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कहानी- नियोग (Short Story- Niyog)

मैं समझ रही थी अम्मा के उतावलेपन का कारण. मैं 33 पार करने लगी थी, तेरे राजेश भइया 38 पहुंच रहे थे. अम्मा को लगता जैसे समय उनके हाथ से निकलता जा रहा हो. मगर इस समस्या का सबसे दुखद पहलू था अम्मा और मेरे बीच तल्खी का बढ़ना. मां-बेटी का रिश्ता सास-बहू के रिश्ते में बदलने लगा. हम दोनों के बीच अक्सर बहस हो जाती, संतोष बस इतना था कि इस बहस में ससुर जी और तेरे राजेश भइया को नहीं घसीटा जाता, मगर अम्मा के स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव दिखने लगा था.

बात कोरोना प्रथम लॉकडाउन की है. दिन शनिवार, कोरोना के कारण व्यापारिक गतिविधियां वैसे भी न्यूनतम. साथ ही दूरदर्शन पर रामायण, महाभारत एवं अन्य पौराणिक कथाओं पर आधारित कार्यक्रमों का पुनःप्रसारण. मैं भी अपने पति रीतेश और बेटे जयेश के साथ महाभारत का प्रसारण देख रही थी. राजेश भइया अपने कमरे में दूसरे टीवी पर लगे हुए थे. पर मेरी जेठानी, जिन्हें मैं भाभी-मां बुलाती हूं, को चैन कहां. उनके लिए छुट्टी का कोई अर्थ नहीं. अहर्निश सेवा उनके जीवन का मूल मंत्र है. आगे बढूं, उसके पूर्व थोड़ी-सी बात अपने परिवार के बारे में- राजेश भइया और रीतेश, दो ही जनों का परिवार है हमारा और उनकी पत्नियां क्रमशः सुदर्शना एवं मैं अर्चना. दोनों भाइयों में 20 वर्षों का अन्तर है, बड़े भइया रीतेश के भाई कम, पिता ज़्यादा हैं. दीदी बताती हैं कि जब वे इस घर में बहू बनकर आईं, तो रीतेश केवल 5 वर्ष के थे. संकोची पर बेहद ख़ूबसूरत. दीदी अभी भी हंसती हुई कहती हैं, “अरे, जब मैंने दुल्हन के रूप में गृह-प्रवेश किया, तो मैं तेरे रीतेश पर फ़िदा हो गयी. मुझे उसके रूप में सास-ससुर जी का सर्वोत्तम उपहार जो प्राप्त हुआ था. शर्मीला-सा 5 वर्ष का बालक. अम्मा उसे बार-बार कहतीं, ये तेरी भाभी है और तू उसका देवर, पर वह तो और उनकी गोद में सिमटता जाता. फिर मैंने ही पहल की और उसके पास जाकर बोली, मैं तुम्हें आंटी की तरह दिखती हूं. उसने पहली बार सर हिलाया और मुस्कुराया भी. अच्छा चलो, एक काम करते हैं, आज से मैं तुम्हारी भाभी-मां. ठीक है. उसने सिर हिलाकर सहमति दी और मेरे हाथ फैलाते ही मेरी गोद में आ गया. उस दिन से हम दोनों पक्के दोस्त हो गए. मेरा देवर-सह-पुत्र. अब तो मेरी गोद में आता ही नहीं, शायद तूने ही मना कर दिया होगा या तेरी उपस्थिति से डर जाता होगा.”
भाभी-मां इतना बोलकर हंस पड़ीं. आज भी रीतेश के बचपन की बात होने पर वे झेंप जाते हैं, क्योंकि भाभी-मां ने ही उन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया था, सासु मां ने तो उनके आते ही घर की सारी ज़िम्मेदारी उन्हें ही सौंप दी, जिसमें रीतेश की ज़िम्मेदारी भी शामिल थी.

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खैर, महाभारत का आज का एपिसोड ख़त्म हो गया था. मैं उठी और सोचा, अब रसोई में देखा जाय क्या हुआ, क्या होना बाकी है. चलने को तैयार ही थी कि मेरे 10 वर्षीय बेटे जयेश का एक प्रश्‍न मेरे समक्ष बम की तरह फूटा, “मॉम, यह नियोग क्या होता है, किसी प्रकार का योग है क्या यह?”
