"… आख़िर कौन लगती है वह तुम्हारी? क्या रिश्ता है उससे तुम्हारा?"
सुनील को ग़ुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वह स्वयं पर काबू रखते हुए आवाज़ दबाकर बोला, "चिल्लाओ मत उनकी नींद खुल जाएगी. वह मेरी मां लगती हैं और पूछना है कुछ?"
"मां… हा… हा…" शालू व्यंग्यात्मक लहजे में हंसते हुए बोली, "कम से कम इस पवित्र रिश्ते को तो बदनाम मत करो, हमउम्र है वह तुम्हारी, देखने में भी अच्छी-भली…"
चटाक… शालू कुछ और बोलती. इसके पहले ही सुनील का हाथ उठ गया, हतप्रभ शालू देखती ही रह गई.
और एक उदास सुबह- बिस्तर से उठते हुए निशा ने घड़ी पर नज़र डाला, तो साढ़े पांच बजे थे. यूं नींद तो काफ़ी देर से खुल चुकी थी, लेकिन इतनी जल्दी उठकर भी क्या करती? खिड़की पर नज़र डाली, तो पर्दे से छनकर आता हल्का प्रकाश दिखाई दिया. गर्मी की सुबह भी तो जल्दी होती है… सोचा चलो अब उठा ही जाए, सुबह तो हो ही गई है और उठकर बाथरूम की ओर चली गई. हाथ-मुंह धोकर, ब्रश वगैरह करके बाहर निकली. बिस्तर ठीक किया, तब तक दूध वाला भी आ चुका था, सो दूध लिया.
अब तक उनके पतिदेव नितिश बाबू भी जाग चुके थे और तैयार होकर सुबह की सैर की निकल रहे थे. सब कुछ यंत्रवत चल रहा था. एक निश्चित धुरी पर घूम रहा था. किसी से कुछ कहने सुनने की ज़रूरत नहीं. जीवन में कोई उत्साह-उमंग नहीं बची थी दोनों के.
नितिश बाबू के जाते ही वे भी अख़बार लेकर बैठ गईं. एक गहरी सांस लेकर दीवार पर टंगी तस्वीर पर दृष्टि डाली, जिस पर फूलों का हार पड़ा हुआ था. उनकी दृष्टि धुंधला गई. किसी तरह स्वयं को संभाला और अख़बार के पन्ने उलटने लगीं. हालांकि कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. उन्होंने फिर अपने सिर को झटका दिया 'नियति के आगे आख़िर किसकी चली है? और जो सच है, वह तो है ही उसे स्वीकारने में ही भलाई है, बजाए इसके कि जो नहीं है, उसके लिए रोते रहें. और उन्होंने बगीचे की ओर रुख किया. कुछ साफ़-सफ़ाई की. सूखी पत्तियां झाडी, लताएं जो गिर रही थीं उन्हें सहारा दिया, तब तक नितिश बाबू भी दूर से जाते हुए दिखाई दिए और वे चाय बनाने के लिए किचन की ओर चल दीं.
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चूल्हे पर चाय की पतीली चढ़ाकर वे फिर ख़्यालों में खो गईं. निलेश उनका इकलौता पुत्र, उम्र थी यही कोई अठारह वर्ष होनहार, महाविद्यालय का छात्र. ऐसी ही एक सुबह वे तीनों पिकनिक के लिए निकले और बस पंद्रह मिनट बाद ही कार का एक्सीडेंट हो गया. निलेश ही कार ड्राइव कर रहा था.
वे शुरू से ही टोक रही थीं स्पीड कम करने के लिए, लेकिन शरारत से मुस्कुराते हुए उन्हें डराने के लिए कार तेज़ और तेज़ चलाए जा रहा था. तभी अचानक सामने से एक ट्रक आया, तुरंत उसने कार साइड में की, पर कार कुछ ज़्यादा ही साइड में चली गई और सड़क के किनारे खड़े एक पेड़ से टकरा गई, और बस! सब कुछ ख़त्म हो गया.
हालांकि निलेश को तुरंत अस्पताल भी ले जाया गया, लेकिन फिर भी वह बच न सका और क़िस्मत का खेल तो देखो इन दोनों को बस मामूली खरोंच ही आई थीं. कलेजे पर पत्थर रख अपने जिगर के टुकड़े के अंगों का दान कर दिया था दोनों ने. समाज सेवा में रुचि जो थी उनकी.
कितने बुरे दिन थे वे. महीनों उनकी आंखें नहीं सूखी थीं, ज़िंदगी बेमतलब की होकर रह गई थी- लक्ष्यहीन. फिर भी जब तक जीवन है, जीना तो था ही. उन्होंने पौधे लगाए. एक पप्पी भी पाला, ताकि अपने दुख पर से ध्यान कुछ हट सके. लेकिन वह कोई छोटी-मोटी तलैया तो थी नहीं कि ध्यान हट जाता. यह तो दुख का महासागर था, जो रह-रह कर हिलोरें मारता था. ईश्वर को भी इस उम्र में यह दुख देना था. जब वे न इधर के थे, न उधर के. मझधार में थे- चालीस-पैंतालीस के बीच की उम्र के. फिर भी समय सबसे बड़ा मरहम होता हैं, जो ज़ख़्मों को भर ही देता है.
