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कहानी- सल भरी साड़ी (Short Story- Sal Bhari Saree)

मीनू त्रिपाठी

“तुम मुझे पहचान गए थे सुब्बू...” अपने सुब्बू के चेहरे पर टकटकी लगाए वह भीगे स्वर में बोलीं  तो उसने उनके दोनों हाथ थाम लिए... “अपने भगवान को कैसे न पहचानता. आप न होतीं, तो शायद मैं इस मंच पर न होता. आपकी श्रेष्ठता इस अवॉर्ड से नहीं, मुझ जैसे को अवॉर्ड देने के लिए मुख्य अतिथि के रूप में बुलाए जाने में सिद्ध होती है.”  

“बधाई हो, आपने तो हमारे स्कूल का नाम रोशन कर दिया.” मंच से उतरकर प्रशस्ति पत्र और सम्मान की शॉल संभालती राजेश्‍वरी सेन को उनके स्कूल की वाइस प्रिंसिपल  ने बधाई दी, तो वो कृतज्ञता से गर्दन झुकाकर ‘धन्यवाद मैडम...’ कहते हुए अग्रिम पंक्ति में वाइस प्रिंसिपल के साथ वाली कुर्सी पर बैठ गईं.

पूरे प्रांत में राजेश्‍वरी सेन का चयन सर्वश्रेष्ठ अध्यापिका के रूप में होने से ‘आदर्श महाविद्यालय’ का नाम रोशन हो गया था. अपने स्कूल की सीनियर अध्यापिका राजेश्‍वरी सेन का मान बढ़ाने के लिए सम्मान समारोह में प्रतिनिधि के रूप में उनके साथ आईं आदर्श विद्यालय की वाइस प्रिंसिपल ने नोटिस किया कि मंच पर चढ़ने से पहले जो उमंग, तेज और ख़ुशी राजेश्‍वरी सेन के चेहरे पर दिखी थी, वो अब नदारद थी.

चेहरा क्लांत और बेचैनी से रह रहकर पहलू बदलती असहज सी राजेश्‍वरी सेन को देख वाइस प्रिंसिपल ने उन्हें टोक ही दिया, “क्या हुआ राजेश्‍वरी जी? सब ठीक तो है न! आप कुछ परेशान सी लग रही हैं.”

“नहीं तो, ठीक तो हूं.” कहकर राजेश्‍वरी सेन मुस्कुराईं ज़रूर, पर होंठों पर आई मुस्कान आंखों तक न पहुंच सकी. क्या और कैसे साझा करती वह अपनी मनःस्थिति वाइस प्रिंसिपल से... सभागार में बैठे सभी लोग राजेश्‍वरी सेन की  सफलता पर रश्क कर रहे हैं. वह स्वयं भी तो इस दिन का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थीं. पर जो कटु अनुभव अभी-अभी मंच पर हुआ, जिसे उन्होंने, स़िर्फ उन्होंने ही महसूस किया है, जिसे महसूसते हुए अपमान से तप्त कपोल लाल हुए जा रहे हैं, उसे क्या किसी को बताया जा सकता है.

“मैडम, पुरस्कार लेते समय कलेक्टर सर के साथ मेरी फोटो ले लीजिएगा...” किसी अन्य स्कूल की अध्यापिका ने मंच पर चढ़ने से पहले राजेश्‍वरी सेन से विनती की, तो वह चौंकते हुए विचारों के भंवर से बाहर आईर्ं. उन्होंने गहरी नज़र से अमुक अध्यापिका की बिना सलवट की रेशमी साड़ी पर नज़रें फिराईं, फिर उससे मोबाइल ले लिया. बेमन से बैठे-बैठे ही आड़ी-टेढ़ी दो-चार तस्वीरें ले लीं. वह जितनी बार मोबाइल के कैमरे से स्टेज पर खड़े पुरस्कार देते कलेक्टर साहब को देखती, क्रोध और अपमान से सर्वांग जल उठता. राजेश्‍वरी नोटिस कर रही थी कि कलेक्टर साहब की नज़रें भी रह-रहकर उन  पर ही टिक रही हैं. कुछ देर पहले की मनःस्थिति वर्तमान मनोदशा से कितनी अलग थी. कितने शान से वह  राज्य स्तर के सम्मानित पुरस्कार के लिए मंच पर चढ़ी थीं. कलेक्टर साहब ने मुस्कुराकर गोल्ड मेडल उनके गले में डाला. प्रशस्ति पत्र और इक्कीस हज़ार का चेक जब उसे थमाया गया, तो सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था.

