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कहानी- रिश्ते (Short Story- Rishte)

‘सच, ये रिश्ते भी कितने अजीब होते हैं. इतना छोटा-सा शब्द, पर कितने गूढ़ मायने लिए हुए. यदि कोई विश्‍लेषण करने बैठे, तो पूरी क़िताब लिख सकता है. इन्हें किसी तराजू में तौलना कितनी नाइंसाफ़ी है. हर रिश्ता अपनी जगह महत्वपूर्ण है. जब पति के पास होती हूं तो पापा, मम्मी, भाई याद आते हैं. अभी जब उनके पास थी तो पति के लिए दिल मचलता था.

रिमझिम फुहारों ने पलक झपकते तेज़ बारिश का रूप धारण कर लिया था. देखते-देखते हरा-भरा ख़ूबसूरत लॉन गंदे पानी के स्विमिंग पूल में तब्दील हो गया था. माली के दोनों बच्चे छोटी-छोटी नाव बनाकर पानी में तैरा रहे थे. जब कोई नाव निर्बाध दूर तक बहती चली जाती, तो वे ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते. उन दोनों भाई-बहनों को देखकर मुझे बंटी याद आ गया.
बंटी, मेरा छोटा भाई, बचपन में हमने भी पापा के कितने ही ज़रूरी काग़ज़ातों की ऐसी ही नाव बनाकर आनन्द उठाया था. फिर मिलकर पापा की लताड़ भी सुनी थी. अन्य बच्चों से अलग ग़लती पकड़े जाने पर हम परस्पर दोषारोपण नहीं करते थे, बल्कि चुपचाप सिर झुकाकर खड़े हो जाते थे. यह बताने के लिए कि हम सम्मिलित रूप से अपराधी हैं. इसे हमारी भीरूता कह लीजिए या भाई-बहन का आपसी प्यार.
जब थोड़ी बड़ी हुई और शादी-ससुराल की बातें सुनती, तो मैं भड़क उठती. ‘भला यह भी कोई बात हुई? जहां पैदा हुए, पले-बढ़े, इतना प्यार-दुलार व अपनापन पाया, उन सब रिश्तों को एक ही झटके में तोड़कर एक अनजाने आदमी के संग रवाना हो जाओ. मानो लड़की न हुई कोई गठरी हो गई, जो जवानी तक आते-आते इतनी भारी हो गई कि उसका बोझ उठाए नहीं उठ रहा.’
मम्मी-पापा हंसते और कहते, “थोड़ी और बड़ी हो जा, फिर बोलना. दूल्हे और शादी के नाम से ही मन में लड्डू फूटने लगेंगे.” सचमुच, बड़े होने पर जब दैहिक लालसाएं सिर उठाने लगीं तो बात कुछ समझ आई. लेकिन अब भी मैं अपने निश्‍चय पर अडिग थी. दैहिक आवश्यकताएं इतनी अपरिहार्य भी नहीं कि आत्मिक रिश्तों पर भारी पड़ जाएं. और फिर इनकी पूर्ति के लिए माता-पिता का घर त्यागकर जाने की कहां ज़रूरत है? कोई और रास्ता भी तो निकाला जा सकता है. यह तो कोई बात नहीं हुई कि जिस पौधे को इतने प्यार से लगाया, सींचा, बड़ा किया, जब उसके खिलने और सुरभि फैलाने का व़क़्त आया तो जड़सहित उखाड़कर दूसरी जगह ले जाकर रोप दिया. यह भी नहीं सोचा कि वहां की मिट्टी व जलवायु से वह कैसे सामंजस्य स्थापित करेगा? पनप भी पाएगा या मुरझा जाएगा? पर नहीं, अपनी जड़ों से उखड़ना ही उसकी नियति है और नए परिवेश से सामंजस्य ही उसके ज़िंदा रहने की शर्त.

