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कहानी- पीली शर्ट वाला लड़का (Short Story- Peeli Shirt Wala Ladka)

लकी राजीव

अगले कुछ दिनों में दो परिवर्तन एक साथ हो रहे थे. पहले तो यह कि प्रताप की उपस्थिति अब मेरे अंदर चिड़चिड़ाहट पैदा नहीं करती थी. और दूसरा यह कि जतिन के साथ ज़्यादा समय बिताते-बिताते मुझे अजीब सी उलझन होने लगी थी. मुझे हर समय एक मुखौटे को पहने रहना पड़ता था.

बॉस के केबिन में एक अजीब सी सुगंध रहती है, सम्मोहित करती हुई... वैसे सम्मोहन तो उनकी बातों में भी है. कहां-कहां की बातें बताते हैं, दुनिया जहान की बताएंगे कि इतनी जगह घूम चुके हैं, तभी तो इतना कुछ सीख चुके हैं. “सॉरी इला, अकाउंट डिपार्टमेंट में टाइम लग गया था, क्या लोगी? अच्छा, तुम्हारी तो कॉफी. मुझे याद है.” उन्होंने तुरंत फोन पर मेरी पसंद वाली कॉफी ऑर्डर कर दी. मुझे अच्छी तरह याद है बॉस यानी जतिन के साथ जब मैं पहली बार एक प्रसिद्ध कैफे में गई थी और उनके पूछते ही मैंने कह दिया था कि कॉफी लूंगी. उन्होंने तुरंत टोका था, “मगर कौन-सी कॉफी?” मैंने झिझकते हुए कहा था, “हॉट कॉफी.” वह बहुत तेज़ हंसने लगे थे.

“कम ऑन इला, हॉट कॉफी भी बहुत तरह की होती हैं. तुम नाम तो बताओ.” मैं बुरी तरह झेंप गई थी. मैं उनसे कह ही नहीं पाई कि मुझे सच में नहीं पता था हॉट कॉफी भी कई तरह की होती हैं. धीरे-धीरे मैंने सब कुछ सीखा. इसी तरह बॉस के साथ इधर-उधर आते-जाते. कभी-कभी तो मैं परेशान हो जाती कि मुझे कुछ भी नहीं पता, ना तो अच्छे-अच्छे ब्रांड पता हैं, ना ही ऐसे तौर-तरी़के, जिससे मेरी पर्सनैलिटी अच्छी लगे. और कभी-कभी तो मैं हैरान होकर जतिन को देखती रह जाती. कितना कुछ आता है इनको! कब, कहां, क्या बोलना है. कहां क्या पहनना है, कितने अच्छे से अपने आपको प्रस्तुत करना है. इनको सब कुछ पता था और यही बातें थीं, जो मैं जतिन की ओर बिना आकर्षित हुए रह नहीं पाई. हालांकि मैंने कभी भी अपने मन की बात उन पर ज़ाहिर नहीं की थी, लेकिन जो आदमी इतना कुछ जानता है, क्या वह मेरे मन की हालत नहीं जान गया होगा? “कहां खो गई इला? तुम्हारी कॉफी आ गई है. चलो जल्दी से मुझे कल वाली मीटिंग की सारी डिटेल्स दे दो.” मैं अपने ख़्यालों से बाहर आकर काम में लग गई. दो मिनट भी नहीं बीते होंगे कि तभी दरवाज़े पर किसी ने खटखटाया.

“हां प्रताप, आ जाओ अंदर.” जतिन के बोलते ही उसने अंदर आकर एक फाइल बढ़ा दी, “सर, ये पेपर्स देख लीजिए, मैं थोड़ी देर में आकर ले जाऊंगा.”

जतिन, "कॉफी-चाय कुछ लोगे?”

“नहीं सर, आप लोग कंटिन्यू कीजिए.”