राजेश्‍वरी सेन का उत्साह देखते ही बनता था.  चेहरे की आभा बता रही थी कि जीवनभर छात्रों के प्रति समर्पित रहने का प्रतिफल उन्हें आज कितना आनंदित कर रहा है. कलेक्टर से सम्मान पुरस्कार लेने के बाद बेहतर तस्वीर खींचने की लालसा में फोटोग्राफर ने जब कलेक्टर साहब से एक बार और पुरस्कार देने का पोज़ बनाने का अनुरोध  किया, तो वह भी ख़ुशी-ख़ुशी पुरस्कार लेने की मुद्रा में कलेक्टर साहब के बगल में खड़ी हो गईं. कैमरामैन ने लेंस उनकी ओर फोकस किया तो वह लगातार मुस्कुराती रही थीं कि तभी कलेक्टर साहब तिर्यक मुद्रा में मुस्कुराते हुए उसकी ओर झुकते हुए फुसफुसाए, “मैडम आपकी साड़ी में कितने सल पड़े हैं. लगता है आप अपनी साड़ियों का ध्यान नहीं रखतीं.” कलेक्टर के मुंह से निकले धीमे शब्द कानों में पड़े, तो वह सन्न रह गईं. ये क्या कह दिया उन्होंने. कोई उनकी साड़ी पर यूं वाहियात टिप्पणी कर सकता है, वह भी ऐसे मौक़े पर. यह कल्पना से परे था. बस में होता तो एक पल वहां न रुकती. कलेक्टर के कहे का क्या मंतव्य था? क्या वाकई सल भरी यानी सिलवटों वाली साड़ी मौक़े की गरिमा को फीका कर गई.

आज सुबह नौ बजे ही वह सभागार में पहुंच  गई थी. पतिदेव टूर पर थे, यहां होते तो इस ख़ास दिन स्वयं छोड़ने आते. काश! ऐसा हो पाता तो कितना अच्छा होता. कम से कम उसकी साड़ी में न सल पड़ती, न फज़ीहत होती. पर होनी को कुछ और मंज़ूर था. मिस्टर सेन को दूसरे शहर काम से जाना पड़ा और उसे अवॉर्ड फंक्शन में बस से आना पड़ा. बस में कितनी भीड़ थी. लाख संभाली साड़ी, पर सल पड़ ही गई.

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काश! टैक्सी ही ले लेती या ऐसी साड़ी पहन लेती जिसमें सल ही न पड़ते, पर बात क्या वाकई सल की थी? नहीं, बिल्कुल नहीं. बात तो थी कलेक्टर की सोच और टोक की. साड़ी से ज़्यादा सल राजेश्‍वरी के माथे पर पड़ गए थे. अपमान और क्षोभ से भरी हुई वह आज के पुरस्कार समारोह में अपनी साड़ी के चुनाव के लिए स्वयं को मन ही मन रह-रहकर कोसती रही.