मैं तो थोड़ी देर के लिए सन्न रह गयी, यह प्रश्‍न कहां से आया इसके मन में और इस शब्द की जानकारी इसे कैसे हुई. मन तो किया कि उसे एक चांटा लगाऊं और उसके प्रश्‍न को ख़ारिज कर दूं, पर मैं जानती थी कि ऐसा करना ना तो उचित था, ना संभव. रीतेश तो कुछ नहीं बोलते, पर बड़े भइया और भाभी-मां मेरा बुखार उतार देते. मैंने अपने ऊपर काबू रखते हुए पूछा, “यह शब्द कहां से सीखा तुमने?”
“कल स्कूल में रिसेस में लड़के महाभारत की बात कर रहे थे, तो मेरे वर्ग के संतोष ने कहा, ऐसा लगता है महाभारत में कौरवों तथा पांडवों के परिवार में बहुत सारे लोग नियोग से ही उत्पन्न हुए हैं.”
जयेश का प्रश्‍न सुनते ही रीतेश उठ खड़े हुए, मेरी तरफ मुख़ातिब होने के बाद इतना ही कहा, “बेटे इस प्रश्‍न को तेरी मम्मी ही ठीक से समझा सकती है, मुझे बड़े पापा के पास तुरत पहुंचना होगा, वे मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे.”
इतना कहते हुए वे मेरे पुकारने को अनसुना करते हुए कमरे से भाग खड़े हुए. मैं क्रोध से भर उठी, मन किया कि जोर से चिल्लाऊं, ‘कायर हो तुम, समस्याओं से भागने वाले.’ पर ऐसा कर न सकी, तभी भाभी-मां ने कमरे में प्रवेश किया. “अर्चना, जाकर देख जरा महाराज ने खाना बनाना शुरू किया या अभी भी अपने सहयोगियों के साथ टीवी पर ही जुटा हुआ है.”
ऐसा लगा जैसे किसी ने संजीवनी दे दी हो मुझे. “ठीक है भाभी-मां, मैं सब देख लूंगी, तब तक तुम अपने लाडले जयेश की शंका का समाधान करो.”
मैं तुरंत कमरे से बाहर आ गई, पर मन में उत्सुकता तो थी ही कि इस मासूम के दुरूह प्रश्‍न की क्या व्याख्या है उनके पास, क्योंकि मैं जानती थी कि वे किसी समस्या या प्रश्‍न से घबराने वाली नहीं हैं. बाहर आकर मैं दरवाज़ेे की ओट में उनके जवाब के इंतज़ार में खड़ी हो गयी. अपनी बड़ी मां पर भी उसने उसी प्रश्‍न से प्रहार किया, थोड़ी देर के लिए भाभी-मां यूं चुप हुईं मानो वे संज्ञा शून्य हो गयी हों. बाद में पता चला, इस प्रश्‍न ने कुछ पुराने जख्म कुरेद दिए थे. फिर उन्होंने एक गहरी सांस ली और बोलना शुरू किया. “अच्छा यह बता, तुझे योग का अर्थ मालूम है न? योग यानि दो वस्तुओं, व्यक्तियों या संख्याओं का जुड़ना, जिसे तू गणित में ऐडीशन के नाम से पुकारता है. जानता है मां-पिता का योग इस पृथ्वी पर बच्चों को जन्म देता है. मैं, तू, सभी ऐसे ही इस धरती पर आए हैं. पर
कभी-कभी किसी अज्ञात कारण से योग सफल नहीं होता. ऐसा क्यों होता है, इस बात को केवल धर्माचार्य ही समझ पाते हैं, मेरे-तेरे जैसे सामान्य मनुष्य के लिए इसे समझना मुश्किल ही नहीं, असंभव है. मगर हमारे धर्म ग्रंथों में प्रत्येक समस्या का समाधान है, जिसे विद्वान जन अच्छी तरह से समझते हैं. तो जब भी ऐसी स्थिति आती है, उन लोगों के निर्देश पर शास्त्र में बताए गए नियमों के अनुसार विशेष प्रकार से योग का अनुष्ठान किया जाता है, वही कहलाता है नियोग, यानि नियमानुकूल योग. समझ गया तू?"