मैंने चैन की सांस ली. अच्छा हुआ यह यहां बहुत देर तक नहीं रुका. इसकी उपस्थिति तो मुझे बिल्कुल बर्दाश्त ही नहीं होती है. कुछ समय पहले ही तो इसने ऑफिस जॉइन किया है, अजीब ही है. किसी तरह का कोई क्लास नहीं है इसके अंदर. कभी भी कुछ भी बोल देता है. “क्यों इला, तुम्हें यह प्रताप कैसा लगता है?” उसके जाते ही बॉस ने मुझसे पूछा. मैंने कंधे उचका दिए, “ठीक है सर.. बस ठीक ही है.” जतिन बहुत ज़ोर से हंसने लगे थे.

“मुझे तुमसे इसी जवाब की उम्मीद थी. पता नहीं किस ग्रह का प्राणी है. कोई स्टाइल नहीं, कोई शौक नहीं. मैंने नोटिस किया है, इसके पास चार-पांच शर्ट्स हैं, जो यह हफ़्ते के पांचों दिन पहन कर आता है. अगले हफ़्ते फिर वही रिपीट करने लगता है. मुझे कभी-कभी लगता है, इसने अपनी शर्ट पर संडे-मंडे लिखवा तो नहीं रखा?” उनकी यह बात सुनते ही मैं भी अपनी हंसी नहीं रोक पाई, “और उसकी वो पीली शर्ट, वो भूल गए आप?” उसके बाद तो मैंने प्रताप के अनगिनत क़िस्से बॉस को सुना डाले. पहले तो वह हंसते रहे. उसके बाद अचानक मुझे रोक कर बोले, “अच्छा यह बताओ इला, तुमको कैसे लड़के पसंद हैं?” मैं कहना तो चाहती थी कि सर आपको यह पता है कि मुझे कॉफी कैसी पसंद है, मुझे रंग कौन-सा अच्छा लगता है, मैं किस मौसम में सबसे ज़्यादा कंफर्टेबल होती हूं... लेकिन आपको यह नहीं पता है कि मुझे लड़का कैसा पसंद है! आपके जैसा ही तो... और कैसा? मैं बस सोचती ही रही. इनमें से कुछ भी नहीं कह पाई. कॉफी का आख़िरी घूंट भरते हुए मैंने जवाब सोच लिया, “सर! कभी इस बारे में सोचा नहीं. हां इतना है कि लड़का ऐसा होना चाहिए, जिसका अपना एक क्लास हो, स्टेटस हो.”

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बॉस ने मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं दिया. बात को टालते हुए मुझे आगे के काम समझा दिए. उनके केबिन से मैं बाहर निकली ही थी कि तब तक फिर प्रताप मुझे दिख गया, “इला, मैं तुम्हें ही ढूंढ़ रहा था. मुझे एक बहुत ज़रूरी काम था.” उसकी सीट पर जाकर मैंने उसका वह ज़रूरी काम तो करवा दिया, लेकिन उसके बाद जो हुआ उसके लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं थी.

“अच्छा सुनो, हम लोगों को शाम को बाज़ार जाना है.” मैं चौंक गई, “हम लोगों को जाना है, मतलब?” “तुम्हें और मुझे.”

“लेकिन बाज़ार जाना क्यों है?”

“जतिन सर का बर्थडे आ रहा है ना, तो हम सब लोग मिलकर उनको कुछ गिफ्ट देना चाहते हैं. मैंने सोचा कि चलकर देख लेते हैं.”

“वह मैं देख लूंगी, मुझे उनकी पसंद-नापसंद अच्छी तरह पता है. तुम लोग मुझे अमाउंट बता दो, सबका मिलाकर कितना कॉन्ट्रिब्यूशन हुआ है.” मैंने उसे किसी तरह टालना चाहा. लेकिन वह तो टस से मस नहीं हुआ. इस बीच उसका समर्थन करने और लोग भी आ गए. हारकर मुझे ही हथियार डालने पड़े और ना चाहते हुए भी उसके साथ बाज़ार के लिए निकलना पड़ा. पता नहीं कितनी तो इस लड़के को भूख लगती है. मैं मन ही मन भुनभुना रही थी. बाज़ार जाने के लिए ऑटो में बैठा, तो उसने भेलपुरी ख़रीद ली. मुझे भी खानी पड़ी. बाज़ार में उतरते ही पहले उसने जूस पिया और ज़बरदस्ती मुझे भी एक ग्लास थमा दिया. “तुमने लंच नहीं किया था क्या?” मैंने कुढ़कर पूछा.

