'शरीर की भूख क्या सिर्फ़ पुरुष को होती है, स्त्री को नहीं? पेट और शरीर की भूख एक है क्या? पेट भरना जितना लाज़िमी है, शारीरिक भूख मिटाना भी वैसा ही अनिवार्य है क्या? आख़िर संयम भी कोई चीज़ होती है न! पेट भरने के लिए कोरे संयम से काम नहीं चल सकता. पर दैहिक भूख? उसे नहीं मिटाया तो मृत्यु हो जाएगी क्या?'
कहा तो यह जाता है कि रिश्ते हमें जन्म से मिलते हैं, परंतु मित्रों का चयन हम स्वयं करते हैं. बात सही है पर कुछ सीमा तक. क्या मैत्री भी काफ़ी कुछ परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती? अपने आस-पड़ोस, सहपाठी, सहकर्मी- इन्हीं में से हीतो मित्र चुनेंगे आप.
रत्नाजी से मेरी दोस्ती पड़ोस के कारण थी.
नया-नया विवाह हुआ था मेरा और उसके तुरंत बाद ही मां की मृत्यु हो गई थी. बीमार तो वह वर्षों से थीं पर यों अकस्मात् चली जाएंगी ऐसा किसी ने नहीं सोचा था. घर में पिता, भाई-भाभी सभी थे. स्नेह भी भरपूर मिलता था, परन्तु मां की तो बात ही कुछ अलग होती है. पीहर का नाम आते ही जो छवि उभरती है उसमें प्रमुख होता है मां का चेहरा. मां के बिना पीहर शब्द का वह अर्थ ही नहीं रह जाता. मां बूढ़ी हो, अशक्त हों पर उस चित्र में हों अवश्य. ऐसी ही भावनात्मक रिक्तता में मैंने स्वयं को जोशी परिवार के पड़ोस में पाया. पति-पत्नी दोनों ही डॉक्टर थे. दो सुन्दर-सलोने बच्चे और साथ में दादा-दादी, भरापूरा परिवार था उनका.
रत्ना जोशी बच्चों की डॉक्टर थीं और मुझ से काफ़ी बड़ी, परिपक्व और व्यावहारिक. सुबह के समय वह क्लिनिक जातीं, तो दादी की देखरेख में बच्चे आया के संग खेलते, परन्तु शाम का समय वह पूरी तरह घर और बच्चों की देखभाल में बिताती थीं. मेरे दोनों बच्चों के जन्म के समय उन्होंने चिकित्सा सम्बन्धी सहायता तो की ही, अनेक घरेलू नुस्ख़ों से भी मुझे अवगत कराया. यह सीख भी दी कि बच्चे पालने में सबसे बड़ी ज़रूरत है- ढेर सारा संयम और धीरज की.
छोटे शहरों में मैत्री बहुत जल्दी प्रगाढ़ हो जाती है और शीघ्र ही डॉक्टर रत्ना जोशी मेरी रत्ना जीजी बन गई. मेरे लिए वह सखी और बड़ी बहन का मिलाजुला रूप थीं.डॉक्टर जोशी को उस छोटे से शहर के सरकारी अस्पताल की नौकरी में अपना कोई भविष्य नज़र नहीं आ रहा था और प्रयास करने पर उन्हें यूके जाने का अवसर मिल गया. उनकी योजना यह थी कि कुछ वर्ष यूके रह कर वह दोनों पढ़ाई कर के उच्च डिग्री लें और कुछ वर्ष नौकरी करके इतना धन जोड़ ले कि लौट कर अपने पैतृक शहर मेरठ में एक नर्सिंग होम खोल सकें. उनसे बिछड़ने का दुख तो अवश्य था, परन्तु उनके बेहतर भविष्य के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं भी थीं, जो अंतर्मन से निकली हुई थीं.
संचार की तब ऐसी सुविधाएं तो थी नहीं कि उठाया फोन और चट से विदेश बैठे सगे-सम्बन्धियों से बात कर ली. जोशी दम्पति की अनुपस्थिति में डॉक्टर जोशी के माता-पिता मेरठ में अपनी बेटी कमल की देखरेख मे रह रहे थे. हमारे एक पड़ोसी मित्र का मेरठ आना-जाना होता था और वह जोशी परिवार की ख़बर ले आता.
