उस पहाड़ी नज़र ने उसके इश्क़िया अंदाज़ को भांप लिया और उस चाय बेचनेवाले युवक से उसको संदेश भिजवाया और वो युवक मस्ती में जाकर उसके कानों में फुसफुसाया.
"पलकें भी नहीं झपका रहे हो ये कैसे देख रहे हो मुझे…"
"हां, क्या…" वो चौंक ही पड़ा, पर उससे पहले युवक ने उसके ठंड से कंपकंपाते हुए हाथों पर गरमागरम चाय थमा दी.
"कोई घर अपनी अद्भुत सजावट ख़राब होने से नहीं, बल्कि अपने गिने-चुने सदस्यों के दूर चले जाने से खाली होता है." मां उसको फोन करती रहीं और एहसास दिलाती रहीं कि वो घर से निकला है, तो घर खाली-खाली सा हो गया है.
"मां, अब मैं बीस साल का हूं. आपने कहा कि दस दिन का अवकाश है, तो दुनिया को समझो. अब वही तो कर रहा हूं. ओह, मेरी मम्मा! आप ही तो कहती हो कोई भी जीवन यूं ही तो ख़ास नहीं होता, उसको संवारना पड़ता है."
"ठीक है बेटा, तुम अपने दिल की करो, मगर मां को मत भूल जाना."
"मां, मैं पिछले बीस साल से सिर्फ़ आपकी ही बात मानता आया हूं. आप जो कहती हो, वही करता हूं ना मां…"
"मैने कब कहा कि हमेशा अच्छी बातें करो, पर हां मन ही मन यह मनोकामना ज़रूर की." मां ने और ढेर सारा प्यार उडे़लते हुए कहा.
वो अब मां को ख़ूब भावुक करता रहा तब तक जब तक कि मां की किटी का समय नहीं हो गया.
जब मां ने ख़ुद ही गुडबाय कहा, तब जाकर चैन पाया उसने. बस, कुछ घंटों मे वो भवाली पहुंचनेवाला था. अभी बस रामपुर पहुंची थी. किला दूर से दिखाई दे रहा था. कितनी चहल-पहल और रौनक़ थी रामपुर में. उसने बाहर झांक कर बार- बार देखा. बहुत ही मज़ेदार नज़ारे थे.
एक किशोरी नींबू पानी बेच रही थी. उसने भी ख़रीदा और गटागट पी गया. अब बस फिर चल पड़ी थी.
इस बार वो अपनी मर्ज़ी से बस में ही आया था. मां ने बीस हज़ार रुपए उसके खाते में डाले थे कि टैक्सी कर लेना, पर वो टैक्सी से जान-बूझकर नहीं गया. दरअसल, वो सफ़र के पल-पल का आनंद लेना चाहता था.
नींबू पानी पीकर उसे मीठी-सी झपकी आ गई और रामपुर के बाद पंतनगर, टांडा का घनघोर जंगल.
रूद्रपुर, बिलासपुर, काठगोदाम, कब पार किया उसे ख़बर ही नहीं लगी.
भवाली… भवाली… का शोर सुनकर उसकी आंख खुली. आहा! तो अब वो भवाली आ गया था.
वो पहली बार किसी पहाड़ी यात्रा पर गया था. जब उसने झक्क सफ़ेद बर्फ़ से संवरे ऊंचे- ऊंचे पहाड़ देखे, तो अपलक निहारता ही रह गया. वो जी भरकर इस सुंदरता को पी लेना चाहता था.
उधर एक युवती रेडीमेड नाश्ता बेच रही थी.
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उस पहाड़ी नज़र ने उसके इश्क़िया अंदाज़ को भांप लिया और उस चाय बेचनेवाले युवक से उसको संदेश भिजवाया और वो युवक मस्ती में जाकर उसके कानों में फुसफुसाया.
"पलकें भी नहीं झपका रहे हो ये कैसे देख रहे हो मुझे…"
"हां, क्या…" वो चौंक ही पड़ा, पर उससे पहले युवक ने उसके ठंड से कंपकंपाते हुए हाथों पर गरमागरम चाय थमा दी.