“मैंने तो किया था, तुमने कुछ नहीं खाया था.” बड़ा चिपकू है ये! इसने कब देख लिया कि मैंने कुछ नहीं खाया था? चलो ये सब भी ठीक था, मैंने कुछ कहा नहीं, लेकिन गिफ्ट पसंद करते समय झड़प हो ही गई. “तुम ये सब क्या देख रहे हो प्रताप? बॉस को ये सब नहीं अच्छा लगता है. तुमने कभी देखा कि इस तरह के कपड़े वो पहनते हों.” मेरी बात पर थोड़ी देर चिंतन करने के बाद उसने एक सुझाव दिया, “ऐसा करते हैं हम लोग मिलकर बॉस को पौधे दे देते हैं. कैसा रहेगा?”

“बहुत बेकार रहेगा, पता नहीं उनको पौधे पसंद भी हैं या नहीं? उनके घर में जगह भी है या नहीं?” “अरे बहुत पसंद है उनको! तुमने देखा नहीं, उनकी टेबल पर भी छोटा सा मनी प्लांट रखा रहता है! मैंने बॉस के घर की फोटो भी देखी हैं, उसमें भी बहुत सारे पौधे हैं.” मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डाला तो याद आया, बात तो यह सही कह रहा है. मन ही मन जलन भी हुई, इतना अच्छा ऑब्जर्वेशन है क्या इसका? “ठीक है, तो फिर पौधे फाइनल करते हैं. लेकिन नॉर्मल गमले नहीं देंगे, अच्छे वाले प्लांटर देंगे, डिज़ाइनर प्लांटर्स.” बर्थडे वाले दिन हम सब ने बॉस के केबिन में केक कटवाया, उनको विश किया और इससे पहले कि बॉस कुछ कहते, प्रताप ने ख़ुद ही कूदकर पूछ लिया, “सर, हम लोगों का गिफ्ट कैसा लगा आपको?” मैंने अपना माथा पीट लिया, इसको इतनी भी तमीज़ नहीं है कि ख़ुद नहीं पूछते हैं.

“हां, मैं गिफ्ट के बारे में ही बताने जा रहा था. तुम लोगों ने सुबह जब घर पर प्लांट्स भेजे, मैं तो देखता ही रह गया था! इससे अच्छा गिफ्ट मेरे लिए और कुछ हो ही नहीं सकता था. पौधे तो होते ही हैं प्यारे, साथ में उनके प्लांटर इतने अच्छे थे कि बस दिल ख़ुश हो गया. वैसे किसका आइडिया था यह?” मुझे लगा कि अब प्रताप सब चौपट कर देगा, तुरंत अपना नाम ले देगा. मैंने बात संभाल ली, “सर, मैंने ही कहा था कि साधारण गमले में पौधे देने से अच्छा है हम डिज़ाइनर प्लांटर गिफ्ट करेंगे.” मेरी इस बात पर सबने तालियां बजाईं. बॉस ने मुझे प्रशंसा भरी निगाहों से देखा. मुझे तसल्ली हुई प्लांट वाला आइडिया इसका था, यह किसी को पता ही नहीं चला. सब लोग केबिन से निकलकर अपनी डेस्क पर जाने लगे थे. मैं भी वहां से जाने के लिए दरवाज़े की ओर बढ़ी, तब तक बॉस की आवाज़ आई, “इला रुको! तुमने मुझे कोई गिफ्ट नहीं दिया?” मैं कुछ जवाब देती, तब तक वो फिर से बोले, “चलो मैं ही मांग लेता हूं. शाम को मेरे साथ डिनर पर चलोगी? मेरे कुछ ख़ास फ्रेंड्स आ रहे हैं.” मैं हां के सिवाय कुछ कह भी नहीं सकती थी. जब उनके केबिन से बाहर आई, तो मेरा चेहरा लाल होकर तप रहा था. बॉस ने केवल मुझे कहा है साथ चलने के लिए! वह भी आज, इतने ख़ास दिन...

