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कहानी- प्रसूति गृह (Short Story- Prasuti Garah)

"अभी तुम लड़की बनकर सोच रही हो, इसलिए ऐसा लग रहा है. लेकिन जब तुम एक मां बनकर सोचोगी, तब तुम्हें लगेगा कि कोई भी मां-बाप अपने किसी बच्चे की उपेक्षा नहीं करते है, चाहे वह कैसे भी हो. तुम्हें अपने प्रति उपेक्षा की झलक इसलिए दिखाई दी, क्योंकि तुम्हारे और सुशील के बीच सिर्फ़ एक साल का अंतर है. लेकिन मैं ऐसी ग़लती नहीं करूंगा. अपने बच्चों में कम-से-कम चार-पांच साल का अंतर रखूंगा."

बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर वह चौंक गई. एकबारगी आंख खोल देने से फौरन उसकी समझ में नहीं आया कि बच्चा किधर से रोया है. आंख खुलने से स्वप्र खंडित सा हो गया. उसके बेड पर से रोने की आवाज़ तो नहीं आ सकती. उसने सोचा.
अचानक बदन में आई उत्तेजना से उसका जिस्म अभी भी सनसना रहा था. थोडी देर वह यूं ही लेटी रही. फिर तकिया पीठ के नीचे लगा कर अधलेटी हो गई. बेड नं १८ से रोने की आवाज़ आ रही थी. उसने देखा बेड पर बच्चे की मां नहीं थी. बच्चा अभी भी रोए जा रहा था.
उसका दिल हुआ बच्चे को उठा कर अपने बेड पर ले आए और सबसे कह दे कि यह मेरा ही बच्चा है. एकाएक रोने की आवाज़ आनी बंद हो गई. उसने फिर उस तरफ़ देखा. एक औरत उस बेड पर आ गई थी और बच्चे को दूध पिला रही थी. वह अपनी बेहूदा सोच पर मुस्कुरा दी. वह फिर सिर के नीचे तकिया रखकर लेट गई और छत को देखने लगी. दूर-दूर लगे पंखे और उसी अनुपात में लंबी-लंबी डोरियों के सहारे लटक रहे बल्ब वार्ड के एक कोने की छत व दीवार सीलन से भरी हुई थी और बे मौसम छत टपक रही थी. उसने अंदाज़ा लगाया कि छत के ऊपर पानी की टंकी होनी चाहिए,
अचानक एक धुंधली सी याद आकर उसकी आंखों में बैठ गई. वह उस टपकती छत को एकटक देखता रही धीर-धीरे प्रसूति गृह एक कमरे में परिवर्तित होने लगा. आदित्य का कमरा. बाहर मचलती हुई बरसात, हवा के झोंके के साथ उड़कर आती हुई पानी की फुहार से भीगती हुई दरवाज़े पर आदित्य की पीठ से सट कर खड़ी वह.
"शालू!"
"तुम जल्दी से शादी कर डालो."
"किससे?"
"मुझसे, और किससे!"
"क्यों..?"

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"इसलिए कि जितनी जल्दी शादी करोगी, उतनी जल्दी बच्चे होंगे. फिर सब इस बरसात में उछल-उछल कर खेलेंगे और हम दोनों यहीं से खड़े होकर जब उनको खेलते हुए देखेंगे, तो कितना अच्छा लगेगा "
"लेकिन कितने बच्चे खेलेंगे?"
"तीन तो होने ही चाहिए."
"अगर मैं अभी शादी कर लूं, तो तीनों बच्चे अभी खेलना शुरू कर देगे?" आदित्य ठठा कर हंसने लगा
"अभी की बात थोडे ही कर रहा हूं."
"ओह, भविष्य की बात कर रहे है आप!" वह भी हंसने लगी.
"लेकिन, तुमने यह तो बताया ही नहीं कि उन बच्चों में लड़कियां रहेंगी या लड़के?"
"वैसे तो हमें लड़कियां ही अच्छी लगती है, पर दो लडकी, एक लड़का या एक लड़की दो लड़के का हिसाब भी ठीक रहेगा क्यों?"
"नहीं, सिर्फ़ लड़के."
"लड़के मां-बाप की सेवा नहीं करते हैं."
"लेकिन लड़के के साथ लड़की पैदा करके मैं उसे मां-बाप की उपेक्षा का शिकार नहीं बनाना चाहती."
"यह ग़लतफ़हमी तुम्हें कब से हो गई?"
"इस ग़लतफ़हमी की जीती-जागती तस्वीर हूं मैं."
आदित्य थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गया.
"अभी तुम लड़की बनकर सोच रही हो, इसलिए ऐसा लग रहा है. लेकिन जब तुम एक मां बनकर सोचोगी, तब तुम्हें लगेगा कि कोई भी मां-बाप अपने किसी बच्चे की उपेक्षा नहीं करते है, चाहे वह कैसे भी हो. तुम्हें अपने प्रति उपेक्षा की झलक इसलिए दिखाई दी, क्योंकि तुम्हारे और सुशील के बीच सिर्फ़ एक साल का अंतर है. लेकिन मैं ऐसी ग़लती नहीं करूंगा. अपने बच्चों में कम-से-कम चार-पांच साल का अंतर रखूंगा."
"भारत सरकार के बड़े वफ़ादार नागरिक लगते हो."
"सरकार की नौकरी जो कर रहा हूं." दोनों हंस पड़े
"लेकिन अंतर रखने से क्या होता है. लड़के के रहते लड़की की उपेक्षा तो होगी ही."