उसने चाय सुड़कते हुई उस युवक की आवाज़ को फिर याद किया और अभी-अभी कहे गए शब्द दोहराए, तो पहाड़ी युवती के सुर को उसके दिल ने भी सुन और समझ लिया.
पहले तो उसको कुछ संकोच सा हुआ और मन ही मन उसने सोचा, 'अभी इस ज़मीन पर पैर रखे हुए दस मिनट ही हुए है इतनी जल्दी भी ठीक नहीं.'
मगर अगले ही सेकंड उसको याद आया कि बस दस दिन हैं उसके पास. अब अगर वो हर बात और हर मौक़ा टालता ही जाएगा, तो कुछ तज़ुर्बा होगा कैसै?
इसलिए वो एक संतुलन बनाता हुआ नज़रें हटाए बगैर ही बुदबुदाया. "बचपन में मैंने निजी जीवन के अनुभव से एक बात सीखी थी कि फोटो लेते समय शरीर के किसी अंग को हरकत नहीं करनी है. सांस भी रोक कर रखनी है. अब मेरी जो आंखें हैं वो अपनी सांस रोककर मेरे दिल में बना रही हैं तुम्हारा स्कैच." उसकी यह बात वहां उसी युवक ने जस की तस पहुंचा दी.
उसके आसपासवाले एक स्थानीय लड़के ने भी यह सब सुना और उसको मंद-मंद मुस्कुराता देखकर पहाड़ी युवती शर्म से लाल हो गई. इस रूहानी इश्क़ को महसूस कर वहां की बर्फ़ भी ज़रा-सी पिघल गई और पास बह रही पहाड़ी नदी के पानी में मिल गई. पर दस मिनट बाद व्यवहारिकता के धरातल पर भी उन दोनों की गपशप हो ही गई. वो युवती टूरिस्ट गाइड थी. चार घंटे के तीन सौ रुपए मेहनताना लेती थी.
'वाह! क्या सचमुच' उसने मन ही मन सोचा. मगर आगे सचमुच बहुत सुविधा हो गई. उसी युवती ने वाज़िब दामों पर एक गेस्ट हाउस दिलवा दिया और अगले दिन नैनीताल पूरा घुमा लाई. नैनीताल में एक साधारण भोजनालय में खाना और चाय-नाश्ता दोनों ने साथ-साथ ही किया. तीस रुपए बस का किराया और दिनभर खाना, चाय, चना जोर गरम.. सब मिलाकर पांच सौ रुपए भी पूरे ख़र्च नहीं हुए थे. कमाल हो गया. यह युवती तो उसके लिए चमत्कार थी. दिनभर में वो समझ गया था कि बहुत समझदार भी थी. वो लोग शाम को वापस भवाली लौट आए थे. कितनी ऊर्जा थी उसमें. वो मन ही मन उसकी तारीफ़ करता रहा.
एकाध बार उसके चेहरे पर कुछ अजीब-सी उदासी देखकर वो बोली थी, "ये लो अनारदाना. मुंह में रखो और सेहत बनाओ." उसने अनारदाना चखा सचमुच बहुत ही ज़ायकेदार था.
वो कहने लगी, "सुनो, जो निराश हो गई है. वह अगर तुम्हारी आत्मा है, तो किसी भी उपाय से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. पहाड़-समंदर घूमने से, संगीत-कला-साहित्य से भी बस थोडा फ़र्क़ पड़ेगा. और वह भी कुछ देर के लिए. निराशा की बैचेनी, तो बस उदासी तोड़कर जीने से दूर होती है. अपने मूड के ख़िलाफ़ बग़ावत करने से दूर होती है. हर माहौल में आंखों से आंखे मिलाकर खड़े रहने से दूर होती है.
शान से, असली इंसान की तरह जीने के मज़े लूटने हैं, तो जागरूक हो जाओ. अपने भीतर जितना भी जीवन है, वो औरों को बांटते चलो. फिर देखो कितना अनुकूल असर होता है."
और अपनी बात पूरी करके उसने छह घंटे के पूरे पैसे उसको थमा दिए.
वो युवती उससे उम्र मेंं कुछ बड़ी थी.
