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कहानी- प्यार को प्यार ही रहने दो (Short Story- Pyar Ko Pyar Hi Rahne Do)

उसने पहली बार अपने प्यार को शब्दों का जामा पहनाया. मैं निःशब्द होकर उसकी बातें सुनती रही. उसने मुंबई में मेरे साथ रहते हुए क्या-क्या अनुभव किया, सब बताया. फिर मैंने भी उसके प्रति अपनी चाहत का इज़हार किया. समय के अंतराल में, अल्हड़ प्रेम की नदी ने परिपक्व दोस्ती के समुद्र का रूप ले लिया, जिसमें ठहराव था, गहराई थी. इसका पूरा श्रेय श्याम को जाता है, जिसने मेरे पूरे अस्तित्व को ही अपने में समेट लिया था.

रात को नींद नहीं आ रही थी. बेचैनी में करवटें बदलकर थक गई, तो उठकर लैपटॉप खोलकर बैठ गई. अचानक मेरी दृष्टि मैसेज रिक्वेस्ट पर चली गई. किस अनजान का है, देखने के लिए मैंने क्लिक किया, लिखा था- ‘यदि मैं ग़लत नहीं हूं, तो आप पाखी त्रिपाठी हैं न? आपकी प्रोफाइल फोटो देखकर कुछ-कुछ चेहरा पहचान में आ रहा है. वही जो चालीस साल पहले मुंबई में रहती थीं. आपकी बहन का नाम गीता था और भाई का नाम गौतम? मैं श्याम गुप्ता हूं. आपके पिताजी के मित्र का बेटा. यदि आपको याद हो, तो मैं एक बार अपने माता-पिता के साथ आपके घर आया था और हम साथ-साथ मुंबई में घूमने गए थे. मेरी प्रार्थना है कि यदि आप मुझे पहचान गई हैं, तो जवाब अवश्य दीजिएगा.’
अरे, यह तो श्याम है! मेरी हल्की-सी चीख निकल गई, दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं. अकारण ऐसा लगा जैसे मैं चोरी करते पकड़ी गई होऊं. देखा पति गहरी नींद में सो रहे थे. मेरे नाम के साथ मेरा सरनेम विवाह के बाद बदलकर मिश्रा लिखा था, उसके बाद भी वह मुझे पहचान गया था.
उसके नाम पर मेरी दृष्टि जम-सी गई. जवाब देने के लिए जैसे ही एक्सेप्ट पर क्लिक करने लगी, मन के अंदर से आवाज़ आई, सोच लो पहले, क्या ठीक रहेगा? उसका नाम देखकर तो तुम्हें इतना अपराधबोध हो रहा है, उससे संपर्क रखने के बाद क्या होगा! तुम्हारी सुखी गृहस्थी है, वह भी शायद इसी स्थिति से गुज़र रहा होगा. कोई फ़ायदा नहीं है दोबारा अतीत की गहराइयों में गोते लगाने से. विवाह के बाद यह रिश्ता! मानसिक उलझन को क्यों न्यौता देना...? मैं थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गई. आरंभ से ही मैं दिल और दिमाग़ के मामले में बहुत संतुलित रही हूं. मैंने अपनी उंगली क्लिक पर से हटा ली. लैपटॉप बंद किया और बिस्तर पर आकर लेट गई.