शाम को घर पहुंची, तो घर में अलग बवाल छिड़ा हुआ था. कोई रिश्तेदार आकर बैठा था, जो मेरे लिए अपने किसी परिचित का रिश्ता बता रहा था. मैंने एक नज़र उस लड़के के बायोडाटा पर डाली. उसकी तस्वीर देखी और मुंह बिचका दिया, “नहीं मम्मी, कोई स्टैंडर्ड नहीं है.” मम्मी ने घूरा, “कैसा होता है स्टैंडर्ड वाला लड़का?”

“आप परेशान मत हो मम्मी, जब आपके सामने लाकर खड़ा कर दूंगी, तब आप देख लेना.” इतना कहते हुए मैं मुस्कुराते हुए अपने कमरे में चली गई. अपनी सारी साड़ियां देखीं, मुझे कोई भी वहां जाने लायक नहीं दिखी. हारकर अपनी सहेली को फोन किया. उसकी एक लेटेस्ट फैशन की साड़ी पहनकर मुझे लगा कि हां अब मैं जा सकती हूं उनकी पार्टी में.

“हैप्पी बर्थडे सर!” मैंने मुस्कुराते हुए रजनीगंधा का गुलदस्ता उनकी ओर बढ़ा दिया. बॉस ने ऊपर से नीचे तक मुझे देखते हुए कहा, “मुझे तो लगा था, मुझे आज रेड रोज़ मिल जाएगा.” मुझसे कुछ कहते ही नहीं बन रहा था. आंखें उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी. वो तो अच्छा हुआ कि उनके दोस्त तब तक हमारी ओर आ गए, “हमसे भी तो मिलवाओ, जतिन.” बॉस ने मेरा इंट्रोडक्शन देते हुए कहा, “वैसे तो हम ऑफिस में साथ हैं, लेकिन मैं इला को अपनी फ्रेंड मानता हूं. एक बहुत अच्छी फ्रेंड!” मेरे लिए इतना ही बहुत था, लेकिन उसके बाद जो कुछ पार्टी में हुआ, वह सब कुछ सपने जैसा था. जतिन पूरी पार्टी में मेरे साथ ही रहे. हमने खाना भी साथ ही खाया और जतिन ने जब गाना गया, तो भी वह बार-बार मेरी ओर ही देखते रहे. वहां से आने के बाद मेरे तो जैसे पंख ही निकल आए थे. मुझे और कुछ अच्छा ही नहीं लग रहा था, बस लगता था कि जो सपना देख रही हूं, वह अगर सपना है तो कभी न टूटे.. और अगर सपना नहीं है, तो पूरी तरह सच होकर सामने आए. इधर मैं अपने सपनों की दुनिया में उड़ रही थी, उधर पापा और मम्मी बार-बार उसी रिश्ते का ज़िक्र छेड़ देते थे. मैंने साफ़-साफ़ कह दिया था, “मुझे इस तरह से शादी नहीं करनी है. कोई ढंग का लड़का तो लाइए आप लोग.” फिर अपने आसपास देखते हुए कहा, “और ढंग का रिश्ता आएगा भी कैसे? घर की हालत देखिए. कब से पेंटिंग नहीं हुई है घर में! इधर सीमेंट गिर रहा है, उधर प्लास्टर उखड़ रहा है. ऐसा लगता है जैसे किसी खंडहर में रह रहे हों. अगर कोई खाने पर आ जाए, तो क़ायदे का डिनर सेट तक नहीं है अपने पास.” बहुत ग़ुस्से में मैं ऑफिस के लिए निकल गई थी, लेकिन टैक्सी में बैठने पर लगा इतना कुछ नहीं कहना चाहिए था. घर की हालत मुझे नहीं पता है क्या? तब भी, कल को जतिन से जब मेरी शादी की बात चलेगी, वो लोग घर आएंगे, तब सब कुछ अच्छे से अच्छा होना चाहिए न! “मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था, क्या हुआ? तुम्हारा मूड क्यों ऑफ लग रहा है?” ऑफिस में जतिन के पूछते ही पहले तो मैं सब कुछ बताने वाली थी, फिर कुछ सोच कर चुप हो गई. जतिन उत्साह में थे, “आज ऑफिस के बाद हम लोग शॉपिंग के लिए जाएंगे.”