आगे रानीखेत, अल्मोड़ा आदि की बस यात्रा उसने अच्छी तरह समझा दी थी. उसने कुछ भी ठीक से नहीं सुना यही सोचकर कि वो युवती भी साथ तो चलेगी ही. मगर वो हर जगह अकेला ही गया. उसके बाद वो चार दिन उसको बिल्कुल नज़र नहीं आई. अब कुल चार दिन और बचे थे उसने पिथौरागढ़ घूमने का कार्यक्रम बनाया और युवती साथ हो ली.
उसको उस युवती में कुछ ख़ास नज़र आया. सबसे कमाल की बात तो यह थी कि मां के दिए हुए रुपए काफ़ी बच गए थे या यूं कहें उसमें से बहुत-सी राशि वैसे के वैसी ही पड़ी थी.
उसने चीड और देवदार की सूखी लकड़ी से बनी कुछ कलाकृतियां ख़रीद लीं और वहां पर शॉल की फैक्ट्री से मां, उनकी कुछ सखियां
और अपने मित्रों के लिए शॉल, मफलर , टोपियां पसंद कर ख़रीद लीं.
दो दिन बाद वो दोनों पिथौरागढ़ से वापस आ गए. यात्रा बहुत रोमांचक रही और सुकूनदायक भी. वो उससे कुछ कहना चाहता था, पर वो हमेशा ही उलझी हुई मिलती थी.
मन की बात कहने का अवसर अपने बेकरार दिल के सामने बेकार कर देना समय की नहीं, भावनात्मक स्तर पर व्यक्ति की हार है. वो यही सोच रहा था, पर कुछ नहीं कर पा रहा था. अब एक दिन और बचा था. उसने आसपास के इलाके ज्योलीकोट और दो गांव घूमने का निश्चय किया. वो यह सब नक्शे पर देख ही रहा था कि वो युवती उसके पास भागी-भागी चली आई. हांफते हुए वो बोली, "ज़रा-सा अभिनय कर दो ना."
"क्या? पर क्यों?" वो चौक पड़ा.
"अरे, सुनो बस बस… वैसे ही जो तुमने पिथौरागढ़ के रिजार्ट में किया था. तुम कह रहे थे ना कि तुम बहुत अच्छी आवाज़ भी निकाल लेते हो."
"ये क्या कह रही हो. मैं अभिनय और अभी.. ये सब क्या.. ओह, तुम्हारी इसी अदा पर तो फ़िदा हूं मैं."
"तुम बस मस्त-मगन रहते हो और फालतू कुछ सोचने में समय ख़राब नहीं करते. चलो.. चलो.. शुरू हो जाओ ना."
"हां, हां.. ठीक है. अभी करता हूं."
"मगर वो.. वो नहीं.. ये सुनो…" वो बोलती गई.
"सुनो, बस तो अभी यहां एक लफंगा आएगा. उसको कह देना कि तुम फिल्म डायरेक्टर हो और अब मैं तुम्हारी अगली हीरोइन."
"पर मैं तो अभी बस बीस बीस साल का हूं?" कहकर वो टालने लगा.
"हां, हां.. उससे कुछ नहीं होता. बस, इतना कर दो. ये पुराना आशिक़ है मेरा, मगर तंग कर रहा है. इसे ज़रा बता दो कि तुम मुझे कितना चाहते हो. फिर मुझे तसल्ली से सगाई करनी है. वो देखो, वो बस चालक.. वो उधर देखो, वही जो हम को पिथौरागढ़ अपनी बस में लेकर गया और वापस भी लाया…"
वो बोलती जा रही थी और उसका दिमाग़ चकरघिन्नी बना जा रहा था.
वो अचानक गहरे सदमे में आ गया, पर उसकी बात मान ली और उम्दा अभिनय किया. युवती ने दूर से सारा तमाशा देखा और
उंगली का इशारा भी करती रही.
वो उसी समय बैग लेकर दिल्ली की तरफ़ जाती हुई एक बस में चढ़ा और पलट कर भी नहीं देखा. उसको लगा कि उसके दिल में गहरे घाव हो गए हैं और बहुत सारा नमक अपने किसी घाव में लगा दिया है.
पूनम पांडे
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