उसी ने एक बार बताया कि डॉक्टर जोशी के पिता की हार्टसर्जरी हुई है और रत्ना जीजी बच्चों के साथ मेरठ में रह रही हैं. फिर सुना कि बच्चों को मेरठ में ही छोड़ वह इंग्लैंड लौट गई हैं. इसके बाद यह कि इंग्लैंड में उनका एक और बेटा हुआ है और अब वह सब मेरठ में ही आ बसे हैं. थोड़ा आश्चर्य भी हुआ.
सबको दो ही बच्चों तक परिवार सीमित करने पर बल देनेवाली रत्ना जीजी ने स्वयं तीसरा भी कर लिया और वह भी जब पहले से बेटा बेटी दोनों ही थे. छोटे बच्चे की उम्र में तो अन्तराल भी काफ़ी हो गया था.
ख़ैर! उनके नर्सिंग होम का उद्घाटन हुआ. हम जा तो नहीं पाए, पर इस बात की प्रसन्नता अवश्य थी कि ऐसे नेकदिल दम्पति का सपना पूरा हुआ.
बहुत कुछ घट गया जोशी परिवार में. दोनों बच्चों का विवाह हो गया.।हम गए, तो पर हाज़िरी लगाने भर को. बैठ कर हालचाल बांटने का समय नहीं था. वर्ष भी नहीं गुज़रा कि डाक्टर जोशी का ह्रदय गति रुकने से देहांत हो गया.
इतना अकस्मात्, इतना अप्रत्याशित कि अस्पताल तक भी नहीं ले जा सके. फिर वही हाज़िरी लगवाने तक का समय ही निकाल कर जा पाए हम.
बहुत अरसे से मन कर रहा था पुराने दिनों की तरह बैठ कर रत्ना जीजी से बातें करने का. परन्तु घर की ज़िम्मेदारियों के कारण संभव ही नहीं हो पा रहा था.
उसी पुराने मित्र ने बताया कि रत्ना जीजी की बहू बहुत कर्कशा है. इतना ही नहीं, वह नर्सिंग होम पर एकाधिकार चाहती है और उसे रत्ना जीजी की दख़लअंदाज़ी पसंद नहीं. अलग घर में रहने लगे हैं दोनों. तब तक टेलिफोन पर बात करना सहज होने लगा था, पर मैं जब भी रत्ना जीजी से बहू-बेटे का हालचाल पूछती तो ‘सब ठीक है’ कहकर टाल देतीं वह.
मेरठ से एक विवाह का निमंत्रण था. जाना इतना आवश्यक तो नहीं था, पर मैंने सोचा इसी बहाने रत्ना जीजी से मिल आऊंगी. बच्चे उच्च शिक्षा पाने नीड़ छोड़ जा चुके थे और अब मैं इत्मीनान से जा सकती थी. अतः रत्ना जीजी को सूचित करके एक दिन पहले घर से रवाना हो गई और स्टेशन से सीधे उनके घर जा पहुंची. वह लेटी हुई थीं. तेज़ कमरदर्द के कारण उठकर बैठ भी नहीं पा रहीं थीं. छोटा बेटा विदुर उसकी तीमारदारी में लगा था.
दोनों बड़े बच्चों के विवाह के समय उसे देखा तो अवश्य था, पर कोई बात नहीं हो पाई थी.
विदुर ने मां को दवा दी. कमर पर लगाने के लिए दर्द निवारक मलहम और गर्म पानी की बोतल लाकर देते हुए कहा, “जल्दी से बैठने लायक़ हो जाओ मां, ताकि मौसी से जी भर कर गप्पें लगा सको.”
और फिर मुझसे बोला, “अब आप आ गई हैं, तो मैं निश्चित होकर कॉलेज जा पाऊंगा. बसन्ती तो है घर संभालने के लिए परन्तु मां अकेली बैठी उदास हो जाती है.”
एक ही घण्टे में ही जीजी का यह बेटा मुझ पर गहरी छाप छोड़ गया. उसके जाने के बाद मैंने कहा, “आज के युग में ऐसा श्रवण कुमार जैसा बेटा कहां मिलता है? ख़ुशक़िस्मत हैं आप. दो बेटे होने का यही फ़ायदा है. एक परवाह नहीं करता तो दूसरा देख लेता है.”
जीजी ने कोई उत्तर नहीं दिया. आंख उठाकर मेरी तरफ़ देखा तक नहीं. फीके से मुस्कुरा दीं बस. शायद तेज़ कमरदर्द के कारण.