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तुम्हें इतना लंबा-चौड़ा परिचय देने की आवश्यकता क्यों पड़ गई श्याम! समय की मोटी चादर के ऊपर धूल की इतनी परतें जम जाने के बाद भी तुम्हारा नाम ही काफ़ी है, मुझे तुम्हारी याद दिलाने के लिए. इसका मतलब तो यह हुआ कि तुम्हें मेरे प्यार पर कभी विश्‍वास ही नहीं रहा है. तो क्या यह टेलीपैथी थी, जो रात को दो बजे उठकर मैं अकारण ही लैपटॉप खोलकर बैठ गई, मैं मन ही मन बुदबुदाई. शायद पहले तो नींद आ भी जाती, लेकिन अब तो उसके स्थान पर खुली आंखों के सामने चालीस साल पहले के दृश्य एक-एक करके घने बादलों में बिजली की तरह चमकने लगे.
17 साल की रही होऊंगी मैं, तब मेरे पिताजी के एक मित्र भोपाल से अपने परिवार सहित मुंबई में हमारे घर अपने बेटे श्याम का इंजीनियरिंग में एडमिशन कराने आए थे. उनके तीन बच्चों में दो बेटियां और थीं. जब तक हॉस्टल में जगह नहीं मिली, वह हमारे घर में ही रहा. उसके बाद भी जिस दिन भी छुट्टी होती थी, वह हमारे घर आ जाता था. वह पहली बार मुंबई आया था, इसलिए मैं, मेरी छोटी बहन और भाई रोज़ ही कहीं न कहीं उसे घुमाने ले जाते थे. हम सब का साथ उसे बहुत अच्छा लगता, हमें भी उसके आने से घूमने का बहाना मिल जाता था. श्याम बहुत कम बोलता था, लेकिन कभी-कभी ख़ामोशी भी ज़ुबां से अधिक बोल देती है. उसने कब मुझे अपनी आंखों से ही मूक प्रेम निवेदन कर दिया, पता भी नहीं चला और मैंने भी मौन स्वीकृति देने में देर नहीं की, क्योंकि उसका कम बोलना ही मुझे उसकी ओर बहुत आकर्षित करता था.         
वैसे भी पहले प्यार की अनुभूति, वह भी अल्हड़ उम्र में अद्भुत होती है. जब दोनों मिलकर न तो भविष्य के लिए सपने देखते हैं, न कोई योजना बनाते हैं, न ही किसी बात की चिंता करते हैं, न कोई क़समें होती हैं, न कोई वादे किए जाते हैं. बस, ज़रा-सा कोई भरपूर नज़रों से देख भर ले या तारीफ़ कर दे, तो चेहरा एक अलग-सी आभा से चमकने लगता है. दर्पण के सामने से हटने का मन नहीं करता. उसी के साथ हर समय रहने का मन करता है. उसकी छोटी-छोटी बातें अर्थपूर्ण लगने लगती हैं और प्यार के ख़ूबसूरत एहसास के साथ अपने में ही सिमटकर रहने का मन करता है. सारी दुनिया बहुत ख़ूबसूरत लगने लगती है. आज के विपरीत वह ज़माना ही ऐसा था कि दिल की बात को शब्दों का जामा पहनाने में इतना समय लग जाता था कि परिस्थितियां बदल जाती थीं और प्रेम अभिव्यक्ति से पहले ही दम तोड़ देता था. यही मेरे और श्याम के साथ हुआ. उसके पिता की आकस्मिक मृत्यु का समाचार मिलते ही वह भोपाल चला गया और फिर उसके बाद कभी नहीं लौटा.
उस ज़माने में संपर्क करना इतना आसान नहीं था. पत्रों का ही सहारा था. चार-पांच पत्र मैंने लिखे, लेकिन उसने एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया. उससे संपर्क टूटने का मुझे बहुत दुख हुआ, लेकिन क्या करती, समय के साथ समझौता करना पड़ा. चोरी-चोरी, छुप-छुपकर आंसू बहाती रहती थी. मां ने उदास देखकर टोका भी, तो बनावटी मुस्कुराहट से जवाब देती, “कुछ नहीं मां...” समय बीतता गया, श्याम की यादों पर धूल की परतें चढ़ने लगीं. धीरे-धीरे बारिश के पानी ने उनको धो-पोंछ भी दिया. मेरा विवाह हो गया और दो बच्चे भी हो गए. अपनी गृहस्थी की उलझनों में व्यस्त रहने के कारण उसका नाम कहीं सुनती, तो उसका धुंधला-सा चेहरा आंखों के सामने आ जाता. इससे अधिक और कुछ नहीं और आज यह उसका फेसबुक पर अप्रत्याशित संदेश. उसने तो मेरे पूरे अस्तित्व को ही हिलाकर रख दिया था. पूरे बदन में जैसे बिजली-सी कौंध गई हो. इसी को तो पहले प्यार की अनुभूति कहते हैं, जो उम्र के इस पड़ाव में भी नहीं बदलती.