“शॉपिंग, लेकिन क्यों?” “क्यों इला, मैं तुम्हें कुछ गिफ्ट नहीं दे सकता?” जतिन ने इस तरह से मेरी आंखों में देखते हुए कहा कि ना कहने का तो सवाल ही नहीं उठता था. शॉपिंग करते समय भी मुझे कुछ कहते ही नहीं बन रहा था. जतिन की तो पसंद थी ही हाई क्लास! एक से एक महंगे कपड़े, फुटवियर, पर्स, पता नहीं उन्होंने मुझे क्या-क्या दिलवा दिया था. इतना कुछ कि मुझे बोझ सा लगने लगा था.

“सर, गिफ्ट देने का मतलब यह थोड़ी होता है कि पूरा बाज़ार ख़रीद लिया जाए?” वहां से लौटते समय मैंने शिकायत भी कर दी. जतिन ने मुस्कुराते हुए कहा, “पूरा बाज़ार ख़रीदने का मतलब क्या होता है जानती हो? चलो धीरे-धीरे जान जाओगी. और हां, ऑफिस में ठीक है, बाहर मुझे सर क्यों कहती हो?” वह सब सामान घर लेकर आने का तो कोई मतलब ही नहीं था. पहले सहेली के यहां जाकर रख दिया और उससे कहा कि मैं बाद में ले जाऊंगी. उसकी भी आंखें हैरत से फटी रह गई थीं, “क्या बात है इला, आख़िर चक्कर क्या है?” मैं अलग ही दुनिया में खोई हुई थी, “कोई चक्कर नहीं है, इसे ही तो प्यार कहते हैं.”

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“ओहो प्यार की मारी, देखो तुम्हारा फोन बज रहा है. शायद जतिन का ही है.” सहेली ने इशारा किया तो मैंने पर्स टटोला, देखा तो प्रताप का फोन आ रहा था.

“इला, कहां हो तुम? कितनी देर से मैं तुम्हारे घर पर इंतज़ार कर रहा हूं. अंकल ने भी तुमको फोन किया था, तुम्हारा फोन ही नहीं लग रहा है.”

“तुम घर पर क्या कर रहे हो? मेरा मतलब है कि कोई ख़ास काम था क्या?” इतना अच्छा दिन बिताकर मैं लौटी थी, अब जाकर प्रताप का सामना करना.. उफ़! घर पहुंची तो वहां का नज़ारा देखकर हैरान रह गई. मम्मी-पापा बहुत दिनों बाद खुलकर इस तरह से हंस रहे थे. समोसे, ढोकले, रसगुल्ले मेज़ पर सजे रखे थे, चाय पीते हुए प्रताप ने मेरे आते ही पूछा, “तुम रह कहां गई थी? ऑफिस से तो बहुत पहले निकल ली थी.” उसके सवाल पर मम्मी-पापा ने मुझे सवालिया निगाहों से देखा, मैंने मन ही मन उस लड़के को कोसते हुए जवाब दिया, “मुझे थोड़ा काम था बाज़ार में. वैसे कोई ख़ास बात है क्या, अचानक तुम्हारा इस तरह यहां आना.”

