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लघुकथा- मानसिकता (Short Story- Manasikta)

पता नहीं, उसकी मानसिकता सही है या मैं सही हूं. एक मैं हूं जब बच्चे छोटे थे, तब भी घर में उलझी रहती थी. बच्चे बड़े हुए, शादीशुदा हुए, अभी भी मैं परिवार के सदस्यों के बारे में ही सोचती हूं.

"सुषमा किटी पार्टी में समय से आ जाना. तेरे हमेशा बहाने तैयार होते हैं. कभी तुझे सास को खाना देना होता है, कभी तुझे बेटे का प्रोजेक्ट वर्क करना होता है, तू तो ज़िम्मेदारियों में उलझी रहती है… यदि महीने में एक दिन तेरे सास-ससुर या बेटा ठंडा खाना खा लेंगे, तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा. अरे, कभी अपने लिए भी सोचा कर, तू भी लाइफ को एंजॉय करना सीख."
"मालिनी, तू चिंता मत कर, मैं समय से पहुंच जाऊंगी." कह कर मैंने फोन रख दिया.
लेकिन मैं अपनी सोच को बदल नहीं पाई. जब तक मैं घर की सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा ना करूं, घर से बाहर नहीं निकल पाती.


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समय बीतता गया. हम दोनों सहेलियों के बच्चे बड़े हो गए. मालिनी तो पहले भी फ्री थी और आज भी जब बच्चे बड़े हो गए हैं, शादीशुदा हो गए हैं. उसके पास कभी कोई बच्चा मिलने नहीं आता, लेकिन वह कभी अफ़सोस भी नहीं करती.
पता नहीं, उसकी मानसिकता सही है या मैं सही हूं. एक मैं हूं जब बच्चे छोटे थे, तब भी घर में उलझी रहती थी. बच्चे बड़े हुए, शादीशुदा हुए, अभी भी मैं परिवार के सदस्यों के बारे में ही सोचती हूं.
हर त्योहार पर, दुख-सुख में मेरे बच्चे घर आते हैं. हम मिल-जुलकर त्योहार मनाते हैं. मेरी पोती दादी… दादी… कहते थकती नहीं है. मुझे घर में ही उलझ कर ख़ुशी मिलती है. संतुष्टि मिलती है कि मैं परिवार को जोड़ पाई.
बच्चे मेरी भावनाओं को समझते हैं.


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शायद मेरे सास-ससुर का आशीर्वाद मेरे साथ है. यही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है. मेरे द्वारा बच्चों में रोपित किए हुए संस्कार हैं. सोचती हूं, स्वर्ग और कहीं नहीं है, अपना परिवार ही धरती पर स्वर्ग है.

- रेखा सिंघल

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Photo Courtesy: Freepik

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