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मन में उथल-पुथल मचाते ये विचार मन में ही रह गए और मैं अनिल की दुल्हन बनकर इस घर में आ गई. अनिल के संग दो महीने किस तरह गुज़र गए, कुछ पता ही नहीं चला. आज जब उन भाई-बहन को संग हंसते-खिलखिलाते नाव के साथ खेलते देखा तो बाबुल और उसके घर-आंगन की सुमधुर स्मृतियां जीवंत हो उठीं. बाहर धीमी हो चुकी फुहार अब मेरी अंखियों में समा गई थी और झरझर आंसुओं के रूप में बरस रही थी. डोरबेल की आवाज़ सुनकर मैंने आंखें पोंछी और मुस्कुराते हुए अनिल के स्वागत में दरवाज़ा खोल दिया.
“यह धुली-धुली मुस्कान! जैसे बारिश के बाद अलसाया-सा सूरज निकला हो. तुम रोई थी?”
चोरी पकड़ी जाने के कारण मैंने घबराकर नज़रें झुका लीं.
“मायके की याद आ रही है?”
“उं… मैं चाय बनाकर लाती हूं.”
एक विवाहिता के दिल में उसके मायके की स्मृतियां किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करतीं, उसके पति का भी नहीं! फिर मैं तो अभी नवविवाहिता थी. अभी तो हया की परतें भी नहीं उघड़ी थीं, इतनी अंदरूनी परत तक मैं उन्हें कैसे पहुंचने देती?
चाय, शाम का टहलना, रात का खाना, फिर टीवी देखना, मैं स्मृतियों के आसमान से निकल एक बार फिर यथार्थ के धरातल पर आ गई थी. अनिल ऑफ़िस का कुछ काम कर रहे थे. टीवी ऑफ़ करके लेटी तो स्मृतियां फिर अतीत के गलियारे में कुलांचे भरने लगीं.
‘काश मैं भी स्मृति होती तो पल में मायके पहुंच जाती.’ तभी मेरा मोबाइल बज उठा.
“ओह बंटी! अरे मैं आज शाम से तुझे याद कर रही हूं. वो बारिश में हम नाव…” अनिल को अपनी ओर घूरता देखा, तो ख़ुशी के मारे चरम पर जा पहुंची एकदम धीमी हो गई.
“हां, आवाज़ साफ़ नहीं आ रही…” बहाना बनाते हुए मैं बालकनी में निकल आई और फिर हंसी-ठहाकों के साथ बंटी, पापा-मम्मी सभी से ख़ूब गपशप की. शाम से भारी हो रहा मन अब फूल-सा हल्का हो गया था. किसी से मिलन की चाह में जब उसका फ़ोन आ जाए, तो बात करके दिल को कितना सुकून मिलता है, यह कोई उस व़क़्त मुझसे पूछता. तृप्त मन से मैं आकर पलंग पर लेट गई. अनिल लैम्प बुझाकर मेरे पास आकर लेट गए और प्यार से अपने आगोश में ले लिया. मैं हौले-हौले उनके सीने में सिमटती चली गई. दिल की धड़कनें जुबां का काम कर रही थीं. बिन कहे ही हम एक-दूसरे के मन की थाह पा गए थे.
मन किया कि उनसे कहूं कि मैं कुछ दिनों के लिए मायके जाना चाहती हूं, पर प्यार की थपकियों ने होंठ सिल दिए और मैं नींद के आगोश में समा गई.
सुबह दोनों की ही आंख देरी से खुली और बस शुरू हो गई ऑफ़िस के लिए भाग- दौड़. कभी उन्हें एक मोजा नहीं मिल रहा था, तो कभी ज़रूरी फ़ाइल. मैं नाश्ते की प्लेट लिए आगे-पीछे डोल रही थी. उन्हें रवाना करके धम से आकर लेट गई.
‘उफ़! बच्चों की तरह ध्यान रखना पड़ता है. ऐसे आदमी को किसके भरोसे छोड़कर मायके जाऊं?’
शाम को अनिल ऑफ़िस से एकदम प्रसन्नचित्त घर लौटे. “लो, मैंने तुम्हारे जाने का इंतज़ाम कर दिया है.”
“पर मैंने कब कहा कि मुझे मम्मी-पापा के पास जाना है?”
“हूं… मैंने यह तो बोला ही नहीं कि कहां जाने का इंतजाम कर दिया है? मन का चोर आ गया ना सामने? मैं चार दिनों के लिए टूर पर जा रहा हूं. यहां अकेले बोर हो जाओगी, इसलिए तुम्हारा भी मायके का टिकट करा दिया है.”

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“सच…! पर चार दिन तुम्हारे बिन…”
“क्यूं? अब क्या मेरी याद आएगी? तुम्हें भी ना दोनों हाथों में लड्डू चाहिए. चौबीसों घंटे जी-हुजूरी करनेवाला ग़ुलाम चाहिए, लोरी सुलानेवाली मां, दुलारने वाले पिताजी, संग खेलने और झगड़ने वाला भाई, सब एक साथ चाहिए. है ना?”
मैं झेंप गई तो अनिल ने आगे बढ़कर मुझे बांहों में भर लिया.
“तुम कितनी मासूम-भोली हो. तुम्हारी बहुत याद आएगी.”
“मुझे भी.”
मम्मी-पापा, बंटी, पुरानी सहेलियों आदि से मिलकर मन ख़ुशी से झूम उठा. सब कुछ वैसा ही था, जैसा मैं छोड़ गई थी. पर फिर भी लगता था कहीं कुछ छूट-सा गया है. ऐसा लगता था अपने ही घर में मेहमान हो गई हूं.
“क्या खाओगी बेटी? क्या मंगवाएं तुम्हारे लिए?”
“मम्मी, मैं कोई मेहमान नहीं हूं.”
“अब चार दिनों के लिए आई है, तो मेहमान ही रहेगी. वैसे भी शादी के बाद बेटियां मायके में मेहमान ही होती हैं.”
यह परायापन मुझे खल जाता. एक बस बंटी ही था, जिसके लिए मैं अब भी उसकी वही पुरानी दीदी थी.
“आप तो बिल्कुल भी नहीं बदली दीदी. पता है, मैं मन-ही-मन जीजाजी को बहुत गालियां देता था कि उन्होंने मुझसे मेरी दीदी को छीन लिया है, पर अब आपसे उनके बारे में सारी बातें जानकर मेरे सारे गिले-शिकवे दूर हो गए हैं.”