“हां, मैंने एक दूसरी कंपनी में अप्लाई किया था. आज वहां मेरी नौकरी पक्की हो गई है, तो सोचा तुमको मिठाई के साथ ही ख़ुशख़बरी दूं.” सच में मेरे लिए यह अच्छी ख़बर ही थी! मैंने प्लेट में से एक रसगुल्ला उठाया ही था कि उसने टोक दिया, “मैं तो कहूंगा तुम भी वहां पर अप्लाई कर दो. यहां से बेहतर माहौल है वहां. सैलरी भी ज़्यादा है.” मैंने रसगुल्ला वापस प्लेट में रखते हुए कहा, “मुझे पता है, मेरे लिए कौन सा ऑफिस ज़्यादा ठीक है.” उसके बाद मेरा वहां बैठने का बिल्कुल भी मन नहीं किया, लेकिन जब तक वह था, बैठना तो था ही. मम्मी-पापा तो उससे इस तरह बात कर रहे थे जैसे बरसों से जानते हों. मुझे क्या पता था कि यह अपनापन उसको रात के खाने तक रुकने पर भी मजबूर कर देगा. मम्मी तो ज़िद पर अड़ गई थीं, “नहीं बेटा, कोई बहाना नहीं. तुम खाना खाकर ही जाओगे.” उसने भी ज़्यादा मना नहीं किया. एक-दो बार टालने के बाद खाने के लिए रेडी हो गया था, मैं झेंप रही थी. पूरे खाने की व्यवस्था करनी होगी. पनीर मंगवाना होगा, दो-तीन तरह के आइटम बनाने होंगे, अच्छे बर्तन अंदर से निकालने पड़ेंगे. तब तक उसने तुरंत कहा, “देखिए आंटी, आप बेटा कहकर खाने के लिए रोक रही हैं, तो फिर कोई भी फॉर्मेलिटी मुझे नहीं चाहिए. बस एक सब्ज़ी और दो रोटी, इससे ज़्यादा आपने कुछ बनाया तो मैं खाऊंगा ही नहीं.” मम्मी तो निहाल हो गई थीं. खाना खाते-खाते रात के दस बज गए थे और यह मुझे तब पता चला जब मैं अपने कमरे में आई. वक़्त का तो पता ही नहीं चला. पहली बार मुझे ऐसा लगा कि प्रताप इतना भी ख़राब नहीं है जितना मुझे लगता है. साधारण है, सादगी है उसके अंदर. ठीक है मेरे लेवल का नहीं है, लेकिन ऐसे इंसान को ख़राब भी तो नहीं कहा जा सकता. मम्मी ने रात को पूछा भी, “ये तुम्हें पसंद है क्या? कितना अच्छा है. अच्छा कमाता है, लेकिन बड़ा सिंपल है.” मम्मी की बात का जवाब दिए बिना मैं लेट गई थी. अगले कुछ दिनों में दो परिवर्तन एक साथ हो रहे थे. पहले तो यह कि प्रताप की उपस्थिति अब मेरे अंदर चिड़चिड़ाहट पैदा नहीं करती थी. और दूसरा यह कि जतिन के साथ ज़्यादा समय बिताते-बिताते मुझे अजीब सी उलझन होने लगी थी. मुझे हर समय एक मुखौटे को पहने रहना पड़ता था. हमेशा हाई क्लास बातें करना, हमेशा जतिन की पसंद को सराहना, हमेशा एक स्टैंडर्ड मेंटेन करना मुझे उबाऊ लगने लगा था. यही नहीं, मुझे ऐसा लगता था कि मुझ पर एक अतिरिक्त दबाव रहता है कि मैं कैसे अपने घर का रहन-सहन ठीक करूं? कैसे मैं अपनी पर्सनैलिटी को और बेहतर बना सकूं. मेरी सहेली ने भी एक दिन टोक दिया था, “एक बात कहूं इला, अब तुम पहले जैसी नहीं लगती हो.”

“पहले जैसी नहीं, मतलब?”

“अब तुम लोगों को उनके रुपए-पैसे, कपड़े, घर, गाड़ी से जज करती हो. तुम पहले ऐसी नहीं थी. हर समय क्लास, स्टेटस, स्टैंडर्ड.”