छन्न… चाय उफन कर ऊपर आ रही थी. निशा की तन्द्रा टूटी और झट गैस ऑफ कर चाय छान कर उन्होंने ट्रे में रखी और आ गई बाहर नितिश बाबू के पास, जो वहीं लान में बैठे अख़बार पढ़ रहे थे.
इतना बड़ा मकान है और वे सिर्फ़ दो. बनवाते वक़्त तो सोचा था कि निलेश की शादी होगी, बहू आएगी. पोते-पोतियों से घर भरा रहेगा, और इस कारण भी बनवाया लिया था कि बेटे को बाद में परेशान न होना पड़े और अब? अब तो इतने बड़े घर की साफ़-सफ़ाई ही महंगी पड़ गई है. इतनी धूल जमती है कि बस पोंछते जाओ, वह जमती जाएगी. वैसे कभी-कभी उन्हें धूल का जमना भी अच्छा लगता है, कम-से-कम एक काम तो मिल जाता है, वर्ना करें क्या? घर तो जैसा का तैसा व्यवस्थित रहता है. कोई भी चीज़ अपनी जगह से हिलती नहीं जब तक कि वे न उठाएं. निलेश था तो कितना बखेड़ा किए रहता था. कहीं बल्ला पड़ा है, तो कहीं गेंद, कहीं स्केट्स. जूते-मोजे तो सारे घर में पड़े मिलते थे उसके और कपड़े तो पूछो ही मत. कितना शौक था उसे पहनने-ओढ़ने का. दिनभर उसकी चीजों को समेटने में ही वक़्त बीत जाता था. कुछ कहो तो बस, उसकी वही शरारत भरी मुस्कुराहट.
अब कुछ अव्यवस्थित होता ही नहीं, जो जहां है, वहीं रहता है. धूल की शुक्रगुज़ार हैं निशा, वह जमती है, तो झाड़-पोंछ करने को तो मिलती है.
"क्यों न मकान किराए पर दे दें?'' नितिश बाबू चाय पीते हुए बोले.
वे चौकी, “क्यों, क्या हुआ अचानक?"
"नहीं, अचानक नहीं, कई दिनों से सोच रहा हूं. इतना बढ़ा दो मंज़िला मकान है. सूना-सूना पड़ा रहता है, ऊपर वाला हिस्सा किराए पर उठा दें, तो कैसा रहेगा? किराएदार रहेंगे, तो थोड़ी चहल-पहल रहेगी. सुरक्षा की दृष्टि से भी ठीक रहेगा. हम दोनों ही रहते हैं, रात बे रात कोई कष्ट हो तो सहारा रहेगा. कहीं आना-जाना हो, तो घर सूना तो नहीं रहेगा." वे बोले.
वे बात कर ही रहे थे कि गेट खुलने की आवाज़ आई. लगभग पैंतीस वर्षीय एक आकर्षक व्यक्ति दिखाई दिया. अंदर आकर उसने सलीके से गेट फिर से बंद कर दिया और उन दोनों के सामने आकर अभिवादन करते हुए खड़ा हो गया. उन्होंने भी उसे कुर्सी पर बैठने का संकेत किया, वह कुर्सी पर बैठते हुए बोला, “मैं सुनील वर्मा हूं. एक कंपनी में एक्ज़ीक्यूटिव हूं. आपका मकान किराए पर लेना चाहता हू."
दोनों एक साथ पहले तो चौंके, फिर नितिश बाबू बोले, "आपको किसने बताया कि हमारा मकान खाली है और हम उसे किराए पर देना चाहते हैं."
"जी में इधर से अक्सर गुज़रता हूं. आपका मकान देखा. लोकेशन अच्छा लगी, इसीलिए पूछ लिया." सुनील जागे झुकते हुए बोला.
"पहले मकान देख लो, किराया हमारे हिसाब से ही रहेगा और हमें शोर पसंद नहीं. टीवी वगैरह बिल्कुल धीरे चले या न ही चलाएं और रात को समय से आ जाएं, वरना गेट बंद हो जाएगा. और हां, हम शाकाहारी हैं सो…" नितिश बाबू थोड़ा घुड़कते हुए से बोले. आख़िर वह अपनी गर्ज से आया था, उन्होंने थोड़े ही बुलाया था.
"मुझे आपकी हर शर्त मंज़ूर है. मकान को भी क्या देखना, पसंद है तभी तो आया. बस, आप इजाज़त दीजिए, तो सामान वगैरह ले आऊं. मेरे परिवार में मैं और मेरी पत्नी ही हैं." उसने उठने का उपक्रम किया.
उन्हें आश्चर्य हुआ, 'कैसा अजीब आदमी है, बस मकान चाहिए किसी भी शर्त पर.'
