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कहानी- मिसेज़ फलाना नहीं… (Short Story- Mrs. Falana Nahin…)

दादी समझती थी कि पंडितजी के वास्तु से प्रसिद्धि अब बहुत शांत हो गई, पर सच तो यह था उनकी बात उसके दिल पर लग गई थी. वह अधिक समय अब पढ़ा ही करती. अब घर में अधिकतर सन्नाटा ही रहता. उल्टे-सीधे गाने भी नहीं सुनाई पड़ते. अरुण को भी शक होता. ये बगल के बच्चे कहीं गए हुए हैं क्या? कोई हो हल्ला नहीं होता.

अरुणोदय प्रसिद्धि का गाना सुनकर हंंस-हंंस कर लोटपोट हुआ जा रहा था. बगल में ही तो था उसका घर. आंगन में प्राची दी की रखी बड़ी साइकिल पर कैंची चलाते हुए गाना गाए जा रही थी- एक पत्थर दिल के ऊपर बैठी… असल में गाना तो था 'एक पत्थर दिल को मैं दिल दे बैठी…' अरुणोदय आईएएस की तैयारियां कर रहा था. उम्र लगभग 21-22 साल और प्रसिद्धि ने अभी हाई स्कूल ही तो पास किया था, होगी कोई 14-15 साल की, लेकिन हरकतें छोटे बच्चों जैसी. उसे अरुण दा कहा करती. कोई भी प्रश्न दिमाग़ में उठना चाहिए था किसी से उत्तर नहीं मिलता, तो वह पूछने झट अरुण दा के पास आ जाती. प्रश्न भी तो इतने सारे होते, पिटारा भरा ही रहता. उसके मस्तिष्क की उर्वरा ज़मीन में प्रश्न उगा ही करते.
घर में मम्मी-पापा, दादी-दीदी, प्राची जो पिछले साल ही शादी होकर बरेली चली गई थीं और छोटा भाई पुण्य ही तो थे उसके. पुण्य सातवीं कक्षा में पढ़ता था.
क्लास के बाद उसका यही शग़ल रहता या तो कैंची साइकिल चला रही होती या बादलों, सीमेंट उखड़ी दीवारों में आकृतियां ढूंढ़कर चाॅक से उकेरा करती. तो कभी दादी और पुण्य को कहती, "आओ कंप्यूटर पर शब्दों की ट्रेन दिखाऊं. फिर शब्द वाक्य खिसका कर ख़ुश होती. विजया-विशंभर हंसते, "ख़ूब कहा शब्दों की ट्रेन विचित्र लड़की है विचित्र कल्पना-अभिव्यक्ति!"
छोटी थी, तो कभी पुण्य को टॉवल पर बिठाकर मार्बल की फ़र्श खींचकर पूरे बरामदे में सैर कराती. कभी लाल ईंट, पत्थर पर घिस-घिस पाउडर शीशी में भर, फेरीवालों की तरह बेचने का नाटक किया करती. "लाल दंत मंजन ले लो…" ग्राहक भी कौन होते मम्मी, दादी, पुण्य और चपरासी काका उन्हें झक मार कर हंसते हुए लेना ही पड़ता, नहीं तो बगलवाले अरुण दा तो थे ही. पता नहीं ख़ुद की उपज थी या किसी से सीखा था कि मोम पानी में टपक-टपका कर साबूदाने जैसा पापड़ बनाती और नए साथियों को बेवकूफ़ बना आनंद से भर उठती. कभी ईयरफ़ोन को डाॅक्टर का आला बना दादी और पुण्य का इलाज करती मिलती.
एक दिन तो पानी भरी बाल्टी में इमर्शन राॅड लगाकर भूल गई. सारा पानी भाप बनकर पूरे बाथरूम में भर गया. स्विच ऑफ कर ख़ुशी से चिल्लाई थी, "पुन्नू देख, हमारा सोना बाथ बन गया. जल्दी-जल्दी स्टीम बाथ ले ले फिर मैं…" मम्मी और दादी से बड़ी डांट पड़ी थी उस दिन.
"अभी कुछ दुर्घटना हो जाती तो..?" पापा ने बात सम्भाल ली थी. "कोई बात नहीं हो जाता है कभी-कभी विजया… आगे से ध्यान रखेगी प्रसू है न?"
