अब अपूर्वा को कुछ नहीं होगा. उसके रिश्तों के बंधन इतने कमज़ोर नहीं कि छोटी-मोटी घटनाओं के आघात से टूट जाएं. अपने परिवार का प्यार पाकर वह अब पूर्ण स्वस्थ होकर ख़ुशहाल जीवन जीएगी, यह मेरा विश्वास है. मैंने मिस्टर भारद्वाज को ख़बर करके जो ग़लती की थी, वो सही थी.
"मम्मी, आंखें खोलो, मम्मीऽऽ देखो, हम लोग आए हैं.” शिखा अपूर्वा के हाथों को सहलाती हुई अपने अनवरत बहते आंसुओं को भी पोंछती जा रही थी.
अपूर्वा का चेकअप करने के बाद डॉक्टर ने शिखा की पीठ थपथपाकर कहा, “तुम्हारी मम्मी बिल्कुल ठीक हैं. ऑपरेशन सफल रहा है. शाम तक उन्हें होश भी आ जाएगा.” अपूर्व और शिखर से कुछ बातें कर व कुछ हिदायतें देकर डॉ. भल्ला चली गईं.
अपूर्व भारद्वाज वहीं बैठकर भीगे रुमाल से अपूर्वा के चेहरे को पोंछने लगे. आख़िर उनसे कब, कहां व कौन-सी ग़लती हुई कि अपूर्वा, उनकी पत्नी, उनके दो बच्चों की मां, आज इस हाल तक पहुंच गई…
पिछले दिसंबर में अपूर्वा शायद अपनी बीमारी के बारे में ही बताने अचानक दिल्ली आई थी, पर उसने ऐसा क्या महसूस किया? किसकी बातें उसे इतना दर्द दे गईं कि वह अपनी बीमारी का दर्द ख़ुद में ही समेटे लौट गई? अपूर्व का हृदय पश्चाताप की ज्वाला से धधक रहा था. वे अतीत में खो गए.
अपूर्व की पोस्टिंग सेकेंड लेफ्टीनेंट के पद पर भोपाल में थी. वहीं शादी हुई, बच्चे हुए-शिखर व शिखा. फिर जैसा कि होता है, पैसे की खींचातानी होने लगी.
उन्हीं दिनों केंद्रीय विद्यालय में पंद्रह सौ शिक्षकों की बहाली का विज्ञापन निकला, तो अपूर्व ने ज़बरदस्ती अपूर्वा से भी अप्लाई करवा दिया. वह दसवीं से बीएससी तक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण थी और बीएड में भी उसके अच्छे नंबर थे. साक्षात्कार भी अच्छा हुआ और उसकी नियुक्ति प्रशिक्षित स्नातक शिक्षिका के रूप में कटनी में हो गई. नियुक्तिपत्र हाथ में आ जाने के बाद भी अपूर्वा नौकरी करने के विरुद्ध थी, “बच्चे अभी छोटे हैं, मैं अकेले इतनी दूर उन्हें कैसे सम्भाल पाऊंगी?”
अपूर्व को हर महीने आनेवाले पैसे की चाहत ने स्वार्थी बना दिया था. वह समझाते, “देखो, इतनी अच्छी नौकरी घर बैठे मिल गई है. बच्चे भी दो-तीन साल में स्कूल जाने लगेंगे, फिर कोई परेशानी नहीं होगी. तब तक मां तुम्हारे साथ रहेगी़.” इस तरह हमेशा से हाउसवाइफ़ की हिमायती रही अपूर्वा ख़ुद वर्किंग वूमन बन गई.
छह महीने के बाद अपूर्व का स्थानान्तरण कटनी के पास जबलपुर में हो गया. जब तक वह जबलपुर में रहे, सप्ताहांत में आना-जाना हो ही जाता. दो-तीन साल बाद बच्चे स्कूल जाने लगे. सास बीमार रहने लगीं, तो वह गांव बड़े बेटे के पास चली गईं. जब शिखर सातवीं और शिखा पांचवीं मंें थी, अपूर्वा की नियुक्ति एक पिछड़े इलाके में हो गई और अपूर्व की दिल्ली में. वे बच्चों की बेहतर पढ़ाई के लिए दोनों बच्चों को अपने पास रखने की बात कहने लगे.
अपूर्वा ने नौकरी से त्यागपत्र देने का मन बना लिया, लेकिन अपूर्व की दलीलों ने उसे पुनः परास्त कर दिया, “अब तो बच्चों की पढ़ाई में बहुत ख़र्च आएगा. फिर तुम्हारे भी तो प्रमोशन होने वाले हैं, पैसे बढ़ेंगे.”
