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कहानी- मैरी क्रिसमस (Short Story- Merry Christmas)

पापा आश्चर्य का भाव चेहरे पर लाकर उसका सारा दारोमदार सांता पर डालते. फिर उसका भोलापन सयानेपन में तब्दील हुआ और वह पापा के सामने बाकायदा ऐलान करने लगा कि उसे इस साल सांता से क्या चाहिए.
“देखो भई, सांता को बहुत सारे गिफ्ट्स बांटने हैं, इसलिए ज़रा डिमांड भी छोटी रखना…" और फिर सांता से क्या मांगा जाए इस पर बकायदा मोलभाव भी होता.

कोलकाता के धर्मतल्ला मैदान में बैठा आकाश सामने खेलते लड़कों को देख सोच रहा था… कभी वह भी इस मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए आया करता था. स्कूल-कॉलेज के दिन कितने अच्छे थे, कोई ज़िम्मेदारी नहीं. जब मन किया मम्मी-पापा के सामने हाथ फैला लिया. ख़र्चे के लिए पॉकेटमनी मिलती थी और बचत की कोई बाध्यता नहीं.
उसे याद आया जब उसे पहली जॉब की पहली सैलरी मिली थी, तब उसने अपने लिए महंगा मोबाइल ख़रीदा और दूसरी सैलरी से अत्याधुनिक लैपटॉप, तीसरी से महंगा कैमरा…
तब पापा ने उसे नसीहतें देनी शुरू कर दी, “आकाश, बचत करना सीखो… बचत मुश्किल समय पर काम आएंगी…”
पर वह कमाए पैसे अपने ऊपर ख़र्च करना चाहता था, ब्रांडेड कपडे, पर्यटन पर दिल खोलकर ख़र्च करता. महंगे रेस्तरां में खाना खाता. तब दो-तीन महीने के बाद पापा ने उससे संकोच में कहा, “बेटा, तुम्हारी डिग्री के लिए लोन लिया था, घर की किस्तें भी भरनी है क्या तुम थोड़ी हेल्प कर सकते हो…”
हालांकि मम्मी ने पापा को टोका, "अभी नई नौकरी है इसकी, घर का किराया, कैब का ख़र्च… अपनी ज़रूरतों को पूरा कर ले वही बहुत है. हमें नहीं चाहिए मदद…”
पर पापा अड़ गए, “क्या हुआ, जो थोड़ा सहयोग मांग लिया. हमारी नौकरी लगी थी, तब हमने भी अपने पिता को दिया. अपने ख़र्चे सीमित करके चलेगा, तो दस हज़ार रुपए आराम से निकाल पाएगा."
नई नौकरी और देने के भाव से मिलती अहं को तुष्टि के चलते, “श्योर पापा, मैं दस हज़ार हर महीने आपके एकाउंट में डाल दूंगा.” उसने वायदा कर लिया और हर महीने उनके एकाउंट में रुपए डालता रहा. पर अब… अब नौकरी नहीं, तो सैलरी भी नहीं.
अपने जॉब को लेकर बिठाया गणित नौकरी जाने से फेल हो गया. उसने सोचा था कि वह पांच साल नौकरी करेगा. एक्सपीरिएंस मिलने के बाद नौकरी छोड़कर एम.बी.ए करेगा… फिर ख़ूब कमाएगा और ख़ूब ख़र्च करेगा.
उसने अपने पापा को हमेशा स्ट्रगल करते देखा है. बड़े रेस्टॉरेंट में खाना, मल्टीप्लेक्स में मूवी देखना, बड़ी गाड़ी में घूमना, ट्रेवलिंग करना, ब्रांडेड कपड़े, महंगा मोबाइल… ये सब उन्हें पैसे की बर्बादी लगती थी. जबकि वह इसे बर्बादी नहीं, जीने का अंदाज़ मानता था.
उसने तय किया था कि वह दो साल ऐश और दो साल सेविंग करेगा… पर उसका बिठाया गणित फेल हुआ जब ढाई साल बाद घाटे में चलती कंपनी में छंटनी हुई… और एक दिन उसे भी लव लेटर पकड़ाकर थैंक्यू बोल दिया गया.
उसकी नौकरी जाने की बात सुनकर पापा ने उसे फौरन कोलकाता आने को कहा. वह आज सुबह ही यहां पहुंचा. पापा उससे बात करना चाह रहे थे, पर वह उनसे बच रहा है. क्योंकि वह जानता है कि उनकी बातों में कुछ चिंताएं, कुछ नसीहते, कुछ उपदेश होंगे. सेविंग न करने के लिए उसे कोसा जाएगा और इस मनःस्थिति में यह सब सुनना नहीं चाहता है. इसीलिए घर पहुंचकर फ्रेश हुआ और फिर, “थोड़ा घूमकर आता हूं…” कहकर यहां चला आया.
आकाश ने गहरी सांस ली, महसूस किया कि शाम का धुंधलका होने लगा था. क्रिकेट खेलनेवाले लड़कों ने अपना खेल समेट लिया था. वह भी उठकर पैदल ही पार्क स्ट्रीट की ओर चल पड़ा.