"बड़ी हो जा प्रसू, कब तक चलेगी तेरी ये शरारतें कुछ तो ढंग के काम किया कर. ससुराल में क्या करेगी?" कभी मम्मी डांटती, तो उसका पुराना पंसदीदा गाना चल पड़ता, जो विविध भारती की शौकीन विजया अक्सर गुनगुनाया करती थी, पर प्रसू गाती, "दर्द अनोखेराम दे गया प्यार के… छुप गया कोई रे…" या "लो आ गई उनकी खाद वो नहीं…"

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"कितनी बार कहा अनोखेराम नहीं अनोखे हाय दे गया प्यार के…" और "लो आ गई उनकी याद है खाद नहीं…" कहते हुए मम्मी विजया हंस पड़तीं.
"बिल्कुल पागल ही है. बेसिर पैर की हो जैसे."
"आप फिल्मवालों को क्यों नहीं कहतीं क्यों बेसिर पैर के गाने लिखते हैं, वो आपके विविध भारती पर आते हैं न.. ऐ हसीना जुल्फ़ों वाली… पूछा था पापा से ज़ुल्फ़ मतलब बाल और हसीना मतलब लड़की… भला बिना ज़ुल्फ़ों के कौन-सी लड़की होती है मम्मा. मर जाऊं तुम्हारे गालों पर… भला गालों पर कोई मर सकता है, इत्ता सा तो गाल होता है. और उस दिन प्रोजेक्टर पर पुरानी मूवी कौन-सी देख रही थीं शर्मा आंटी के साथ? हांं, टायटल याद आया 'दो बदन' क्या दिखाया होगा एक मोटा एक पतला… ये भी कोई टायटल है?"
विजया हंंसने लगी.
"तुझसे कौन बहस करें. कढ़ी के लिए पकौड़ियां तली हैं तुझे चाहिए तो ले ले, वरना सब डाल दूंगी कढ़ी में."
"नो नो मम्मा, आती हूं रुक जाइए मैं छांट लूं." साइकिल एक ओर कोने में दीवार से टिका वह किचन में पहुंच जाती.
"आजा पुन्नू, यह देख तुझे भी हाथी की सूंड़ दिखाऊं. यह देख बत्तख, यह देख तितली, यह घोड़ा!" वह पकौड़ियों के तरह-तरह के आकार पुण्य को दिखाकर इठलाती.
"चल अरुण दा को दिखाते हैं."
"अरे प्रसू, रुक जा उसे डिस्टर्ब न किया कर पढ़ रहा होगा. तेरी तरह मटरगश्ती थोड़ी करता रहता है."
"एक मिनट में क्या हो जाता है मम्मा, आती हूं अभी दिखा कर के. चल आजा पुण्य."
दोनों भाई-बहन अरुणोदय को पकौड़ियों के बत्तख-हाथी दिखाने झट से ओझल हो गए.
"हद है इस लड़की की भी. जाने कब बड़ी होगी. विशंभर भी इसे कुछ बोलते नहीं. सिर पर चढ़ा रखा है अपनी लाडली को."
"अरे रहने दे विजया, ब्याह के पहले ही मस्ती कर सकती है. फिर शादी के बाद तो तमाम झमेले धीर-समझदार बना कर ही छोड़ते हैं. वैसे परीक्षा में तो ठीक ठाक नम्बर ले आती है और क्या चाहिए. समझदार तो है." दादी ने समझाया.
"हां अम्माजी, देखी नहीं उसकी समझदारी. परीक्षा के हफ़्तेभर पहले से बड़ी पुजारन बन जाती है. जय हनुमानजी.. हनुमानजी.. पेपर अच्छे न हुए तो हनुमानजी को हटा फिर रामजी.. रामजी.. शुरू हो गया. फिर पेपर मन लायक न हुआ, तो रामजी की बन आई… फिर शंकरजी तो कभी और भगवान… ईश्वर भी डर जाते होंगे, जो अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हो जाती है." कहते हुए विजया हंस पड़ी.
विशंभर दयाल कोर्ट से आ गए थे.
"अपनी मिस खुराफ़ाती कहां है भई?" मौसम अजीब सा हो रहा था. आंधी धूल धक्कड़ में बिल्कुल अंधेरा-सा हो रहा था.
"कहां थी प्रसू? देख तेरे पापा भी आ गए."
