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कहानी- मत जाओ दीदी (Short Story- Mat Jao Didi)

"तुझे नहीं मालूम?" दीदी के लहज़े में ताज़्जुब था.
"पिताजी कह तो रहे थे कल तुझसे कि अंदर वाला कमरा पौने दो सौ में उठ जाएगा." मैं एकदम जड़ सा हो गया.
"साठ रुपए रिक्शे के बचा करेंगे. बीस का फिर भी फ़ायदा है. और हां, इतवार को तो मैं तेरे पास आया ही करूंगी." दीदी कहे जा रही थी.
"अकेला मत समझना तू अपने आपको. तुझसे दूर थोड़े ही जा रही हूं और ट्यूशन तो मैंने तेरे लिए ही किए हैं." दीदी का स्वर भारी होता जा रहा था.

कल शाम पिताजी ने कहा था, "अन्नू के लिए यहीं कहीं पास में पचास-साठ रुपये किरायेवाला कोई कमरा तलाश लेना. अन्दर वाला कमरा पौने दो सौ में उठ जाएगा. अन्नू का किराया हम दे दिया करेंगे, तुम उसे समझा देना." दीदी तब अन्दर खाना बना रही थीं.
पिताजी आज सुबह गांव चले गए थे. उनका यह विचार मेरे गले नहीं उतर रहा था. कितना अकेलापन महसूस करेंगी दीदी. मैं कैसे कह पाऊंगा उनसे यह बात? और फिर लोग क्या सोचेंगे? सच तो यह था कि पिताजी की भी अपनी मजबूरियां थीं. मैं ग्रेजुएट होने के बाद भी बेकार था. पिताजी के रिटायर होने के बाद आमदनी का कोई ज़रिया भी नहीं रह गया था. ले-देकर गांव में थोड़ी-सी ज़मीन थी. उसमें भी पिताजी के दो भाइयों का हिस्सा था. ज़मीन की पैदावार का एक तिहाई हिस्सा हमें मिलता था, जिससे बस पेट ही भरे जा सकते थे. इस हिस्से को लेने के लिए ही पिताजी को गांव में जाकर रहना पड़ रहा था. पिताजी कितनी ही बार लखनऊ हो आए थे. पेंशन की बाबत कितने ही पत्र लिखे थे उन्होंने अधिकारियों और मंत्रियों को, लेकिन अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई थी.
पिछले साल जून की ही तो बात है, दीदी अचानक एक ब्रीफकेस लिए हुए दिल्ली से अकेली आ गई थीं. उस वक़्त पिताजी, मम्मी सब गांव में थे. घर पर सिर्फ़ मैं ही था.
दीदी को पूरे तीन साल बाद देख रहा था. शादी के बाद जब हम दीदी को विदा कराके लाए थे तो एक सप्ताह बाद ही अचानक जीजाजी आ गए थे…
"अनुपमा कहां है? उससे कहिए कि वह अभी, इसी वक़्त तैयार हो जाए, मैं उसे लेने आया हूं." आंगन में खड़े जीजाजी मम्मी से कह रहे थे.
दीदी, मैं और बिन्नो तीनों अंदर थे, हम लोग सोच नहीं पा रहे थे कि आखिर ऐसा क्या हो गया जो जीजाजी इस तरह की बातें कर रहे हैं.
"कैसी बातें कर रहे हो कुंवर साहब, अन्नू तो आपकी ही है. लेकिन फिर भी जिस तरह गौने की बिदाई होती है, उसी तरह भेजेंगे हम अन्नू को." मम्मी ने चारपाई आंगन में डालकर उस पर बिस्तर लगाते हुए कहा, "आप आराम करें. थक गए होंगे."
"ठीक है, तो फिर अनुपमा को आप अपने पास ही रखिएगा. मेरा उससे आज के बाद कोई संबंध नहीं." जीजाजी बाहर जाने लगे थे.
दीदी ने आगे बढ़कर उन्हें रोका था, “ठहरिए, मैं भी चलती हूं आपके साथ." दीदी की आंखें डबडबा आई थीं. मम्मी की ओर देखते हुए बोलीं, "माफ़ कर देना मम्मी मुझे. अब तो इनकी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी है."
