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कहानी- मंथन मातृभक्ति का… (Short Story- Manthan Matrbhakti Ka…)

मेरी मम्मी, दादी और भाभी कितनी भाग्यशाली हैं कि वे ऐसे परिवार में हैं, जहां महिलाओं को कितना मान-सम्मान दिया जाता है. पापा मम्मी को कितना प्यार करते हैं. हर बात या निर्णय में मम्मी को बराबर का स्थान मिलता है. और दादी, दादी तो उनसे भी बढ़कर दादा को प्यारी हैं. दादा तो दादी को आप ही कहते हैं. पत्नी तो पति को आप कहती है, पर पति तो पत्नी को तुम ही कहता है, पर दादा तो दादी को साक्षात देवी मानते हैं. लेकिन दादी रोज़ काली कमली क्यों ओढ़े रहती हैं, यह सुमन कभी नहीं जान पाई.

पति उमेश द्वारा गाल पर मारे गए तमाचे की आवाज़ सुमन को किसी दूर स्कूल की तालियों की गड़गड़ाहट की तरह लगती थी. सुमन जब तीसरे दर्जे में पढ़ती थी, तब स्कूल में सुबह होनेवाली प्रार्थना में दादा द्वारा सिखाए गए संस्कृत के श्लोक 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते… ' गाती तब उस तमाचे जैसी ही आवाज़ करती तालियां बजती थीं. यह आवाज उसे उत्साहित करती थी. सात साल की गुड़िया जैसी सुमन बहुत ख़ुश होती थी.
और आज एक नारी के रूप में मान-सम्मान की कौन कहे, पति उमेश की ओर से उसे आदर भी नहीं मिलता था. दादाजी ने बचपन में उसे जो मूल्य सिखाए थे कि 'स्त्री तो लक्ष्मी है, स्त्री तो देवी होती है, स्त्री के समान कोई रत्न नहीं है', वह सब सुमन की ससुराल में बेकार थे.
सुमन का पालन-पोषण गांव में हुआ था. उसके परिवार में मां-बाप, एक भाई और दादा-दादी थे. सुमन और उसके भाई को पूजा-पाठ करना, मंत्र कंठस्थ करके गाना, धार्मिक पुस्तकें पढ़ना, यह सब दादाजी ने बचपन से ही सिखाया था, इसलिए भाई-बहन को भक्ति में गहरी रुचि थी.
जबकि ससुराल में इसका एकदम उल्टा था. यहां सुबह दादाजी की तरह कोई पूजा-पाठ या धूप-अगरबत्ती नहीं करता था. कोई सुबह उठकर मां की तरह धीमे-धीमे गायत्री मंत्र गाते हुए रसोई में काम भी नहीं करता था. दादी की तरह काली कमली ओढ़ कर माला भी नहीं फेरता था. भाई अशोक की तरह दादा-दादी और मम्मी-पापा के चरण स्पर्श करके शास्त्रीय संगीत का अभ्यास नहीं भी करता था. यह सब सुमन को बड़ा अजीब लगता था.
उमेश जब भी सुमन को कुछ कहता, सुमन यही सोचती कि उसका कैसा विवेकी और धार्मिक परिवार है और उसका कैसा ख़राब नसीब था कि वह इस परिवार में आ गई.