"वो मम्मा…" लंबी फ्रिल वाली फ्रॉक के घेरे में इकट्ठी की छोटी-छोटी गर्म अमिया उसने मेज पर फैला दीं. कुछ पुण्य ने भी कमीज़-निकर से अपना बीना ख़ज़ाना भी उत्साहित होते हुए उलट दिया.
"देखो मम्मा कितने सारे हैं. थोड़ा हम खाएंगे, थोड़ा आप खट्टा-मीठा वाला अचार बनाना." ताली पीट कर दोनों हर्ष मिश्रित आश्चर्य अपने परिश्रम का ख़ज़ाना देख रहे थे.
"अच्छा इन गिरी पड़ी कच्ची-पक्की अमियों का अचार बनेगा?"
"अरे ऐसा क्यों कहती हो विजया, प्रसू झट इनकी चटनी बना लाएगी बहुत अच्छी-सी, तुम्हारी पकौड़ियों के साथ ख़ूब जमेगी."
"रुको, पहले हाथ-मुंह धो, हुलिया ठीक करो. फिर मिक्सी को हाथ लगाना और पिछली बार की तरह प्लेटफॉर्म टाइल्स पर चटनी के नक्शे नहीं बनने चाहिए."
"ओके मम्मा, आजा पुन्नू!" प्रसू उसे साथ ले गई.
"यह लड़का भी दीदी की सारी बात सुनता है और किसी की माने चाहे ना माने." विजया मुस्कराई.
"अरे कोई ग़लत बात तो नहीं अच्छी बात तो सिखाती है."
"हां, तभी तो इसके सिखाने पर ही रास्तेभर जितनी गाय-भैंस मिलती हैं या कुत्ते मिलते हैं, सबको गइयाजी, भैंसजी, कुत्ताजी नमस्ते करते जाता है ये पुन्नू. उस दिन बर्थडे पर वर्माजी के घर गया, तो एक्वेरियम के आगे खड़ा होकर लाल मछलीजी नमस्ते, पीली मछलीजी नमस्ते…" हम सब हंंसने लगे. मुस्कुराते हुए विशंभरजी भी जल्दी से फ्रेश होकर गुनगुनाते हुए डायनिंग टेबल पर आ गए थे.


"आप तो बिल्कुल जोकर की तरह गाते हैं पापा." प्रसू ने खिलखिलाते हुए चटनी का बाउल टेबल पर रख दिया.
विजया ने उसे आंखें दिखाई, तो विशंभर हंस दिए, "ठीक ही तो कह रही है प्रसू, ग़लत कहां!"
"… ये लीजिए, मम्मा की पकौड़ी चाय के साथ हमारी ताज़ी अमिया की चटनी भी तैयार है. अब साॅस का क्या काम?" प्रसू ने बाॅटल पीछे सरका दी. विशंभर लाड़ से मुस्कुराए थे.
"प्रसू, पहले ये प्लेट दादी को वहीं दे आ." विजया ने उसे दादी के लिए पकौड़ियां थमा दी थीं.
"हम्म बड़ी ज़ायकेदार बनी है तेरी चटनी. थोड़ी और ला इतने से क्या होगा मिसेज़ अनोखेराम?" दादी ने चटखारा लेते हुए कहकर उसे छेड़ा था.
"… अब जाकर तू भी खा."
"फिर वही बात… बोला है न दादी मुझे कोई मिसेज़ फ़लाना नहीं बनना. मुझे ख़ुद कुछ बनना है. आप लोगों की जैसी तो बिल्कुल नहीं…" उसका पारा चढ़ गया. वह रुठते हुए बोली और पैर पटकती चली गई. चटनी का बाउल दादी को पुण्य के हाथों भिजवा दिया. दादी मुस्कुराने लगी.
"पापा, दादी को देखो कैसे गपागप पकौड़ियां उड़ाए जा रही हैं… जबकि कहती रहती हैं भोले शंकर से उठा ले मुझे अब दुनिया में दिल नहीं लगता." प्रसिद्धि खिलखिलाई, तो पुण्य भी हंस पड़ा. विजया ने टोका, "ग़लत बात बड़ों को ऐसा नहीं कहते."
शाम को दादी को दर्द उठा पेट में तो फौरन हमेशा की तरह दादी ने प्रसू के डॉक्टर मामा आयुष को बुला लिया.