बसन्ती ने पलंग के पास मेज़ रख कर वहीं खाना परोस दिया. भोजन कर चुकने के पश्चात मैं पास वाले पलंग पर लेट गई. सामनेवाली दीवार पर जोशी दम्पति की एक पुरानी तस्वीर टंगी थी.
मैंने ग़ौर से उसे देखते हुए कहा, “विदुर के बाल और माथा तो ठीक अपने पापा जैसा है, पर बाक़ी का किस पर है? गोरा भी कितना है! इंग्लैंड में जन्मा हैं इसलिए क्या?”
“धत् पगली. जगह से थोड़े ही रंग-शक्ल का फ़र्क़ पड़ता है. यह तो पूरी तरह अनुवांशिक होता है.” फिर धीरे से जोड़ दिया, “पर अच्छा है बहुत लोग यही सोचते हैं.”
“आपसे तो किसी कोण से उसकी शक्ल नहीं मिलती.”
“मुझ से कैसे मिलेगी, अपनी मां पर गया है वह.” कहकर चुप हो गईं जीजी. बिना विचारे ही जैसे मुख से कुछ निकल गया हो.
मैंने चौंक कर सिर उठाया, “क्या मतलब?”
वे ख़ामोश ही रही. मेरे पूछने पर भी.
“नहीं कुछ नहीं.” कहकर आंखें मूंद लीं. पर कोई बात तो थी जिसका दर्द उनके चेहरे पर घिर आया था. पति की मृत्यु हो चुकी है, बेटी विदेश में बस गई है और बड़ा बेटा बहू का भी साथ नहीं है. कितनी अकेली पड़ गईं थीं जीवन के इस पड़ाव पर जीजी. शुक्र है कि विदुर पास है पर वह तो निरा बालक ही है. मैं उनका दर्द बांट लेना चाहती थी.।परन्तु वह बांटेंगीं तब न!
कह देने से मन हल्का हो जाता है यही सोच कर मैंने फिर कुरेदा, “क्या बात है… जीजी?”
अपनत्व का संबोधन उन्हें पिघला गया शायद.
“विदुर मेरा बेटा नहीं है. डॉक्टर साहब का तो है पर मेरा नहीं. मैंने तो उसे पाला है बस!”
“क्या कह रही हो तुम!”
झटके से मैं आप से तुम पर आ गई थी.
“तुम सोचती हो न कि मैं ख़ुशक़िस्मत हूं. परन्तु एक समय आया था जब मुझे लगता था कि मैं किसी बवंडर में ही फंसी हूं. निपट अकेली! पति हाथ थामने को तैयार थे, परन्तु मैं ही उस हाथ को पकड़ना नहीं चाहती थी जिसने किसी अन्य स्त्री को छुआ था, सहलाया था. सुना है कि चतुर कोयल अपने अंडों को कौवी के घोंसले में रख आती है. और कौवी अज्ञानवश उन्हें अपने बच्चों की तरह पालती है, लेकिन मेरे नीड़ में इसे किसी ने नहीं रखा था. मैं स्वयं ही इसे ले आई थी उसे सुरक्षा देने.
हम जब शुरू में इंग्लैंड गए थे, तो मम्मी-डैडी कमल के पास घर लेकर रह रहे थे. तब डैडी को ज़बरदस्त दिल का दौरा पड़ा और ऑपरेशन करवाना ज़रूरी हो गया. कमल अकेली कैसे संभालती, अतः मैं भी बच्चों को लेकयहीं आ गई. ऑपरेशन सफल रहा और फ़ैसला यह किया गया कि मैं बच्चों के साथ यहीं रुक जाऊं. डैडी को लम्बे समय तक देखभाल की ज़रूरत थी. वैसे भी उन दिनों इंग्लैंड में प्रवासी डॉक्टरों को पांच वर्ष सेअधिक रहने की अनुमति नहीं मिलती थी. अर्थात् डॉक्टर साहब को भी दो वर्ष पश्चात भारत लौटना ही था.
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“एक वर्ष पश्चात फोन पर फोन आने शुरु हो गए और हर बार वे मुझे वहां आ जाने को कहते. सोचा, कुछ तो परेशानी है, जो मुझे बार-बार आने को कह रहे हैं. 'कहीं बीमार न पड़े हों’ यह भी ख़्याल आता. बच्चों के स्कूल चल रहे थे, अतः उन्हें कमल के पास छोड़ मैं यूके चली गई. इस आशा पर कि एक-दो माह में लौट ही आऊंगी.
