बात साड़ी या सलवार सूट की नहीं थी. बात थी उस मांझे की जिसके एक छोर पर मैं बंधी थी और दूसरे छोर पर लटाई पकड़े कई हाथ थे. मैं कितना उडूंगी ये निर्धारित वहीं से होता था. आज उनकी बहू अपनी उड़ान ख़ुद तय कर रही है. आज कहां गए सारे नियम-क़ानून?
सोशल मीडिया पर इधर-उधर के अकांउट खंगालते, एक तस्वीर पर निगाह रुक गई; भतीजे निशु की बहू जींस-टी शर्ट पहने हुए खुले बालों में मुस्कुराती हुई अपने बर्थडे का केक काट रही थी… कितनी प्यारी लग रही थी. ये प्यार वाला भाव बमुश्किल दो मिनट भी न ठहरा होगा कि उसकी जगह ईर्ष्या ने आकर पैर पसार लिए!
"सूट-वूट अपने यहां नहीं चलता, जैसे हमने साड़ी में जीवन बिताया, बिताओगी तो तुम भी वैसे ही…" इतने साल पहले कही गई जेठानी की बात आज भी उतनी ही तेज़ चुभी.
"अपनी बीवी को समझाओ संदीप, मास्टरनी होगी अपने स्कूल में, ये घर तो अम्मा का स्कूल है, उन्हीं का नियम चलता है…"
जेठजी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी संदीप को समझाने में… और संदीप, उन्होंने तो मुझे बड़ी आसानी से अम्मावाले स्कूल यानी ससुराल की आज्ञाकारिणी शिष्या बनाकर भर्ती करा दिया था. सब कुछ नियम-क़ानून से बंधा हुआ.
बात साड़ी या सलवार सूट की नहीं थी. बात थी उस मांझे की जिसके एक छोर पर मैं बंधी थी और दूसरे छोर पर लटाई पकड़े कई हाथ थे. मैं कितना उडूंगी ये निर्धारित वहीं से होता था. आज उनकी बहू अपनी उड़ान ख़ुद तय कर रही है. आज कहां गए सारे नियम-क़ानून?
"हैप्पी बर्थडे प्यारी बहुरिया! ख़ूब ख़ुश रहो… नहीं याद नहीं था, तुम्हारी फ़ोटो देखी तो…"
"थैंक्स चाची… पता है, सुबह से आपके फोन का इंतज़ार कर रही थी, बस आपको फोन मिलाने का सोचा ही था तब तक निशु केक ले आए, तो पहले केक कटने लगा."
वो ख़ुशी से चहकते हुए सब बताती जा रही थी. उसको क्या पता, वो अनजाने में कितने घाव हरे करती जा रही थी. मुझे शादी के बाद अपना पहला जन्मदिन और उससे जुड़ी वो मनहूस शाम याद आ गई.
"सुनो संदीप, ये केक वापस कर आओ… हमारे-तुम्हारे बर्थडे पर तो इन सबमें पैसा बर्बाद हुआ नहीं, अब बहुओं का बर्थडे ऐसे मनाया जाएगा क्या? ये चोंचले हम लोग को नहीं पसंद…"
जेठजी की आवाज़ सुनते ही संदीप के कदम वापस केक की दुकान की ओर मुड़ गए थे और मेरी वो शाम आंसुओं से तर बीती थी. बात केक की नहीं थी, बात फिर उसी बंधी हुई उड़ान की थी.
"हैलो… हैलो चाची… कहां खो गईं आप? सुनिए तो फिर क्या हुआ…"
मैंने उसकी बात बीच में काटी, "ये बताओ पहले, ये सब करना… केक काटना, तुम्हारे वेस्टर्न कपड़े पहनना, ये भाईसाहब-भाभी मतलब तुम्हारे सास-ससुर को चलता है?"
वो चहकते हुए अचानक चुप हो गई.
"चलना क्या होता है चाचीजी? किसी के सम्मान में कोई कमी नहीं करती हूं, लेकिन बेवजह की ज़िद? वो मानना सब कुछ होता है क्या?"
मैंने ज़ोर देकर पूछा, "तब भी? निशु कुछ नहीं कहता?"
वो एक लंबी सांस लेकर रुक गई, फिर बोली, "चाचीजी, बात इन सबकी नहीं है… बात एक इंसान होने की है. मैं वो पतंग थोड़े ही हूं, जिसका कंट्रोल किसी और के हाथ में रहेगा! परिवार से जुड़ी हूं, जुड़ी भी रहूंगी, लेकिन अपनी उड़ान भी ख़ुद ही तय करूंगी."
वो बोलती जा रही थी और मेरा मन पीछे भटकने लगा था.
मैं कल्पना कर रही थी कि मुट्ठीभर हिम्मत मैंने बटोर ली है. तरह-तरह के रंग-बिरंगे सलवार सूट सिलाए हैं. अपनी पसंद के कपड़े-ज़ेवर सब कुछ मेरे पास हैं और जैसे ही संदीप केक वापस करने मुड़े हैं, मैंने तुरंत कहा है, "वापस नहीं करिए, मुझे पसंद हैं ये चोंचले…"
ये सब सोचकर ही ताज़ी हवा मुझमें भरती जा रही थी.
मैं अब भी पतंग ही थी, लेकिन मैंने अपनी लटाई, जेठ-जेठानी, संदीप से लेकर अपने हाथ में थाम ली थी.
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Photo Courtesy: Freepik
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