मन मारकर अपूर्वा को बच्चों का बिछोह सहना पड़ा. बच्चों को शुरू में द़िक़्क़तें आईं, लेकिन धीरे-धीरे महानगर की चकाचौंध ने उन्हें भी अपने आगोश में ले लिया. दूरियां बढ़ने से आने-जाने का अंतराल भी बढ़ गया.
समय बीतता जा रहा था. शिखर का इंजीनियरिंग में फ़ाइनल ईयर था और शिखा का बीकॉम में दूसरा साल. इसी बीच अपूर्वा उप प्राचार्या बनी, फिर उसी विद्यालय में प्राचार्या का पद मिल गया. यह उसे सुखद लगा. सब कुछ अच्छा ही हो रहा था, लेकिन वह भीतर ही भीतर खोखली होती जा रही थी.
प्राचार्या बनने पर उसने काफ़ी हुलसकर घर पर फ़ोन लगाया. अपूर्व घर पर नहीं थे, फ़ोन शिखा ने उठाया, “हैलो.”
“शिखा, मैं प्रिंसिपल बन गई!”
“ओह मम्मी, कॉन्ग्रेच्युलेशन! मम्मी, अभी मैं थोड़ा बिज़ी हूं, आपको बाद में फ़ोन करती हूं. ओके? बाय, टेक केयर.”
अपूर्वा का सारा उत्साह ख़त्म हो गया. शाम को बधाई देने आई अपनी सबसे प्रिय सहेली व सहकर्मी रीता को यह बात बताते हुए वह रो पड़ी, “क्या बच्चे बड़े होने लगते हैं, तो इतने आत्मकेंद्रित हो जाते हैं कि उन्हें किसी के सुख-दुख से कोई मतलब ही नहीं रह जाता? मेरी ख़ुशी में एक क्षण के लिए भी तो वह शामिल नहीं हो सकी.”
रीता ने उसे समझाया, “बच्चों से ज़्यादा उम्मीदें मत रखो. देखना, यह ख़बर सुनते ही जीजाजी दौड़े आएंगे.” लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
काम का बोझ बढ़ गया था. कुछ जान-बूझकर भी वह अपने को काम में डुबोए रहती. उसकी तबियत भी आजकल ठीक नहीं चल रही थी. माहवारी में ब्लीडिंग बहुत ़ज़्यादा हो रही थी. भूख लगती ही नहीं थी. हमेशा पेट फूला-फूला लगता. अपूर्वा इसे मेनोपॉज़ के लक्षण मान कर टालती जा रही थी.
एक दिन जब ज़्यादा परेशानी हुई तो रीता ही उसे अस्पताल ले गई. डॉ. भल्ला की अनुभवी आंखों को कुछ अंदेशा हुआ. उन्होंने कुछ दवाइयां दीं और सोनोग्राफ़ी करवाने को कहा. सोनोग्राफ़ी की रिपोर्ट लेकर अपूर्वा अकेले ही गई थी. रिपोर्ट देखकर डॉ. भल्ला का चेहरा कुछ स़फेद पड़ गया. कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद बोलीं, “देखिए मिसेज भारद्वाज, आपको बच्चेदानी का कैंसर है. यह अब लाइलाज बीमारी नहीं रही, बशर्ते इलाज समय पर और सही ढंग से हो. आपको जितना जल्द हो सके, ऑपरेशन करवा लेना चाहिए. देर होने पर फैलने का डर है.”
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बाहर से भरसक संयत होने का प्रयास करते हुए भी अपूर्वा के हाथ रिपोर्ट वापस लेते समय कांप रहे थे. वह यंत्रचालित-सी घर लौट आई. उसने किसी से अपनी बीमारी का ज़िक्र नहीं किया. छुट्टी लेकर पूरे दिन वह घर में लेटी रही. पहले अपूर्वा ने सोचा कि अपूर्व को फ़ोन पर ही बतला दूं, लेकिन फिर यह सोचकर कि अचानक बीमारी की बात सुनकर वह घबरा जाएंगे, उसने दूसरे दिन का रिज़र्वेशन करवा लिया. हड़बड़ी में आने की ख़बर भी नहीं कर पाई.
ट्रेन से ही उसने अपूर्व को फ़ोन लगाया, “मैं एक घंटे में दिल्ली पहुंचने वाली हूं. आप गाड़ी लेकर आ जाइए.” उसने ट्रेन का नाम बतलाया.
अपूर्व ने चौंक कर पूछा, “अचानक! क्या बात है? मैं तो कोलकाता में हूं, तुम शिखर को फ़ोन कर दो, वह आ जाएगा स्टेशन.”
