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कहानी- मन की रसीद (Short Story- Mann Ki Rasid)

"अच्छा… इतनी ईमानदारी!" पूंजीलाल का मन बेचैन हो गया. वो सारी रात सो न सके. एक गरीब औरत, जो शराबी पति से परेशान थी. जिसकी रोज़ की आमदनी का पता नहीं, लेकिन पेट रोज़ ही भरना था, वो कितनी साफ़-सुथरी निकली. वे ग़मगीन हो ख़ुद की फ़ितरत को कोस रहे थे.

उमड़ती हुई भीड़ से हटकर चलते हुए पूंजीलाल जी ने अपने दोनों हाथों को कुरते की जेब में डालकर नोटों के सही सलामत होने पर सुकून की सांस ली और सुरक्षित रहने के लिए एक गली से होकर आगे मैदान की तरफ़ और कम भीड़ वाली जगह से चलत-चलते सोचने लगे.
अजीब हाल हो गया है इस कस्बे का. जब वो छोटे थे, तब एक छोर से दूसरे छोर को देखना कितना आसान था. एक रामलीला मैदान था. उसी मे शीतकालीन खेल होते थे और बरसात के बाद पहले जनमाष्टमी की झांकी और फिर स्वयं सहायता समूह का मेला लगता था. अब एक मैदान और बन गया है. कस्बे के बिल्कुल दक्षिण की तरफ़, वहां तो अलग ही काम होते हैं. निजी कंपनियां अलग ही खेल-तमाशा करती हैं. सोचते-सोचते वे नया बाज़ार से होकर गुज़रने लगे. तभी एक महिला गुलाब का गुच्छा थामे एकदम सामने ही आ गई.
"ख़रीद लो ना. आज बोहनी तक नहीं हुई है."
ये अजीब नाटक है. वो कसमसा कर रह गए, पर कहते क्या. तब ही कहते ना जब बोलने का अवसर मिल पाता. उनकी हालत ही अजीब हो रही थी. न वो फूल ख़रीदना चाहते थे, न उसके सामने इस तरह बहस करने के इच्छुक थे. उनको उससे कोई लेना-देना था भी नहीं. अपनी दुकान तक पहुंचना था, मगर वो अपने सारे तरीक़े आज़मा रही थी.
"दस का ही तो एक ताज़ा गुलाब है. पूरा गुच्छा एक सौ पचास का ले लो. बीस गुलाब हैं और चमकीली पत्ती भी. ये गुलाब तो दो-तीन दिन तक ताज़ा रहेंगे."
वो झुझला रहे थे यह सोचकर कि अब हमारे इस कस्बे ने भी शहर की नक्शेबाज़ी सीख ली है. नया साल हो या बसंत पंचमी, होली हो या दीपावली, राखी हो या नवरात्री… ये गुलाब के गुच्छ बनाकर बेचने आ ही जाते हैं. इनको न कोई कोर्स करना होता है, न कोई डिप्लोमा. ये अपनी दुकान चलाना और अपना माल बेचना ख़ूब जानते हैं.
कुछ न हो, तो शक्ल बिगाड़ कर भीख ही मांगने लगेंगे. सब सीख लिया है. अजीब हैं ये बेकार लोग. वो यही सोच रहे थे कि उन्होंने अपना सिर झटका और तभी उनको याद आया कि आज तो ख़ास दिन है. आज उनके पड़ोसी का जन्मदिन है. उनके पड़ोसी तीस साल से उनके पक्के ग्राहक भी हैं. इसी से एक गुच्छा ले लेता हूं. अब उनका कारोबारी दिमाग़ चलने लगा था.

