"... रिश्तों के अवलोकन में वेद जिस ऊंचाई पर आसीन है, वहां मैं पहुंच ही नहीं सकता ऋचा. दुख इसी बात का है कि इधर तुम जैसी जीवनसंगिनी पाकर मैं निहाल हूं, पर वेद को क्या मिला? कितनी ख़ामोशी से नीलकंठ बनकर सबके जीवन का हलाहल पी रहा है..."
‘’ओह अभी तक उठे भी नहीं! हमें देरी हो रही है.” अपनी प्यारभरी नज़रों से सहलाते हुए ऋचा ने अपने पति श्लोक को झकझोर कर उठाते हुए कहा. प्रत्युत्तर में श्लोक ने उसे खींचकर अपनी बांहों में भर लिया, तो वह निहाल हो उठी. श्लोक के प्रगाढ़ बंधन में बंधने को उसका आतुर मन स्वतंत्र होने की असफल चेष्टा में और बंधता रहा. उसके भीगे बालों में अटकी पानी की बूंद मोती बनकर श्लोक के तन पर बिखर रही थी. ऋचा ने आज भरपूर सिंदूर से अपनी मांग सजाई थी, जिसकी लाली श्लोक की छाती को रंगे जा रही थी. श्लोक की आगोश में सिमटी 33 वर्षीय ऋचा किसी नवयौवना की तरह सिहर रही थी. युगों तक वह अपने पति की आगोश में यूं ही बंधी रहे, उसका रोम-रोम गुनगुना रहा था.
शादी के चार हफ़्ते हो रहे थे, पर उसका तन-मन अभी तक प्यासा सावन ही बना हुआ था. श्लोक से जुड़ने से पहले जीवन के सूने जलते रेगिस्तान में नंगे पैर अकेली ही तो वह दौड़ रही थी. चारों ओर फैली ख़ामोशियों एवं वर्षों की तन्हाइयों से जूझती हुई वह टूटकर बिखरने ही वाली थी कि श्लोक की सबल बांहों ने उसे थाम लिया. ऋचा का बावरा मन एक ओर प्रीत के लहराते समंदर में डूब रहा था, वहीं उसके अंतर्मन में अतीत के चक्रवाती झंझावात भी चल रहे थे.
10 साल पहले अमरनाथ यात्रा के दौरान मम्मी-पापा को खोने के बाद भारत कहां जा पाई. पापा की सारी संपत्ति के मालिक उसके चाचा थे. दो हफ़्ते बाद श्लोक से वह शादी कर रही है, इसकी सूचना अपने चाचा को दे दी थी. उनके लाख समझाने के बावजूद भारत आकर शादी करने के लिए वह तैयार नहीं हुई. शादीवाले दिन अपने गिनती के दोस्तों के साथ गणपति मंदिर के लिए वह प्रस्थान करने ही वाली थी कि नाना प्रकार के तामझाम के साथ उसके चाचा भारत से भागते हुए आए, तो मम्मी-पापा को याद कर उसकी आंखें बरस पड़ी थीं. फिर शादी की सारे रस्मों को उन्होंने सहर्ष निभाया.
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जाते समय भारत की सारी प्रॉपर्टी को बेचकर जो एक्सचेंज लाए थे, श्लोक को आशीर्वाद के रूप में थमा गए. हनीमून के लिए वे स्विट्ज़रलैंड गए. वहां की ख़ूबसूरत वादियों का दोनों ने ख़ूब आनंद उठाया. वहां से आने के बाद आज हफ़्तेभर बाद भी उनके प्यार की ख़ुमारी अभी तक उतरी नहीं थी. न्यूयॉर्क घूमने का आज उनका प्रोग्राम था और श्लोक को बिस्तर छोड़ने का मन ही नहीं हो रहा था. मिलन के ऐसे पल कितने मादक होते हैं, उसे इसका एहसास कहां था. श्लोक के प्यार ने उस पर अपनी चांदनी क्या बिखेरी, वह समंदर बनकर ही उमड़ पड़ी.