कल रात पूरे वॉर्डरोब को खंगाल डाला था, पर आज के इस ख़ास मौ़के पर पहनी जाए, ऐसी कोई साड़ी उन्हें समझ में नहीं आ रही थी. लगभग सभी साड़ियां कई-कई बार पहनी जा चुकी थीं. एक-दो जो नहीं पहनी थी, उनमें एक सिल्क की थी जिसे उमस भरी गर्मी में पहनना ठीक नहीं लगा. दूसरी में गोटा-जरी इतना था कि वह इस मौक़े की गरिमा को फीकी कर सकती थी. अरगंडी की गुलाबी साड़ी पर मन रह-रहकर अटक रहा था. नई साड़ी थी फिर भी रखे-रखे इसमें कुछ सल पड़ ही गई, जिसे अपनी समझ से उन्होंने इस्त्री करके निकाल दिया था. फिर भी... राजेश्‍वरी सेन अचानक खड़ी हुईं और विकलता से माथे पर हाथ धरकर वाइस प्रिंसिपल से बोलीं, “मैडम, कुछ तबीयत सही नहीं लग रही है. ये कार्यक्रम तो घंटा-डेढ़ घंटा चलेगा. मैं थोड़ी देर...” “हां-हां राजेश्‍वरी मैडम, मुझे भी आप कुछ ठीक नहीं लग रही हैं. बाहर खुली हवा में बैठ जाइए. आपको अच्छा महसूस होगा.” राजेश्‍वरी सेन तेज़ी से सभागार से बाहर निकल आईं और दूर... बहुत दूर तक चलती चली गईं. पर ‘आपकी साड़ी में कितने सल हैं, लगता है ध्यान नहीं देती...’ इन शब्दों ने पीछा नहीं छोड़ा. सारा मूड चौपट हो गया.

अच्छा हुआ जो पतिदेव साथ नहीं आए, वरना उनके उखड़े मिजाज़ को देख सब उगलवा लेते और उगलवाने के बाद जाने क्या करते क्या कहते? वॉर्डरोब साड़ियों से भरी हैं बावजूद इसके एक साड़ी अपमान का कारण बन गई, यह उन्हें ज़रूर खलता... और क्या पता, बददिमाग़ कलेक्टर को सुना भी देते.

आश्‍चर्य था कि इतने ऊंचे ओहदे पर बैठा व्यक्ति इस बात को लेकर ओछी टुकाई कैसे कर सकता है. खुले आसमान के नीचे नीम के पेड़ के चबूतरे पर बैठकर उन्होंने आंखें मूंद लीं, तो कुछ अच्छा लगा.  इधर-उधर भागते विचारों पर अंकुश लगाना चाहती थीं, पर असफल रहीं. सहसा अवचेतन से कुछ क़िरदार ख़ुद-ब-ख़ुद निकल-निकल कर मस्तिष्क में छाने लगे.

धुंधलाई स्मृतियों में राजस्थान शहर की वो कॉलोनी काबिज़ हो गई, जहां आज से तक़रीबन पंद्रह साल पहले उन्होंने पतिदेव के साथ नई-नई शिफ्टिंग की थी. अटैची में ठुंसी हुई मुड़ी-तुड़ी सूती साड़ी निकालकर जब उसके कोमल हाथों  में थमाई थी, तब उसने यही कहा था... “आपकी साड़ी में तो बहुत सल हैं आंटी जी... दो रुपया ज़्यादा लगेगा पर देखिएगा, सब निकाल दूंगा. बढ़िया प्रेस करता हूं.” बारह-तेरह साल का लड़का ढेर सारी मासूमियत लिए पांचवें माले के टू बेडरूम वाले फ्लैट के दरवाज़े पर खड़ा था. “तुम प्रेस करोगे!” उन्होंने आंखें फैलाकर पूछा. जवाब में उसने अदा से गर्दन झटककर आत्मविश्‍वास से हामी भरी.

गौर से उस लड़के को देखते हुए उन्होंने पूछा, “स्कूल नहीं जाते क्या?” “जाता क्यों नहीं...” तिर्यक मुद्रा में हाथ कमर पर रखे वह बड़े ठसक से बोला था.

“अच्छा!” उसके अंदाज़ और आत्मविश्‍वास पर उनके होंठों पर मुस्कान आ गई. फिर दूसरा सवाल...

“किस क्लास में?”

“आठवीं में...”

