरमेंट की जद में हैं. ऐसी मंशा शोभा नहीं देती.” यह भाव प्रमुदित के कंठ तक आया, जिसे उदर में ढकेलते हुए बोला, “मैडम काम के प्रति सजग हैं.”
सजगता का अर्थ समझाने के लिए डी.सी. ने दोहा को चैम्बर में बुलाया, “मैडम आप सामंजस्य बनाना सीखो. अधिकारियों से नाराज़गी, पत्रकारों से लड़ाई, वकीलों से असहयोग. अब गल्ला व्यापारियों पर एक्शन. आज का अख़बार पढ़ा? लिखा है कर अपवंचन को रोकने के लिए चलाए जा रहे विशेष अभियान के अंतर्गत गल्ला व्यापारियों से कारोबार का विवरण मांगा. उन्होंने नहीं दिया. कृषि उपज मंडी से सोयाबीन की आवक का विवरण मांगा, नहीं दिया गया. आपने तीसरे तरी़के का उपयोग कर गल्ला व्यापारियों के बैंक खाते सीज करा दिए.”
“आपका आदेश है रिकवरी में तेज़ी लाई जाए.”
“जो लोग रिटर्न और कर जमा कर रहे हैं उन्हें रिकवरी के नाम पर क्यों सताती हो?”
“सर, मैं सही तरी़के…”
“सुनती रहो. लिखा है संवाददाता ने वस्तुस्थिति जानने के लिए आपसे संपर्क किया. आपने कुछ भी बताने से मना कर दिया.”
“मीडिया को स्पष्टीकरण देना ज़रूरी नहीं है.”
“आपके नकारात्मक व्यवहार के कारण पत्रकार हमारे विभाग की छवि ख़राब करें, यह अच्छी बात नहीं है.”
“पत्रकार विभाग से पैसे ऐंठे, छवि भी ख़राब करें, यह सचमुच अच्छी बात नहीं है.”
डी.सी. के व्यवहार से दोहा दिनभर खिन्न रही.
मोबाइल चेकिंग ने खिन्नता बढ़ा दी. केशरवानी से स्पष्ट बोली, “सर, मैं आगे बैठूंगी.” “चलिए, आज मैं पीछे बैठ कर देखता हूं कि क्या परेशानी होती है. अस्थाना आप आगे बैठो. आइए मैडम पीछे.”
“सर मुझे समस्या होती है.”
“पुरुषों को अछूत मानकर चलेंगी, तो कैसे होगा? अस्थाना, मैडम के लिए जगह बनाओ.”
खिन्नता है या दृढ़ता, “पीछे नहीं बैठूंगी.”
“डी.सी. साहब को अवगत कराना पड़ेगा.”
“आप स्वतंत्र हैं.”
स्पष्ट होता जा रहा है वह लेडी ऑफिसर है, इसलिए टारगेट की जा रही है.
मानसिक-मनोवैज्ञानिक प्रताड़ना का परावर्तन था या आकस्मिक-सामयिक आचरण-व्यवहार स्तब्ध लोगों ने देखा दोहा पैदल अपने घर की ओर चली जा रही है.
पराजित केशरवानी ने हक्का-बक्का हुए इंस्पेक्टरों को देखा. समझ न सके वे लोग दोहा के हौसले को सराह रहे हैं अथवा उनके पतन पर पुलक रहे हैं. अस्फुट सा बुदबुदाए, “वाहन में आगे बैठने जैसी क्षुद्र बात… उफ़! डी.सी. साहब को अवगत कराना पड़ेगा.”
डी.सी. अवगत हुए.
दोहा को चैम्बर में बुलाया, “मैडम आपसे कोई ख़ुश नहीं है.”
“क्या हुआ सर?”
“वाहन में आगे न बैठने दिया जाए, तो आप डयूटी नहीं करती हो.”
“पीछे बैठने में असुविधा होती है.”
“हम आपसे अपना व्यक्तिगत काम नहीं कराते हैं. कर्तव्य करो, वरना अनुशासनात्मक कार्यवाही हो सकती है.”
“सर, मैं अपना कर्तव्य…”
“प्रतिवाद नहीं. वाहन में आगे बैठने की ज़िद पकड़ती हो. पत्रकारों को भगा देती हो. व्यापारियों को आतंकित करती हो. वकील कहते हैं केस बिगाड़ देने की धमकी देकर हैरासमेंट करती हो. जूनियर वकील कहते हैं मैडम से न्याय मिलने की उम्मीद नहीं है. दुकानदार कहते हैं बकाया वसूली को लेकर भय का वातावरण बनाती हो. टीम के साथ अचानक पहुंच कर प्रतिष्ठान में ताला डलवाने, संपत्ति कुर्क करने की धमकी देती हो.”
“तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर आप तक पहुंचाया जा रहा है.”
“प्रतिवाद नहीं. आप व्यापारियों से नम्रता बरतो, वरना व्यापारी संघ की आवाज़ को रोकना मुश्किल होगा. ज्ञापन, घेराव, धरना प्रदर्शन, बाज़ार बंद. ये लोग किसी भी सीमा तक जा सकते हैं.”
“ये लोग किसी भी सीमा तक न जाएं, इसलिए ज़रूरी हो चला है विभाग के लोग मुद्रा लेकर सही को ग़लत, ग़लत को सही करने से बाज आएं.”
लड़ाई दृश्य पर आने को है, तो अब वह परिणाम की फ़िक्र नहीं करेगी.
“बहुत तेज़ी दिखाती हो. क्या उम्र है आपकी?”
“आप, केशरवानी सर, देशपांडे सर, अस्थाना सर मेरे लिए फादर फिगर हैं. उम्र का अनुमान लगा लीजिए.”
फादर फिगर…


डी.सी. अवाक हुए. फिर अशक्त पड़ गए. जैसे चोरी पकड़ी गई है.
विभाग ख़बरों का गढ़ बन गया.