ऐसे भी जीवन में उसे जो कुछ भी प्यारा लगा, वक़्त उससे आज तक छीनता ही तो रहा है. बचपन में अपने से 10 साल छोटे भाई को, उसकी नन्हीं मां बनकर प्यार किया. एक दिन की बीमारी में ही वह छोड़ गया, तो उसका नन्हा-सा मन कितना टूटा था. इस आघात को भूलने में उसे वर्षों लगे थे. भाई की मृत्यु के बाद सभी तरह से टूटे मम्मी-पापा के जीने का आसरा वही बनी. समय के साथ खेल-खेल में ही जब वह फिज़िक्स और मैथ्स के कठिन प्रश्नों को हल करने लगी, तो उसकी अद्भुत प्रतिभा को देख सभी दंग रह गए. स्कूल के सारे पिछले रिकॉर्ड को तोड़ते हुए इंजीनियरिंग में प्रथम स्थान लेकर जब वो आईआईटी, कानपुर गई, तो मम्मी-पापा की ख़ुशियों का ठिकाना नहीं था. जिस स्थान पर आज तक लड़के ही विराजते रहे, उस पर अपना आधिपत्य जमाकर उसने सारे देश को चौंका दिया था. फिर बधाइयों का सिलसिला महीनों तक चलता रहा. आईआईटी कानपुर से निकलने के पहले ही हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल अमेरिका ने वीजा, लोन और हॉस्टल में रहने की व्यवस्था करके, उसकी प्रतिभा और उपलब्धियों को गगनचुंबी बना दिया. ऋचा ने भी उनके किए का मान रखने में कोताही ना बरती.
इन छह सालों में न जाने कितनों ने उसकी राहों में आंखें बिछाईं, उसे थामने के लिए कितने हाथ बढ़े, पर वह इन सबसे बेख़बर किसी दूसरे देश में, अपने देश का नाम रौशन करती रही. हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल से निकलने के पूर्व ही दुनिया की सबसे नामी कंपनी ने बहुत ऊंचे पद पर उसकी बहाली करते हुए उसके वीज़ा आदि का प्रबंध हाथोंहाथ कर दिया, तो उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. उसके ग्रैजुएशन के प्रोग्राम में उसके मम्मी-पापा आनेवाले थे. टिकट भी बन चुका था. दो साल की लंबी अवधि के बाद उन दोनों से मिलने की आकांक्षा में बड़ी बेसब्री के साथ दिन बीत रहे थे कि उन दोनों की असमय मौत की सूचना बिजली बनकर गिरी.
बर्फ के प्रचंड तूफ़ान ने ना जाने उनके हल्के-फुल्के शरीर को हज़ारों फीट नीचे किस घाटी में फेंक दिया था कि उनके मृत शरीर भी नहीं मिल सके. बड़े ही बुझे मन से वह भारत गई और मृत्यु के बाद सभी विधियों को पूरा करके वापस लौट आई. उस नाज़ुक दौर में वेद का उसके जीवन में आना किसी दैविक चमत्कार से कम नहीं था. उसकी बांहों में लिपटकर मम्मी-पापा की मृत्यु की असहनीय वेदना को भूलने की कोशिश करती रही. सारे रिश्तों का पर्याय बना वेद हर प्रतिकूल परिस्थितियों में उसे संभालता रहा. कितना टूटकर प्यार किया था दोनों ने एक-दूसरे को. प्रीत की इंद्रधनुषी कायनात, फूलों और परियों की नगरी न्यूयॉर्क की ज़मीं पर उतर आए थे.