"क्या हुआ अम्माजी दर्द कहां है? क्या खा लिया?"
"मामा, दादी ने ख़ूब सारी अमिया की चटनी और पकौड़ियां खाई है तभी से दादी का प्रोडक्शन…" खी खी… प्रसू की हंसी निकल गई.
"तू जल्दी दवाई दे आयुष मैं मरी… हाय."
"अच्छा अच्छा ये लीजिए, अभी आराम आ जाएगा." आयुष ने अपने बैग से निकाल कर सिरप और गोलियां दीं.
हाॅट वॉटर बैग से थोड़ी सिंकाई करके सो जाइए, तो कल तक दर्द बिल्कुल सही हो जाएगा. ध्यान रखा कीजिए न. तेज़ गर्मी, सर्दी, बारिश मिर्च-खटाई, तेल-घी से थोड़ा बचके रहा कीजिए हमेशा कहता हूं आपसे. अब तकलीफ़ बढ़े तो बतलाइएगा. अच्छा अम्माजी चरण स्पर्श. चलता हूं." दोनों बच्चे मामा के साथ हो लिए. प्रसू के प्रश्न आरम्भ हो गए…
"अच्छा मामा ये बताइए आप यदि आदमी चाहता है कि वो अब इस दुनिया से चल पड़े इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना भी करता रहे, तो ईश्वर क्या करे? कहीं से कुछ तो ख़राब करना शुरू करेगा बाॅडी में. तब तो हाय.. हाय.. करने लगता है प्रभु बचा हमें… डाॅक्टर के पास दौड़ता है. ईश्वर ने पेट छुआ तो हाय, सिर पकड़ा तो हाय, आंख, पैर कुछ भी तो आदमी ख़राब करने नहीं देना चाहता. ईश्वर कंफ्यूज़ नहीं हो जाता होगा कि करें तो क्या करे?"
आयुश मुस्कुराया था, "ईश्वर कंफ्यूज़… हा हा..! अरी शैतान दिमाग़ मिस ख़ुराफ़ाती." वह हंस पड़ा.
"मम्मी को बताऊं तेरी?" उसने प्रसू के सिर पर प्यार से थपकी दी.
"तो दादी ने फिर तुझे चिढ़ाया मिसेज़ अनोखे… कहकर है न? उसी खुन्नस में तू…"आयुश हंसा.
"जाओ मामा आपसे नहीं बोलते… अरुण दा से ही पूछूंगी, पर वो खाली ही कब रहते हैं. आपसे स्केलवाला प्रश्न पूछा था, आपने वो भी नहीं बताया कि हमें कोई भी चीज़ दूसरे से अलग क्यूं नहीं दिख सकती… आपको बड़ी दिख रही हो और मुझे छोटी, तो आप पता कैसे कर पाओगे, बताओगे कैसे? मुझे लाल दिख रहा हो, आपको वही हरा, तो कैसे बताओगे आप?"
"बक्श मेरी मां मुझे, अपने अरुण दा से ही पूछना." वह हंंसा.
"फिर आपने डॉक्टरी कैसे पढ़ ली मामा?"
"तेरे सवालों में उलझा रहा, तो डाॅक्टरी छोड़नी ही पड़ेगी. ज़्यादा अरुण दा अरुण दा करेगी, तो तेरी शादी अरुण से ही करवा दूंंगा, फिर पूछती रहना अपने सारे खुराफ़ाती प्रश्नों के उत्तर उससे मिसेज़ फ़लाना बनकर…" उसने हंसते हुए कहा.
"मम्मी देखो मामा को…" वह अपनी छोटी-छोटी मुक्कियां उसकी पीठ पर जमाने लगी.
"मैंने बोला न मुझे ख़ुद कुछ बनना है… आप ही बनिए मिस्टर फलानी."
"मिस्टर फलानी "आयुष ज़ोर से हंस पड़ा.
"…प्रणाम जीजी, जीजू चलता हूं संडे को आता हूं सबको लेकर फिर लंच साथ करेंगे. इसका फूला मुंह भी ठीक करना है. अभी जल्दी में हूं. मम्मी के पंडितजी आंखें दिखाने आ रहे हैं. उनको लेने स्टेशन जाना है." आयुष ऊंचे स्वर में कहता हुआ बाहर निकल गया.