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"ओह, अब सही दाम लगा तो ख़रीद भी लूं."
"बोला ना दस का एक गुलाब."
"ला तो यह गुच्छा ही दे दे. सौ रुपए दे रहा हूं."
जेब में देखा, तो अभी विद्यालय से नगद भुगतान लाए थे. वो सब पांच सौ रुपए के नोट थे.
"ले, चार सौ वापस दे."
"अच्छा, ये गुच्छा रखो."
एक अख़बार में लपेट कर वो गुच्छा थमाती महिला ने, "ऐसे, सीधा पकड़ों."
यह कहकर, टेढी-सी नज़र से उस महिला ने किसी को देखा और वहांं से सरपट भाग गई.
"अरे, मेरे रुपए…" वो चीख रहे थे. पर महिला का कुछ अता-पता तक नहीं था. तभी उनका मोबाइल फोन बज उठा.
वो फोन नहीं उठाते, मगर प्रधानाचार्या जी का था.
"आपको याद दिला दे कि कल आकर अतिरिक्त भुगतान लीजिएगा और हमें दो सौ जोड़ी जूते भिजवा दीजिएगा."
"जी, जी हां… मै कल ख़ुद ही लेकर आता हूं." कहकर वो सामान्य आवाज़ में फोन का जवाब देते रहे और जब फोन कट गया, तो वो इधर-उधर जाकर उस महिला को खोजने लगे. साइकिल, रिक्शे, टैंपो, बस, ट्रैक्टर, पैदल यात्री, ठेले वाले सब दिखाई दे रहे थे, बस उस महिला का अता-पता तक नहीं था.
वे मन मसोसकर दुकान पहुंच गए. नकद रुपए वहां बैठे पुत्र को सौंप दिए.
"ख़राब पड़े दो सौ जोड़ी जूते भिजवा देना. कल स्कूल में सप्लाई करने हैं…" ऐसा कहकर वे घर चल दिए. सबसे पहले अपने पड़ोसी मित्र को गुलाब का गुच्छा भेंट किया और जन्मदिन की बधाई दी. सेवानिवृत्त मित्र बगीचे में आनंद से अपने पालतू कुत्ते के संग बॉल खेल रहे थे.
शाम से पहले वो एक चक्कर दुकान का लगाने फिर चल दिए. इन दिनों छाते, झोला, जूते आदि का काम बेटा ही देखता है, पर सरकारी संस्थानों और स्कूल की सप्लाई वे ही करते हैं. आज भी वे ख़ुश थे कि सुबह-सुबह दो सौ बरसाती जूतों का नगद भुगतान मिला था. वे तो अधिक मुनाफ़े में सस्ती बरसाती बेच आए और अब दो सौ जोड़ी जूते का ऑर्डर भी मिल गया था. यह सब वे ही देखते थे, पर आज उनको ख़ुशी कम, दुख अधिक हो रहा था. चार सौ रुपए का नुक़सान.
वे चलते हुए दुकान पहुंच गए, तो बेटा बोला, "ये आपके चार सौ रुपए हैं. अभी एक महिला दे गई है. उसने आपका पीछा किया, पर उसका शराबी पति नोट छीनने आ रहा था, इसलिए वो छिपकर दूसरे रास्ते से आपको चार सौ रुपए देने आ रही थी. पर दुकान पहुंच कर आप उसे फिर नहीं दिखे, इसलिए मुझे दे गई है."
"अच्छा… इतनी ईमानदारी!" पूंजीलाल का मन बेचैन हो गया. वो सारी रात सो न सके. एक गरीब औरत, जो शराबी पति से परेशान थी. जिसकी रोज़ की आमदनी का पता नहीं, लेकिन पेट रोज़ ही भरना था, वो कितनी साफ़-सुथरी निकली. वे ग़मगीन हो ख़ुद की फ़ितरत को कोस रहे थे.
अगले दिन वो ख़ुद दो सौ जोड़ी जूते एकदम नए छांटकर, पैक करवाकर स्कूल ले गए.
"आपका आज का भुगतान ले लीजिए."
"जी, ले लिया है और यह लीजिए."
"अरे, यह क्या है?"
"यह नकद दस हैं. आप मेरी ओर से बच्चों को नाश्ता खिला दीजिए." "जी अच्छा, यह बहुत मदद की आपने. आप तो जानते हैं कि सारे ही दो सौ बच्चे अनाथ हैं. और इनका सब ख़र्च दान दाता ही उठाते हैं."

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"जी, ये पांच हज़ार और लीजिए."
"जी शुक्रिया, आप इसकी रसीद..?"
" जी बिल्कुल नहीं. मन की रसीद बहुत है. नमस्कार…" कहकर पूंजीलाल जी उठे और चले गए.

- हरीशचंद्र पांडे

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