“चलो, आज ही किसी मंदिर में शादी कर लेते हैं.” वेद का ऐसा कहना उसे कितना रोमांचित करके रख देता था. तब उससे एकाकार होने के लिए वह कितनी लालायित हो उठती थी. पर दूसरे पल ही वेद के संपूर्ण व्यक्तित्व पर उतर आई दैविक आभा से वह घुंघरुओं की तरह खनक कर रह जाती.
उसे क्या पता था कि एक बार फिर से नियति अपनी कुटिल चाल से उसके बन रहे घरौंदे को तहस-नहस करने का कुचक्र रच रही है. उसके लिए तो कोई बंधन नहीं था, लेकिन वेद को अपने परिवार की सहमति लेने भारत जाना था. फिर ऋचा की ज़िद कि शादी वह न्यूयॉर्क में ही करेगी. विगत के दर्द के फिर से उभरने के डर से वह भारत जाना नहीं चाहती थी. प्रीत के हज़ारों रंग में रंगकर अपने वेद की परिणीता बनने की चाहत को वह इसी दूसरे देश की ज़मीं पर जीना चाहती थी, जिसमें दुख-दर्द का एक नन्हा झरोखा भी उसे स्वीकार नहीं.
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वेद ने भी उसके कहने का मान रखा और अपनी मां को मनाने के लिए अकेले ही भारत जाने के लिए निकल पड़ा. भावुक मन से ऋचा ने वेद को विदाई दी. मात्र एक हफ़्ते के लिए भारत गया वेद जब हफ़्तों नहीं लौटा, तो वह बुरी तरह तड़प उठी. भावावेश में आकर हडसन नदी में कूदकर प्राणांत कर लेना चाहा, लेकिन पुलिस की नज़रों में आ जाने के कारण वह ऐसा नहीं कर सकी. बाद में न्यूयॉर्क में रह रहे उसी के समाज के द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि अपनी मां की अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए वेद को उनके बचपन की सहेली की बेटी रत्ना से शादी करनी पड़ी. कुछ कहने-सुनने का समय ही नहीं बचा था. इधर उसने रत्ना के गले में मंगलसूत्र बांधा और उधर उसकी मां ने अंतिम सांस ले ली. ऋचा को खोकर वेद भी कहां जीवित रह गया था. ऋचा का सामना वह किसी भी हालत में नहीं करना चाहता था. न्यूयॉर्क की नौकरी छोड़ने की सारी औपचारिकता को उसने भारत से ही निभाया.
वेद भारत से ही ऋचा की पल-पल की गतिविधियों की जानकारी लेता रहा. समय के साथ ज़ख़्म कुछ हल्के हुए, तो ऋचा को नियति और अपनी मजबूरियों का वास्ता देते हुए समझाकर नए सिरे से जीवन शुरू करने के लिए प्रेरित करता. उसके बिखरे जीवन को अपनी बेशुमार चाहतों की संजीवनी बूटी से संवारता. उसकी मृत जीजिविषा को जीवित रखने की कोशिश करता.
“अपनी पत्नी को लेकर आ जाओ. इससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, हम साथ जी लेंगे. किसी भी हालात में मुझे अपना वेद चाहिए. नहीं जी सकती तुम्हारे बिना मैं वेद.” ऋचा की ज़िद वेद को पिघलाकर रख देती. वह अपनी असमर्थता पर रोकर रह जाता. घबराकर उसने ऋचा से बात करना बंद कर दिया. समय के साथ ऋचा भी अपनी कठोर नियति से समझौता कर जीने का प्रयास करती रही, लेकिन प्यार में मिला दर्द और अकेलापन उसे टीसता रहा. जिस बैंक में श्लोक काम करता था, उस बैंक में कंपनी के काम से ऋचा को लगातार हफ़्तों जाना पड़ा. श्लोक की शैक्षणिक योग्यता और कार्य कुशलता पर वह मुग्ध हो गई. एक बार फिर से उसका दिल धड़क उठा किसी की चाहत में और वह उसे पाने के लिए बेक़रार हो उठी.