वहां जाकर पता चला कि माजरा कुछ और है.
“तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत अकेला पड़ गया था रत्ना.डॉक्टर होने के नाते तुम समझ सकती हो कि पेट की तरह तन की भी भूख होती है." दिन-रात गोरी नर्सों का साथ जिन्हें मर्यादा उल्लंघन का कोई भय नहीं. समस्या तब हुई जब मार्था गर्भवती हो गई और उसने बहुत दिनों तक यह बात छुपाए रखी. उसकी योजना यह थी कि वह इसी बात का दबाव डाल कर डॉक्टर से विवाह कर लेगी. ‘विवाह न करने पर वह बच्चे को अनाथालय में डाल देगी.’ उसने ऐसी धमकी भी दी.
इनके विवाहित होने की बात न तो उसने पूछी और न ही इन्होंने कभी बताई.
ऐसा नहीं कि इनकी कोई ग़लती नहीं थी. मार्था कितनी भी आज़ाद ख़्याल हो. ग़लती तो दोनों की ही थी. अपने विवाहित होने की बात छिपा जाने के कारण इनकी कुछ अधिक ही थी.
बहुत असमंजस में पड़ गई मैं. निर्णय लेना आसान नहीं था. उस दिन तक मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं रही. अच्छी पटती थी हमारी ठीक दो मित्रों की तरह. तभी शायद इन्होंने अपनी समस्या मुझे बताई भी और मुझ से सहायता की अपेक्षा भी रखी. इनका बच्चा किसी अनाथालय में पले, वह सच बहुत कड़वा था. पर उससे भी कठिन यह विचार मात्र था कि मैं उस बच्चे को पालूं. उसे देख-देख तमाम उम्र इनकी बेवफ़ाई की याद ताज़ा रखूं. उस अपराध की सज़ा भुगतूं, जो मैंने किया ही नही, अपितु ज़ुल्म तो मेरे साथ हुआ था.
यह कहना कि मैंने जी बहुत कड़ा करके निर्णय लिया बहुत नाकाफ़ी है उस मनःस्थिति को समझने के लिए, जिससे मैं उस समय गुज़र रही थी. लगता था मैंने अपने मन को किसी ज़ंजीर से बांध कर आदेश दिया है कि पड़े रहोचुपचाप भावशून्य होकर. विरोध स्वरूप वह जब भी हिला-डुला तो ज़ख़्मों पर ज़ंजीर की रगड़ को महसूस किया मैंने. अनेक बार अपने निर्णय पर डगमगाई. समझ ही सकती हो. बच्चे के जन्म के इंतज़ार में मन ने अनेक बार प्रश्न पूछे, 'शरीर की भूख क्या सिर्फ़ पुरुष को होती है, स्त्री को नहीं? पेट और शरीर की भूख एक है क्या? पेट भरना जितना लाज़िमी है, शारीरिक भूख मिटाना भी वैसा ही अनिवार्य है क्या? आख़िर संयम भी कोई चीज़ होती है न! पेट भरने के लिए कोरे संयम से काम नहीं चल सकता. पर दैहिक भूख? उसे नहीं मिटाया तो मृत्यु हो जाएगी क्या?'
“फिर भी बच्चा तो निर्दोष था. इन्हीं का अंश था वह. उसे अनाथालय में डाल कर क्या उसके पिता निश्चिंत रह पाएंगे? क्या मैं चैन की नींद सो पाऊंगी? मार्था की धमकी कोरी धमकी नहीं थी इतना तो वहां की संस्कृति में तीन वर्ष रहकर मैं भी जान ही चुकी थी. अपने मनसूबे में यहांअसफल हो उसे एक नया जीवनसाथी तलाशना था. वह इस बंधन को क्यों स्वीकारती?
किसी पुरुष की नज़र सदैव इधर-उधर भटकती रहती हो तो निश्चय ही वह दंड का अधिकारी है. इनसे ऐसा पहली बार हुआ था और इतना तो मुझे विश्वास है कि फिर दोहराया नहीं जाएगा. उस पर मेरे जीवन का हिस्सा, मेरे बच्चों के पिता थे वह. जितनी ज़रूरत इनको मेरी थी उतनी मुझे भी थी उनकी.
यों कहो कि मस्तिष्क की ह्रदय पर विजय हुई थी.