“तो पढ़ाई करो. प्रेस-व्रेस क्यों करते हो?” उनकी बुद्धिहीनता पर वह अजीब तरह से मुस्कुराया. मुस्कुराहट में खिल्ली छिपाए उसने प्रतिप्रश्‍न किया, “फीस का पइसा कहां से आएगा?” उसके दुस्साहस पर वह चकित हो गई, पर वह बिना परवाह ज्ञानियों की तरह बोलता रहा, “सब ऐसा ही क्यों बोलते हैं कि पढ़ने की उमर है तो पढ़ो. अरे, पढ़ते तो हैं ही, साथ काम भी करते हैं. क्या पढ़ने वाले काम नहीं करते!”

“बहुत बोलते हो तुम!” उन्होंने उसे हल्का सा डपटते हुए चुप कराया और अपनी झेंप छुपाते हुए साड़ी पर हाथ फेरते हुए पूछा,  “कितना लोगे?”

“बारह रुपया साड़ी का और बाकी कपड़ा आठ रुपया जोड़ी... चद्दर दस रुपया.”

“बहुत ज़्यादा है, ठीक ठीक बोलो.”

“ठीक ही बोला है.” वह इत्मीनान से बोला.

“अरे, मेरी साड़ियां बहुत निकलेंगी. कुछ तो कम करो. दस में साड़ी और बाकी कपड़ा पांच रुपया जोड़ी... चद्दर के छह...” मोलभाव सुनकर उसने अड़ियलपने से न में सिर हिलाया. तो उसने उस लड़के को बाकायदा धमकाया, “जितना बोला है, उतना ही दूंगी. उससे ज़्यादा एक पैसा नहीं.” “क्या ज़रा से पैसे के लिए उलझती हो! घर आकर ले जाएगा ये क्या कम है. जो कह रहा है उसी में तय कर लो.” बैठक में सोफे पर बैठे अख़बार आंखों के सामने ताने उनके उदार पति मिस्टर सेन ने उस प्रेस वाले लड़के का उद्धार किया. उस दिन से वह हर तीसरे दिन शाम को कपड़े ले जाता और दूसरे दिन शाम को दे देता.

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एक दिन मिस्टर सेन ने उससे इस्त्री किए कपड़ों की गठरी ले ली और पैसे लाने कमरे में चले गए. जब वह पैसे लेकर काफ़ी देर तक वापस नहीं आए, तो उस लड़के ने धीरे से दरवाज़े से झांका. वह बैठक से लगे डाइनिंग एरिया में डाइनिंग टेबल पर ही कॉपियों का ढेर लगाए उन्हें जांच रही थीं.

“आप टीचर हो?” दरवाज़े से झांकते हुए उसने पूछा तो उड़ती सी नज़र उस पर डालकर ‘हूं...’ कहकर उन्होंने फिर से नज़र कॉपी पर गड़ा ली. “क्या पढ़ाती हो?”

“अंग्रेज़ी...” बिना सिर उठाए उसने जवाब दिया. “मेरी अंग्रेज़ी बहुत कमज़ोर है.” उस लड़के ने कहा और जवाब पाने की प्रतीक्षा में आस भरी नज़रें उस पर टिका दीं. पर वह बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप कॉपी जांचती रहीं.

“मुझे पढ़ाएंगी?” अब की उसने सीधे से ही पूछ लिया. उस लड़के की हिम्मत पर उन्होंनेे  चौंककर सिर उठाया.

“टयूशन फीस दूंगा...” उसने उनकी आंखों में आंखें डालकर कुछ ऐसे कहा मानो रिश्‍वत देने की पेशकश कर रहा हो. ज़रा से लड़के की हिम्मत पर उनकी आंखें आश्‍चर्य में चौड़ी हुईं, फिर सिकुड़ीं...  

“कितनी...?” उन्होंने भी गहरी नज़र से उस लड़के को तौला.

