नितिन की आवाज़ तेज़ होने लगी थी, "अच्छा! जो खाना खाते समय सब के सामने तुम्हें बेवकूफ़ कह दिया था उसके लिए ड्रामा है क्या ये? जवाब दो… और अपने कपड़े अटैची में क्यों रख रही हो?" मेरी आंखें फिर डबडबा आईं, मैं चुपचाप कपड़े रखती रही.
"इतनी ज़रूरी फोन था क्या जो तुम शादी की रस्मों के बीच में उठकर चली आई? चूंकि मेरे दोस्त की शादी है, इसीलिए तुम्हें कोई उत्साह नहीं है… अरे! तुम रो रही हो!" नितिन मुझे ऐसे देखकर चौंक गए!
पंडितजी की आवाज़ स्पष्ट रूप से होटल के कमरे में आ रही थी.
"पांचवा वचन है- स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा। वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या।
अर्थात् कन्या कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु ख़र्च करते समय आप मेरी भी सलाह लेंगे!"
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नितिन ने मुंह बिचकाया, "ओह! जो मैंने तुमसे बिना पूछे सुबह दीदी को एक लाख रुपए भेज दिए… उस बात पर सुबह से मुंह बना होगा!" मैंने बिना जवाब दिए एक ग्लास पानी पिया, आंसू पोंछे।.
पंडितजी की आवाज़ फिर गूंजी- "छठा वचन है- न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत।
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम।
अर्थात् कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सामने किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे."
नितिन की आवाज़ तेज़ होने लगी थी, "अच्छा! जो खाना खाते समय सब के सामने तुम्हें बेवकूफ़ कह दिया था उसके लिए ड्रामा है क्या ये? जवाब दो… और अपने कपड़े अटैची में क्यों रख रही हो?" मेरी आंखें फिर डबडबा आईं, मैं चुपचाप कपड़े रखती रही.
पंडितजी ने अति गंभीर स्वर में कहा, "अब आता है सातवां वचन… परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या। वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या।
अर्थात् कन्या अंतिम वचन ये मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को नहीं लाएंगे!"
"आप कल नोएडा किसी मीटिंग में नहीं गए थे," मैं क्रोध से कांप रही थी.
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"जिस नर्सिंग होम में अपनी सेक्रेटरी को अबाॅर्शन के लिए लेकर गए थे, वहां मेरी सहेली डाॅक्टर है… अभी उसका ही फोन आया था. सीसीटीवी फुटेज भी भेजा है!" मैंने कांपते हाथों से फोन नितिन को पकड़ा दिया.
फोन देखते हुए नितिन का चेहरा सफ़ेद पड़ चुका था, "मेरी बात सुनो… देखो, समझो, कुछ कमज़ोर पलों में…"
मैंने अटैची उठाई और बाहर निकलते हुए नितिन की ओर देखा, "देखूंगी, समझूंगी, कमज़ोर पलों की कहानियां भी सुनूंगी, लेकिन यहां नहीं… कोर्ट में!"
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