“ऐसा कुछ नहीं है, वहम है तुम्हारा.” मैंने उसको रोकना चाहा, लेकिन वो रुकी नहीं, “एक बात और है, तुम अब उस तरह रहती हो जैसे जतिन तुम्हें देखना चाहते हैं. तुम अब बहुत ख़ुश भी नहीं लगती हो. सच-सच बताओ तुम जतिन के साथ ख़ुश तो हो ना?” “हां यार, बहुत ख़ुश हूं.” कहने को तो मैं कह आई, लेकिन अपना ही जवाब मेरे अंदर बहुत देर तक गूंजता रहा. मैं जतिन के साथ अगर इतनी ख़ुश हूं तो अक्सर डिनर पर जाना या मूवी देखने जाना मैं टाल क्यों जाती हूं? जतिन कई दिनों से कह रहे हैं कि अपने घरवालों से मुझे मिलवाना चाहते हैं, मैं हर बार कोई नया बहाना क्यों बना देती हूं? रात तक इसी उधेड़बुन में जागती रही. सुबह उठी तो देखा प्रताप का मैसेज था- इला, आज मेरा ऑफिस में आख़िरी दिन है. मैं लंच तुम सबके साथ करना चाहता हूं. पता नहीं क्यों वह मैसेज पढ़ते ही मैं उदास हो गई. ऑफिस खाली-खाली हो जाएगा न प्रताप के जाने के बाद? पिछले कुछ दिनों से मैं और प्रताप आपस में कितना कंफर्टेबल हो चुके हैं. मैं उसको कुछ भी कह दूं उसको ख़राब नहीं लगता. ऑफिस के भी काम को लेकर मुझे कोई प्रॉब्लम हो, सबसे पहले वही तो तैयार रहता है. मैंने तुरंत मैसेज का जवाब दिया- आज तुम्हारा ऑफिस में आख़िरी दिन है, आज हम लोग तुम्हें फेयरवेल पार्टी देंगे. ऐसा करते हैं रात में सब मिलते हैं. थोड़ी देर में पार्टी की लोकेशन भेजती हूं. प्रताप को वह मैसेज भेजने के बाद मैंने ऑफिस के ग्रुप पर मैसेज भेजा और पार्टी की तैयारी शुरू कर दी. मेरे ऑफिस पहुंचने से पहले सब कुछ तय हो चुका था. मैंने जतिन के केबिन में जाकर उनको भी इनवाइट किया, “आज हम लोग प्रताप को फेयरवेल पार्टी दे रहे हैं.”

“हां, मैंने पढ़ा ग्रुप पर.” जतिन का चिढ़ा हुआ सा जवाब आया. “क्या हुआ? आपको जलन हो रही है?” मैंने मुस्कुराते हुए चिढ़ाया, लेकिन वह तो सच में चिढ़े हुए बैठे थे, “क्या ज़रूरत है तुम्हें इन लोगों के साथ इतना घुलने-मिलने की? ऑफिस स्टाफ है. तुम तो इन सबसे अलग हो ना? अपनी इमेज मेंटेन करो. कोई बहाना बनाकर पार्टी में जाना टाल दो.” एक फरमान सुनाकर जतिन चुप हो गए थे. मुझे ये सब बहुत अजीब लगा था. इस तरह से क्यों बातें कर रहे थे जतिन उन लोगों के बारे में? ठीक है जतिन उन लोगों के बॉस हैं, तो क्या सब साथ मिलकर सुख-दुख नहीं बांट सकते? उस समय तो मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन मैंने तय कर लिया था कि पार्टी में तो मैं ज़रूर जाऊंगी. रात को पार्टी में जाने से पहले मैंने प्रताप के लिए एक शर्ट ख़रीदी. मुझे पता था पीला उसका पसंदीदा रंग है. पार्टी हॉल में वह एक कोने में चुपचाप बैठा था. मुझे देखते ही मेरी ओर तेज़ कदमों से चलकर आने लगा, “मुझे लगा तुम आओगी ही नहीं.” “कैसे नहीं आती? तुम्हारा गिफ्ट ख़रीदने में देर हो गई थी.” उसे शर्ट का पैकेट थमाते हुए मैं मुस्कुराई, लेकिन वह तो एक उदासी के आवरण में लिपटा हुआ था.

“इला, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है. शायद आज नहीं करनी चाहिए थी, लेकिन आज नहीं कर पाया तो कभी कर नहीं पाऊंगा.” मैंने आसपास देखा सब लोग बातों में मशगूल थे, “बोलो प्रताप, क्या बात है? ऑफिस छोड़ रहे हो, यह अजीब लग रहा है?” प्रताप नज़रें नीचे किए हुए धीरे से बोला, “नहीं, तुमसे दूर जा रहा हूं यह अजीब लग रहा हैे. इससे ज़्यादा कुछ और कह नहीं पाऊंगा. बस ये समझ लो कि जब से इस ऑफिस में आया था तब से तुम्हें...” इसके आगे वह कुछ बोलता, तब तक बाकी लोगों ने उसे आवाज़ देकर केक कटिंग के लिए बुला लिया था. मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या कह रहा था? मुझे तो कभी भी नहीं लगा कि उसके मन में मेरे लिए कोई सॉफ्ट कॉर्नर था! पार्टी में भी उसकी आंखों का खालीपन मुझे चुभता रहा.