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क्रिसमस के दौरान पार्क स्ट्रीट की रौनक़ देखनेवाली होती है. पैदल चलता हुआ वहां पहुंचा, तो रौनक़ देखकर मन को सुकून पहुंचा. उसने दूर तक नज़र दौड़ाई और महसूस किया कि कोलकाता उसके पापा जैसा है, जो सालों में बिल्कुल नहीं बदला. वैसा ही है जैसा उसके बचपन में हुआ करता था.
पार्क स्ट्रीट में किनारे फुटपाथ के साथ लगी अस्थाई दुकानें, आसपास की जगमगाती रौशनी… सब कुछ जाना-पहचाना. जब वह छोटा था, तब पापा के साथ यहां क्रिसमस में ज़रूर आता और यहां लाल तिकोनी सफ़ेद फुंदनेवाली टोपी ज़रूर ख़रीदता था.
आसपास बने जगमगाते रेस्टोरेंट की रौशनी उसे बहुत अच्छी लगती थी. आसपास बिकते खिलौने मन को लुभाते थे. पर अपने अनुभव से वह जानता था कि उसे यह खिलौने ख़रीदकर नहीं दिए जाएंगे. वह रेस्टॉरेंट में जाने की कितनी भी ज़िद कर ले पापा उसे स्ट्रीट फूड ही खिलाएंगे.
तभी उसने सोच लिया था कि जब वह बड़ा हो जाएगा, तब शॉपिंग फड़ी वाली अस्थाई दुकानों से कतई नहीं करेगा.
बड़े-बड़े शो रूम से ब्रांडेड चीज़ें लेगा. बड़े-बड़े रेस्टॉरेंट में ख़ुद भी जाएगा और पापा को भी ले जाएगा… और उन्हें दिखाएगा कि लाइफ क्या होती है. पर धीरे-धीरे उसका यहां आना कम होता गया. बड़े होने के बाद अपनी पढ़ाई, कॉलेज, करियर की जद्दोज़ेहद में मसरूफ़ होता गया.
“भैया, ये सांता ले लो, फिफ्टी का एक…”
सहसा उसका ध्यान टूटा, तो देखा दस-बारह साल का बच्चा लाल सफ़ेद चोगे में तिकोनी टोपी पहने सांता को बेच रहा है. उसने इशारे से उसे मना किया और आगे बढ़ गया. पर उस बच्चे ने उसका पीछा नहीं छोड़ा, पीछे-पीछे चलते हुए वह रट लगाता रहा, “ले लो न… फिफ्टी का एक… अच्छा दस रुपए कम दे देना…”
सहसा वह फिर बोला, “ले लो भैया. सांता आपकी विश पूरी करेगा.” उसकी इस बात पर आकाश रुका और उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुराया… फटी हुई कमीज़ पहने उस लड़के को देखकर मन हुआ पूछे, "तुमने विश मांगी है कभी?" पर वह जानता था इस बात का जवाब उसके पास नहीं होगा… पता नहीं उसके माता-पिता में सांता बनने की हैसियत होगी भी या नहीं.
“दे दूं एक?..” उसने अपनी आशा भरी नज़रें आकाश पर टिकाई और आकाश की नज़रें सांता पर टिकी थी… स्मृतियों में सहसा बचपन के क्रिसमस की कुछ झाकियां छा गईं. क्रिसमस के दिन जब वह सोकर उठता, तो तकिए के नीचे कभी चॉकलेट, तो कभी खिलौने मिलते.
पापा आश्चर्य का भाव चेहरे पर लाकर उसका सारा दारोमदार सांता पर डालते. फिर उसका भोलापन सयानेपन में तब्दील हुआ और वह पापा के सामने बाकायदा ऐलान करने लगा कि उसे इस साल सांता से क्या चाहिए.
“देखो भई, सांता को बहुत सारे गिफ्ट्स बांटने हैं, इसलिए ज़रा डिमांड भी छोटी रखना…" और फिर सांता से क्या मांगा जाए इस पर बकायदा मोलभाव भी होता.
“ले लो न भैया… पिछले दो घंटे से एक भी नहीं बिका…”
बच्चे की उदासी में डूबी आवाज़ ने उसके मन को द्रवित किया और उस बच्चे में उसे अपना अक्स दिखा. सांता न बिकने से उसकी कमाई नहीं हुई और यहां नौकरी जाने से उसकी कमाई के सारे स्रोत बंद है…
“अच्छा चलो, एक दे दो…” उसके मुंह से निकला, तो बच्चे का चेहरा फूल-सा खिल गया. पैसे देकर उसने हाथ देकर एक टैक्सी रोकी और घर आया.
आशा के विपरीत मम्मी-पापा ने पूछा नहीं कि वह दोपहर से कहां था. घर में अजीब-सा सन्नाटा पसरा था. रात को खाना खाते समय पापा उससे कहने लगे, “जीवन में यह सब लगा रहता है. वैसे भी तुम्हारी जॉब टेम्परेरी ही थी. डेढ़ साल बाद छोड़ते अभी छूट गई.
आकाश की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, तो मम्मी ने पापा को चुप रहने का इशारा किया. खाना खाकर वह सोने चला गया, पर देर रात तक उसे नींद नहीं आई… आ तो गया है, पर कैसे हर चीज़ के लिए मम्मी-पापा के सामने हाथ फैलाएगा. कोई पार्ट टाइम जॉब ढूंढ़ना ही पड़ेगा. सोचते-सोचते देर रात नींद आई. सुबह जब आंख खुली, तो देखा उसके सिरहाने पर चमकीले रैपर के साथ पार्क स्ट्रीट वाला सांता रखा हुआ था. रैपर उठाकर खोला, तो उसमें चॉकलेट थी.
“क्या है ये… मैं कोई बच्चा हूं, जो ये सब…” मन ही मन भुनभुनाते हुए वह उठा… तो पापा की आवाज़ आई, “बच्चे ही तो हो तुम…” उसने चौंककर देखा. पापा वहीं एक कुर्सी पर बैठे उसे एकटक देख रहे थे… वह आनमना हो उठा, तो वह उसके पास चले आए और उसके सिर पर हाथ फेरकर बोले, “कल से देख रहा हूं, बहुत परेशान हो.”
“अरे पापा, अब सुबह-सुबह मत शुरू हो…” बोलते-बोलते वह सहसा चौंका, जब पापा ने उसके हाथ में एक चेक पकड़ाया.
“तुम्हारे ही रुपए हैं…” पापा ने गंभीर स्वर में कहा. वह भौचक्का-सा चेक के अंकों को देख रहा था, “सवा तीन लाख!..”
“तुम्हारे दस हज़ार रुपए रिकरिंग डिपॉजिट अकाउंट में पिछले ढाई साल से जमा कर रहा हूं… जानता था कभी तो तुम्हें ज़रूरत पड़ेगी. अब तुम इसे अपने अकाउंट में डाल दो और एम.बी.ए. की तैयारी शुरू करो.”
आकाश की पीठ सहलाते हुए वह फिर बोले, “अभी हम हैं बेटे… इतनी चिंता ठीक नहीं है…”
“सॉरी पापा… बहुत परेशान था. अकाउंट में बस लास्ट सैलरी है. हर महीने सोचता था कि सेविंग करूं, पर कर ही नहीं पाया… काश! थोड़ी सेविंग करता.” बोलते-बोलते उसकी आवाज़ भर्रा गई, तो पापा उसके पीठ थपथपाते हुए बोले, “अरे तो क्या हुआ, अब नहीं की, तो आगे कर लेना."