हमारा पुराना समय फिर से लौट आया था. वही खेलना, खाना, झगड़ना, रूठना- मनाना, फ़र्क़ था तो बस यह कि पहले हमारे झगड़े में पापा-मम्मी बंटी का पक्ष लेते थे और मुझे समझाते थे कि छोटा है, उसके बराबर मत हुआ कर. तुम बड़ी हो, बड़प्पन रखो…
पर अब वे मेरा पक्ष लेते और बंटी को समझाते, “क्या बच्चों की तरह लड़ता है? जानता नहीं वो चार दिनों के लिए आई है. कल को चली जाएगी.”
मुझे तब भी उनका तर्क अरुचिकर लगता था और अब भी. पर शायद रिश्तों का यही तकाज़ा था. उनकी जगह मैं होती तो शायद मैं भी यही करती.
उस दिन बंटी स्कूल से लौटा तो काफ़ी उदास और परेशान-सा था. मैं कुछ पूछूं, इससे पहले ही उसने मुझे अपने कमरे में आने का इशारा किया.
“क्या बात है? बहुत परेशान लग रहे हो.”
“दीदी, आप तो जानती हैं स्कूल में यह मेरा अंतिम वर्ष है. अगले वर्ष हम सभी दोस्त बिछड़ जाएंगे. सभी अलग-अलग फील्ड में चले जाएंगे. हमें शैक्षणिक भ्रमण के लिए मनाली ले जाया जा रहा है. तीन हज़ार रुपए जमा करवाने हैं. पापा ने हमें कभी किसी टूर पर नहीं जाने दिया. कभी कहते अभी छोटे हो, कभी कहते पैसे बहुत ज़्यादा हैं, तो कभी कहते हम सभी साथ चलेंगे. पर दीदी, मैं यह अवसर नहीं खोना चाहता. मुझे जाना है, हर हालत में. आपको पापा को मनाना होगा. पापा आपकी बात नहीं टालेंगे.”
“ठीक है, मैं बात करूंगी. तू निश्‍चिंत रह, इस बार तू अवश्य ही अपने दोस्तों के संग घूमने जाएगा.”
“ओह, थैंक्यू दीदी, मुझे पूरा विश्‍वास था कि आप मेरी मदद ज़रूर करेंगी.” ख़ुशी से सीटी बजाता बंटी स्कूल चला गया.
जीत या हार, आशा या निराशा के इन्हीं उमड़ते-घुमड़ते बादलों के बीच शाम को बंटी घर पहुंचा और अपनी दीदी के लिए पूरा घर छान मारा.
“ओह दीदी, कहां हो तुम? जहां भी छुपी हो, अब बाहर आ जाओ. मैं और इंतज़ार नहीं कर सकता.”
“क्या है, क्यूं चिल्ला रहा है?” रसोई में कलछी चलाती मां ने ज़ोर से पूछा.
“दीदी कहां है?”