“साड़ी मुफ़्त में प्रेस कर दिया करूंगा.” उसके जवाब और हिमाकत पर उनकी हंसी छूट पड़ी. उस हंसी में उसने डील पक्की समझी और दूसरे दिन ही वह किताबें ले आ धमका... उसकी सेकंड हैंड किताबें उन्होंने उलटी-पलटी, फिर कुछ ग्रामर के बेसिक बताए. एक पैसेज अनुवाद करने को भी दिया.

दूसरे दिन फिर वह प्रेस के कपड़ों के साथ कॉपी-किताब लिए चला आया. और फिर तो नियम बन गया. वह आता और एक घंटा पढ़कर अपने घर जाता. वह प्रेस वाले कपड़ों के पैसे देती, तो वह हंसते हुए साड़ी के पैसे लेने से मना कर देता. पर वह ज़बरदस्ती पैसे थमा देती तो वह, ‘न तुम्हारी न हमारी’ भाव से दो रुपए वापस कर देता. गोया कि साड़ी के दस रुपए ही लेता.

उसकी मेहनत और पढ़ाई के प्रति लगन देखकर वह उससे कहने लगी थीं, “सल रह जाए तो कोई बात नहीं, पर दिया हुआ अभ्यास न छोड़ना...” जाने कब और कैसे वह उसकी पढ़ाई की परवाह करने लगी थीं. उसे मीठी झिड़की देते हुए जब वह कहतीं, “कपड़े प्रेस करके समय खोटी मत किया करो. तुम कपड़े प्रेस करने के लिए नहीं बने हो. पढ़-लिखकर कुछ बन जाओगे तो तुम्हारे साथ परिवार की क़िस्मत भी चमक उठेगी. कपड़े तुम पिताजी से ही प्रेस करवाया करो.” वह भी हंसकर बोलता, “जो भी हो जाए, आपकी साड़ी तो मैं ही प्रेस करूंगा.” उसके भावों से अभिभूत हो वह उसके स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए एक तरफ़ तो स्कूल से लाई किताबें और नोट्स उसे देतीं, वहीं दूसरी तरफ़ जब वह आता, तब एक साड़ी पकड़ा देतीं.

पतिदेव हंसकर कहते, “या तो  पढ़ा लो या प्रेस करवाओ. बस उसे इस्तेमाल मत करो.” वह जवाब देतीं, “इस्तेमाल नहीं कर रही हूं. पैसे देती हूं. स्ट्रगल के साथ पढ़ेगा, तो पढ़ाई के महत्व को भी समझेगा.” और वाकई वह महत्व समझने लगा था.

“मैडम जी, इस घर को आप कभी मत छोड़ना.” वह अक्सर कहता. जब वह ऐसा कहता, तब उसकी आंखों में अज्ञात भय साफ़ झलक उठता. उसे डर था कि कहीं वह चली गईं, तो उसकी लगभग मुफ़्त की टयूशन चली जाएगी. फिर क्या पता पढ़ाई में लगे गेयर में ब्रेक ही न लग जाए. वह उसे समझतीं और फिर समझातीं, “सुब्बू, मैं यहां रहूं न रहूं, तुम किसी भी हालत में पढ़ाई बंद मत करना.”

“मैडम जी, आपकी वजह से पढ़ाई में मेरा मन लगता है. आप ही तो हो, जिसे मेरी पढ़ाई की चिंता होती है.”