“तो उससे जिन बच्चों को भगवान के घर से पृथ्वी पर लाया जाता है, वे कुछ अलग होते हैं बड़ी मां?”
“नहीं रे, बिल्कुल मेरी-तेरी तरह. कोई फर्क़ नहीं होता उनमें और हममें, समझ गया?”
उनके उत्तर ने जयेश को पूरी तरह संतुष्ट कर दिया. मैंने चैन की सांस ली, “धन्य हो भाभी-मां. तुम ना रहो, तो क्या करेंगे हम.” मन ही मन मैंने उनका चरण स्पर्श किया और दबे पांव रसोई की तरफ भागी, ताकि महाराज के द्वारा किए और छूटे कार्यों का आंकलन कर सकूं. अचानक मेरा मष्तिष्क विवाह के कुछ ही समय बाद की घटनाओं की एक श्रृंखला को याद कर सिहर उठा, जब मुझे इस घर में आए हुए मात्र चार माह हुए थे और मेरे गर्भ में जयेश आ चुका था. पर घटना को विस्तार से बताने के पूर्व कुछ और बातें मेरे परिवार के बारे में.
मेरे ससुर जी के पूर्वज 5-6 पीढ़ी पूर्व गुजरात से चलकर कोलकाता होते हुए उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में स्थित इस शहर में आकर बस गए. उन्होंने अपनी सीमित पूंजी से दवाओं का थोक का कारोबार शुरू किया, जो दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ता गया. फिर उनके बड़े बेटे, राजेश भैया ने इस व्यापार का विस्तार किया. दवाओं के साथ सर्जिकल सामग्री, फिजियो के यंत्र, मरीज़ों के लिए सपोर्ट-सामग्री आदि के निर्माण तथा वितरण का धंधा भी बड़े पैमाने पर शुरू कर दिया. राजेश भैया की शादी 25 वर्ष की उम्र में ही हो गयी. बड़ी बहू के रूप में सुदर्शना दीदी आईं. उनके आते ही जैसा मैंने पूर्व में कहा, मेरी सासु मां ने अपनी सारी ज़िम्मेदारी, रीतेश सहित, उनको सौंप दी. भाभी-मां ने इनका बड़े मनोयोग के साथ निर्वाह किया. पर उनकी क्षमता को घर तक सीमित रखना ठीक नहीं, इसे सर्वप्रथम बाबूजी यानी मेरे ससुर जी ने पहचाना. वे उन पर कारोबार की भी
छोटी-छोटी ज़िम्मेदारियां सौंपने लगे.
धीरे-धीरे घर के अतिरिक्त वे व्यापार के मामले में भी राजेश भइया को सहयोग देने लगीं.
जयेश के मेरे गर्भ में आने के बाद मुझे थोड़ी परेशानी भी होने लगी थी. डॉक्टर ने जांच के बाद मुझे ज़्यादा आराम करने की हिदायत दे दी. मेरे आने के बाद भाभी-मां गृहस्थी के कार्यों से मुक्त हो गयी थीं, पर अब उन्हें इन ज़िम्मेदारियों को उठाना पड़ा. मैं कभी-कभी उनके कार्यों में हाथ बंटाने की कोशिश करती, तो वह मुझे डांटकर आराम करने को भेज देतीं. एक दिन मेरा धैर्य जबाब दे गया. मेरी सासु मां मंदिर गई थीं और सारे मर्द अपने अपने काम पर, तब मैंने भाभी-मां को पकड़ा और खींचकर अपने कमरे में ले आई.
“सभी काम तो तुम्हीं देखती हो
भाभी-मां, मैं तुम्हारी सहायता भी नहीं कर पाती. यह बात मुझे बड़ी सालती है.”
“अरे पगली, चूल्हे-चौके के लिए महाराज हैं, उनके दो सहयोगी हैं. मुझे तो केवल इनकी निगरानी करनी होती है. और फिर तू तो हमारे परिवार को एक वारिस देने वाली है, यह क्या कोई छोटी बात है?”