सरकारी डॉक्टर आयुष, विजया का अविवाहित चचेरा छोटा भाई. उसकी अभी हाल ही में सीतापुर पोस्टिंग हुई थी. वहां के मशहूर आई हॉस्पिटल के पास उसे घर मिला था. जो प्रसू लोगों की काॅलोनी से बहुत अधिक दूर न था. पंडितजी का मोतियाबिंद का ऑपरेशन था. 8-10 दिन में वे ठीक हो गए और उनका ज्योतिष कुंडली, वास्तु ज्ञान, प्रवचन फिर आरम्भ हो गया था.
एक दिन आयुष के माता-पिता अपनी भतीजी के घर आए, तो पंडितजी भी साथ थे. तो यहां भी वास्तु के कई उपाय उन्होंने भी बता दिया.
"घड़ी पूर्व की ओर लगाओ. शीशा शयन कक्ष में नहीं होना चाहिए. कांच के पात्र में जल सेंधा नमक के साथ उस दिशा में रखो. वहां रखो पीतल का कछुआ. मछली घर वहांं रखो… दादी जी आपका स्वास्थ्य इसी से तो रह-रह के ख़राब हो जाता है. धन रुकता नहीं, प्रसू का चित्त स्थिर नहीं रहता…" बस वह इधर का सामान उधर उधर का सामान इधर वास्तु के हिसाब से यहां भी सही करवाने लगे. चाचीजी और दादी के आगे विजया की एक ना चलती पंडितजी की बातें माननी ही पड़ती. अलॉटमेंट का मकान था, वरना पंडितजी उसमें भी तुड़वाकर फेरबदल करवा देते. विशंभर परेशान रहते कि उनका ऑफिस जाते समय शीशा अपनी जगह नहीं मिलता, उनकी घड़ी जाने किस दिशा में रखी होती. उनके पॉकेट में सफ़ेद की जगह पीले, हरे रुमाल रखे मिलते. खाने में ग्रहों के अनुसार पीली शिमला मिर्च और चुकंदर की सब्ज़ी देखकर वह झल्ला उठते.
"विजया गज़ब हैं तुम्हारी चाचीजी और उनके पंडितजी, अम्मा के दिमाग़ में फ़िज़ूल का कीड़ा डाल जाते हैं."
"कोई नहीं परसों अपने गांव बिसवां वापस जानेवाले हैं, पर दादी ने उन्हें कल घर शुद्धि का हवन कराने बुला लिया है." विजया ने कहा.
विशंभर चुपचाप चले गए.
"मम्मा, पंडितजी का किडनी, अमाशय, दिमाग़ सबका वास्तु गड़बड़ लगता है. उनसे कहो कि हाॅस्पिटल जाकर अपने ग्रहों के हिसाब से स्थान परिवर्तन करवा लें." प्रसू खिलखिला उठी, तो विजया ने आंखें तरेरीं.
पंडितजी का पूजा-हवन हो गया. फिर भरपेट पकवानों का भोजन भी. डकार मारकर वे धीरे-धीरे खड़े हुए.
"चलता हूं अम्माजी. अब आप चिंता बिल्कुल मत करना. हमने सारे उपाय कर दिए हैं आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा. बेटा ख़ूब पढ़ेगा, बड़ा होकर विदेश जाएगा. अब बेटी की चंचलता भी कम हो जाएगी, पढ़ेगी भी. वैसे राजयोग है इसका तो, किसी बड़े अधिकारी से ही विवाह होगा अधिक पढ़कर क्या करना…"

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"क्यों पंडितजी मेरा राजयोग है, तो मैं ही तो अधिकारी बनूंगी आपने ऐसा कैसे…" ऐसी की तैसी पंडितजी की… वह दांत भींच कर मन ही मन बुदबुदाने लगी. क्यूं न वह उनकी चुटिया ही काट दे पीछे से… कोई नहीं, उपहार तो उन्हें ज़रूर दूंगी. उसने नज़रें बचाकर एक्वेरियम से एक कछुआ निकालकर उनके कुर्ते के पाॅकेट में डाल दिया. बहुत शुभ करेगा पंडितजी… अपनी शरारत पर मुस्कुराई. पुण्य ने देख लिया था हंंसी दबाते हुए मुंह पर हाथ रखा था. मोबाइल निकालते समय जो पंडित के हाथ ने किसी जीव का स्पर्श किया, तो वे उछलने-कूदने लगे.
