अम्मा ने दरवाज़ा खोला, तो जैसे अंतरिक्ष के माथे पर किसी ने हथौड़ा मारा. रात की रंगीनियों की मस्ती में डूबी हुई बहू, पौत्र, पौत्री यहां तक कि उस कृतघ्न पुत्र तक को यह याद नहीं था कि उसके घर के एक कमरे में एक मां और भी है, जिसने खाना खाया या नहीं यह भी उन्हें नहीं पता.
फिर वही सब. उठो, भगवान को नमस्कार करो, जैसे-तैसे नहा-धोकर जुट जाओ. सुबह का नाश्ता, पति को कॉफी, सास को चाय, बच्चों को दूध... आज अरुणिमा का मन बिस्तर से बिल्कुल उठने को नहीं था. वह फिर से करवट बदलकर सो गई.
“उठो मम्मी…” अनुभा थी.
“सोने दो.”
“उठो मम्मी…” इस बार आभास था.
मन मारकर उसे उठना ही पड़ा. जैसे ही वह बैठी, दोनों बच्चे उससे लिपट गए और उसके गालों पर चुम्बनों की बौछार कर दी.
“हैप्पी मदर्स डे.”
“अरे, मुझे तो याद ही नहीं था.”
“पर, हमें याद था न, अब आप चुपचाप ऐसे ही बैठी रहना, हम अभी आए.”
अरुणिमा मुग्ध दृष्टि से अपने दोनों युवा होते हुए बच्चों को देखती रही. दोनों ने उसके हाथ में लाकर दो गुलाब और एक सुंदर-सा कार्ड थमा दिया. आत्मविभोर-सी वह नहाने चली गई. जब से अम्मा गांव से उसके पास रहने आई हैं, यह उनका आदेश था कि रसोई में नहाए बिना न जाए.
नहा कर वह जैसे ही रसोई में जाने लगी, बच्चों ने उसका रास्ता रोककर उसे डायनिंग टेबल पर बिठा दिया. डायनिंग टेबल ऐसे सजा हुआ था, जैसे घर में कोई मेहमान आने वाला हो. बच्चे किचन में से उसके फेवरेट टी सेट में चाय और उसकी पसंद का नाश्ता उपमा बनाकर ले आए. वह आश्चर्यचकित थी. जो बच्चे कभी एक ग्लास पानी तक स्वयं लेकर नहीं पीते थे, आज कैसे भाग-भाग कर सब काम कर रहे थे. उधर इस सारी भागदौड़ को देखकर अम्मा चकित थी कि यह सब हो क्या रहा है? न तो आज किसी का जन्मदिन है, न कोई तीज-त्योहार. होगा कुछ. उन्होंने अपने विचारों को झटका और अपने कमरे में जाकर गीता-पाठ करने लगीं. अंतरिक्ष टेबल पर बैठे हुए उसकी प्रतिक्षा कर रहे थे. उसे लग रहा था- उसके इस छोटे से परिवार में उसका भी एक महत्वपूर्ण स्थान है.
“खाओ न मां, उपमा मैंने बनाया है?” अनु बोली.
“झूठी कहीं की, मैंने बनाया है.” आभास बोला.
“तूने क्या किया? सिर्फ़ मिर्च काटी और प्याज़.”
“अच्छा… और सूजी किसने भूनी?”
“सब तूने किया है, बस.”
अरुणिमा बच्चों का झगड़ना देखते हुए बड़े प्यार से उपमा खा रही थी. मुंह में एक चम्मच उपमा रखते ही अनुभा बाहर भागी.
“आप कैसे खा रही हैं? कितना नमक है इसमें.”
“मुझे तो नमक नहीं लग रहा.”
“झूठ बोल रही हैं आप.”
“इसमें तुम दोनों का प्यार जो बसा है. तुम नहीं समझोगे. अभी तुम छोटे हो. धीरे-धीरे सीख जाओगे. फिर तुमने पहली बार बनाया है.”
नाश्ता करके वह बर्तन समेटने लगी, तो दोनों ने आकर उसे रोक दिया.
“आज कुछ भी नहीं करेंगी आप. अपने कमरे में जाकर अपनी पसंद की कोई क़िताब पढ़िए.”
“और खाना? क्या खाना भी तुम दोनों बनाओगे?”
“नहीं, हमने रेस्टोरेंट में ऑर्डर दे दिया है वहां से आ जाएगा.”
“और दादी. दादी क्या खाएंगी? वह तो बाहर का खाना नहीं खातीं.”
“हमने उनसे पूछ लिया है, वह कह रही थीं कि दलिया बना कर खा लेंगी.”
अपने कमरे में जाकर वह शांत चित्त से लेट गई. कितना आराम, कितना सुकून मिल रहा था. अरुणिमा अपने बचपन की यादों में डूब गई. उसके समय में मां बारह महीने, तीन सौ पैंसठ दिन घर में सबके लिए खटती रहती. उसके लिए ऐसा कोई दिन नहीं बना था, जब एक दिन के लिए ही सही उसे अपनी अहमियत समझ में आए. भला हो इस अंग्रेज़ी कल्चर का जो उन्होंने एक दिन तो मां के नाम कर दिया है. यही सब सोचते-सोचते उसे नींद आ गई.