भाभी-मां की इस बात ने मेरे अंदर एक कौतूहल जगा दिया. मैं बोल ही बैठी, “भाभी-मां, तुम्हें गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश किए 20 वर्ष हो गए. मुझे माफ़ करना अगर मेरी बात बुरी लगे, इस परिवार को वारिस तो आज से 19 वर्ष पूर्व ही मिल जाना चाहिए था.”
“अरे पगली, वारिस मैं दूं या तू, क्या फर्क पड़ता है?”
“देखो भाभी-मां, मेरी बात को टालो मत. मैं जानना चाहती हूं कि अब तक तुम्हारी गोद क्यों नहीं भरी.”
“अच्छा यह बता, तेरा पति रीतेश मेरा देवर है या पुत्र? बोल, बोल…”
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “हां वह तुम्हारा देवर केवल नाम का है और अम्मा उसकी मात्र जैविक मां हैं. 5 वर्ष की आयु से तुम्हीं ने उन्हें पाला-पोसा और मैं आई तो तुमने उन्हें मुझे सौंप दिया.”
“मैं जब आई, तो घर-गृहस्थी से ज़्यादा पारिवारिक व्यापार को समय देना पड़ा, क्योंकि उस वक्त इसकी ज़रूरत थी. फिर देखते ही देखते समय निकल गया.”
“प्लीज़, मेरी बात मत टालो, आज मुझे इस प्रश्‍न का जवाब चाहिए, अन्यथा मैं तुम लोगों की कोई बात नहीं मानूंगी और आराम तो कतई नहीं करूंगी.”


आख़िर उन्होंने मेरी ज़िद के आगे हार मान ली और बेहद धीमी आवाज़ में बोलना शुरू किया, “तेरे आने से लगभग 7 वर्ष पूर्व, यानी जब मेरा रीतेश केवल 18 वर्ष का था, अम्मा ने मुझसे यही प्रश्‍न किया था. मुझे ये भी पता चला कि वे शहर के तक़रीबन सभी डॉक्टरों से इस समस्या के समाधान के लिए मिल तो चुकी ही थीं, चुपके चुपके उन्होंने मंदिर, मजार, मन्नत्तें, तंत्र-मंत्र सब शुरू कर दिया था. प्रत्येक दिन मुझे कोई न कोई प्रसाद खिलाया जाता, उपवास रखने को कहा जाता. सब कुछ समझते हुए भी मैं चुप रहती और एक आज्ञाकारी बहू के धर्म का निर्वाह करती. पर एक दिन अम्मा की कुंठा सामने आ ही गयी.”
“तुम दोनों ठीक से प्रयास ही नहीं करते, मुझे अब तक पोते का मुंह क्यों नहीं दिखाया? क्या तेरे भीतर वात्सल्य का प्रवाह नहीं होता?”
यह तो तू जानती ही है कि मैं अम्मा की दूर के रिश्तेदार की ही बेटी हूं. मेरी शादी उन्हीं की पसंद से हुई थी बिना किसी लेन-देन के. इसलिए मैं अम्मा की थोड़ी मुंंहलगी भी थी. मैंने इसका फायदा उठाते हुए बातों को मजाक में उड़ाने की कोशिश की और हंसते हुए कहा, “अम्मा, प्रयास के लिए तो तुम अपने बेटे को बोलो, मुझे क्यों कहती हो?”
“चुप बेशरम, अपनी सास से कोई ऐसे बोलता है, पर तू भी जान ले, आज मेरी बात टालने की कोशिश बेकार होगी, मुझे साफ़-साफ़ जवाब चाहिए.”
मैं समझ रही थी अम्मा के उतावलेपन का कारण. मैं 33 पार करने लगी थी, तेरे राजेश भइया 38 पहुंच रहे थे. अम्मा को लगता जैसे समय उनके हाथ से निकलता जा रहा हो. मगर इस समस्या का सबसे दुखद पहलू था अम्मा और मेरे बीच तल्खी का बढ़ना. मां-बेटी का रिश्ता सास-बहू के रिश्ते में बदलने लगा. हम दोनों के बीच अक्सर बहस हो जाती, संतोष बस इतना था कि इस बहस में ससुर जी और तेरे राजेश भइया को नहीं घसीटा जाता, मगर अम्मा के स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव दिखने लगा था. एक दिन हम दोनों में जोरदार बहस हो गयी.
