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कहानी- नानी का घर (Short Story- Nani Ka Ghar)

हमारा कल्पनाओं की उड़ानवाला बचपन उसकी बात सच मानकर आईने के पीछे की दुनिया खोजने चल पड़ा. नानी का आईना जिस दीवार पर लटका था उसके बिल्कुल पीछे एक गली थी. हम उसी गली में पूरी दोपहर दूसरी दुनिया खोजते रहे. बाद में जब नानी को यह बात पता चली, तब वे हम सबकी कल्पना पर ख़ूब हंसीं.

मैं और मेरे पति दीपक बच्चों के साथ रविवार की एक फ़ुर्सत से भरी दोपहर में बातें कर ही रहे थे कि तभी मेरा ग्यारह साल का बेटा बोला, "पापा, नेक्स्ट वीक से हमारे समर वेकेशन शुरू होनेवाले हैं, तो इस बार हम वेकेशन में कहां घूमने जाएंगे?"
"भैया! हम गोवा चलें."  मेरी आठ साल की बेटी ने गोवा का नाम लिया, तो दीपक बोले, "वाह! क्या जगह बताई है, क्यों सीमा, चले गोवा?" पति दीपक के इस प्लान पर मैं विचार करने लगी, तभी मेरा बेटा बोला, "मां-पापा आप लोग गर्मी की छूट्टियों में क्या करते थे?''
बेटे के इस सवाल पर मैं मुस्कुराई, तो दीपक बोले, ''बेटा! हमारे समय का गर्मियों की छुट्टियांवाला समय इतना रोचक होता था कि उस समय को उसी रोचकता के साथ शब्दों में बता पाना मुश्किल है?''

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तभी मैं बोली, ''बच्चों तुमने! कभी खुले आसमान में बेख़ौफ़, बेफ़िक्र उड़ते हुए परिंदे देखे हैं? बस उन आज़ाद परिंदों के जैसी थीं मेरी गर्मी की छुट्टियां. न किताबों का भार न हीं पढ़ाई की चिंता."
तभी दीपक अपने अनुभव साझा करते हुए बोले, ''लेकिन यह वह समय होता था, जब मैं स्कूली कोर्स से भिन्न जीवन के बेहतरीन पाठ सीखता था. नानी-नाना के आंगन में बिरचुन और सत्तू के स्वाद के साथ हम ममेरे, मौसेरे भाई-बहन हर साल इन्हीं दिनों में मिलते थे. मेरे लिए तो आनंद का दूसरा नाम था वो गर्मी की छुट्टियोंवाला नानी की क़िस्सागोई वाला आंगन."
दोनों बच्चे हमारी बातें ध्यान से सुनने लगे, तो मैं आगे बोली, "मेरी नानी के क़िस्सों में इतिहास रहता, लोक कथाएं रहतीं, भूत-प्रेत रहते और ऊंची-ऊंची कल्पनाएं रहतीं.'' 
''वहीं नानाजी के पास रखे होते ढेरों उपन्यास. कोर्स की किताबों से इतर नानाजी की ये किताबें हमें बड़ा आकर्षित क़रतीं. महाभारत, रामायण, गीता जैसे महाग्रन्थ नानाजी हमें बड़ी सरलता से पढ़ाते. नानी सबको खाने-पीने की चीज़ें बराबर से बांटती़, तो सबके अधिकार बराबर हैं का दर्शन जीवन को सहजता से समझ में आ जाता. हम आज के बच्चों की तरह नो शेयरिंग वाला व्यवहार नहीं करते थे. हम सब तो आपस में बड़े प्रेम से हर एक चीज़ की साझेदारी करते थे. गर्मियों के अवकाश साथ गुज़ारने से हम सबके बीच के संबंध और मज़बूत हो जाते.''     
 मैं यह बताती हुई गहरी सोच में चली गई, तो दीपक बोले, ''तुम आजकल के बच्चे क्या जानो उन दिनों के आंनद को. मुझे उन सुहावने दिनों को याद करके आज भी गुदगुदी सी होती है. रात तारों को देखते हुए छत पर सोना. कल्पनाओं से भी परे मनगढ़त बातें करना. आधी रात तक भूत-प्रेत के क़िस्से सुनना-सुनाना और फिर डर के मारे दुबक कर नानी का पल्लू पकड़कर सो जाना.''
''पोसम्पा, घोड़ा दिवानशाही, नाम वस्तु शहर सिनेमा, अज़ीर-वज़ीर, चोर-सिपाही जैसे पर्ची वाले खेल. न जाने कहां लुप्त हो गए वो खेल वो दिन. स्मृतियों के कोष में उन दिनों के इतने क़िस्से हैं कि कहते-कहते शब्द कम पड़ जाएं."
"सच दीपक, हमारे समय के बच्चों का वो गर्मियोंवाला समय भी कितना प्यारा होता था न! हम आज के बच्चों की तरह किसी अजनबी शहर की सैर करने नहीं जाते थे. हमारे समय के बच्चों का गर्मियों की छुट्टियों का ज़्यादातर समय गुज़रता था नानी के घर में.
चलो आज तुम सबको मैं अपनी नानी के घर का एक मज़ेदार किस्सा बताती हूं.