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“अरे, वो तो अपने घर चली गई. दामादजी का फ़ोन आया था. उनकी तबियत ख़राब हो गई थी, तो वे टूर से एक दिन पहले ही घर आ गए. उन्होंने तो तेरी दीदी को बोला कि वह अपने निश्‍चित कार्यक्रम के अनुसार ही लौटे, पर तेरी दीदी से नहीं रहा गया. जो भी पहली बस मिली, उसी से रवाना हो गई.”
‘ओह! जीजाजी को भी अभी बीमार होना था. और दीदी भी ना? पापा से बात करके नहीं जा सकती थी? मेरे लिए ज़रा भी नहीं रुक सकती थी? क्या शादी के बाद लड़कियां इतनी बदल जाती हैं? बरसों पुराने रिश्ते-नाते एक झटके में ही ख़त्म कर देती हैं? यही दीदी शादी से पहले मुझ पर जान छिड़कती थी. और अब? कल का ब्याहा पति ही सब कुछ हो गया, मैं कुछ भी नहीं? दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया मुझे.’ सोचते हुए ग़ुस्से से बंटी की मुट्ठियां भिंच गईं.
“अरे बंटी! मैं तो भूल ही गई, वो तेरे लिए एक बंद लिफ़ाफ़ा छोड़ गई है. तेरी टेबल पर रखा है. जा देख ले.” कहते हुए मम्मी फिर रसोई में घुस गई.
लिफ़ाफ़ा खोलते हुए बंटी की धड़कनें बेक़ाबू हो रही थीं. पता नहीं, दीदी ने क्या लिखा होगा? अपनी मजबूरी का ज़िक्र करते हुए माफ़ी मांगी होगी? या और कुछ?
लिफ़ाफ़ा खोलते ही हज़ार-हज़ार के तीन नोट उसके हाथों में आ गए. साथ में एक ख़त भी था.
‘बहुत जल्दी में हूं बंटी! ये मेरी ओर से तुम्हारे टूर के लिए. अगले महीने तुम्हारा जन्मदिन है, उसका तोहफ़ा समझ लेना. अरे हां, ख़ास बात तो बताना भूल ही गई. मैंने पापा से बात कर ली है. तुम टूर पर जा सकते हो. घर पहुंचकर बाकी बातें फ़ोन पर करूंगी. अभी तो एक बार इन्हें देख लूं तो जी को तसल्ली मिले.
तुम्हारी अपनी,
दीदी
पत्र समाप्त करके बंटी ने अपनी पनीली आंखें पोंछी. ये मनाली जाने की ख़ुशी के आंसू थे या बहन के अतिशय प्यार से अभिभूत हुए दिल से निकले आंसू या दोनों का सम्मिश्रण, वह समझ नहीं सका. पत्र और पैसे वापिस लिफ़ा़फे में डालकर वह पलंग पर लेट गया. अब उसकी आंखों में पश्‍चाताप के आंसू थे.
‘मुझे माफ़ कर देना दीदी. क्रोध के आवेश में मैं न जाने क्या उल्टा-सीधा सोच गया. शायद मुझे रिश्तों को पहचानने की समझ ही नहीं है.’
फ़ोन पर जीजाजी का हालचाल पूछ, दीदी को धन्यवाद देकर बंटी अपने दोस्तों को यह ख़ुशख़बरी सुनाने भाग गया.


अनिल को सकुशल पाकर मेरी जान में जान आई.
‘सच, ये रिश्ते भी कितने अजीब होते हैं. इतना छोटा-सा शब्द, पर कितने गूढ़ मायने लिए हुए. यदि कोई विश्‍लेषण करने बैठे, तो पूरी क़िताब लिख सकता है. इन्हें किसी तराजू में तौलना कितनी नाइंसाफ़ी है. हर रिश्ता अपनी जगह महत्वपूर्ण है. जब पति के पास होती हूं तो पापा, मम्मी, भाई याद आते हैं. अभी जब उनके पास थी तो पति के लिए दिल मचलता था. ‘इन तीन दिनों में तुम्हें कितना मिस किया अनु, बता नहीं सकती. सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते, हर व़क़्त बस तुम्हारा ही ख़याल. और अब जब तुम्हारे पास आ गई हूं तो अफ़सोस हो रहा है, रवाना होते व़क़्त बंटी से नहीं मिल पाई. वो भी जाने क्या सोचता होगा? ख़ैर, जब उसकी शादी होगी तब वह भी समझ जाएगा. मैंने तो बस इतना जाना है, जब जिसके पास रहो दिल से रहो और हर रिश्ते को दिल से निबाहो. हो सकता है, रिश्तों की इस कश्मकश में कुछ रिश्तों के संग अन्याय भी हो जाए, पर इसके लिए ख़ुद को दोषी मानकर कुढ़ना नादानी है.’
“क्या सोचने लगी?” अनिल ने ख़ुद से मुझे अलग करते हुए पूछा.
“उं… कुछ नहीं. अच्छा बताओ, इन तीन दिनों में मेरी याद आई?”
“उं हूं, बिल्कुल नहीं. याद उसे किया जाता है, जिसे भुला दिया जाता है. तुम तो मेरी हर सांस में बसी हो. पति-पत्नी का रिश्ता भी कितना अजीब है. दो अजनबी दो ही महीनों में एक-दूसरे से इतना अटूट लगाव महसूस करने लगे हैं. मैं तो हैरान हूं.”
“मैं भी.” गहरे समुद्रतल की तरह हैं ये रिश्ते. जितनी अंदर डुबकी लगाओगे, उतने ही मोती पाओगे. इस गूढ़ रहस्य को समझ लेने का आत्मसंतोष था मेरे चेहरे पर.

संगीता माथुर

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