“तू समझती क्यों नहीं कि कोई भी औरत मां न बनने से अधूरी ही रह जाती है, जब तक उसकी ज़िंदगी में वात्सल्य का प्रवाह नहीं होता, समाज उसे पूर्ण औरत नहीं मानता.”
“अम्मा, मुझे समाज की कोई चिंता नहीं. रही बात वात्सल्य की, तो वह भाव रीतेश को देखकर ही उत्पन्न हो जाता है.”
“अरे, बेवकूफ, अब वह बड़ा हो रहा है, कल उसकी शादी होगी, घर में दूसरी बहू आएगी. रीतेश तुझे भले भाभी-मां कह ले, आनेवाली लड़की के लिए तू केवल जेठानी रहेगी और वह होगी तेरी कल की पट्टीदार.”


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“मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. समय आने पर मैं सब समझ लूूंगी.”
इस बहस के बाद मुझे मजबूरन यह बात राजेश को बतानी पड़ी, वह भी चिंतित हो गए. हम दोनों ने इस समस्या पर गहन चिंतन किया, मगर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए. बातचीत के क्रम में राजेश ने दबे ज़बान से अनाथालय से किसी यतीम बच्चे को गोद लेने का भी सुझाव रखा. मगर मुझे पता था इस प्रस्ताव को मां कभी स्वीकार नहीं करेंगी. उनके लिए तो अपने खून से उत्पन्न खानदान का वारिस ही स्वीकार्य था. लेकिन अम्मा के रोज़ की चिख-चिख से तंग आकर आख़िरकार मैंने उनसे पूछ ही लिया, “आपको मंज़ूर हो, तो हम दोनों किसी यतीम बच्चे को गोद ले लेते हैं. तुम्हारा वारिस भी मिल जाएगा और तुम्हारे अनुसार मेरा वात्सल्य भी परिपूर्ण हो जाएगा.” लेकिन वह नहीं मानीं.
“फिर क्या करें अम्मा? मैं बताना नहीं चाहती थी, पर आज मुझे बताना पड़ रहा है. तुम्हें क्या लगता है हमने कोई डॉक्टरी राय नहीं ली इस मामले में? हम दोनों ने अपना पूरा परीक्षण करवाया. हमारी जांच से स्पष्ट हो गया है कि हम कभी माता-पिता नहीं बन सकते.”
“यह कब किया तूने? मुझसे पूछा था? तुम दोनों इतने बड़े हो गए कि ऐसे मामले में भी मेरी अनुमति आवश्यक नहीं लगी.”
“पिछली बार जब हम मेरे मामा से मिलने लखनऊ गए थे तो मैंने तुम्हारे बेटे पर दबाब डाला और डॉक्टर के पास ले गयी. इस मामले में तुम्हारे बेटे की कोई गलती नहीं है, सारा दोष मेरा है. तुम जो चाहो, मुझे सजा दो, पर ऐसे कठोर शब्द न निकालो.”
“अच्छा बता डॉक्टर ने क्या कहा. क्या कमी है तुझमें?”
“अब इस बहस से क्या फायदा. और अम्मा कमी मुझमें हो या तुम्हारे बेटे में कोई अन्तर पड़ेगा क्या यह जान कर.”
“ये तो बता कमी कहां है और क्या है. उसका कोई उपचार नहीं है? देख, मैं तुझे लन्दन, न्यूयॉर्क कहीं भी उपचार के लिए ले चलूंगी. तू मुझे बता, क्या कहा डॉक्टर ने?”
“अरे अम्मा, मुझे कहीं भी ले जाओ, कुछ भी नहीं होगा.”
“तेरा मतलब है मेरा बेटा नाम… है?”
अम्मा सर पकड़ कर बैठ गईं. उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि आगे क्या बोलें. उन्हें पूरे वार्तालाप पर अफ़सोस होने लगा. पर परिवार वृक्ष आगे फलता फूलता रहे, इस लोभ का संवरण भी बड़ा कठिन था.