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"कैसी बात कर रही हो शालू! अच्छा, फिर हमें लड़का चाहिए ही नहीं, हमें सिर्फ़ लड़कियां ही चाहिए."
"फिर तो मैं लड़के की ललक में अंदर ही अंदर टूट जाऊगी."
"क्या शालू! ये लड़की-लड़का बनाना क्या हम लोगों के वश में है? ऊपरवाला जो भी दे, उसे तो लेना ही पड़ेगा."
"मिसेज शर्मा… मिसेज शर्मा…  क्या सोच रही हैं आप? लीजिए, दवा लीजिए."
उसने सिर घुमा कर देखा नर्स बगल में खड़ी दवा देने के लिए उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाए थी. उसने दवा लेने के लिए हाथ बढ़ा दिया.
"सिस्टर, डॉक्टर कब तक आएंगी?"
"दस बजे तक!"
नर्स घूमकर दूसरे बेड की तरफ़ चली गई. अंक दस की भनक मिलते ही उसे घर की चिंता सताने लगी.? आदित्य ऑफिस जा चुके होंगे. शिखा, अमला स्कूल जाने की तैयारी में होंगी. पोनी तो अवश्य ही रो रही होगी. मांजी शिखा, अमला का टिफिन पैक कर रही होंगी‌. फिर पोनी को बहलाने में फंसी होंगी.
शिखा, अमला तो रोज़ बाल बनाने के वक़्त लड़ने लगती हैं. कभी पहले बाल झाड़ने के लिए तो कभी ज़्यादा देर शीशे के सामने खड़ी होने के लिए.
मालूम नहीं, महराजिन आई भी है या नहीं. उसका तो रोज़ का यही नाटक रहता है. पैसा लेने के वक़्त सीने पे सवार हो जाएगी और काम के वक़्त गायब हो जाएगी.
उसे अचानक याद आया घर का बीच का कमरा उसका बेडरूम, पलंग पर लेटी हुई वह. आदित्य आकर उसका माथा सहलाने लगता है.
"शालू, ज़िद छोड़ दो. एबॉर्शन करा लो पोनी के वक़्त मौत से लड़कर लौटी थी तुम. जान-बूझकर रिस्क लेना अक्लमंदी नहीं है. एक तो वैसे भी बहुत कमज़ोर हो गई हो… भगवान ने 'मां' का गौरव दिया. तीन-तीन बच्चे भी दिए मां कहने के लिए, अब किस बात की कमी है?"
"लड़के की… डॉक्टर किसनानी ने बताया है कि इस बार लड़का ही होगा."
"तो क्या तुम चेकअप के लिए गई थी?" आदित्य चौंक गया.
"हां."
"ओह… मुबारक हो. फिर तो मैं तुम्हारे बच्चे के बीच में नहीं आऊंगा. ईश्वर तुम्हें शक्ति दे."
किसी ने उसके माथे पर हाथ रखा तो वह चौंक गई.
"अरे मांजी, आप!"
"हां बहू, लो नाश्ता कर लो. मैं जा रही हूं. थोडी देर बाद आऊंगी. आज भी महराजिन नहीं आई. पोनी को आठवें माले की ओटवानी के पास छोड़कर आई हूं. दूध पी लेना. फल भी खा लेना. कल का सारा फल रखा-रखा ख़राब हो गया. आदित्य ग़ुस्सा कर रहा था कि अगर खिलाई-पिलाई नहीं, इसी तरह से रही, तो बिस्तर से चिपक जाएगी. अच्छा बहू, मैं चलती हूं."
उसका मन बाथरूम जाने को बिलकुल नहीं हो रहा था. इतनी सीलन है उसमें कि पैर रखा नहीं जाता. फिर भी मन मार कर जाना ही पड़ा. बाथरूम से होकर लौटी, तो उसे पेट में कुछ दर्द सा महसूस हुआ. वह अपने बेड पर आने की बजाय वार्ड में इधर-उधर टहलने लगी.
किसी बेड पर कोई बच्चा रो रहा था, तो कोई बच्चा सो रहा था. कोई अपने बच्चे को दूध पिला रही थी, तो कोई दूसरी औरतों से बैठी बातें कर रही थी. बेड नं. ४ पर एक औरत लेटी हुई थी. सुना है, वह एक महीने से भर्ती हैं इसी अस्पताल में. दर्द उठता है, फिर ख़त्म हो जाता है, इससे पहले भी पंद्रह दिन तक भर्ती थी. बेड नं. ११ की औरत कल उसी के साथ भर्ती हुई और रात को लड़का हुआ. बेड नं. ५ की औरत को बहुत तंदुरुस्त बच्चा हुआ. सात टांके लगाने पड़े उसके.