दो-चार दिनों में सुनील अपना सामान वगैरह ले आया और घर व्यवस्थित कर लिया. दोनों ने अपना कमरा बड़ी सुंदरता से सजाया था. घर में थोड़ी रौनक आ गई थी. आना-जाना लगा रहता था. सुनील हमेशा उनसे पूछता रहता, कोई काम हो, तो करता रहता. कभी पानी के बिल भरना, तो कभी सब्ज़ी-किराने का सामान लाना आदि. और निशा से तो उसे विशेष स्नेह था. उसके होते हुए उनकी मजाल थी कि कोई भी काम कर पाए, सब वही करता. आख़िर एक दिन नितिश बाबू ने निशा की चुटकी ली, "क्या बात है? सुनील तुम्हारा बहुत ख़्याल रखता है. मुझसे छीन तो नहीं रहा."
"हटो भी, यह मेरी उम्र है क्या? चार-पांच बरस छोटा होगा मुझसे. छोटे भाई जैसा है, आप भी बस…" निशा तुनक कर बोली.
"उम्र है तो क्या हुआ, दिखती तो नहीं हो." नितिश ने फिर छेड़ा.
"कौन जाने सोच रहा हो कि सेवा करने से हम प्रसन्न हो जाएंगे. दिल जीत लेगा वह हमारा इस तरह, तो हम यह मकान उसे ही दे दें. अब कोई है भी तो नहीं अपना वारिस. इस घोर भौतिकवाद के युग में ऐसी सोच बहुत सामान्य सी बात है." निशा ने एक और तरह से सोचा.
"हां हो सकता है. ऐसे लोग कुछ भी कर सकते हैं, मेरा मतलब है कि हत्या भी. जरा होशियार रहना." नितिश बाबू ने आशंका जताई.
कुछ दिनों बाद एक दिन निशा की तबियत बहुत ख़राब हो गई. इतना तेज़ बुखार था और इधर नितिश बाबू बिज़नेस टूर पर गए थे, सुनील ने ही संभाला. दिन-रात उनकी सेवा की रात-रात भर जागकर उनके माथे पर बर्फ़ की पट्टियां रखता. पांव सहलाता. थोडी-थोड़ी देर पर फलों का रस, पानी, दवाइयां वगैरह देता. बाथरूम तक सहारा देकर ले जाता. कोई कसर नहीं छोड़ी सुनील ने उनकी देखभाल में.
उसकी पत्नी शालू से आख़िर यह सब देखा नहीं गया और एक दिन उसने पूछ ही लिया, "आख़िर तुम्हें इनसे इतना लगाव क्यों है? इतना महंगा मकान लिया और वो भी तमाम बंदिशों पर, फिर तुम्हारा ऑफिस भी यहां से इतनी दूर पड़ता है. जाने-आने का ख़र्च अलग से. इससे कम पैसों व बेहतर सहूलियत में तुम्हारे ऑफिस के पास ही अच्छा मकान मिल जाता, लेकिन तुम्हे तो बस यही चाहिए था, यही ज़िद ठाने बैठे थे.
आख़िर कौन लगती है वह तुम्हारी? क्या रिश्ता है उससे तुम्हारा?"
सुनील को ग़ुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वह स्वयं पर काबू रखते हुए आवाज़ दबाकर बोला, "चिल्लाओ मत उनकी नींद खुल जाएगी. वह मेरी मां लगती हैं और पूछना है कुछ?"
"मां… हा… हा…" शालू व्यंग्यात्मक लहजे में हंसते हुए बोली, "कम से कम इस पवित्र रिश्ते को तो बदनाम मत करो, हमउम्र है वह तुम्हारी, देखने में भी अच्छी-भली…"
चटाक… शालू कुछ और बोलती. इसके पहले ही सुनील का हाथ उठ गया, हतप्रभ शालू देखती ही रह गई.
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और वह बोलता ही चला गया, "हां, मां लगती है वह मेरी. उनकी कोख में पले शरीर का एक अंग प्रत्यारोपित है मेरे शरीर में. उसने नया जीवन दिया है मुझे. आज जो मैं यह चल-फिर रहा हूं. जीता-जागता तुम्हारे सामने हूं, तो केवल उनकी ही बदौलत. अपने पुत्र की मृत्यु के बाद उन्होंने उसके गुर्दे दान कर दिए थे. वे मुझे ही प्रत्यारोपित हुए थे, डॉक्टर ने बताया था. उन्हें तो इतना भी होश नहीं था कि इस बात को जानें कि उन्होंने दान किसे दिया है. बेटे की मौत के सदमे में भी विवेक से पल्ला नहीं झाड़ा उन्होंने और महादान किया. और फिर पलट कर देखा भी नहीं कि किसे दिया. मैंने यह मकान जान-बूझकर किराए पर लिया, ताकि उनके निकट रह सकूं. कुछ तो सेवा कर सकूं उनकी. इस तरह कुछ तो उऋण हो जाऊंगा. और अब से तुम भी उनकी अपने सास-ससुर की तरह सेवा करना."
और शालू अब भी मुंह बाए देखती जा रही थी उस मां के इस बेटे को. कैसे अनोखे रूप से जुड़ा था, मां-बेटे का यह रिश्ता! पहला न सही, दूसरा जन्म तो दिया ही था निशा ने सुनील को.
- चेतना भाटी
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