"अरे बचाओ, अरे बचाओ मेरे पाॅकेट में ये क्या हैं? कहांं से आया?" एक मिनट तक पंडितजी उछलते रहे. मस्तक पर पसीने की बूंदें झिलमिलाने लगी. उनके हृदय ने धौंकनी सी गति पकड़ ली थी.
"अरे रुकिए तो पंडितजी देखूं तो क्या है?" आयुष ने मुस्कुराकर उनकी जेब में हाथ डाला, तो वह कछुआ बाहर आ गया. सबकी आंखें इस शैतानी के लिए प्रसू की ओर घूम गई थी.
"प्रसू हद होती है यह कोई तरीक़ा है बड़ों से मज़ाक करने का." विशंभर ने डांट लगाई.
"क्षमा मांगो पंडितजी से और वापस उसे एक्वेरियम में पहुंचा दो."
"साॅरी पंडितजी." कहकर कछुए को लेकर मुंह बनाते हुए प्रसिद्धि अनमनी-सी अपने कमरे में चली गई. पर पंडितजी पर आक्रोश उसे अभी भी था कि क्यूं कहा पढ़कर करेगी क्या…
"अजब लड़की है… क्षमा करें पंडितजी वैसे कछुआ शुभ ही होता है." कहकर विशंभर मुस्कुराए. पंडितजी अभी भी दिल थामे खड़े थे. जल्दी-जल्दी उन्होंने अपनी चप्पलें पहनी सबसे विदा लेकर आयुष के साथ प्रस्थान कर गए.
"अब तो शायद ही पंडितजी फिर आएं." विशंभर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे.
दादी समझती थी कि पंडितजी के वास्तु से प्रसिद्धि अब बहुत शांत हो गई, पर सच तो यह था उनकी बात उसके दिल पर लग गई थी. वह अधिक समय अब पढ़ा ही करती. अब घर में अधिकतर सन्नाटा ही रहता. उल्टे-सीधे गाने भी नहीं सुनाई पड़ते. अरुण को भी शक होता. ये बगल के बच्चे कहीं गए हुए हैं क्या? कोई हो हल्ला नहीं होता. फिर कुछ दिनो में वह आईएएस कोचिंग के लिए दिल्ली ही चला गया.
विजया डांटती भी, "अब तो शाम होने को आई कमरे से बाहर निकल प्रसू गोधूलि बेला में पढ़ा नहीं जाता. जा पुण्य के साथ कुछ खेल वह भी अकेला पड़ गया है."
दादी को भी उसकी चुप्पी खलती, "आजा प्रसू अब नहीं चिढ़ाऊंगी तुझे. दादी से थोड़ी हंसी-ठिठोली तो किया कर… मैं कब तक रहूंगी, शंकरजी मुझे जाने कब बुला लें."
परन्तु पंडितजी की बात प्रसिद्धि के दिल पर इस कदर लग गई थी कि उसने ठान ली थी कि उसे कुछ भी करना है, पर मिसेज़ फलाना नहीं बनना. उसका अथक परिश्रम रंग लाया था. इन्टर में उसने टाॅप किया. प्रसिद्धि के बीएससी, एमएसी होते-होते पापा ने उसकी रुचि और हठ देखकर उसे आईएएस के नोट्स मंगवा दिए और फॉर्म भी भरवा दिया. इस बात से दादी काफ़ी नाराज़ थीं, क्योंकि आयुष के सफल विवाह उपरान्त उन्होंने विजया की चाचीजी से कहकर उन्हीं पंडितजी के द्वारा प्रसू के लिए कई सारे लड़कों की जन्मपत्री मिलवा रखी थीं कि ग्रैजुएट होते ही प्रसू का रिश्ता किसी बड़े व अच्छे घर-वर से हो जाएगा. उनकी लिस्ट में सबसे ऊपर पड़ोसी अरुण ही था. जब से सुना वह आईएएस बन गया वह पीछे ही पड़ी थीं, पर प्रसू ने पोस्ट ग्रैजुएशन के बाद भी अपनी ज़िद न छोड़ी.
ट्रेनिंग के बाद अरुण आईएएस बनकर दिल्ली में ही नियुक्त हो गया था. वह सीतापुर आया, तो माता-पिता ने उसे विशंभर अंकल की बेटी प्रसिद्धि के लिए दादी का प्रस्ताव बताया, "जन्मपत्री भी ख़ूब मिली है तेरी उससे इतने सारे गुण एक से हैं."