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क्षणांश मौन के बाद वह गंभीरता से बोले, "जानता है आकाश, जब तू छोटा था और स्कूल में पिकनिक पर जाता था, तब मैं हमेशा तुम्हें यह सोचकर ज़्यादा पैसे देता कि कहीं ज़रूरत न पड़ जाए… मैं कहता था जो बचे, उसे वापस कर दे. पर तुम सब ख़र्च करके ही आते…”
“ओह! समझा, इसलिए मुझसे लोन के बहाने मांगा…”
“क्या करता, जानता था कि तुम्हें सेविंग की आदत नहीं है… शायद मेरी ग़लती रही, जो तुममें सेविंग की आदत न डाल पाया…”
“नहीं डाल पाए, तो अब डाल दी… ये चेक देकर… आपका दिया ये चेक कभी नहीं भूलूंगा…” आकाश को भावुक देखकर पापा ने चॉकलेट का टुकड़ा उसके मुंह में डालकर कहा, “मैरी क्रिसमस…”
“मैरी क्रिसमस… आप मेरे सांता हो.” वह कुछ झेंपते सकुचाते बोला और फिर अपने पापा के गले लग गया. बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन में सांता से गिफ्ट मिलने पर पापा के गले लग जाया करता था.

मीनू त्रिपाठी

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