“मां उठो, लंच टाइम हो गया है.”
आंखें खोलकर अरुणिमा ने देखा एक बज रहा था. मुंह धोकर वह डायनिंग टेबल पर आ गई. उसके बगीचे में जितने फूल थे, सब लाकर बच्चों ने टेबल पर सजा रखे थे. मोगरे और गुलाब की भीनी-भीनी ख़ुशबू हवाओं में तैर रही थी. अनुभा और आभास भाग-भाग कर प्लेट लगाने लगे. सारा खाना अरुणिमा की पसंद का था, यहां तक कि खाने के बाद अनुभा फ्रिज में से उसको बेहद पसंद बनारसी पान भी ले आई. वह समझ गयी सिर्फ़ बच्चे ही नहीं इस सारे आयोजन में अंतरिक्ष भी उनके साथ है.
खाना खाकर वह कमरे में गई, तो देखा पलंग पर दो गिफ्ट पैकेट रखे हैं. अरुणिमा ने आहिस्ता से पैकेट खोले. उपहार देखकर वह दंग रह गई. एक पैकेट में उसके फेवरेट रंग की शिफॉन की लाल बांधनी थी, दूसरे में उसके प्रिय लेखक शतरचंद्र की ‘श्रीकांत’ थी. अब उससे न रहा गया. बच्चों की भावनाएं व प्यार से वह अभिभूत थी. उसके आंसू बहने लगे. उसने दोनों बच्चों को गले लगा लिया. शाम को पांच बजते ही वह फिर उसके पीछे पड़ गए.
“जल्दी से तैयार हो जाओ. हमने पापा से कह कर फिल्म के टिकट मंगवाकर रखे हैं. पहले पिक्चर, फिर डिनर. वाह! मजा आ गया.” अनुभा बेहद उत्साहित थी. फिल्म देखकर और बढ़िया-सा डिनर लेकर जब वह घर लौटे, तो रात के ग्यारह बज चुके थे.
अम्मा ने दरवाज़ा खोला, तो जैसे अंतरिक्ष के माथे पर किसी ने हथौड़ा मारा. रात की रंगीनियों की मस्ती में डूबी हुई बहू, पौत्र, पौत्री यहां तक कि उस कृतघ्न पुत्र तक को यह याद नहीं था कि उसके घर के एक कमरे में एक मां और भी है, जिसने खाना खाया या नहीं यह भी उन्हें नहीं पता. बच्चों के प्यार के नशे में डूबी अरुणिमा अपने कमरे में जाकर सो गई.
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अंतरिक्ष का मन भर आया. क्या मदर्स डे सिर्फ़ जवान और आधुनिक मां के लिए ही होता है? वृद्ध का उस दिन पर कोई अधिकार नहीं होता? क्या वह मां नहीं होती? पश्चाताप से अंतरिक्ष के आंसू बहने लगे. इस सारे आडंबर में वह कैसे अपनी सीधी-साधी सात्विक जननी को भूल गया. उस मां को जिसने सारी जवानी उसके लिए स्वाहा कर दी. सात साल का था, जब पिता चल बसे थे. मां ने उसे कभी कोई अभाव महसूस न होने दिया. हमेशा वह उसके खाने के बाद बचा-खुचा खाती थी. आम वह खाता था, गुठलियां वह चूसती थी. उसके बच्चों ने तो अपना फ़र्ज़ पूरा कर लिया, पर उसने? उसने अपनी मां के लिए क्या किया? जब रेस्टोरेंट में अनुभा और आभास अरुणिमा को ठूंस-ठूंस कर खाना खिला रहे थे, वह वृद्धा सुबह का बचा हुआ दलिया खा रही थी.
अंतरिक्ष को ऐसे गुमसुम सोफे पर बैठे हुए देखकर अम्मा अपने कमरे से बाहर आ गई.
“ऐसे अकेला क्यों बैठा है अनु?”
“बस ऐसे ही.”
“आज क्या था बेटा?”
आज का दिन तेरा था अम्मा. अंतरिक्ष ने कहना चाहा पर उसकी ज़ुबान ने साथ नहीं दिया.
“तू थोड़ी देर यूं ही बैठी रहना. मैं अभी आया.”
अचानक वह अम्मा का छोटा-सा अनु बन गया. किचन में जाकर उसने जल्दी से मां की पसंद का सूजी का हलवा बनाया और दो कड़क चाय. उसे पता था मां को जब चाहो, जिनती बार भी चाहो पिला दो कभी मना नहीं करेगी.
“ले खा और चाय पी.”
अम्मा की आंखों में वात्सल्य की चमक लहराई. वही धीरे-धीरे हलवा खाने लगीं. उसके तृप्त होते हुए चेहरे को देखकर अंतरिक्ष को जीवन की सारी ख़ुशियां मिल गई. उसे लगा सच्चे अर्थों में उसके लिए तो मदर्स डे की परिभाषा अभी इसी समय पूर्ण हुई है.
- निशा चंद्रा
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