श्लोक के कदम आगे क्या बढ़े कि ऋचा ने उसके प्यार को समेट लिया. ऋचा के इस निर्णय पर वेद बहुत ख़ुश हुआ. ऋचा के प्रति स्वयं से हुए अन्याय की आत्मग्लानि से अब वह मुक्त था. श्लोक भी उससे कहीं छिन न जाए, ऐसा सोचते ही ऋचा का सर्वांग कांप उठा. घबराकर उसने श्लोक को बांहों में भर लिया. अतीत के झरोखे खुलकर ऋचा को और संतप्त करते, उसके पहले ही श्लोक उसे बांहों में लिए उठ खड़ा हुआ. झटपट तैयार होकर वे दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे निकल गए.
यूं तो न्यूयॉर्क उसके लिए कोई नया शहर नहीं था. वेद के साथ उसके चप्पे-चप्पे को वह देख चुकी थी. पर आज श्लोक के साथ इस जादुई नगरी का लुत्फ़ उठाने की बात कुछ और ही थी. दोनों एक-दूसरे में समाए हडसन नदी के किनारे चलते रहे. टाइम स्न्वायर के रंगीन नज़ारों को निहारते हुए वे रॉक फेलर सेंटर पहुंच गए. वहां से खुली बस में सवार होकर न्यूयॉर्क के दर्शनीय स्थानों के लिए निकल पड़े. ऋचा मस्त होकर सभी को निहार रही थी. सारे दर्शनीय स्थल आज उसे अतिरेक आनंद की अनुभूति दे रहे थे. श्लोक भी अपनी नवपरिणीता के इस नए रूप पर मुग्ध था. एक पल के लिए भी वह ऋचा को अपनी नज़रों से ओझल होने नहीं दे रहा था. सारे दिन अपनी बांहों में उसे बांधे घूमता रहा. घूमकर जब वे दोनों रॉक फेलर सेंटर में उतरे, तो शाम का रेशमी अंधेरा, रौशनी में नहा रहा था. इधर-उधर घूमने के बाद डिनर के लिए वे उत्सव रेस्टॉरेंट की ओर जा ही रहे थे कि ऋचा का बोस्टन का सहपाठी सैम टकरा गया, जिसके चंद बोल उसकी ख़ुशियों पर उल्कापात ही कर गए.
“हाय हनी! व्हेयर इज़ वेद?” फिर श्लोक की ओर देखते हुए मुस्कुराते हुए पूछा, “न्यू फ्रेंड...” आगे सैम कुछ और कहता कि उसके पहले ही वह बोल पड़ी, “माय हसबैंड श्लोक.”
और सैम को वहीं हतप्रभ छोड़कर श्लोक का हाथ थामे वह आगे बढ़ गई. श्लोक को अनमना-सा देख ऋचा का दिनभर का उत्साह जाता रहा. रेस्टॉरेंट में पहुंचने के बाद भी श्लोक की उदासियां कम नहीं हुईं. सारा खाना उसी के पसंद का था, लेकिन खाने में उसकी कोई रुचि नहीं थी. खोया-खोया-सा वह रेस्टॉरेंट की खिड़की से नीचे थिएटर से निकलते लोगों को देखता रहा, तो ऋचा तड़प उठी. उसकी व्याकुलता सिसकियां बनकर उसके व्यथित होंठ पर तैर गई. किस फेरे में तुमने मुझे डाल दिया वेद? कहां मेरे चेहरे पर मामूली-से शिकन तुम्हें गवारा नहीं थी. पलभर में सोख लेते थे मेरे अंतर के सारे गीलेपन को. श्लोक को संदेह के भंवर से मैं कैसे बाहर निकालूं. आज फिर एक बार उलझन से घिर गई हूं. मैं तो तुम्हारी यादों के साथ ही ख़ुश थी... मन-ही-मन बुदबुदाते हुए ऋचा टूटकर बिखर रही थी.