“वो तुझे लगता है सुब्बू. सच यह है कि तेरे भीतर शिक्षा की लौ जल गई है, अब यह नहीं बुझेगी. ये जो शिक्षा की चाभी है न, यही  तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य पर लगे बंद ताले को खोलेगी.” उनकी गूढ़ और गहरी बातें वह समझने में असमर्थ होता, तो वह पढ़ाई के दौरान उसे ऐसे महान लोगों के ढेरों क़िस्से सुनातीं, जिसमें फ़र्श से अर्श तक पहुंचने का संघर्षपूर्ण  विवरण होता. सुब्बू बड़े ध्यान से सुनता. सुनते समय उसके माथे पर लकीरें सी बन जातीं और आंखों की चमक बढ़ जाती. कुछ एक वर्षों में सुब्बू में एक और परिवर्तन आया था. वह अब बोलता कम और सुनता ज़्यादा था. उसकी आंखों में सुनहरे भविष्य के उगते सपने उन्होंने कई बार देखे थे. वो आंखें वह कैसे भूल गईर्ं. “मैडम आपकी साड़ी में कितने सल हैं...” बोलते कलेक्टर की मुस्कुराती आंखों को ध्यान से देखतीं, तो पहचान पातीं... पर उन्होंने तो लज्जा से नज़रें फेर ली थीं. रक्त धमनियों में रफ़्तार से बहने लगा. शरीर भी कांपने लगा था. तो क्या कलेक्टर सुबोध चन्द्र घोष... क्या वही सुब्बू... वह हथेलियों से सिर को दबाने लगीं.

“राजेश्‍वरी मैडम, आप यहां बैठी क्या कर रही हैं. आप तो आज स्टार से सुपर स्टार बन गई हैं. कल के अख़बार में कलेक्टर साहब की स्टोरी में आपके नाम का उल्लेख, हमारे स्कूल का नाम और ज़्यादा रोशन कर जाएगा.” वाइस प्रिंसिपल की आवाज़ सुनकर वह अचकचाकर खड़ी हो गईं. वाइस प्रिंसिपल के चेहरे पर अथाह उतावलापन और रोमांच था.

“आपने जो किया, वह हर शिक्षक का कर्तव्य है, पर कितने लोग अपने कर्तव्य की पूर्ति कर पाते हैं. कितने लोग सुब्बू को इस मुक़ाम तक पहुंचा पाते हैं.”

“सुब्बू! अरे हां, वह सुब्बू ही है, पर आपको ये सब कैसे पता!”

“मुझे क्या... सभागार में बैठे सभी लोग आपके और कलेक्टर साहब के बारे में जानकर अभिभूत हैं. अभी-अभी अपने भाषण में उन्होंने आपका उल्लेख किया, बल्कि अभी भी कर रहे हैं.”

“क्या सुब्बू को सब याद है!” “याद है! क्या बात कर रही हैं आप. अरे उनका तो रोम-रोम आपका आभार मान रहा है और माने भी क्यों न, आख़िर कौन कर पाता है वो जो आपने किया.”

“मैंने ऐसा क्या कर दिया...” शून्य में निहारती राजेश्‍वरी सेन यूं बुदबुदाईं मानो किसी और लोक में विचर रही हों. वाइस प्रिंसिपल ने आह्लादित होकर उन्हें  गले से लगा लिया और कहने लगीं, “अरे चलिए अब... कलेक्टर साहब अधीर हैं आपसे मिलने के लिए. बार-बार पूछ रहे हैं कि मैडम चली कहां गईं. और आप हैं कि यहां आकर बैठी हुई हैं.” कुछ ही देर में भावनाओं में डूबती-उतराती राजेश्‍वरी सेन, वाइस प्रिंसिपल के साथ जैसे ही सभागार में प्रविष्ट हुईं, तालियों की गड़गड़ाहट  से सभागार देर तक गूंजता रहा. कलेक्टर साहब अपने स्थान से उठकर जब राजेश्‍वरी सेन के पास आए और भावना के अतिरेक में झट से उनके पांवों में झुक गए   तो वह सिर पर हाथ फेरकर अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करती रहीं. जब आंसू भावनाओं के बांध तोड़ने को आतुर हुए तो ख़ुद से एक हाथ ऊंचे सुब्बू के सीने से लगकर वह फफक पड़ीं. भावनाओं के ज्वार में सब बह निकले थे. माहौल भावुक हो गया. हर आंख नम थी.  क़िस्से-कहानियों में पढ़ी-सुनी बातों को अपने सामने आकार लेता देख सभी विस्मित और भावुक थे. जलपान के बाद फ़ुर्सत के पलों में सुबोध चन्द्र घोष उ़र्फ सुब्बू ने बताया, “मैडम, आपके जाने के बाद साड़ी प्रेस करना छोड़ दिया था या यूं कहें पिताजी ने ही छुड़वा दिया था. आगे बढ़ने का और कुछ कर गुज़रने का जो बीज आपने मेरे मन में बोया था, उसको पल्लवित होते मेरे पिताजी ने देख लिया था. वह समझ चुके थे कि मेरे जीवन के लक्ष्य अलग हैं.” सुबोध चंद्र की भावुकता उसे भी बहाए ले जा रही थी...