और उसके बाद दीदी की कोई चिट्ठी नहीं आई थी. हम लोग यहां से चिट्ठियां लिखते और उनके जवाब का इंतज़ार करते रहते. उस दिन दीदी को आया देखकर ख़ुशी तो हुई थी, लेकिन दिल कांप गया था. ज़रूर कोई बात हुई होगी. दीदी का इस तरह अकेले आना बहुत से सवालों को जन्म दे रहा था. दूसरे दिन दीदी को लेकर मैं गांव पहुंचा. उनकी अचानक आमद से मम्मी भी परेशान सी हो उठी थीं.
आधी रात तक मम्मी दीदी से न जाने क्या-क्या पूछती रहीं और दीदी रूंधे हुए गले से अपनी रामकहानी सुनाती रही. मम्मी और दीदी की चारपाइयां आंगन में आसपास बिछी थीं, पिताजी बाहर चबूतरे पर सो रहे थे. बिन्नो की चारपाई बरामदे में थी और मैं लकड़ी के एक सन्दूक पर दरी बिछाए लेटा हुआ था. नींद नहीं आ रही थी. मैं दीदी की बातें सुन रहा था. उनकी बातों से मालूम हुआ कि जीजाजी दीदी पर शक करते हैं. वो समझते हैं कि शादी से पहले दीदी का किसी के साथ कोई चक्कर था. छोटी-छोटी बातों पर दीदी के साथ मारपीट करते थे. अब तक तो दीदी सब कुछ चुपचाप सहती रहीं, पर जब बात बर्दाश्त के बाहर हो गई तो दीदी ने यहां आने का निर्णय कर लिया. मम्मी ने उनके सिर पर हाथ फेरते हुए उन्हें सांत्वना दी थी, "तू क्यों चिंता करती है? यहां आराम से रह. कुछ दिनों बाद वह खुद यहां आकर तुझे ले जाएगा."
एक बात और मेरे कानों में पड़ी थी कि दीदी को चौथा महीना चल रहा है. उन्हें गांव में छोड़कर मैं दूसरे दिन वापस आ गया था.
उसके बाद एक दिन सुबह-सुबह ही किशनो आया गांव से. उसने बताया कि पिताजी मेड़ से फिसल कर गिर पड़े हैं. काफ़ी चोट आई है उनके पैर में. मैं गांव पहुंचा. पिताजी को अलीगढ़ ले आए हम लोग. उनके दाएं पैर की हड्डी टूट गयी थी. अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा उनको. मम्मी भी गांव से साथ आई थीं. मुसीबतों का पहाड़ सा टूट पड़ा था. महीने भर पिताजी अस्पताल में रहे. वहां से निकले तो बैसाखियों का एक जोड़ा था उनके साथ.
नवंबर में दीदी को लड़की पैदा हुई.
दीदी ने जीजाजी को चिट्ठी भी लिखी थी, "आप पिता बन गए हैं. दो दिसम्बर को बच्ची का नाम रखा जाएगा. मुझे इस तरह अपना घर छोड़कर नहीं आना चाहिए था. सचमुच मुझसे ग़लती हो गई है. उस ग़लती की इतनी कड़ी सज़ा न दें. मुझे माफ़ कर दें. मैं आपसे दूर होकर नहीं रह सकती. मुझे आकर लिवा जाएं." लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं आया.
जून के अन्तिम सप्ताह में पिताजी दीदी को लेकर गांव से अलीगढ़ आ गए थे. अन्दर वाला कमरा पिताजी ने महीने भर पहले खाली करा लिया था, क्योंकि पिताजी को उस किराएदार की बीवी के चाल-चलन पसंद नहीं थे. दीदी अपनी सात माह की बच्ची को गांव में छोड़ आयी थी, मम्मी के पास, वे यहां नौकरी करना चाहती थीं. कपूर अंकल ने, जो हमारे पड़ोसी थे, दीदी को एक नर्सरी स्कूल में ढाई सौ रुपये प्रतिमाह वेतन पर टीचर की नौकरी दिलवा दी थी.