रेस्टॉरेंट से निकलने के बाद श्लोक का हाथ थामे रेस्टॉरेंट के अहाते में फव्वारे के पास बने पत्थर के चबूतरे पर जाकर बैठ गई और अपने और वेद के बीच के रिश्ते की सारी सच्चाई उसे बता गई. किस तरह अपने मम्मी-पापा को एक साथ खोकर इस पराए देश में उसका अकेला होना. जीने की सारी इच्छाओं का मृतवत हो जाना. वेद के प्यार का सावन बनकर बरस कर उसके जीवन के ताप को हरना. अंधेरी रातों में आकाशदीप बनकर उसके पथ का प्रदर्शन कर सुगम बनाना आदि.
“आंतरिक पलों में कभी कमज़ोर पड़कर उसने अपने संपूर्ण अस्तित्व को वेद में समा देना चाहा, तो अपनी सारी ममता उड़ेेलकर वह उसे सहला दिया करता था. वेद तो सधा हुआ योगी था, जिसमें धरती जैसा धैर्य और आकाश जैसा विस्तार था. कहीं से कोई कलुषता नहीं. उसके इसी ऋषि-मुनी तपस्वी जैसी एकाग्रता ने ही तो उसे बांध रखा था. मेरे जीवन की देहरी पर देव का उतरना मानो सपनों के सावन का ठहर जाना था. सांसों में जैसे ख़ुशबू का मौसम ही समा गया हो. दिन तितलियां बनकर उड़ते थे. मैं बावरी बनी इतरा उठी थी अपने सुख-सौभाग्य पर. किसे भूलती है वो पहली दस्तक! वो पहली आहट. वो पहला प्यार, जो शीत की स्याह रातों में मिला हो. बिखरी प्रीत की केसर गंध को भूल पाना कहीं से भी आसान नहीं होता है श्लोक. जानते हो श्लोक! जीवन की गहनतम घटनाएं किसी अनजान क्षण में हो जाती हैं. घोर पीड़ा की शुरुआत सदा रहस्यपूर्ण होती है, पर उसकी अनुभूति स्पष्ट होती है. उसका अंकुर कब, कहां, कैसे फूटता है पता नहीं चलता, क्योंकि इसके लिए परिस्थितियां हमें चौकन्ना होने नहीं देतीं. ऐसे तो दुख तमाम जीवनदायिनी शक्तियों का केंद्र है. जीवन में यह नहीं हो, तो जीवन के औचित्य पर ही प्रश्न खड़ा हो जाए. यही दुख जीवन से विमुख करनेवाली तमाम शक्तियों का भी मूल कारण है.
जीवन में केंद्र से परिधि और परिधि से केंद्र की ओर व्याप्त सभी शक्तियां दुख के अनंत सागर में चक्कर लगाती-सी दिखती हैं और हम सभी इसी व्यूह में फंसे हुए हैं. ये तो सभी जानते हैं कि दुख सबको मांजता है. कहते हैं, जब दुख से भर जाओ, तो अपने दिल की गहराइयों में उतरकर देखो, शायद उल्लास का कारण वही हो, जिसके लिए तुम रो रहे थे. वही उल्लास बनकर वेद मेरे जीवन में अवतरित हुआ. वेद की परिणीता बनने के लिए मुझे मंगलसूत्र और सिंदूर की कोई आवश्यकता नहीं थी. कितना अपार था उसका प्रेम. शब्दों में तो उसे कभी बांध ही नहीं पाई, फिर जीवन में उसे कहां और कैसे बांध पाती? वेद जैसे व्यक्ति की आराधना की जाती है श्लोक! इन सच्चाइयों के साथ अगर मैं तुम्हें स्वीकृत हूं, तो ठीक है, वरना तुम मेरे सारे बंधनों से आज़ाद हो.” कहते हुए आज भी उसके जीवन में हर रिश्ते का पर्याय देव ही है. संशय की नींव पर