सिर्फ़ कमल को मैंने अपना हमराज़ बनाया. उससे कहा कि वह परिवार में यह अफ़वाह फैला दें कि मैं फिर से गर्भवती हूं. मम्मी-पापा को भी सच बताने की ज़रूरत नहीं.
नवजात शिशु को ले कर तुरंत भी नहीं लौट सकते थे. अतः कुछ माह और वहीं रुकना पड़ा. लौट कर भी काफ़ी समय तक लोगों की नज़रों से बचाए रखा. दादा-दादी ने कई बार कहा कि कितना बड़ा लगता है. तीन महीने का तो लगता ही नहीं. पर इसका श्रेय वह विदेश के खानपान और जलवायु को देते. कमज़ोर नज़रें देखने में और कमज़ोर मस्तिष्क महीनों का हिसाब लगाने मे गड़बड़ा जाता. बच्चों को भी तब इतना समझ नहीं थी कि और विदुर कभी नहीं जान पाएगा अपने जन्म की बात.
यही निर्णय लिया था हम दोनों ने.
इस पूरी घटना को एक हादसा मान भूल जाने का प्रयत्न करती हूं. परन्तु माफ़ करना अथवा न करना चाहे हमारे वश में हो, भूलना हमारे वश मे नहीं है. यादें हैं कि उंगली पकड़े साथ चलती ही रहती हैं तमाम उम्र. न चाहने पर भी. निश्चय तो यही किया था कि किसी को नहीं बताऊंगी यह सब पर आज मुंह से निकल ही गई. परन्तु तुम से बात करके आज बहुत हल्का महसूस कर रही हूं मैं. अब तो यह भी सब गिले-शिकवों से दूर जा चुके हैं. विदुर को पालते-पालते सच उस पर ममता उमड़ आई है. यह भी तो मेरी तरह निर्दोष ही है. शायद यही सूत्र मुझे उससे बांधता है."
इतना कहकर ख़ामोश हो गईं जीजी. मैं भी मौन रही. क्या कहती? समझ रही थी उनका दर्द. परन्तु बहुत बार ही तो मन की बात कह पाने में असमर्थ होते हैं शब्द. मुझसे छोटी होतीं तो उन्हें आलिंगन में ले उनका सारा दर्द पी जाने का प्रयास करती, पर संकोच कर गई. मैंने उन्हें सदैव बड़ी बहन सा सम्मान दिया है. उम्र समझदारी सबमें मुझसे बढ़कर थीं. अपना हाथ बढ़ाकर उनके हाथ पर रख दिया. चाह कर भी कुछ नहीं कह पाई.
हम दोनों ही मौन थे. परन्तु भीतर तो विचार प्रवाहमान थे. अनेक बार सुनी कृष्ण की जन्म कथा याद हो आई. नवजात शिशु को यशोदा की गोद में डाल आए थे स्वयं वासुदेव. यशोदा ने उन्हें पाला-पोसा, मां का संपूर्ण दुलार दिया और यशोदा नंदन ही कहलाए कृष्ण. इस घोर कलियुग में इस बालक का जन्म एकदम भिन्न हालात में हुआ था, पर जीजी ने तो यशोदा बन कर ही उसकी परवरिश की थी. बेटा क्या सिर्फ़ कोख ज़ाया हो सकता है? स्त्री जिसे प्यार से पाले वही उसके लिए बेटा हो जाता है.
किन्तु नंद भार्या यशोदा ने कृष्ण मुख देख कर अपने ह्रदय में कांटे की तीखी चुभन कभी महसूस न की होगी. जबकि रत्ना जीजी के ज़ख़्मों से रिसता खून अभी सूखने भी न पाया होगा कि सारी पीड़ा अंतस् में समेट उन्होंने अपने चेहरे पर मुस्कान ओढ़ी होगी. बच्चों के संग सामान्य व्यवहार किया होगा. पुत्र जन्म के मुबारक हंस कर स्वीकार किए होंगे.
"कैसी कठिन परीक्षा दी दीदी आपने."
अति विशाल है स्त्री तेरा ह्रदय जो पुरुष का ऐसा अपराध भी क्षमा कर सकता है. यूं तो बहुत बदनाम है सौतेली मां का नाम, परन्तु ऐसी स्त्रियां भी हैं, जिन्होंने पराई कोख जाए बच्चे को सीने से लगाया है, मां सा ही ममत्व दिया है. ऐसी हर स्त्री महान है. और मैं नतमस्तक हूं, सामने बैठी अपनी रत्ना जीजी के आगे.
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