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कहानी- प्रतिशोध (Short Story- Pratishodh)

आधी रात के समय होनेवाली खड़खड़ाहट से रेखा की नींद खुल गई. उसने देखा एक औरत कमरे में बैठी है. उसके सिर पर दो सींग भी थे. उसने काले रंग के कपड़े पहने हुए थे. उसका मुंह लाल रंग का था… रेखा ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगी.
उसने संजीव को हिला कर उठाया और औरत की ओर इशारा करने लगी… संजीव आंखें झपकाए देख रहा था.. कमरे में तो कोई भी नहीं है.

चलते-चलते रेखा एकदम से रुक गई. अपनी परछाई की ओर देख वो ज़ोर से चिल्लाई. उसके साथ-साथ अजीबोग़रीब आकृति चल रही थी. भरी ठंड में रेखा के माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थी. रेखा जहां खड़ी थी उसके पैर वहीं जम गए.
तभी अपने कंधे पर उसे कुछ भार-सा महसूस हुआ.. ऐसे… जैसे किसी ने वहां हाथ रखा हो, वह भय के मारे कांपने लगी. ऐसा लग रहा था उसके शरीर में प्राण ही नहीं है.
रेखा ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी, "बचाओ… बचाओ…" पर भरी दुपहरी में सुनसान पगडंडी पर उसकी आवाज़ कौन सुनता. अजीब से जंतु के हाथ को रेखा कंधे से हटाने की कोशिश कर रही थी, पर वह तो जैसे चिपक ही चुका था.
उसे धक्का देने की कोशिश में रेखा दो-तीन बार पीछे जा गिरी, पर वह उससे हिल भी नहीं रहा था.
तभी दूर से एक बस उसी सड़क पर आती दिखाई दी. उसकी आवाज़ जैसे-जैसे पास आती, वह अजीब जंतु कुछ बेचैन-सा दिखने लगता और बस जैसे ही उनके पास पहुंची वह कूदकर कहीं गायब हो गया.
उसकी कुछ जान में जान आई. वह भयभीत-सी तेजी से घर की ओर चलने लगी और भागती हुई घर पहुंच गई.
घर पहुंच कर रेखा ने संजीव को सारी बात बताई, पर संजीव उसे व्यर्थ की बात कह कर टाल दिया.
"तुम जो टीवी पर डरावने शोज़ देखती हो न, वही दिमाग़ में सारा दिन घूमते हैं और वही सब तुम्हें हर तरफ़ दिखता है."
देर रात तक रेखा बहुत डरी हुई थी, पर संजीव ने उसे समझाते हुए कहा, "यह सब तुम्हारे मन का वहम है. ज़्यादा मत सोचो." कहकर शांत करवाया और शांति से सो जाने के लिए बोला.
आधी रात के समय होनेवाली खड़खड़ाहट से रेखा की नींद खुल गई. उसने देखा एक औरत कमरे में बैठी है. उसके सिर पर दो सींग भी थे. उसने काले रंग के कपड़े पहने हुए थे. उसका मुंह लाल रंग का था… रेखा ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगी.
उसने संजीव को हिला कर उठाया और औरत की ओर इशारा करने लगी… संजीव आंखें झपकाए देख रहा था.. कमरे में तो कोई भी नहीं है.
रेखा डरी हुई थी. ऐसा लग रहा था मानो वह बेहोश हो रही हो. उसने देखा… वह औरत कमरे में कुछ देर टहलती रही, फिर एकदम से रेखा को दिखनी बंद हो गई.
रेखा की नींद अब उड़ चुकी थी. वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी.
संजीव कुछ देर उसे थपथपाते रहा, पर वह सो नहीं पा रही थी. संजीव ने नींद की गोली पानी के ग्लास के साथ दी और उसका हाथ सहलाने लगा.