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उसका दर्द ज्यों का त्यों बना रहा. वह आकर अपने बेड पर लेट गई. एक नर्स किसी से कह रही थी कि डॉक्टर राउंड पर आ रही है. वह दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी. थोड़ी देर बाद डॉक्टर अंदर आती दिखी.
"कहिए मिसेज़ कामले?"
डॉक्टर बेड नं. १ के पास रुक गई.
"मी… ठीक है. पन मुलगी भोत रोती है दूध पिलाता है तबहीच चुपती है."
डॉक्टर हंसने लगी, "वह ग़लती करती है, भूख लगने पर उसको गाना गाना चाहिए." नर्स के साथ आस-पास के बेड की औरतें भी हंसने लगीं.
"यह तुम्हारी पहली बच्ची है?" डॉक्टर ने उससे पूछा.
"हो… पहेलीच है."
"ख़ूब अच्छी देखभाल करना, ख़ूब सेवा करना इसकी."
डॉक्टर बीच के सारे बेड छोड़कर बेड नं. ८ चली गई, तो मिसेज शर्मा ने नर्स को पुकारा.
"सिस्टर, हमे दर्द शुरू हो गया है. पेट में तेज़ हलचल हो रही है."
नर्स बगैर कुछ बोले डॉक्टर के पास लौट गई.
"डॉक्टर, सिक्स नंबर को पेन हो रहा है." डॉक्टर ने घूमकर मिसेज शर्मा को देखा, फिर नर्स की तरफ़ घूमी.
"किसका पेशेंट है?"
"डॉक्टर गायकवाड़ का."
डॉक्टर मिसेज शर्मा की तरफ़ मुखातिब हुई.
"जाओ उधर, बाहर गैलरी में टहलो. बैठना नहीं."
वह वार्ड से बाहर गैलरी में आ गई. गैलरी के ठीक सामने ऑपरेशन थिएटर दिख रहा था. उसकी नज़र बार-बार उसी तरफ़ उठ जाती और मन थिएटर के अंदर चला जाता. थोड़ी देर बाद उसे खड़ा रहना भी मुश्किल लगने लगा, तो वह वापस वार्ड में डॉक्टर के पास आ गई.
"डॉक्टर, खड़ा नहीं हुआ जा रहा है."
डॉक्टर ने उसकी नब्ज़ देखी, फिर नर्स की तरफ़ घूमी, "इन्हे ऑपरेशन रूम में लेकर चलो, मैं आ रही हूं. इंजेक्शन दे देना, क्विक."
नर्स उसे लेकर ऑपरेशन रूम में आ गई. वहां दो नर्स पहले से ही मौजूद थीं. उसे एक लंबे ऊंचे बेंच पर लिटा दिया गया. एक नर्स ने इंजेक्शन लगाया और फिर सब डिलीवरी के इंतजाम में जुट गईं.
उसका बदन दर्द की तीव्रता से ऐंठने लगा.
पूरे बदन में गर्मी सी छिटक गई. माथे पर पसीने की बूंदे छलछला आई. उसने दांत भीच लिए. दोनों हाथों से सिर के ऊपर बेंच कस कर पकड़ लिया. मुख से कराहें निकलने लगीं.
एक नर्स ने दूसरी को दौड़ाया, "डॉक्टर को जल्दी बुलाओ."
एक नर्स डॉक्टर को बुलाने के लिए भागी. दो नर्से उसके पैर के पास आकर खड़ी हो गईं.
"नीचे का सांस लो… नीचे का… शाबास…"
और… दर्द की एक लहर के साथ बच्चे का सिर रोशनी में आ गया. डॉक्टर अभी नहीं आई. नर्स बोलती रही, "शाबास… नीचे का ही सांस लेना… और…!"
लेकिन ज़्यादा देर तक वह सांस को काबू में न कर सकी. सांस रोकते-रोकते ऊपर को चढ़ गया. दर्द कम हो गया.
उसकी लाख कोशिशों के बावजूद दर्द नीचे नहीं उतरा, तो नर्स ने औजार की मदद के बगैर बच्चे को खींच लिया.
मिसेज शर्मा को लगा, उसके पेट का सब कुछ गले से होते हुए सिर फाड़ कर बाहर निकल गया.
वह दर्द से तड़प उठी.
बुलाने गई नर्स के साथ डॉक्टर तेज़ी से ऑपरेशन रूम में घुसी.
"क्या हुआ नर्स..?"
पैर के पास खड़ी नर्स धीरे से बोली, "बच्चा मर गया. डॉक्टर वह अपनी सांस रोक नहीं पाई. बच्चा गले तक आकर रुक गया."
"ओह माइ गॉड!" डॉक्टर ने अपने दांत और दोनों हाथों की मुठ्ठियां कसकर भीच लीं.
मिसेज शर्मा को ऑपरेशन रूम की सारी बत्तियां बुझती सी लगीं. छत पर कालिमा छाने लगी. उसे फिर कहीं दूर से प्रतिध्वनि सुनाई दी, "बच्चा मर गया डॉक्टर."
कालिमा और गहरा गई.

- एखलाक अहमद ज़ई

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