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“आपका ऋण कभी चुका पाऊंगा क्या... अक्सर आप याद आती रहीं. इस तरह से मिलूंगा नहीं सोचा था.”

“तुम मुझे पहचान गए थे सुब्बू...” अपने सुब्बू के चेहरे पर टकटकी लगाए वह भीगे स्वर में बोलीं, तो उसने उनके दोनों हाथ थाम लिए...

“अपने भगवान को कैसे न पहचानता. आप न होतीं, तो शायद मैं इस मंच पर न होता. आपकी श्रेष्ठता इस अवॉर्ड से नहीं, मुझ जैसे को अवॉर्ड देने के लिए मुख्य अतिथि के रूप में बुलाए जाने में सिद्ध होती है.”

“अरे सुब्बू! ऐसा मैंने क्या कर दिया, जो इतनी महिमा हो रही है. सच तो यह है कि तुम ख़ुद भी तो कितने परिश्रमी थे.”

“बहुत होते हैं, पर उन्हें आप जैसा मार्गदर्शन देने वाला नहीं मिलता. ऐसे में रास्ता भटक जाने का ख़तरा तो रहता ही है.” वह कभी न भूलने वाला दिन था सुब्बू से कलेक्टर सुबोध चंद्र बनने का. एक-एक पल अपने अंतर्द्वंद का एक-एक लम्हा उन्होंने मिस्टर सेन से साझा किया. दूसरे दिन अख़बार में बड़े-बड़े शब्दों में सुब्बू से कलेक्टर सुबोध चंद्र घोष के सफ़र की कहानी मय तस्वीर छपी थी. सुबह से जाने कितनी बार वह उन इबारतों को पढ़ चुकी थी, जिसे कल सुब्बू ने सार्वजनिक किया था. यदि सभी शिक्षक राजेश्‍वरी सेन जैसे हो जाएं, तो देश की तस्वीर बदलते देर नहीं... शिक्षण महज जीविका नहीं... जीवन है.  प्रतिभा संपन्न बच्चों को दिया ज़रा सा सहारा और समय उनके जीवन की दिशा और दशा बदल सकता है. सुविधाओं से वंचित बच्चों के लिए कुछ कर गुज़रने की भावना आज हर शिक्षक में होनी चाहिए... कितना कुछ अख़बार में लिखा था. फोन पर बधाइयों का तांता थम ही नहीं रहा था.

“तुम्हारे बेस्ट टीचर अवॉर्ड ने तो बड़े-बड़े अवॉर्ड को पीछे छोड़ दिया. आय एम प्राउड ऑफ यू...” मिस्टर सेन के कहने पर उनकी आंखों के सामने सुब्बू उर्फ़ कलेक्टर साहब के शब्द गूंज  गए, “आपकी साड़ी से सल हटाते-हटाते मेरे भविष्य पर पड़े सिलवटें हट गईं.” राजेश्‍वरी सेन अपने अबोधपने पर हंस दीं.

“साड़ी में कितने सल हैं...” इस वाक्य में तिरस्कार कहां से ढूंढ़ लिया उन्होंने... कैसे न पल भर में ही जान पाईर्ं कि इस वाक्य में तो पुरानी स्मृतियों को जीवंत करने का मासूम सा प्रयास छिपा था.

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