पिताजी को जब मैं बस में बिठाने गया था तब पिताजी ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर कहा था, "बेटा, वैसे तो तुम अन्नू से बहुत छोटे हो, लेकिन यहां अब तुम ही उसके गार्जियन हो. उसका ध्यान रखना. उसे कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए."
मैंने पिताजी की बैसाखियों में एक जुम्बिश सी देखी थी. पिताजी की आंखें भर आई थीं.
"ये अन्नू को दे देना. गांव से और गेहूं भिजवा दूंगा. जब तक उसे तनख़्वाह नहीं मिलती, तुम दोनों इसी से ख़र्च चलाना." कुर्ते की आस्तीन से आंखें पोंछने के बाद उन्होंने जेब से सौ रुपये का एक नोट निकाल कर मुझे दिया था.
पिताजी को सहारा देकर मैंने बस में चढ़ाया. उनके पांव छूकर बस से नीचे उतर आया.
खिड़की से बाहर सिर निकालते हुए पिताजी ने डूबी हुई आवाज़ में कहा, "रवि, तुम न जाने अपनी ज़िम्मेदारियों को कब समझोगे? अगले साल बिन्नो की शादी भी करनी है. पता नहीं क्या होगा? कैसे होगा?"
बस चल दी थी. सौ रुपये का नोट मेरी मुट्ठी में भिंचा हुआ था और मेरी आंखों के आगे मेरी बेरोज़गारी व उद्देश्यहीन भविष्य घूम रहा था.
पन्द्रह अगस्त का दिन था. दीदी स्कूल से जल्दी आ गई थी. एक रिक्शा दरवाज़े के सामने आकर रुका. पिताजी के साथ बिन्नो की गोद में दीदी की लड़की थी. नौ महीने की लड़की ऐसी लग रही थी, जैसे महीने भर की हो. दुबली-पतली, बेहद कमज़ोर. दीदी दौड़कर बाहर आयीं. बच्ची को जल्दी से उन्होंने गोद में ले लिया. बीसियों बार उसे चूमा.
"क्या हुआ है मेरी बच्ची को?" दीदी की आवाज़ कांप रही थी.
उस दिन शाम से ही बिजली नहीं थी. चिराग़ जल रहा था. हम लोग बच्ची के पास अन्दर के कमरे में बैठे थे, दीदी, मैं और बिन्नो. पिताजी बाहर बैठक में सो रहे थे.
डॉक्टर ने कहा था, "रातभर ख़तरा है. रात को आप लोग जागते रहें और ये दवा पानी में घोलकर एक-एक चम्मच हर एक घंटे के बाद बच्ची को पिलाते रहें."
बैठे-बैठे दीदी की आंख लग गई थी. बिन्नो जाग रही थी. मुझे भी झपकी सी आने लगी थी. ज़मीन पर चटाई बिछी थी, मैं उसी पर लेट गया.
बिन्नो ने अचानक दीदी को झिंझोड़ा और बड़ी जोर से चीख पड़ी. पिताजी भी उठकर अन्दर आ गए. घड़ी देखी, रात के ढाई बजे थे. रोने-पीटने की आवाज़ सुनकर कपूर आंटी और सामनेवाली अम्मा भी आ गईं. दीदी और बिन्नो रातभर रोती रहीं, सुबह तक गली-मोहल्ले के काफ़ी लोग इकट्ठे हो गए.
सुबह जल्दी ही खिड़की से बाहर सिर निकालते हुए बच्ची को दफ़ना कर हम लोग लौट आए.
लौट कर देखा, दीदी नहा-धोकर तैयार थीं. ठीक सवा सात बजे रोज़ाना की तरह उन्होंने अपना पर्स उठाया और बाहर निकल गयीं.
पिताजी कपूर अंकल के यहां बैठे थे. वहीं से हम लोगों के लिए चाय-नाश्ता आ गया था. दीदी ने चाय भी नहीं पी थी. जाते समय मैंने पूछा, "कहां जा रही हो दीदी?" न उन्होंने पलट कर देखा और न कोई जवाब ही दिया. पिताजी ने लौटकर पूछा, "कहां है अन्नू?"
"शायद, स्कूल गयी है." पिताजी बहुत नाराज़ हुए.