"कौन वो बगलवाली प्रसू…" वह हंसा था.
"और कोई नहीं बस वही लंबी फ्रॉकवाली शैतान मिली मेरे लिए आपको…" उसकी आंखों में प्रसू की स्मृति उभर आई थी.
"अरे बिल्कुल बदल गई है इतने सालों में, बच्ची थोड़ी रह गई है. रंग-रूप भी ख़ूब निखर आया है उसका. देखेगा‌ तो पहचान भी नहीं पाएगा. इतने साल हो गए तुझे… जा के विशंभर अंकल, आंटी, दादी सभी लोगों से मिल आ और उससे भी. सुना है ज़िद पकड़ी हैं उसने कि उसे पहले कुछ बनना है. जिस कारण सबसे चिंतित दादी हैं."
अरुण विशंभर अंकल के घर गया, तो उसकी कल्पना के विपरीत एक सौम्य शांत-सी लड़की नाश्ता लेकर आई थी.
"नमस्ते अरुण दा!" उसने सिर झुकाकर अभिवादन किया.
"अरे ये प्रसू ही हैं न आंटी?" सलवार सूट दुपट्टा… अरुण आश्चर्य में था.
"हां वही है, अब तू ही इसे समझा. आईएएस के लिए बड़ी मेहनत लगती है. बस जल्दी से शादी करके सेटल हो जाए, तो हमें भी ज़िम्मेदारी से मुक्ति मिले. तुम्हारे अंकल ने तो इसकी हर बात माननी ही है. आईएएस का फॉर्म भी भरवा दिया, नोट्स भी मंगवा दिए. उसी में सिर खपाए रहती है. ओह भूल गई बेटा, मैं दादी को दवा देकर आती हूं."
बुत बनी खड़ी प्रसू को असमंजस में देखकर अरुण ने छेड़ा था, "आज कोई प्रश्न नहीं तुम्हारे दिमाग़ में?" वह मुस्कुराया.
"हैं न बहुत सारे अरुण दा… अभी आई." वह नोट्स उठा लाई और फिर उससे संबंधित प्रश्न शुरू हो गए. परन्तु अब प्रश्न खुराफ़ाती नहीं थे.
"मतलब तुम्हें आईएएस बनना ही है…" वह मुस्कुराया.
"अभी पंद्रह-बीस दिन तो यहां हूं ही… जो भी डाउट हो मुझसे पूछ लेना. कुछ हेल्प कर सकूंगा, तो मुझे अच्छा भी लगेगा."
"और मास्टर पुण्य कैसी चल रही पढ़ाई और कैसा है आपका बैडमिंटन? कितने टूर्नामेंट जीते? अब तो प्रसू आपसे हार जाती होगी…"
"हुंअ! अरुण दा अब तो दी खेलती नहीं बस अपने रूम में किताबों में आंखें गड़ाये झूले की कुर्सी बनी झूलती रहती है. चश्मा लगा के तो मानो अफ़सर ही बन जाती है, 'पुण्य ये कर, पुण्य वो कर…'
मुझे तो चपरासी बना दिया." पुण्य चिढ़ा कर हंसा, तो उसके कहने के अंदाज़ पर अरुण को भी हंसी आ गई.
"देख पुण्य बकवास मत कर. पापा को बोल दूंगी समझा..!" प्रसू अपने रूम में फिर गुम हो गई.
"चलिए अरुण दा हम दोनों दो-दो हाथ खेलते हैं मैं रैकेट्स लाया."
"अभी नहीं शाम को अभी धूप है."
"ओके शाम को आप आएंगे न पक्का?"
"पक्का!" वह मुस्कुरा दिया.
"फिर अभी क्या करें अरुण दा चेस खेलेंगे? पर दी ने अपने पास रखा है देती नहीं. कहती हैं अक्लमंदों का गेम है मंद अक्लों का नहीं."
"अरे तुझे कहा था अरुण दा को थोड़े ही… पागल!" कमरे से बाहर प्रकट हुई प्रसिद्धि ने सुन लिया था.
"अरे मैं बेवकूफ़ हूं, तो अरुण दा क्या अकेले खेलेंगे?" पुण्य हंसा.