“अब मैं समझ गई पूरा मामला, लेकिन टीवी तथा समाचार पत्रों में देखती हूं कि इसका भी हल डॉक्टरों ने निकाल लिया है, जिसमें जो क्रिया हम औरतों के शरीर के अन्दर होती है, उसे वे किसी अन्य अज्ञात पुरुष के सहारे बाहर ही करा कर उसके प्रतिफल को हमारी कोख में प्रत्यारोपित कर देते हैं.”
“अम्मा, उसे आईवीएफ कहते हैं. जब इतना जानती हो, तो यह भी समझ ही गई होगी कि ऐसे बच्चे का जैविक पिता कोई अन्य होगा, फिर तुम्हें जो खानदान की परंपरा को आगे बढ़ाने की चिंता है, उसका क्या होगा. और सुन लो, मेरे समक्ष राजेश ने भी यह प्रस्ताव रखा था जिसे मैंने सिरे से ख़ारिज कर दिया था.”
भाभी-मां ने जिस तरह से इस प्रस्ताव को ख़ारिज किया, मैं समझ सकती थी कि अम्मा निश्‍चित ही थोड़ी देर के लिए चुप हो गयी होंगी. मगर जैसा भाभी-मां ने बताया, अम्मा उस दिन पूरी तैयारी के साथ आई थीं और अपने मिशन को सफल बनाने के लिए दृढ संकल्प थीं. अब जो प्रस्ताव वह देनेवाली थीं, वह किसी एटम बम से कम नहीं था. आगे कुछ कहने के पूर्व भाभी मां मेरे और करीब आ गईं. मेरा हाथ अपने हाथों में लिया. उनके चेहरे पर तनाव स्पष्ट दृष्टिगोचर था. सदा आंखों में आंखें डालकर बात करने वाली भाभी-मां की नज़रें झुक गईं और बगैर मेरी ओर देखे उन्होंने अम्मा से हुए वार्तालाप का अंतिम हिस्सा बताना शुरू किया.


“तू तो इतनी पढ़ी-लिखी है, हर विषय की जानकार है. तूने निश्‍चय ही नियोग शब्द भी सुन रखा होगा और समझती भी होगी?”
“हां जानती भी हूं और समझती भी हूं. तो क्या अब मुझसे नियोग भी करवाओगी?”
“यह शास्त्र सम्मत विधि है बेटा, जिसका उद्देश्य मात्र वंशबेल को नष्ट होने से बचाना होता है. इसमें दोनों तरफ के संबद्ध सदस्यों की सहमति रहती है और एक सीमित समय सीमा में सब कुछ सम्पन्न होता है. तुझे तो पता ही होगा महाभारत काल में इस विधि का प्रयोग कर वंश परम्परा को आगे बढ़ाया गया था.”
“और इस पुनीत कार्य के लिए किस ऋषि अथवा देवता का आह्वान करना होगा मुझे, फिर उसे अपने खानदान का भी तो होना चाहिए? अथवा इस बड़े से परिसर में हमारे कुनबे के जो पांच टुकड़े बसते हैं, जो कभी एक ही परिवार थे, उनमें से एक-एक का चुनाव कर मुझे आधुनिक द्रौपदी बनाना चाहोगी?”
“देख तू नाराज़ मत हो, मैं पूरी तरह से सोच-समझ कर यह बात कर रही हूं. मुझे भी अपने घर की मर्यादा का ख़्याल है और साथ ही इस बात का भी कि इस कार्य में किसी बाहरी व्यक्ति की भागीदारी न हो.”
“वाह अम्मा, खूब मर्यादा का ध्यान रखा है तुमने. तुम ही तो बतलाती रही हो कि हमारी इकाई में पिछले तीन पीढ़ियों से एक ही पुत्र का जन्म होता रहा है, पहली बार तुमने ही इस खानदान को दो वारिस दिए. फिर तो सगा छोड़ो, कोई चचेरा भी अपना खून वाला नहीं है. बाकी तो सारे दूर के रिश्तेदार बन कर रह गए हैं. ऐसे में कहां से लाओगी नियोग के नाम पर अपनी बहू का मुंह काला करने वाला कोई अपना?”