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ज़बरदस्ती से नींद की गोली गटक कुछ देर में रेखा सो गई.
कल की दोनों घटनाओं से भयभीत रेखा बोली, "संजीव, आज तुम ऑफिस मत जाओ.. प्लीज…"
"रेखा, आज ज़रूरी मीटिंग है बॉस के साथ वो छोड़ नहीं सकता. तुम निश्चिंत रहो. वह सब तुम्हारा वहम था अब कुछ नहीं होगा."
नाश्ता कर संजीव ऑफिस चला गया.
घर का काम निपटा रेखा जैसे ही कुछ आराम करने के लिए कुर्सी पर बैठी, खिड़की की ओर देख उसकी चीख निकल गई. रातवाली औरत शीशे पर अपने पंजे जमा कर खड़ी थी और बिना पलक झपकाए उसे ही देखती जा रही थी.
रेखा एक चीख मारकर बेहोश हो गई.
शाम को संजीव ने अपनी चाबी से दरवाज़ा खोला, तो वह एक कोने में डरी-सहमी.. छिपी-सी बैठी थी.
संजीव को देखते ही वह उसके गले लग कर रोने लगी.
आज रात फिर उसे नींद की गोली देकर सुलाना पड़ा.
अब रेखा संजीव को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ रही थी. संजीव ने दो दिन की छुट्टी ले ली.
सुबह चाय का कप लेकर जैसे ही रेखा कमरे में आई एक काले रंग का अजीब-सी शक्लवाला लड़का कमरे में बैठा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा.
डर से रेखा के हाथ कांपने लगे और कांपते हाथों में चाय उसके ऊपर ही गिर गई.
आख़िर यह लड़का अंदर आया कैसे?.. उधर से कोई ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीट रहा था.
रेखा की आवाज़ भी नहीं निकल रही थी… वह संजीव को उंगली के इशारे से वो लड़का दिखा रही थी, पर संजीव कह रहा था, "मुझे तो कोई नहीं दिख रहा रेखा…"
रेखा होश खो बैठी. संजीव के कोशिश करने पर कुछ देर में रेखा को होश आया.
रेखा की हालत बहुत बुरी थी. संजीव रेखा को डॉक्टर के पास ले गया. उसने डॉक्टर को बताया कि पता नहीं क्यों इसे आजकल अजीब डरावने लोग दिखते हैं. मैं तो इसके पास होता हूं, पर मुझे कोई दिखाई नहीं देता.
डॉक्टर ने उसका चेकअप करते हुए कहा, "शायद किसी डर के कारण ऐसा हो रहा है. यह सिजोफ्रेनिया फोबिया है, जिसमें लोगों को किसी चीज़ के आसपास होने का भय होता है. कभी कुछ सुनाई देने का भ्रम होता है. लोगों में नकारात्मक लक्षण आ जाते हैं.
ऐसे फोबियावाले लोग किसी वस्तु के वास्तविक रूप पहचानने में कई बार ग़लती कर देते हैं. मैं इन्हें दवाई देता हूं, जो इनका तनाव दूर करने में सहायक होगी एंटी एंग्जाइटी दवाओं से भी इनको लाभ होगा."
दवाई लेकर दो दिन तो रेखा ठीक रही. तीसरे दिन फिर से कभी उसे अपने आसपास कोई डरावनी आकृतिवाला व्यक्ति दिखाई देता, तो कभी ऐसा लगता कोई रो रहा है, कभी ऐसा लगता कि कोई उससे कुछ मांग रहा है.
अब उसका अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रहा. उसकी सांसें उखड़ने लगतीं और वह जोर-जोर से चिल्लाने लगती. फिर कहीं भी जाकर छिप जाती. कभी-कभी तो बेहोश हो जाती.
अब वह सच्चाई और भ्रम में अंतर नहीं समझ पा रही थी. उसे अक्सर कहीं आवाज़ सुनाई देती और चेहरे दिखाई देते, जो शायद वास्तव में होते भी नहीं थे.
अब उसे आवश्यकता थी नियमित दवाइयों की, पर वह दवा भी समय से नहीं लेती थी. जब संजीव रेखा को दवा देने की कोशिश करता, तो वह आक्रमक हो जाती और ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने लगती थी.
डॉक्टर की सलाह पर रेखा मानसिक रोगियों के अस्पताल में दिखाया गया. वहां डॉक्टर ने पूछा, "क्या कोई हादसा हुआ है, जिससे यह इस हालत में पहुंच गई हैं…"
संजीव क्या कहता है… वह हादसा क्या था… यह सिर्फ़… वो ही जानता था…
रेखा के साथ ये जो भी हो रहा था, उससे रेखा ने अपना दिमाग़ी संतुलन खो दिया.
डरने के कारण उसके मानसिक स्थिति बेकाबू हो गए थे और वह पागलों जैसी हरकतें करने लगी थी. डॉक्टर के कहने पर रेखा को मानसिक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया.
रेखा को वहां छोड़ते हुए संजीव दुखी था… जन्म जन्मांतर की साथी अलग हो रही थी… संजीव ने उसे गले लगाया… कसकर उसे प्यार किया और मुड़कर निकल आया.
रेखा भी फटी-फटी आंखों से इधर-उधर देखती हुई नर्स के साथ आगे बढ़ गई.
घर आकर सबसे पहले संजीव मां की तस्वीर के आगे जा खड़ा हुआ. हाथ जोड़कर माफ़ी मांगते हुए कहा, "मां, मेरे विदेश चले जाने पर आपको जो दुख मिले, आपने जो कष्ट सहे उनके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूं… आपको दर्द देनेवाली औरत को भी मैंने दर्द के सागर में गोते लगाने के लिए छोड़ दिया है… आज मेरा प्रतिशोध पूरा हो गया…


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मां… इसी औरत ने तुम्हारी बीमारी में तुम्हे भूखा रखा था और तुम्हें रोज़ मारती थी… जब तुम रोती थी, तो सबसे कहती थी कि यह पागल औरत बिना बात के रोती है… मैं तो कुछ समय के लिए तुम्हें उसके पास छोड़कर विदेश चला गया और उसने पीछे से तुम्हारा बुरा हाल कर दिया और मुझे वह झूठ बोलती रही.
एक दिन इसके घर ना होने पर तुमने छुपकर मुझे फोन पर रो-रोकर सारी बातें बताईं कि यह तुम्हें कितने दुख देती है… लेकिन मां मेरे आने तक तुम इस दुनिया से चली गई थीं… मैं तुम्हारे सामने इसे दंडित न कर पाया. मां इसने तुम्हें पागल बनाया और आज मैंने इसे पागल बना दिया है…"
संजीव आंसू पोंछ… मां के आगे दिल हल्का कर सोफे पर आकर बैठ गया. फिर फोन करके उस बंदर के मुखौटेवाले आदमी, उस सींगवाली औरत और रोनेवाले लड़के को बुलाया. उनकी पूरी पेमेंट कर उन्हें हाथ जोड़कर विदा किया.

नीना महाजन नीर

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