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मैंने सोचा था कि पार्टी ख़त्म होने के बाद मैं उसे इस बारे में खुलकर बात करूंगी, लेकिन उसके पहले ही कुछ ऐसा हो गया कि माहौल ही बिगड़ गया. जतिन का फोन बार-बार आ रहा था. मैंने झुंझलाते हुए पूछा, “क्या हुआ अब?”

“तुम प्रताप की पार्टी में हो क्या?”

“हां वहीं हूं, बोलिए.”

“इला, मैंने तुमसे मना किया था ना कि तुम नहीं जाओगी, तुम तब भी गई...”

“जतिन, ये सब दोस्त हैं मेरे. आप कैसी बातें कर रहे हैं?” थोड़ी देर उधर सन्नाटा छाया रहा, फिर एक कड़वी आवाज आई, “हां, तुम्हारे दोस्त तुम्हारे टाइप के ही तो होंगे. तुम्हारे लेवल के.”

“आप कहना क्या चाहते हैं जतिन?” जतिन अब सारे पर्दे हटाकर खुली बात करने पर उतारू हो चुके थे, “मैं यह कहना चाहता हूं कि तुम्हारा ख़ुद का तो कोई क्लास है नहीं.. जानती हो जब तुम पहली बार मेरे दोस्तों से मिली थी मेरे बर्थडे पार्टी में.. तब सबने क्या कहा था तुम्हारे बारे में? यही कहा था कि तुम मेरे स्टैंडर्ड की नहीं हो. उसके बाद से मैंने कितनी कोशिश की तुम्हारा लेवल सुधारने की. तुम्हें ब्रांडेड सामान दिलवाए, तुम्हें हाई लाइफस्टाइल में रहने की आदत डालने की कोशिश की. लेकिन नहीं! तुमको तो सुधरना है ही नहीं.” इतना कह कर जतिन ने फोन रख दिया था. अगले दो पलों में मेरे भीतर दो ख़्याल आए. पहले पल में मुझे लगा कि मुझे फोन करके सॉरी कहना चाहिए, वहीं दूसरे पल ने मुझे चेतावनी दी किस बात की माफ़ी? उस ग़लती की, जो मैंने की ही नहीं? वो होता कौन है मुझे बताने वाला कि मैं नीची हूं और वह ऊंचा? उसका स्टैंडर्ड क्या है यह तो उसने आज बता ही दिया है. उसके बाद मैं पार्टी में रुक नहीं पाई. सिरदर्द का बहाना करके वहां से निकली और सीधे घर आकर मम्मी के पास बैठकर बहुत देर तक रोती रही. मम्मी को धीरे-धीरे सब कुछ बताया. मम्मी ने बस इतना कहा, “इला, उस रिश्ते को चुनो जो तुम्हें बेहतर इंसान बना रहा हो.. उसको नहीं जो तुमसे तुम्हारे ही गुण अलग करने की कोशिश कर रहा हो.” बस, इतना इशारा बहुत था मेरे लिए. जतिन के साथ रिश्ता सचमुच मेरे लिए बोझ ही था और ऐसा बोझ जिसके तले दबकर मैं निम्न स्तर की इंसान बनती जा रही थी. जतिन ने फोन करके इतना कुछ कह दिया. उसका उसे कोई अफ़सोस नहीं, कोई चिंता नहीं कि उसके बाद मेरा क्या हुआ होगा? वहीं प्रताप के बहुत सारे मैसेज थे- इला, तुम अचानक पार्टी से निकल आई... सिरदर्द कम हुआ?.. अभी ठीक हो ना? डॉक्टर के पास चलना हो तो मुझे बताना... मैंने उसके भेजे मैसेज कई बार पढ़े. मन एक ज़रूरी फ़ैसला करने वाला था.. मुझे सुबह होने का इंतज़ार था.

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