“तू एकदम नासमझ है, या समझकर भी नासमझ बन रही है? समझती क्यों नहीं, अब तेरा देवर रीतेश भी जवानी की दहलीज
पर कदम…”
भाभी मां का धैर्य अब जबाब दे बैठा. वह चीख उठीं, “बस अम्मा, बहुत सुन चुकी तुम्हारी बकवास. यही तुम्हारी मर्यादा है? तुमने सोचा भी कैसे? भूल गई वर्षों पूर्व की वह दुर्घटना, जिसमें तुम्हारे बचने की सारी उम्मीदें हम खो बैठे थे. थोड़ा होश आने पर तुमने एक ही काम किया था, रीतेश का हाथ पकड़ मेरे हाथ में देते हुए कहा था, आज से तू इसकी भाभी-मां नहीं, पूरी मां होगी. आज झूठे स्वार्थ में तुम अपना विवेक खो चुकी हो. ख़बरदार जो आगे एक शब्द कहा, ऐसी गंदी बात तुमने सोची भी कैसे?”
ऐसा बोल भाभी-मां उठ खड़ी हुईं. उनकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. अम्मा को भी अपनी ग़लती का एहसास हुआ. उन्होंने लपककर अपनी बहू को गले से लगाते हुए बस इतना ही कहा था. “मुझे माफ़ कर दे बेटी, मैं स्वार्थ में पागल हो गयी थी. अब ऐसी कोई बात कभी नहीं करूंगी. तू जैसा उचित समझे कर, मुझे मंजूर है.”
संयोग ऐसा कि इसके ठीक एक वर्ष बाद ही अम्मा रीतेश सहित सबों की ज़िम्मेदारी भाभी-मां को सौंपकर इस दुनिया से बिदा हो गईं. अपनी बात पूरी करते-करते भाभी-मां एकदम चुप हो गईं. उनका गला अवरुद्ध हो गया और आंखों से निःशब्द आंसू बहने लगे. मैं तड़प उठी, अनजाने में ही नियोग की चर्चा कर मैंने भाभी-मां का दबे दर्द को छेड़ दिया. मगर मुझे इस बात पर थोड़ा आश्‍चर्य हो रहा था कि इतनी पुरानी घटना का ज़िक्र क्यों.
“भाभी-मां, यह बात मेरे आने से वर्षों पूर्व की है, फिर मुझसे इस वृतांत को बतलाने का क्या प्रयोजन? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह कहानी सुनाकर तुम रीतेश से अपने संबंधों पर सफाई दे रही हो. अगर ऐसा है, तो तुम भी वही गलती दुहरा रही हो, जो अम्मा ने किया था. मैं तो जब इस घर में आई तो रीतेश को देख और सुनकर मैंने भी तुम्हें भाभी-मां कहना शुरू कर दिया, पर तुम तो सदा मेरी मां ही रही. मुझे अपने मायके से विदा करते समय मेरी मां ने भी तुम्हारे बारे में यही कहा था, देख उसे कभी अपनी जेठानी मत समझना, वह तेरी सास की जगह है और अब वही तेरा मां है. मैं मां-बेटे के रिश्ते पर संदेह करूंगी भाभी-मां?”


“नहीं, तू नहीं करेगी, पर तू मेरे रीतेश की पत्नी है और तुझे उसकी ज़िंदगी के हर पहलू की पूरी जानकारी होनी ही चाहिए.”
“तो क्या इस घटना की जानकारी रीतेश को भी हो गई थी?”
“पागल है क्या, ऐसा करना मेरे बेटे की ज़िंदगी में जहर घोलने के बराबर होता. उसने जान भी लिया होता, तो महाभारत हो जाता, जिसे हमारा पूरा कुनबा मजे लेकर देखता और चटकारे लेते हुए पूरे नगर में सुनाता. और सुन, यह बात मैंने तेरे कान के लिए कही है, मुंह के लिए नहीं, इसका सदा ध्यान रखना.”
इतना कहकर भाभी-मां ने इस वार्तालाप को समाप्त किया. मुझे भी आगे कुछ कहने-सुनने की हिम्मत नहीं थी. बस मैं उनके गले लगकर रोती रही. मगर उन्हें तो अपने दर्द ज़ाहिर करने का भी अधिकार नहीं था, इस परिवार की वास्तविक मुखिया जो थीं वह.

प्रो. अनिल कुमार

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