"दिमाग़ ख़राब हो गया है इस लड़की का. घर में इतने लोग आ-जा रहे हैं. कोई क्या सोचेगा? आज अगर स्कूल न जाती तो कौन-सा आसमान टूट पड़ता."
दीदी शाम को चार बजे लौटीं. उनकी छुट्टी तो एक बजे ही हो जाती थी, लेकिन उन्होंने हफ़्ते भर पहले मुझे बताया था कि पचास- पचास रुपये महीने के दो ट्यूशन कर लिए हैं उन्होंने, जो स्कूल में ही पढ़ाने होते हैं. पिछले हफ़्ते से दीदी चार बजे ही घर लौटती थीं. दीदी ने कहा था कि ट्यूशन वाले पैसे वे मुझे दिया करेंगी.
पड़ोस की कई औरतें दीदी को घेरे बैठी थीं.
"उन्हें तो ख़बर कर दी होगी? शायद अपनी बेटी की मौत की ख़बर सुनकर आएं.
"अनु, तू उनसे माफ़ी मांग लेना और चली जाना उनके साथ. बिना अपने आदमी के कुछ नहीं है दुनिया में." पड़ोस की औरतों में से किसी ने कहा.
दीदी, जो काफ़ी देर से गुमसुम बैठी थीं, कपूर आंटी के कंधे पर सिर रख फफक-फफक कर रो पड़ीं.
दरवाज़े पर दस्तक हुई. मैंने घड़ी पर नज़र डाली. शाम के छह बज रहे थे. दरवाज़ा खोला, सामने दीदी खड़ी थीं. आज दो घंटे देर से लौटी थीं. कभी-कभी उन्हें देर हो जाया करती थी, बच्चों की होमवर्क की कापियां वे अक्सर स्कूल में ही चेक करती थीं. दीदी अंदर आ गयीं. उनकी नज़रें दीवारों पर घूम रही थीं. फिर उन्होंने अपनी आलमारी खोली. रिक्शेवाला अभी तक खड़ा था.
"पैसे देने हैं रिक्शेवाले को?" मैंने पूछा.
"नहीं."
"तो फिर क्यों खड़ा है अभी तक?"
"मैं जा रही हूं."
"कहां?"
"मैंने अपने स्कूल के पास ही एक कमरा देख लिया है. चालीस रुपए महीना किराया है."
"लेकिन क्यों?"
"तुझे नहीं मालूम?" दीदी के लहज़े में ताज़्जुब था.
"पिताजी कह तो रहे थे कल तुझसे कि अन्दर वाला कमरा पौने दो सौ में उठ जाएगा." मैं एकदम जड़-सा हो गया.
"साठ रुपए रिक्शे के बचा करेंगे. बीस का फिर भी फ़ायदा है. और हां, इतवार को तो मैं तेरे पास आया ही करूंगी." दीदी कहे जा रही थी.
"अकेला मत समझना तू अपने आपको. तुझसे दूर थोड़े ही जा रही हूं और ट्यूशन तो मैंने तेरे लिए ही किए हैं." दीदी का स्वर भारी होता जा रहा था.
दीदी ने अपना ब्रीफकेस, एक टोकरी और कुछ किताबें रिक्शे में रख दीं.
मैं बड़ी मुश्किल से अटकती हुई आवाज़ में कह पाया, "मत जाओ दीदी."
दीदी ने मेरे चेहरे की तरफ़ देखा, पर बोलीं कुछ भी नहीं. मुझे ऐसा लगा जैसे कह रही हों, "तू क्यों रोकता है रे मुझे? तू थोड़े ही है अभी इस घर का मालिक, जब तू कमाने लगेगा, तो मैं ये नौकरी भी छोड़ दूंगी."
दीदी रिक्शे में बैठ चुकी थीं. रिक्शा जैसे ही आगे बढ़ा, उन्होंने पलट कर मेरी ओर देखा और बोलीं, "तू नहीं चलेगा मेरे साथ मेरा कमरा देखने?"
मुझे लगा कि मेरे गले में फिर से कुछ अटक गया है. मैंने फिर कहा, "दीदी मत जाओ." लेकिन अबकी बार ये शब्द मेरी ज़ुबान से नहीं, मेरी आंखों के रास्ते बाहर आए थे.

- सुरेश कुमार

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