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पूरी रात आंखों में ही कट गई. सुबह के पांच बज रहे थे. मैंने अपने विचारों पर झटके से विराम लगाया और उठकर मुंह-हाथ धोकर सुबह टहलने के लिए निकल गई. लौटकर थकान और रातभर न सोने के कारण सोफे पर ही अधलेटी होकर गहरी निद्रा की गोद में समा गई और तब जागी, जब पति ने आकर उठाया और कहा, “यहां कैसे सो गई, उठो! नौ बज गए हैं.” मैं हड़बड़ाकर उठी और रात की घटना याद करके ऐसा लगा, जैसे कोई सपना देखा हो. श्याम के संदेश ने मेरे मन में हलचल तो मचा दी थी, लेकिन अपने निर्णय पर अडिग रहकर उसके संदेश का उत्तर नहीं दिया. यह क्या चार दिन बाद ही फिर वही संदेश. इस बार मेरा मन डोल गया और मैंने अपने मन को समझाया, बात करने में हर्ज़ ही क्या है, देखूं तो सही वह क्या कहना चाहता है. इतने सालों बाद उसके जीवन में क्या परिवर्तन आया है. मैंने एक्सेप्ट पर क्लिक कर दिया और जवाब में थोड़ा बनावटी रोष दिखाते हुए लिखा- ‘हां, तुमने सही पहचाना, मैं पाखी त्रिपाठी ही हूं. इतने सालों बाद तुम्हें कैसे मेरी याद आई?’ ‘याद तो उसकी आती है, जिसे भूला गया हो, मैं तो तुम्हें कभी भूला ही नहीं...’ उसने सादगी से जवाब लिखा. यह अप्रत्याशित उत्तर सुनकर अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को कंट्रोल करके मैंने उसी अंदाज़ में पूछा, ‘फिर मेरे पत्रों का जवाब क्यों नहीं दिया?’
‘पिताजी के देहांत के बाद घर की पूरी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई थी. मां पढ़ी-लिखी तो थी नहीं. बहनें बहुत छोटी थीं. घर का ख़र्च चलाने के लिए मुझे अपनी पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी. जीवन को नए सिरे से जीना था. पिताजी के रिक्त स्थान पर मुझे मेरी योग्यतानुसार नौकरी तो मिल गई, लेकिन वेतन इतना कम मिलता था कि घर का ख़र्च चलाना भी कठिन था. उस समय इतनी उलझनों के बीच तुम्हारे पत्रों की भाषा समझनेवाला कोमल दिल पाषाण की तरह कठोर हो गया था. सब कुछ बेमानी लगने लगा था.’ ‘उ़फ्! इतनी तकली़फें झेलीं तुमने. मुझे बताते तो...’ मैंने उदास मन से उत्तर दिया, तो उसने बीच में ही बात काटकर लिखा, ‘क्या फ़ायदा होता, तुम्हें भी दुख ही पहुंचता. जब पूरा भविष्य ही अंधकारमय लग रहा था, तब अपनी ख़ुशी के बारे में तो सोच भी नहीं सकता था. लेकिन दो साल बाद मैं ऑफिस के काम से मुंबई गया, तो तुम्हारे घर भी गया था, लेकिन तब तक तुम लोग वहां से जा चुके थे. उसके बाद कैसे संपर्क करता तुमसे, काश! उस ज़माने में भी मोबाइल होता, तो कितना अच्छा होता!’
‘हां, पिताजी का ट्रांसफर हो गया था.’ मैंने लंबी सांस लेते हुए कहा. ‘और तुम कैसी हो?’ ‘ठीक हूं, फिर बात करते हैं.’ मेरा मन अजीब-सी उदासी से घिर गया था, इसलिए मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया और ऑफलाइन हो गई. मन बहुत उदास हो गया था. आंखों में आंसू छलछला आए. सोचने लगी, तक़दीर भी क्या-क्या रंग दिखाती है. कोई भी घटना अकारण नहीं घटती. श्याम मेरी फ्रेंड लिस्ट में स्थान ले चुका था. तीन-चार बार की चैटिंग से ही हमने एक-दूसरे के परिवार के बारे में काफ़ी कुछ जान लिया था. उसकी दो बेटियां ही थीं. पत्नी बहुत अच्छी थी, लेकिन मेरा स्थान उसके जीवन में रिक्त ही रहा. यही मेरे साथ हुआ था. पति के नीरस स्वभाव के कारण दिल का कोना खाली ही रहा. एक दिन उसने मेरा मोबाइल नंबर मांगा, पहले तो मैंने कई बार टाला, लेकिन उसके बार-बार आग्रह ने और पुराने ज़माने के विपरीत आधुनिक पुरुष-स्त्री के बीच दोस्ती के संबंधवाली सोच ने मुझे दुस्साहसी बनने पर मजबूर कर दिया. इतने वर्षों बाद जब उसकी आवाज़ मैंने फोन पर सुनी, तो लगा कि मूक प्रेम निवेदन मुखरित हो गया था. उसने पहली बार अपने प्यार को शब्दों का जामा पहनाया. मैं निःशब्द होकर उसकी बातें सुनती रही. उसने मुंबई में मेरे साथ रहते हुए क्या-क्या अनुभव किया, सब बताया. फिर मैंने भी उसके प्रति अपनी चाहत का इज़हार किया. 
समय के अंतराल में, अल्हड़ प्रेम की नदी ने परिपक्व दोस्ती के समुद्र का रूप ले लिया, जिसमें ठहराव था, गहराई थी. इसका पूरा श्रेय श्याम को जाता है, जिसने मेरे पूरे अस्तित्व को ही अपने में समेट लिया था. उम्र के इस पड़ाव में जब मैं वैवाहिक जीवन के कर्त्तव्यों का बोझ ढोते-ढोते थक गई थी, शरीर में शिथिलता आने के कारण जीवन खालीपन और नीरसता से व्याप्त हो गया था, वह श्याम की बातों से सरसता, नई ऊर्जा और उमंग से सराबोर हो गया था. जब कभी वह कहता, “पाखी, तुम्हारी हंसी बहुत प्यारी है” या मेरी फोटो देखकर कहता, “आज भी तुम उतनी ही ख़ूबसूरत लगती हो.” तो मुझे अपने पर गर्व होने लगता. यह सोचकर कि आज भी मैं किसी की यादों में बसी हूं. मुझे अपना पूरा अस्तित्व ही महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण लगने लगता.  