शिखर भी चौंक गया, “आप! यहां? दिल्ली आ रही हैं? क्यों?”
“तुम गाड़ी लेकर आ जाओ, आने का कारण बाद में पूछना.” अपूर्वा ने थोड़े सख़्त लहजे में कहा.
“ओह नो! परसों से मेरे पेपर हैं. मैं कैसे आ पाऊंगा? आज ड्राइवर भी नहीं आया है. आप प्लीज़, टैक्सी से आ जाइए.”
उसे बहुत ग़ुस्सा आया. उसका मन हुआ कि वह रास्ते से ही लौट जाए, लेकिन अपूर्व को बीमारी के बारे में बतलाना ज़रूरी था. बेमन से ही वह घर पहुंची. शिखा व शिखर दोनों आए, पांव छूकर थोड़ी-बहुत औपचारिक बातें करके अपने-अपने कमरों में चले गए. वह चुपचाप बैठी रह गई. उसे महसूस हो रहा था कि वह अपने बच्चों को समझाने या डांटने का अधिकार भी खो चुकी है. दोनों बच्चों का व्यवहार उसे बहुत आहत कर गया था.
अपूर्व रात में लौटे. वह काफ़ी थके हुए थे, लेकिन उनके चेहरे पर उसे देख कर ख़ुशी ज़रूर आई. खाने-पीने के बाद सोने के समय अपूर्वा ने बात की शुरुआत की, “इधर मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं चल रही है.”
“क्यों? क्या हुआ?” वह सोने के लिए करवट बदलते हुए बोले.
“ब्लीडिंग बहुत ज़्यादा हो रही थी. डॉक्टर ने सोनोग्राफ़ी करवाया, कहती हैं…”
“यूटेरस निकलवाने को कहा होगा, निकलवा दो, अब उसका क्या काम है?”
अपूर्वा संज्ञाशून्य-सी हो गयी, अपूर्व की बात सुनकर. जिस अंग ने उसके दो-दो बच्चों को नौ-नौ महीने अपने अंदर सहेजकर रखा, उस अंग को बिना कारण जाने निकलवा देने की बात कहकर अपूर्व खर्राटे लेने लगे थे.
अपूर्वा की नींद उड़ गई. अब तो उसकी भी ज़रूरत इस घर में नहीं है. उसकी बीमारी के बारे में भी जानकर हो सकता है, अपूर्व कहें, “मरने दो, उसकी अब क्या ज़रूरत है.”
अपूर्वा दो दिन बाद बिना किसी को कुछ बताए वापस लौट आई. अपने प्रति अब वह और लापरवाह हो गई. उसकी तबीयत ख़राब होती जा रही थी. एक दिन ऑफ़िस में ही बेहोश हो जाने पर उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, तब सबको उसकी बीमारी का पता चला.
डॉ. भल्ला बहुत ग़ुस्सा हो रही थीं. “एक साल पहले ही मैंने इन्हें ऑपरेशन के लिए कहा था. इनकी लापरवाही से बीमारी फैल गई है. ऑपरेशन तुरंत करना होगा.”
स्कूल का पूरा स्टाफ़ उनकी चिरौरी कर रहा था. अपूर्वा की ज़िद थी कि घर पर मेरे मरने से पहले किसी को ख़बर न की जाए, वरना मैं ऑपरेशन थियेटर में जाऊंगी ही नहीं. रीता ने उसे आश्वासन दिया कि किसी को ख़बर नहीं होगी, तुम ऑपरेशन करवाओ. अपूर्वा की सूनी-सूनी आंखें देखकर रीता की आंखें भर आईं. ऐसे व़क़्त पति और बच्चों का कितना भरोसा रहता है?
ऑपरेशन कल होना था. रीता ने कुछ सोचकर अपूर्व को ईमेल कर दिया-
मिस्टर भारद्वाज, आपकी पत्नी और आपके दोनों बच्चों की मां अपूर्वा आज जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है. उसे कैंसर है. पिछले एक साल से उसे अपनी बीमारी का पता था, लेकिन उसने किसी को नहीं बताया. आप लोगों के बीच क्या परेशानी है, यह तो मुझे जानने का हक़ नहीं, लेकिन यह ज़रूर कहूंगी कि औरत को केवल काम करने वाली मशीन न समझकर जीती-जागती भावनाओं और संवेदना से पूर्ण नारी समझते, तो अपूर्वा की ऐसी स्थिति न होती. मैंने अपनी सखी के मना करने के बावजूद आपको ख़बर करना उचित समझा, आगे आपकी मर्ज़ी. ऑपरेशन कल है.