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एक दिन हम सारे बच्चे नानी के घर में आईने के सामने खड़े हुए थे, तभी मौसी की बेटी बोली, ''इस आईने में सब कुछ हूबहू क्यों नज़र आता है?'' तो उसके सवाल पर मामाजी का बेटा बोला, ''अरे, इस आईने के पीछे बिल्कुल हमारी दुनिया जैसी ही एक और दुनिया है. हम यहां जो भी करते हैं, वे भी उसी समय वही करते हैं, इसीलिए आईने में सब कुछ हूबहू दिखता है."
हमारा कल्पनाओं की उड़ानवाला बचपन उसकी बात सच मानकर आईने के पीछे की दुनिया खोजने चल पड़ा. नानी का आईना जिस दीवार पर लटका था उसके बिल्कुल पीछे एक गली थी. हम उसी गली में पूरी दोपहर दूसरी दुनिया खोजते रहे. बाद में जब नानी को यह बात पता चली, तब वे हम सबकी कल्पना पर ख़ूब हंसीं.
बस ऐसे ही प्यारे-प्यारे क़िस्सों से भरे थे वो छुट्टियों के दिन. सच में आनंद का दूसरा नाम थे हमारे वो गर्मियों की छुट्टियों वाले दिन.''
''वाह मां! कितना मज़ा आता होगा आपको. पापा, अब आप भी ऐसा ही अपनी भी नानी के घर का कोई क़िस्सा सुनाओ न…" बेटी ने दीपक से ज़िद की, तो दीपक बोले, ''एक क़िस्सा हो तो सुनाऊं, मेरी नानी के घर के तो और भी मज़ेदार और ढ़ेर सारे क़िस्से हैं. पर बेटा, पहले गोवा जाने के लिए टिकट कर लूं, वरना सीट नहीं मिलेगीं, समझी!''


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अपने पापा की इस बात पर दोनों बच्चे बोले, ''पापा, क्यों न इस बार की गर्मी की छुट्टियों में हम अपनी नानी के घर जाएं.'' बच्चों की इस बात पर दीपक ने उनकी तरफ़ प्यार से देखते कहा, ''इससे बेहतर और क्या होगा. तुम लोगों को भी अपने बचपन की यादों में नानी के घर के क़िस्से जोड़ने चाहिए्.''
पति दीपक की बात सुनकर मैं मुस्कुराई और फिर हमने तय किया की इस बार बच्चों की गर्मी की छुट्टियां बीतेंगी बच्चों के नानी के घर में. ताकि वे भी बना सकेपूर्ति खरे हमारी ही तरह अपनी नानी के घरवाले प्यारे-प्यारे क़िस्से. 

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति खरे

 


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