"…अक्लमंद है, तो आज हो जाए टक्कर अरुण दा से तुम्हारी फिर देखें कौन जीतता है."
"हां कॉलेज की चेस चैंपियन रही है अपनी प्रसू, पर अब सब छूटा पड़ा है इसका. ले आ न प्रसू…" इसी बहाने प्रसू थोड़ी घुल-मिल जाएगी अरुण से… मम्मी मन में सोच रही थीं, उत्साह से बोलीं.
"प्रसू डर रही हो मुझसे कि हार न जाओ."
"अरे नहीं… दा बिल्कुल नहीं, मैं लाती हूं लेकिन…"
"लेकिन किंतु परन्तु कुछ नहीं अब लाइए… चौबीस घंटे में थोड़ा समय रिलैक्सेशन के लिए भी रहना चाहिए."
"लाओ न दी आई एम सो एक्साइटेड!" पुण्य ने चढ़ाया था.
बाज़ी चली…
"अरुण दा कुछ कीजिए आप हार रहे हैं हाथी वज़ीर भी पिट गए."
पुण्य परेशान था, पर प्रसिद्धि की आंखों में जीत की चमक थी.
"हम्म क्या करूँ पुन्नू मियां..?" फिर प्रसू से पूछा, "जिता दूं या हरा..?"
"हरा…" प्रसिद्धि ने मुस्कुराते हुए गर्व से चुनौती दी.
"तो ये लो चेक मेड राजा को ऊंट, घोड़े दोनों से शह पड़ रही थी, तुमने कैसे देखा नहीं."
"ओह!.." प्रसू ने दांतो तले ज़ुबान दबा ली.
"ये ऽऽ अरुण दा जीत गए." पुण्य ख़ुशी से चिल्लाया था.
"कल आपको हराऊंगी."
"ये हुई न स्प्रिट!"
फिर तो रोज़ का नियम-सा बन गया शतरंज का, कभी अरुण जीतता कभी प्रसू. लंच के बाद एक-दो बाज़ी हो ही जाती और शाम को पुण्य का सो काॅल्ड टूर्नामेंट खेलकर अरुण भी मज़े ले रहा था. यौवन सुलभ घिर आया संकोच दूर होने लगा था. बीच-बीच में पढ़ाई संबंधी अपने प्रश्नों के उत्तर पहले जैसे ही बेबाक़ी से उससे पूछ लिया करती. अरुण का साथ उसे उत्साह से भर देता.
'काश अरुण दा हमेशा यहीं रहते, हमारे साथ, हमारे पास… अरे ये मैं क्या सोचने लग पड़ी. हमारी तरह फ़ालतू थोड़े ही हैं कल तो उन्हें जाना ही होगा.
वो कल आ गया था, पंद्रह-बीस दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला. अरुण को वापस जाॅब पर जाना था.
"सारे डाउट्स अब क्लियर?" वह बताकर उठ खड़ा हुआ.
"मैं अपनी कुछ किताबें और नोट्स तुम्हारे काम के तुम्हें भेज दूंगा. मुझे विश्वास है तुम अपने लक्ष्य में ज़रूर सफल होगी. मतलब ये कि तुम आईएएस बनकर ही सबको अपने अनोखेराम से मिलाओगी… मिसेज़ फलाना नहीं बनना तुम्हें, समझ गया. दर्द अनोखे राम… अब नहीं गाती?" वह ज़ोर से हंसा था.
"किंतु दा आपने कब सुना मेरा ये गाना..?" वह अपनी बचपन की मूर्खता पर गुलाबी हो उठी.
"और भी बहुत से याद हैं मुझे, कभी फ़ुर्सत से बताऊंगा."


फिर उसके कान में धीरे से बोला, "दादी को कहना मैं तुम्हारी.. तुम्हारी कुछ बनने की प्रतीक्षा करूंगा. मैं केवल अरुण… परन्तु तुम्हारा 'दा' नहीं बुद्धू !.. और अब वे तुम्हारी, तुम्हारे विवाह की चिंता न करें ये बंदा अनोखे राम तैयार है." उसने सिर झुकाया फिर उसके सिर पर हल्की-सी थपकी दी और मुस्कुराता हुआ बाहर निकल गया.

डाॅ. नीरजा श्रीवास्तव 'नीरू'

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