- रीता सिंह
मेल पढ़ते ही अपूर्व को चक्कर आ गया. उनका प्रेशर अचानक बढ़ गया था. सामने बैठा ऑफ़िसर उन्हें डॉक्टर के पास ले गया. बच्चे पिता के बेहोश होने से चिंतित थे. मां की बीमारी जानकर दोनों सकते में आ गए. शाम तक अपूर्व का प्रेशर नॉर्मल हुआ, तो अगली सुबह तीनों प्लेन से रायपुर आ गए.
शिखा रास्ते भर रोती आई, “दस साल से मम्मी नौकरी के कारण हमसे अलग रह रही हैं. साल में गर्मी की छुट्टियों में ही आ पाती हैं. पिछले साल तो वह आईं भी नहीं. शिखर तो फ़ोन कम ही करता था, दो महीने से मैं भी तो उनसे बात नहीं कर पाई.” सब बातों का लेखा-जोखा शिखा अब कर रही थी.
रीता ने दोनों बच्चों के सामने ही अपूर्व को अपूर्वा की बीमारी का इतिहास और उसकी टूटती हुई मनःस्थिति से अवगत कराया.
शिखर रुआंसा होकर कहने लगा, “आंटी, पढ़ाई का प्रेशर रहता है. मैंने जान-बूझकर मम्मी को कभी हर्ट नहीं किया. वह हमें डांट सकती थीं. मगर इतनी छोटी-छोटी बातों को वह मन में समेट लेंगी, ये हम लोग नहीं समझ पाए.”
“तुम्हारी मम्मी को भी काम का बहुत प्रेशर रहता है. उन्होंने भी अकेले तुम दोनों की परवरिश की. आजकल बच्चों की भावनाओं को समझने की बातें तो काफ़ी की जाती हैं, लेकिन बढ़ते बच्चों की बातों का बुढ़ापे की ओर अग्रसर अभिभावकों पर भी असर पड़ता है. जैसे टीनएजर्स में हार्मोनल परिवर्तन से ग़ुस्सा, उत्तेजना बढ़ती है, वैसे ही पैरेंट्स ख़ासकर मां भी अपने आपको उम्र के इस मोड़ पर असुरक्षित महसूस करने लगती है. ऐसे में उसे भी परिवार से भावनात्मक संबल की आवश्यकता होती है, जो तुम लोग अपूर्वा को नहीं दे पाए.”
रीता अपूर्वा की संवेदना को अपनी भाषा में व्यक्त कर रही थी. उसने मिस्टर भारद्वाज को ख़बर तो कर दी थी, लेकिन डर रही थी कि कहीं उसने ग़लती तो नहीं की? अपूर्वा से किया वादा उसने तोड़ा था, अपूर्वा इन लोगों को देखकर पता नहीं कैसे रिएक्ट करे?
अपूर्वा को होश आने लगा था. सबसे पहले उसकी नज़र सामने खड़े अपूर्व पर पड़ी. अपूर्व की प्रेम में डूबी, पनियाई आंखों को देखते ही अपूर्वा के चेहरे पर उस स्थिति में भी जो चमक कौंध गई, उसे रीता ने गहराई से महसूस किया. अपूर्वा ने बगल में बैठी बेचैन शिखा की हथेली को हल्के से दबाया, स्पर्श की इस गर्माहट से मां-बेटी के रिश्तों के बीच खड़ी पूर्वाग्रह की क्षीण
दीवार पिघलकर आंखों के रास्ते बहने लगी.
लगातार खोजती निगाहें थक गईं, तो उसके मुंह से पहला क्लांत प्रश्नवाचक शब्द निकला, “शिखर?”
शिखर उसके सिरहाने मुज़रिम की भांति खड़ा था, लपककर सामने आ गया. उसे देख अपूर्वा ने कहा, “पाऽनी” शिखर ने रुमाल भिगोकर उसके सूखे होंठों को पोंछ दिया. अपूर्वा ने परम तृप्ति से आंखें बंद कर लीं.
रीता सोच रही थी, ‘अब अपूर्वा को कुछ नहीं होगा. उसके संबंधों के बंधन इतने कमज़ोर नहीं कि छोटी-मोटी घटनाओं के आघात से टूट जाएं. अपने परिवार का प्यार पाकर वह अब पूर्ण स्वस्थ होकर ख़ुशहाल जीवन जीएगी, यह मेरा विश्वास है. मैंने मिस्टर भारद्वाज को ख़बर करके जो ग़लती की थी, वो सही थी.’
- विभा सिंह
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