खड़ी रिश्ते की यह इमारत उसे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं कहते हुए अंतर की सारी वेदनाएं उसकी पलकों पर घनीभूत होकर बरसने ही वाली थीं कि झटके के साथ उठकर अपने दृढ़ क़दमों के साथ सड़क के किनारे की भीड़ में खो गई. उसे आज इस बात का बड़ा संतोष था कि श्लोक उसके जीवन के कटु, पर मधुर सत्य से अवगत हो चुका है, जिसे उसने कितनी बार हिम्मत करके उससे कहना चाहा था, लेकिन उसे खो देने के डर से कह नहीं पाई थी. संत पैट्रिक चर्च में जाकर मोमबत्तियां जलाईं. आज के दिन की आख़िरी मंज़िल यही चर्च था, जहां डिनर के बाद श्लोक के साथ वह आनेवाली थी. हर दिन के भय के सलीब को वहीं पर छोड, हल्की-फुल्की होकर वह वहां से निकल गई. अनमनी होकर टाइम स्न्वायर की चकाचौंध में सड़कों पर इधर-उधर घूमती रही. उसके अंतर्मन के अंधेरे जब वहां की चमचमाती रोशनी को झेल नहीं सके, तो वह रॉक फेलर सेंटर में आ गई. फूलों की झाड़ियों के ओट में बनी पत्थर की उसी बेंच पर जा बैठी, जहां वह अक्सर वेद के साथ बैठा करती थी.
यह और बात थी कि आज उसकी पीठ पर फिसलने के लिए वेद का प्यारभरा हाथ नहीं था. फिर भी कस्तूरी मृग की तरह उसकी ख़ुशबू, उसकी मौजूदगी को वह महसूस कर रही थी. आंखों से सावन-भादो भी बरस रहा था. अचानक अपनी पीठ पर किसी का स्पर्श पाकर उसने सिर उठाया, तो श्लोक को अपने बगल में बैठे देख चौंक गई.
“कहां मुझे छोड़कर यूं अकेली चली आईं. तुम्हारे और वेद के रिश्ते की सारी सच्चाई का पता मुझे था. वेद ही ने तो बताया था. जब मेरे मन में किसी प्रकार का संशय ही नहीं था, तो मैं तुमसे उसकी तहक़ीक़ात क्या करता. रिश्तों के अवलोकन में वेद जिस ऊंचाई पर आसीन है, वहां मैं पहुंच ही नहीं सकता ऋचा. दुख इसी बात का है कि इधर तुम जैसी जीवनसंगिनी पाकर मैं निहाल हूं, पर वेद को क्या मिला? कितनी ख़ामोशी से नीलकंठ बनकर सबके जीवन का हलाहल पी रहा है. तुम्हारे प्रति उसके निश्छल प्यार का प्रतिदान बनकर ही तो मैं तुम्हारे जीवन में प्रविष्ट हुआ हूं. कुछ नहीं हूं मैं सिवाय वेद के प्रति तुम्हारे प्यार का प्रतिदान के या यूं कहो तुम दोनों के पावन रिश्ते का प्रतिदान ही तो मैं हूं.
वेद में अगर ऋचाएं हैं, तो कहीं न कहीं श्लोक भी अवश्य ही होगा. हम दोनों के प्यार का प्रतीक ही तो वेद है. अगले महीने ही वेद का आशीर्वाद लेने हम दोनों भारत जाएंगे. कितना चकित व ख़ुश होगा वह अचानक हमें यूं आया देखकर.” कहते हुए ऋचा की आंखों से बहते हुए आंसुओं को अपनी हथेलियों में समेटते हुए श्लोक ने उसे अपनी बांहों में भर लिया, तो फिर ऋचा भी रुक नहीं सकी. सारे गिले-शिकवे को भूल श्लोक की बांहों में समां गई.
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