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कहानी- पिता और बेटी… (Short Story- Pita Aur Beti)

"... बरसों हम ख़ुद यह बात भूल चुके थे, लेकिन आज आपको धोखे में नहीं रख पाया…"

"तो क्या आपके तीनो बच्चों में आस्था वही..?"
"जी हां, लेकिन उसे या मेरे बच्चों में से किसी को भी यह बात पता नहीं. लेकिन अगर आप चाहें तो…"

"क्या बात है कर्नल साहब, बहुत परेशान लग रहे हैं?"
"बस यूं ही, आस्था के बारे में सोचकर मन थोड़ा…"
"अरे आप परेशान मत होइए. आस्था को मैं बहू नहीं, बेटी बनाकर ले जा रहा हूं."
"उस तरफ़ से मैं बिल्कुल निश्चिन्त हूं, लेकिन एक बात है जो समझ नहीं आ रहा कि कहूं या…"
"जो हो निःसंकोच कहिए."

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"आज से बाइस साल पहले एक रात को मैं अपनी टीम के साथ एक गांव के बाहरी इलाके में छुपे आतंकवादियों का एनकाउंटर करने गया था. घंटों की गोलीबारी में आख़िर अंदर छुपे सभी आतंकियों को मारने के बाद जब हम अंदर गए, तो देखा हथियारों से लैस दो औरतें भी मारी गई थीं. तभी देखा एक कोने में डेढ़-दो बरस की एक बच्ची रो रही थी…"
"फिर…"
"बहुत देर उहापोह में रहा, आतंकी का खून, लेकिन रक्षक और भक्षक में शायद यही अंतर होता है. नहीं छोड़ पाया उसे उस सुनसान में. ईश्वर की इच्छा मान आख़िर ले आया और दूसरे ही दिन घर पहुंचा आया… बरसों हम ख़ुद यह बात भूल चुके थे, लेकिन आज आपको धोखे में नहीं रख पाया…"
"तो क्या आपके तीनो बच्चों में आस्था वही..?"
"जी हां, लेकिन उसे या मेरे बच्चों में से किसी को भी यह बात पता नहीं. लेकिन अगर आप चाहें तो…"

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"….."
"मैं आपको भी जानता हूं, आस्था को भी बहुत अच्छे से पहचानता हूं. सच यही है कि वो आपकी ही बेटी है. ये जो बात कही है आपने आज, ये बस हम दो पिताओं के बीच ही रहे. आस्था आज से मेरी भी बेटी हुई."

- विनीता राहुरीकर

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