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हम दोनों ने ही एक-दूसरे को देखने की स्वाभाविक इच्छा प्रकट की, तो मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने कहा, “मैं कभी इंदौर किसी काम से आया, तो तुमसे ज़रूर मिलूंगा. मेरे एक-दो दूर के रिश्तेदार वहां रहते हैं.” जहां चाह वहां राह वाली कहावत चरितार्थ करते हुए वह वक़्त भी आ गया, जब किसी विवाह समारोह में आने का निमंत्रण मिलने पर वह इंदौर आया. वो समय निकालकर मेरे घर भी अपनी पत्नी के साथ आया. मेरे पति घर में ही थे. दो घंटे हमने एक साथ बिताए. हमारे लिए कितना कठिन था एक-दूसरे के सामने औपचारिकता का नाटक करना. मैंने देखा बाहरी आवरण में तो उसमें बहुत परिवर्तन आ गया था, लेकिन उसकी बोलती आंखें, जैसे अभी भी चालीस साल पहले की तरह मूक प्रेम निवेदन कर रही थीं. दोनों के हाव-भाव से लगा ही नहीं कि हम सालभर से लगातार संपर्क में हैं और हमारे मन के अंदर कितनी हलचल मची हुई है. अभी तक तो सुना था कि जब दो लोग एक-दूसरे को शिद्दत से चाहते हैं, तो सारी कायनात उन्हें मिलाने में जुट जाती है, लेकिन अब यह अनुभव कर रही थी. पर क्या लाभ ऐसे मिलने का, परिस्थितियां बदल गई हैं. विवाह के बाद ऐसे रिश्ते अनैतिक माने जाते हैं, लेकिन विवाह तो एक समझौता होता है. प्यार का एहसास तो इस रिश्ते से बहुत परे होता है. फिर इसको समाज ने अनैतिकता के दायरे में क्यों कैद कर रखा है?
शरीर कैद हो सकता है, लेकिन एहसास के तो पंख होते हैं, वह तो कभी भी आज़ाद होकर खुले आसमान में विचरण करने लगता है. मैं मन ही मन बुदबुदाई. वैसे भी मैं आरंभ से ही खुले विचारों की रही हूं. पति-परमेश्‍वर वाली मानसिक संकीर्णता मुझे पसंद नहीं. श्याम ने मेरी इस सोच को और भी हवा दे दी थी. वह चला गया, लेकिन अपने पीछे एक एहसास छोड़ गया, जो किसी रिश्ते का मोहताज नहीं है, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हम दोनों के बीच की दूरियां अर्थहीन हो गई थीं. मशहूर गीतकार गुलज़ार ने प्यार की परिभाषा को अपने एक गीत में बहुत भावपूर्ण तरी़के से अभिव्यक्त किया है- स़िर्फ एहसास है ये, रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो...

सुधा कसेरा




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