डी.सी. और मैडम में ठन गई है.

दो अधिकारियों की इतनी लम्बी लड़ाई अब तक नहीं देखी.

अकेली महिला को अकारण सताया जा रहा है.

साहसी है. केशरवानी ने ट्रक चालक को मां की गाली देकर रोका, तो कहती है असंसदीय भाषा का प्रयोग न करें. मैं शासन को लिखूंगी.

अफसरों को प्रसन्न रखे बिना मोक्ष नहीं मिलेगा.

प्रमोशन ड्यू है. सी. आर. बिगड़ गया तो बंटाधार.
सी.आर. बिगाड़ दिया गया.
उत्कृष्ट लिखा जाना चाहिए था.
घटिया लिखा गया.
लंबित प्रकरणों के निपटारे के द्वारा कालावरोधित प्रकरणों के अलावा आगे के वर्षों का निरवर्तन किया गया, लेकिन सी. आर. में लिखा गया प्रकरणों के निराकरण में बदनियती के साथ शीघ्रता की गई. 
उसने वसूली का लक्ष्य प्राप्त किया, पूर्व वर्ष की तुलना में राजस्व आय में दस प्रतिशत वृद्धि हुई, लेकिन लिखा गया अधीनस्थ भाव का अभाव है. निष्ठा संदिग्ध है.
सी.आर. के सभी प्वॉइंट्स में घटिया लिखा गया.
जो लोग दोहा को लेकर तरंग में रहते थे, जो लोग दोहा को लेकर द्रवीभूत रहते थे, वे सभी लोग समान रूप से उसके सी.आर. को लेकर हैरानी, बल्कि अन्याय होने की पीड़ा से गुज़रे.
प्रमुदित, दोहा के चैम्बर में इस तरह झिझकते हुए गया जैसे गुनाहगारों में सम्मिलित है. दोहा ख़ुद को साधे हुए थी, “आज जद्दोज़ेहद ख़त्म हो गई.”
“आपका प्रमोशन ड्यू है मैडम.”
“जिनका कैरेक्टर घटिया है, वे मेरे कैरेक्टर रोल में लिख रहे हैं घटिया. जो ख़ुद नैतिक नहीं हैं, लिखते हैं निष्ठा संदिग्ध है. जो ख़ुद दुर्भावना से भरे हैं लिखते हैं अधीनस्थ भाव का अभाव है. यह एक मेरे साथ नहीं हुआ है. महिलाओं के साथ सदियों से होता आ रहा है, क्योंकि समाज की चेतना असंतुलित है. प्रमोशन हो न हो, आज मेरा भय ख़त्म हो गया. सी.आर. बिगड़ने का भय था, बिगड़ गया. डी.सी. अधिकतम यही कर सकते हैं. न मेरा निलंबन करा सकते हैं, न तबादला.”
न बौखलाहट, न सियापा, न किसी का चरित्र हनन, न अपशब्द. प्रमुदित उस जांबाज महिला अधिकारी को देखता रह गया.
“सिस्टम से अलग यह जो पैरेलल सिस्टम बन गया है, इससे आप अकेली नहीं लड़ सकेंगी.”
“व्यवस्था स्थिति को नियंत्रित रखने के लिए है. व्यवस्था स्थिति को अनियंत्रित करने लगे, तो जानिए हम पतन की ओर जा रहे हैं. यदि शासन को लिख दूं महिला समझ कर मुझे परेशान किया जा रहा है, तो डी.सी. की रुह फना हो जाएगी. मी टू का ज़माना है. कुछ भी बोल दो, सच मान लिया जाता है, पर मैं ऐसा नहीं करूंगी.”
“यह निलंबन पर आपकी प्रतिक्रिया है?”
“तथ्य बता रही हूं. प्रतिक्रया फिर कभी दूंगी.”
दोहा ने प्रतिक्रया दी.

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शनिवार को सबने देखा दोहा कुछ कार्ड्स लिए हुए डी.सी., केशरवानी, देशपांडे, अस्थाना आदि के कक्ष में गई है. कयास लगाए गए. न पहली जनवरी है, न दीपावली, इसलिए ये शुभकामना कार्ड नहीं होंगे. दोहा की संतान नहीं है, न ही अन्य मौक़ा समझ में आ रहा है, इसलिए आमंत्रण पत्र नहीं हो सकते.
माजरा क्या है?
माजरे को छिपाने की कोशिश हुई, पर विभाग को ख़बर हो गई. कार्ड्स में सुंदर लिपि में लिखा था- हैप्पी फादर्स डे!
आजकल दिवस मनाने का चलन चल पड़ा है. जून माह का तीसरा रविवार दरअसल फादर्स डे कहलाता है. रविवार को दफ़्तर बंद रहता है, अत: दोहा ने एक दिन पूर्व शनिवार को अपनी प्रतिक्रिया दे दी.

सुषमा मुनीन्द्र

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