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फोन की घंटी बजी. सुमन ने फोन उठाया, तो दूसरी ओर अशोक की होनेवाली पत्नी थी आशा भाभी. उससे थोड़ी देर बातें करके फोन कटा, तो वह फिर सोचने लगी- 'मेरी मम्मी, दादी और भाभी कितनी भाग्यशाली हैं कि वे ऐसे परिवार में हैं, जहां महिलाओं को कितना मान-सम्मान दिया जाता है. पापा मम्मी को कितना प्यार करते हैं. हर बात या निर्णय में मम्मी को बराबर का स्थान मिलता है. और दादी, दादी तो उनसे भी बढ़कर दादा को प्यारी हैं. दादा तो दादी को आप ही कहते हैं. पत्नी तो पति को आप कहती है, पर पति तो पत्नी को तुम ही कहता है, पर दादा तो दादी को साक्षात देवी मानते हैं. लेकिन दादी रोज़ काली कमली क्यों ओढ़े रहती हैं, यह सुमन कभी नहीं जान पाई.
तभी सुमन की सास ने उसे बुलाया. जिस तरह मायके को छोड़कर वह ससुराल आ गई थी, उसी तरह विचारों को छोड़कर वह कमरे से बाहर आ गई. वह सास के पास पहुंची, तो सास ने कहा, "सुमन रविवार को घर में भगवान सत्यनारायण की पूजा रखी गई है. इसलिए आज से ही घर की साफ़-सफ़ाई शुरू कर दो. और हां, अपने मायकेवालों साथ-साथ सभी सगे-संबंधियों को फोन करके बुलाने की भी ज़िम्मेदारी तुम्हारी ही है."
सुमन ने वैसा ही किया, जैसा सास ने कहा था. रविवार का दिन आ गया. सभी रिश्तेदार पूजा में शामिल होने के लिए आ गए थे. पूजा शुरू होनेवाली थी. सुमन अपने कमरे में साड़ी और गहने पहनकर तैयार हो रही थी. तभी गुस्से में लाल-पीला होता हुआ उमेश कमरे में आया, "यह मेरे शर्ट की बटन टूटी हुई है. तुम्हें पहले ही देख लेना चाहिए था. अब मैं क्या पहनूं?"
"मुझे पता नहीं था कि आप यही शर्ट पहनेंगें. लाइए अभी लगाए देती हूं बटन."
"अब क्या लगाओगी बटन. इसे रखो." कहकर उमेश ने सुमन को ज़ोर से धक्का मारा और कमरे से बाहर चला गया.
पीछे रखी मेज सुमन के सिर में लगी. सिर फट गया और वहां से खून बहने लगा. उसने जल्दी से खून साफ़ किया. दवा और पट्टी बांध कर वह सिर को साड़ी से ढंक कर जैसे कुछ हुआ ही नहीं, इस तरह पूजा में आ गई.
पूजा शुरू हुई, पर सुमन का मन पूजा में कहां लग रहा था. वह तो मन ही मन रो रही थी. दादा की सिखाई स्त्री सम्मान की बातें, स्कूल में पढ़ाए गए श्लोक स्त्री रत्न है, स्त्री देवी है, यह सब उसे भ्रम लग रहा था. जैसे-तैसे करके उसने पूजा पूरी की और रसोई की तैयारी के लिए रसोई की ओर भागी.
वहां मम्मी और दादी पहले से ही खाना बनाने में लगी थीं. वहां कोई दूसरा नहीं था, इसलिए पहले न रो पानेवाली सुमन मां और दादी के आगे रो पड़ी. तभी उसकी साड़ी भी सिर से खिसक गई. सिर पर पट्टी बंधी देख कर मां ने पूछा, "अरे, यह क्या हुआ?"
सुमन ने रोते-रोते पूरी बात बताई. मम्मी तो कुछ नहीं बोलीं, बस चुपचाप उसकी बातें सुनती रहीं, पर दादी बोलीं, "अरे, यह सब तो चलता ही रहता है. इसमें रोने की क्या बात है. किसी दूसरे ने तो नहीं मारा, पति ने ही तो मारा है न?"


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इतना कह कर दादी ने हमेशा ओढ़े रहनेवाली काली कमरी हटाई और सालों पुराने हाथ पर दागे और चोट लगे निशान दिखाए. उसी समय हाॅल में बैठे दादाजी की आवाज़ सुनाई दी, "भई घर की लक्ष्मी तो स्त्री ही है. किसी दूसरे को पूजने की क्या ज़रूरत है. शास्त्रों में भी कहा गया है कि 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता…"

वीरेंद्र बहादुर सिंह

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